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________________ चचरी सारई बहु थुइ थुत्तइ चित्तइं जेण कय, तसु पय कमलु जि पणमहि ते जण कयसुकय ॥७॥ अर्थ-जिनके बनाये हुए विचित्र चक्र-खड्ग आदि आकार बाले षट्चक्रिका सप्त चक्रिका गजबन्ध आदि चित्र काव्य झटपट चित्त को हरते हैं, उनका दुर्लभ दर्शन पुण्य के बिना कैसे प्राप्त हो सकता है । अपितु नहीं हो सकता, जिनके बनाये हुए गुप्त क्रिया-समसंस्कृत-प्राकृत अर्ध संस्कृत गोमूत्रिकादि चित्रमयसार भूत बहुत से स्तुति स्तोत्र प्रस्तुत हैं, उन कविसम्राट् श्रीमजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज के पद कमलों में जो प्रणाम करते हैं वे पुरुष कृतपुण्य माने जाते हैं। जो सिद्धतु वियाणइ जिणवयणुब्भविउ, तसु नामु वि सुणि तूसइ होइ जु इहु भविउ । पारतंतु जिणि पयडिउ विहिविसइहिं कलिउ, सहि ? जसु जसु पसरंतु न केणइ पडिखलिड ॥ ८ ॥ अर्थ-श्री जिनेश्वर देवके वदन-कमल द्वारा प्रवचन रूपसे पैदा होनेवाले सिद्धान्त को जो विशिष्टतया जानते हैं । जिनने जिनाज्ञा प्रवर्तन रूप विधि साधु श्रावकादि विषयसे संकलित श्री मद्गुरुपारतंत्र्यको प्रकट किया है। हे-सखे ? जिनका फैलता हुआ यश कहीं किसीसे भी स्खलित नहीं हुआ। ऐसे उन महा गीतार्थ गुरुदेवके दर्शनसे तो क्या नाममात्रसे भी सुनकर जो प्रसन्नचित्त हो जाता है, वह आत्मा भव्य-मोक्षका अधिकारी है। जो किर सुत्तु वियाणइ कहइ जु कोरवइ, करइ जिणोहिं जु भासिउ सिवपहु दक्खवइ । खवइ पावु पुवञ्जिउ पर अप्पह तणउं, तासु अदंसणि सगुणहिं झूरिजइ घणउं ॥ ९॥ अर्थ-गुरुगमसे सूत्रोंको विशिष्ट रूपसे जानकर जो उपदेश सबभव्यात्माओंको फरमाते हैं, और सम्यग् धर्मानुष्ठान उनसे करवाते हैं । स्वयं भी जिनाज्ञानुसारी आचारका पालन करते हैं । श्री जिनेश्वर देवोंने जिस ढंगसे मोक्ष मार्ग बताया वैसे ही वे दिखाते हैं । इस प्रकार भव्यात्माओंके पूर्वार्जित पापको खपा देते हैं। ऐसे महाज्ञानी श्री गुरुमहाराजके दर्शन वियोगमें गुणवान-भव्यात्मा अत्यन्त खिन्न चित्तवाले हो जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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