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चर्चरी
सुहगुरुहु
कव्बु अउब्बु जु वियरइ नवरसभरसहिउ लपसिद्धिर्हि सुकइहिं सायरु जो महिउ । सुकइ माहुति पसंसहि जे तसु साहुन मुहि अयाय मइजियसुरगुरुहु ॥ ४ ॥ अर्थ- जो नवरस पूर्ण अपूर्व काव्यों की रचना करते हैं, और जो ख्याति प्राप्त सुकवियों से सादर पूजित है । बुद्धि वैभवसे वृहष्पतिको मात देनेवाले उन शुभ गुरु महाराज को भलि प्रकार न जाननेवाले अनजान आदमी ही सुकवि रूप से माघ कवि की प्रशंसा करते हैं । कालियोसु कइ आसि जु लोइहिं वन्नियइ,
ताव जाव जिणवल्लहु कइ ना अन्नियइ । अप्पु चित्तु परियाणहि तं पि विशुद्ध न य, ते वि चित्तकइराय भणिजहि मुनय ॥ ५ ॥
अर्थ — कालीदास नामक कवि था उसकी काव्यों में तबतक ही लोग तारीफ करते हैं जबतक उनने श्री जिनवल्लभरि महाराज रूप महाकविके स्वरूप को नहीं सुना है । जो थोड़े से चित्र काव्य को जानते हैं, और वह भी अशुद्ध, भोले भाले लोगों द्वारा माने हुए वैसे कवि आश्चर्य है कि कविराज रूप से गाये जाते हैं । यह बात गानेवालोंकी मुर्खता का यहि नाम मात्र है !!
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सुकइविसेसियवयणु जु प्पइराउकइ
सु विजिणवल्लह पुरउ न पावइ कित्ति कइ | अवरि अणेयविणेयहिं सुकइ पसंसियहिं तक्कव्यामयलुद्धिहिं निच्चु
अर्थ – सुकवियों द्वारा विशेषित वचन वाले गौड़वधादि रूप प्रबंन्धों के रचयिता
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कवि श्री वाक्पतिराज एवं दूसरे सुकवि जो अनेक शिष्यों द्वारा प्रशंसित होते हैं, और उन काव्यामृत लुब्धपुरुषों द्वारा नमस्कृत होते हैं, वे भी श्रीमज्जिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज रूप महाकवि के सामने कुछ भी कीर्त्ति को नहीं पाते । इस श्लोक से पूज्येश्वर की प्रौढ कवित्व शक्ति की स्तुति की गई है ।
जिण कय नाणा चित्त तसु दंसणु विणु
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नमं सियहिं ॥ ६ ॥
चित्तु हरंति लहु पुन्निहिं कउ लब्भइ दुलहु |
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