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________________ संदेह-दोलावली मूल--गोहुमघयगुलदुद्दाणि मेलितो कडाहगे पयइ । तं धणुहुज्जा पक्कन्नविगइ नियमा न दव्वं तं ॥६७॥ अर्थ-गेहूं- घृत-गुड-दूध आदि को मिलाकर कड़ाही में तला जाता है, जिसको कि नागोर के आस पास-सोलख पट्टी में "धणु हुज्जा"- गुडधाणी-लापसी जैसी वस्तुएं नियम से पक्वान्न-विगय होती है । न कि उत्कट द्रव्य मात्र। प्रश्न-किसी श्रावक की परिग्रहपरिमाण प्रमुख नियम पोथी को देखकर कोई भद्र श्रद्धाल उसी समय उन नियमों को स्वमति कल्पना से स्वीकार ले। बाद में सद्गुरु के सत्संग में उस विचार को सुने, उस समय यदि नियम भंग की संभावना से किसी प्रकार की छूट करना चाहे तो कर सकता है या नहीं? मूल---जइ कोवि अमिग्गहिओ टिप्पणयं अन्नसावयग्गहियं । पालितो वि हु तं सुगुरुदंसणे कुणइ मुक्कलयं ॥६८॥ अर्थ- यदि कोई धर्म श्रद्धालु आभिग्रहिक स्वेच्छा से अन्य श्रावक गृहित परिग्रह परिमाण के टीपने को देख कर टीपणे की व्यवस्था का अनुकरण करता हुआ परिग्रहपरिमाण का पालन करता है। वहीं सुगुरुदर्शन के बाद यदि नियम में छट करना चाहे तो कर सकता है। प्रश्न--जिस आसन शयन पर काफी देरतक बैठा सोया जाय उसी की भोगोप भोग व्रत में संख्या गिननी चाहिये ? या क्षण मात्र भी सोया बैठा जाय उन सबकी संख्या गिननी चाहिये ? मूल-जत्थोसणे निसन्नो, खणं पि तं लग्गए उ संखाए । जत्थ कडि पि हु दिज्जइ, गणिज्जए सा वि सिजति ॥६९॥ मूल-तो बहुकज्जपसाहणकए-वि परिभमइ सुबहुठाणेसु ॥ सो सयणासणमाणां लइ जइ कुणइ किर थोवं ॥ ७० ।। अर्थ-जिस आसन पर थोड़ा सा भी बैठा गया हो, जिस शय्यामें थोड़ी सी भी कमर सीधी की गई हो, उस आसन शयन की संख्या व्रती करनी चाहिये। + + + इस लिये बहुत से कामों को साधना में या यों भी घुमते हुए अपने लिये शयनासनों की संख्या अधिक रखनी चाहिये। यदि थोड़ा प्रमाण रखा जाय तो व्रत लंघन-भंग का दोष होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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