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श्री जिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फण्ड (सुरत ) ग्रन्थांक-५३
ॐ अहं नमः सुविहित शिरोमणि जङ्गम युगप्रधान भट्टारक श्री
श्री श्री १००८ श्रीमज्जिनदत्तसूरीश्वर विरचिता सर्वतन्त्र स्वतन्त्र-सर्वज्ञकल्प-सुविहितविधिविधान प्रधान प्रचारक--महाकवि श्री श्री १००८ श्री मन्जिनवल्लवसूरीश्वर स्तुति रूपा
चर्चरी अनुवादक-जैनाचार्य श्रीमज्जिनहरिसागरसूरिजी नमिवि जिणेसरधम्मह तिहुयणसामियह, पायकमलु ससिनिम्मलु सिवगयगामियह । करिमि जहट्ठियगुणथुइ सिरिजिणवल्लहह, जुगपवरागमसूरिहि गुणिगणदुल्लहह ॥ १ ॥
अर्थ-त्रिभुवनके स्वामी शिवगतिमें गये हुए जिनेश्वर श्रीधर्मनाथ स्वामीके चन्द्र के जैसे निर्मल चरण-कमलको नमस्कार करके, उस युगमें प्रधान ज्ञानवाले आचार्य देव गुणि समुदायमें दुर्लभ ऐसे श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराजके यथास्थित--सत्यगुणोंकी स्तुति को मैं करता हूं।
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