________________
संदेह-दोलावली
६६ मूल–ठवणायरिए पडिलेहियम्मि, इह साविग्गाइ वंदणयं ।
किं सावगरस कप्पइ, सामाइय माइ करणं च ॥२६॥ अर्थ- क्या श्राविका से प्रतिलेखन कराये हुए स्थापनाचार्य पर श्रावक को वन्दन करना उचित है ? और सामायिक पौषध आदि करना भी क्या ठीक है ? मूल-कप्पइ न एगकालं, वंदणसमाइयादि काउं जे ।
एगरस पुरो ठवणायरियरस य सडसड्ढीणं ॥२७॥ अर्थ-उपर के प्रश्न के जवाब में कहते हैं कि-हां कल्पता है। परन्तु एक काल में एक ही स्थापनाचार्य जो के सामने श्रावक श्राविकाओं को एक साथ में वन्दन सामायकादि अनुष्ठान करना नहीं कल्पना है। अलग २ स्थापनाचार्य होने चाहिये । प्रतिलेखन मेल कोई करे । एक स्थापना चार्य पर तो एक के-श्रावक के या श्राविकाके अनुष्ठान हो जानेपर ही दूसरा-श्रावक या श्राविका अनुष्ठान करें। एक साथ नहीं । मूल-उस्सुत्तभासगाणं, चेइयहरवासिदव्वलिंगीणं ।
जुत्तं किं सावय-सावियाणं वक्खाणसवणं त्ति ॥२८॥ अर्थ-- उत्सूत्र भाषण करने वाले चैत्यवासी या घर में रहने वाले द्रव्य लिगी साधुओंका व्माख्यान सुनना क्या श्रावक श्राविकाओं को उचित है ? __ मूल-तित्थे सुत्तत्थाणं, सवणं तित्थं तु इत्थ णाणाई।
गुणगणजुआ गुरु खलु, सेससमीवे न तग्गहणं ॥२५॥ अर्थ--उपर के प्रश्न के जवाव में फरमाते हैं कि- सूत्र और अर्थ का सुनना तीर्थ में ही ठीक होता है , और तीर्थ-तिराने वाले यहां ज्ञानादि गुण ही हैं। उन गुण समुदाय से संपन्न साधु ही गुरु हो सकते हैं। गुरु के पास में ही सूत्र-अर्थ सुनना चाहिये। दूसरो के पास में सूत्रार्थ का ग्रहण अनुचित है। मूल-इहरा ठेवइ कन्ने, तस्सवणा मिच्छमेइ सा विहू ।
अबलो किमु जो, सड्ढा जीवाजीवाइअणभिन्ना ॥३०॥ अर्थ-कदाचित् उन चेत्यवासी या स्वच्छंदाचारियों के स्थान में जाना ही पड़े तो शक्ति सम्पन्न साधु इसका प्रतिबाद करे। प्रतिवाद करने की हालतमें न हो तो - अपने दोनों कानोंको स्थगित कर दें। क्यों कि उन शिथिला चारियों की धर्मकथा को सुनने से अपरिपक्वज्ञानवाला साधु भी मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। सैद्धान्तिक ज्ञान से निर्बल और जीवाजीवादि तत्वों से अनभिज्ञ ऐसे श्रावक के लिये तो कहना ही क्या ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org