SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संदेह-दोलावली अर्थ-आगमों से विपरीत बातों को वोलने वाले जो हैं वे स्वच्छन्दी दुष्कर क्रिया करनेवाले हों तो भी उनका दर्शन करना नहीं कल्पता है। ऐसा कल्प में कहा है। कल्प की बात बताते हैंमूल-जे जिणवयणुत्तिन्नं वयणं भासंति जे य मन्नंति । अहवा सविट्ठीणं तदसणं पि संसारखुड्डिकरं ॥९१॥ अर्थ-जो जिन वचनो से विपरीत बोलते हैं, विश्वास करते हैं । उनका दर्शन सम्यकत्वियों के लिये संसार वृद्धि का कारण होता है। X पांच प्रकार के आचारों का स्वरूप बताते हैंमूल-नाणम्मि दसणम्मि य चरणं मि तवंमि तह य वीरियंमि । आयरणं आयारो इय एमो पंचहा भणिओ॥ अर्थ-१-ज्ञान में प्रवृत्ति-ज्ञानाचार-२-श्रद्धा बढ़ाने में प्रवृत्ति-दर्शनाचार-३-सदाचार में प्रवृत्ति चारित्राचार-४-तपश्चर्या में प्रवृत्ति तपाचार और-५-शासन सेवा में प्रवृत्ति वीर्याचार | ऐसे आचार पाँच प्रकार का बताया है। पांच आचारों के प्रत्येक के भेदों की संख्या बताते हैंमूल-नाणं दसणमहचरणमत्थि पत्तेयमट्ठभेइल्लं । वारस तवम्मि छत्तीस वीरिए हुँति इमे मिलिया ॥१३॥ अर्थ-ज्ञानाचार दर्शनाचार और चारित्राचार प्रत्येक आठ अठ भेदवाला होता है। तपाचार में बारह भेद कुल मिलाने से ये छत्तीस भेद होते हैं। वीर्याचार में उपरोक्त छत्तीसों ही भेद होते हैं। जिस विधि से आलोचना-तप किया जाता है, वह कहते हैं - मूल-आलोयणातवो पुण इत्थं एगासणं तिहाहारं । पुरिमट्टतवो इह जो सो सव्वाहारचागाओ ॥५४॥ अर्थ-आलोचना तप इस तरह होता है । एकाशन किये बाद त्रिवध आहार का त्याग करना चाहिये । पुरिमाई तप-पुरिमट्ठ पौरुषी तप दिन के पहिले दो प्रहर तक चार आहारों का त्याग करना चाहिये। आलोचना संबंधि यदि एकाशना आदि तम हो तो बाद में तिविहार होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy