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________________ 4-7 च २१ 1 आदमीको वह बहा ले जाती है। उसके प्रवाह में पड़ा हुआ वह दुर्गतिके दुःखोंसे दुःखित होता है। यह तो हुआ लोक प्रवाद रूप नदीका वर्णन, इसी इकोकसे द्रव्यनदीका स्वरूप भी निकलता है जैसे कि - यहां बड़े पहाड़ोंसे लोगोंको बहा ले जानेवाली विषम नदौ उठती है और क- पृथ्वी में प्रतिष्ठित होती है जिसके पास गुरु-बड़ा जहाज नहीं होता उसको वह बहा ले जाती है । और उसके प्रवाह में पड़ा हुआ व्यक्ति खिन्न हो जाता है || ६ || साघणजड परि पूरिय दुत्तर किव तरंति जे हुंति निरूत्तर विरला किवि तरंति जि सदुत्तर ते लहंति सुक्खइ उत्तरुत्तर ||७|| अर्थ - वह लोक प्रवाह रूप नदी बहुत जड़ मनुष्योंसे व्याप्त होनेके कारण दुःखसे तिरने योग्य दुस्तर है। जो विशिष्ट विवेकके अभाव में उत्तर देने के काबिल नहीं होते अर्थात् निरुत्तर होते हैं वे -- उसको कैसे तिर सकते हैं। कितनेक विरले लोग जो विशिष्ट विवेक विचार सम्पन्न उत्तर देनेकी शक्ति रखते हैं वे सदुत्तर लोग उस लोक प्रवाह रूप नदीको तिर जाते हैं और उत्तरोत्तर स्वर्गापवर्गके सुखोंको प्राप्त करते हैं । द्रव्यनदी पक्ष में वह घने जलसे परिपूरित दुस्तर होती है। जो तिरनेकी शक्तिसे हीन - निरुत्तर हैं वे लोग उसको कैसे पार कर सकते हैं। जिनमें तिरनेकी शक्ति है अर्थात् जो सदुत्तर हैं, वे कोई विरला व्यक्ति ही उसको पार करते हैं, और उत्तरोत्तर कुटुम्ब संगम लक्ष्मी संभोग आदि सुखों को पाते हैं || || Jain Education International गुरु- पवहणु निष्पुन्नि न लब्भइ तिणि पवाहि जणु पडियउ बुब्भइ सा संसार - समुद्दि पट्टी जहि सुक्खह वात्ता वि पणठ्ठी ॥ ८ ॥ अर्थ - पुण्यहीन व्यक्तियोंको सद्गुरु रूप जहाज नहीं मिलता। इसलिये उस लोक प्रवाह में पड़ा हुआ प्राणी बहजा ही जाता है। वह लोक प्रवाह रूप नदी तो आखिर चार गति चौरासी लाख जीवा योनि भ्रमण रूप संसार समुद्र में जा गिरती है। जहां कि सुखों का मिलना तो दूर, सुखकी बात भो नष्ट हो जाती है। द्रव्य नदी पक्ष में गुरु प्रवहण -- बड़ा जहा जहाज - निर्धनको नहीं मिलता । तहिं गय जण कुग्गाहिहिं खज्जहिं मयर - गरुयदादग्गिहि भिज्जहि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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