SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिणि विरईय कहा संवेग-रंगसाला तह सत्थ अणेग । नियदेसण रंजिय नरराय, तमु जिणचंदसूरि सेवहु पाय ॥ १५ ॥ जिन्होंने संवेगरङ्गशाला कथा तथा ( क्षपक शिक्षा प्रकरण आदि ) अनेक शास्त्रों की रचना करी और अपनी देशना से राजाओं को भी रञ्जित किये, उन श्रीजिनचन्द्र सुरिजी महाराज के चरणों की सेवा करो ।। १५ । वर नवअंगवित्ति उद्धरणु, थंभणिपास पयड पुक्करणु । अभयदेवसूरि मुणिवरराउ, दिसि दिसि पसरिय जसु जसवाउ ॥ १६ ॥ ___उनके पाट पर उन्हींके छोटे गुरुभाइ एवं मुनिवरों के राजा श्रीअभयदेवसूरिजी हुए कि जिन्होंने ठाणांगादि नवअंग सूत्रों पर वृत्तिकी रचना करी, एवं स्तंभन पुर (खेड़ा के पास में आये थांभणा गांव ) में स्तंभन पार्श्वनाथ प्रभुकी प्रतिमा प्रगट करी, इसी कारण जिनका यशोवाद दिशोदिशि में प्रसृत था ॥ १६ ॥ नंदि--न्हवणु--बलि--रहु--सुपइट--तालारासु जुवइ मुणिसिठ्ठ । निसि जिणहरि जिणि वारिय अविहि, थुणहु सु जिणवल्लहसूरि सुविहि १७ ___ रात्रि के समय जिनमन्दिर में नन्दि ( दीक्षा ) विधि का करना, स्नात्रोत्सव, बलिप्रदान (नैवेद्यादि चढ़ाना या बलि बाकुलादि उछलना ), रथ भ्रमण, प्रतिष्ठा, तालियां बजाते हुए रासगाना और स्त्रियों आकर एकत्र होती, इत्यादि अविधि कर्त्तव्य, जो कि उत्तम मनियों से सर्वथा निषिद्ध है, उनका जिन्होंने सर्वथा निषेध किया था और पूर्व महर्षियोंने बताये उत्तम विधिमार्ग का खूब जोरोंसे प्रचार किया था, उन मुनिश्रेष्ठ श्रीजिनबल्लभसूरिजी महाराज की स्तवना करो ॥ १७ ॥ जोइणिचक्कु उज्जेणिय जेण, बोहिउ जिणि नियझाणवलेण । सासणदेवि कहिउ जुगपवरु, सो जिणदत्तु जयउ गुरु पवरु ॥ १८॥ उज्जयनी नगरी में जिन्होंने अपने ध्यान बलसे योगिनी चक्र (६४ योगिनीयों) को जीतकर धर्म बोध दिया था और जिनको शासनदेवी ( अम्बिका ) ने युगप्रधान कहे थे वे उत्तम गुरुदेव श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज जयवंते रहो ॥ १८ ॥ सहजरूवि निज्जियअमरिंद, जिणि पडिबोहिय सावयविंद । पंचमहव्वयदुद्धरधरणु, गंदउ जिणचंदसूरि मुणिरयणु ॥ १९ ॥ जिन्होंने अपने स्वभाविक रूप से इन्द्र को भी जीत लिया हो वैसे अनुपम रूप सम्पदावाले, संख्या बंध श्रावकों की प्रतिबोध देने वाले, बड़ी ही कठिन रीतिसे पञ्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001859
Book TitleCharcharyadi Granth Sangrah
Original Sutra AuthorJinduttsuri
AuthorJinharisagarsuri
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages116
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy