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चैत्यवन्दन-कुलकम् अर्थ-अनेक आचार्यों के सूत्रोक्त युक्तियों से वाह्य आगम युक्ति विकल जूदे २ १ मतान्तरों को एवं कुशास्त्रों को सुन कर निश्चित रूप से मानूंगा किये भवान्तरों में दुःख देने वाले हैं। ऐसा मान कर उनमें श्रद्धा नहीं करनी चाहिये ॥२७॥
(शार्दूल विक्रीड़ित वृत्तम् ) मल-सव्वन्नूण-मयं मएण रहिओ सम्मं सया साहए,
भव्वाणं पुरओ पवाहविरओ निच्छम्म निम्मच्छरो । सो मे धम्मगुरु सया गुशिगुरू कल्याणकारी वरो,
लग्गो जो जिनदत्त सोहणपहे नीसेससुक्खावह॥२८॥ अर्थ-जो सर्वज्ञ वीतरराग भगवान तीर्थकर देव के मत को मद रहित होते हुए सदा भली भौति साधते हैं। जो भव्यात्माओं के सामने लोकप्रवाह से अलग रहते हुए धर्मोपदेश सुनाते हैं । जो कपट रहित और मात्सर्य भाव से मुक्त हैं। जो गुणियों के गुरु हैं कल्याणकारी हैं एवं जो ज्ञान दर्शन चारित्र में प्रधान हैं और समस्त सुख को वहन करने वाले जिनदत्त-श्रीजिनेश्वर भगवान द्वारा दिये हुए-उपदेश द्वारा दिखाये हुए शोभन पवित्र मार्ग में प्रवृत्तिशील हैं वे ही महात्मा मेरे हमेशा के धर्म गुरु हैं । ऐसी पवित्र भावना सम्यक्त्वधारी श्रावक को रखनी चाहिये । इस श्लोक में प्रकारान्तर से कर्ता अपना (जिनदत्त सूरि ) ऐसा नाम भी सूचित कर दिया है।
छती वाणह सत्थ चामर मणोणेगत्त मभंगणं सच्चित्ताणमवाय चायमजिए दिट्ठीअ नो अंजलो । साडे गुत्तर संग भंग मउडं मोलिं सिहरोसेहरं, हुड्डा जिंदुहगंडियाइरमणं जोहार चंडकियं ॥ ३ ॥ (६५) रेकारं धरणं रणं विवरणं बालाण पल्लत्यियं, पाऊ पायपसारणं पुडपुडो पंकं रडं मेहुणं । जया जेमण गुज्झ विज वणिजं सिज्जं जलुमजणं
ए माइ य सवज कज मुजओ वज्जे जिणिंदालये ४ ।। (८४) १-देवगृहवास, देव द्रव्य भाक्षण, यतिदेव पूजा, श्रावक मुखवस्त्रिका, स्थापनाचार्य प्रतिक्रमण, देवाग्रबलिप्रदानात्रिक मांगलिक्यादि प्रतिषेधन, प्रासुक शीतल जलदानगलनक ग्रहण निवारण, जात सूतकमृतक सूतक रजक तंतु वायादि नीच जति सक्त वस्त्र पात्र भक्त पानक खादिभ स्वादिम रूप चतुर्विधाहारप्रहण, पर्व तिथि कल्याणिक तिथि वर्जित तिथि पोषध ग्रहण ............रूपवाणि ।।
॥ इति चैत्यवन्दन-कुलकम् समाप्त ॥ .
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