Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LS.S.N. 0971-9024 अर्हत् वचन वर्ष-12, अंक-2 अप्रैल-जून 2000 Vol.-12, Issue-2 April - June 2000 KUNDAKUNDA JNANAPITHA, INDORE कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर कांस्य निर्मित श्रुत - स्कंध- यंत्र (जैन मठ मूडबिद्री) ARHAT VACANA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह की झलकियाँ कुन्दकुन सामदेवसंमोटी शो BEMBएमज मुख्य अतिथि न्यायमूर्ति श्री एन. के. जैन पुरस्कार समर्पण समारोह को सम्बोधित करते हुए। मंचासीन डॉ. अनुपम जैन, प्रो. एस. सी. अग्रवाल, प्रो. अब्बासी, प्रो. नांदगांवकर, प्रो. गुप्ता, डॉ. स्नेहरानी जैन कुदकुन्दज्ञानपीठ RANDIDEOnामटे यगोठी-परस्कार समर्पणसमारहा शोधलेस उपकालिका अहमवचन 4CBER पुरस्कार समर्पणारयाकाळ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार निर्णायक मण्डल के अध्यक्ष प्रो. अब्बासी का सम्मान करते हुए मुख्य अतिथि न्यायमूर्ति श्री एन. के. जैन (इन्दौर) कुन्दकुन्दज्ञ नपीठ समदेवसंगोष्ठी-पुरस्कारस र्पणसमारोह ए. शोधसंस्थान. अईतवचन ग्रंथा 12920000 म ज्ञानोदय पुरस्कार-98 से सम्मानित डॉ. शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी (लखनऊ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I.S.S.N. - 0971-9024 अर्हत् वचन ARHAT VACANA कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ (देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर द्वारा मान्यता प्राप्त शोध संस्थान), इन्दौर द्वारा प्रकाशित शोध त्रैमासिकी Quarterly Research Journal of Kundakunda Jñanapitha, INDORE (Recognised by Devi Ahilya University, Indore) वर्ष 12, अंक 2 Volume 12, Issue 2 अप्रैल-जून 2000 April-June 2000 मानद् - सम्पादक HONY. EDITOR डॉ. अनुपम जैन DR. ANUPAM JAIN गणित विभाग Department of Mathematics, शासकीय स्वशासी होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, Govt. Autonomous Holkar Science College, इन्दौर - 452017 INDORE-452017 INDIA 8. (0731) 464074 (का.) 787790 (नि.), 545421 (ज्ञानपीठ) फैक्स : 0731-787790 E.mail : Kundkund@bom4.vsnl.net.in प्रकाशक PUBLISHER देवकुमार सिंह कासलीवाल DEOKUMAR SINGH KASLIWAL अध्यक्ष - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, President - Kundakunda Jñanapitha 584, महात्मा गाँधी मार्ग, तुकोगंज, 584, M.G. Road, Tukoganj, ___ इन्दौर 452 001 (म.प्र.) INDORE-452001 (M.P.) INDIA 8 (0731) 545744, 545421 (O) 434718, 543075, 539081, 454987 (R) लेखकों द्वारा व्यक्त विचारों के लिये वे स्वयं उत्तरदायी हैं। सम्पादक अथवा सम्पादक मण्डल का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं हैं। इस पत्रिका से कोई भी आलेख पुनर्मुद्रित करते समय पत्रिका के सम्बद्ध अंक का उल्लेख अवश्य करें। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक मंडल/Editorial Board प्रो. लक्ष्मी चन्द्र जैन Prof. Laxmi Chandra Jain सेवानिवृत्त प्राध्यापक - गणित एवं प्राचार्य Retd. Professor-Mathematics & Principal दीक्षा ज्वेलर्स के ऊपर, Upstairs Diksha Jewellers. 554, सराफा, 554, Sarafa, जबलपुर-482002 Jabalpur-482002 प्रो. कैलाश चन्द्र जैन Prof. Kailash Chandra Jain सेवानिवृत्त प्राध्यापक एवं अध्यक्ष Retd. Prof. & Head, प्रा. - भा. इ. सं. एवं पुरातत्व विभाग, A.I.H.C. & Arch. Dept., विक्रम वि. वि., उज्जैन, Vikram University, Ujjain, मोहन निवास, देवास रोड़, Mohan Niwas, Dewas Road, उज्जैन-456006 Ujjain-456006 प्रो. राधाचरण गुप्त Prof. Radha Charan Gupta सम्पादक - गणित भारती, Editor-Ganita Bharati, आर -20, रसबहार कालोनी, R-20, Rasbahar Colony, लहरगिर्द, Lehargird, झांसी-284003 Jhansi-284003 प्रो. पारसमल अग्रवाल Prof. Parasmal Agrawal प्राध्यापक - रसायन भौतिकी समूह, Chemical Physics Group, Department of ओक्लाहोमा स्टेट वि.वि., Chemistry, Oklohoma State University, स्टिलवाटर OK 74078 USA Stillwater OK 74078 USA डॉ. तकाओ हायाशी Dr. Takao Hayashi विज्ञान एवं अभियांत्रिकी शोध संस्थान, Science & Tech. Research Inst., दोशीशा विश्वविद्यालय, Doshisha University, क्योटो-610-03 (जापान) Kyoto-610-03 (Japan) डॉ. स्नेहरानी जैन Dr. Snehrani Jain पूर्व प्रवाचक - भेषज विज्ञान, Retd. Reader in Pharmacy, 'छवि', नेहानगर, मकरोनिया, 'Chhavi', Nehanagar, Makronia, सागर (म.प्र.) Sagar (M.P.) सम्पादक/ Editor डॉ. अनुपम जैन Dr. Anupam Jain सहायक प्राध्यापक - गणित, Asst. Prof. - Mathematics, शासकीय होल्कर स्वशासी विज्ञान महाविद्यालय, Govt. Holkar Autonomous Science College 'ज्ञानछाया', डी- 14, सुदामानगर, 'Gyan Chhaya', D-14, Sudamanagar, इन्दौर-452009 Indore-452009 फोन : 0731-787790 Ph.: 0731-787790 सदस्यता शुल्क / SUBSCRIPTION RATES व्यक्तिगत संस्थागत विदेश INDIVIDUAL INSTITUTIONAL FOREIGN वार्षिक / Annual रु./Rs. 125=300 रु./Rs. 250=00 U.S. 25=00 आजीवन / Life Member रु./Rs. 1000=00 रु./Rs. 1000=00 U.S. $ 250=00 (10 वर्षों हेतु) पुराने अंक सजिल्द फाईलों में रु. 400.00/us. S 50.00 प्रति वर्ष की दर से सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं। सदस्यता शुल्क के चेक/ड्राफ्ट कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के नाम इन्दौर में देय अरविन्दकुमार जैन, प्रबन्धक - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर को ही प्रेषित करें। अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल - जून 2000 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर अनुक्रम / INDEX सम्पादकीय - सामयिक सन्दर्भ - अनुपम जैन लेख / ARTICLE संस्कृत साहित्य के विकास में गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का योगदान ___ आर्यिका चन्दनामती ऋषभ निर्वाण भूमि - अष्टापद 0 उषा मेहता ज्ञान विज्ञान का आविष्कारक : भारत o आचार्य कनकनन्दी शंकराचार्य : व्यक्तित्व एवं गणितीय कृतित्व 0 दिपक जाधव णमोकार मंत्र की जाप संख्या और पंचतंत्री वीणा 0 जयचन्द्र शर्मा क्या डूंगरसिंह जैन धर्मानुयायी था? 0 रामजीत जैन एडवोकेट विदिशा का कल्पवृक्ष अंकित स्तम्भ 0 गुलाबचन्द जैन जैन साहित्य और पर्यावरण 0 जिनेन्द्र कुमार जैन जैन आगम में पर्यावरण विज्ञान 0 सनतकुमार जैन Peuquit / SHORT NOTE आकाश द्रव्य - एक उर्जीय रूप 0 विवेक कुमार कोठिया मऊ - सहानिया की ऋषभनाथ प्रतिमाएँ 0 नरेशकुमार पाठक उण्डेल की पार्श्वनाथ की परमारकालीन प्रतिमा 0 नरेशकुमार पाठक अल्पसंख्यक क्यों नहीं घोषित करते? 0 अनाम पाठक अर्द्धपद्मासन प्रतिमाएँ - शिवकुमार जैन अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक समीक्षा / REVIEW सराक सोपान - मासिक अनुपम जैन तुलसी प्रज्ञा - शोध त्रैमासिकी अनुपम जैन मूलसंघ और उसका प्राचीन साहित्य द्वारा संहितासूरि पं. नाथूलालजी शास्त्री नेमीचन्द शास्त्री आख्यायें / REPORTS भगवान ऋषभदेव संगोष्ठी, इन्दौर 28 - 29 मार्च 2000 अरविन्दकुमार जैन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार समर्पण समारोह, 29 मार्च 2000 जयसेन जैन गतिविधियाँ मत - • अभिमत अर्हत् वचन के सम्बन्ध में तथ्य सम्बन्धी घोषणा ( फार्म - 4, नियम - 8 ) प्रकाशन स्थल प्रकाशन अवधि मुद्रक एवं प्रकाशक राष्ट्रीयता पता मानद् सम्पादक राष्ट्रीय पता स्वामित्व 1.4.2000 : इन्दौर : त्रैमासिक : देवकुमारसिंह कासलीवाल : भारतीय 1:0 580, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452001 : डॉ. अनुपम जै : भारतीय : 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452001 कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452001 : 75 76 76 77 79 83 95 मुद्रण व्यवस्था : सुगन ग्राफिक्स, यूजी. 18, सिटी प्लाजा, म.गां. मार्ग, इन्दौर मैं देवकुमारसिंह कासलीवाल एतद् द्वारा घोषणा करता हूँ कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपरोक्त विवरण सत्य है । देकुमारसिंह कासलीवाल अध्यक्ष - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर सामयिक सन्दर्भ अनेक झंझावातों के बीच निर्बाध रूप से चल रही अर्हत् वचन की विकास यात्रा के 46 वें पड़ाव पर हम अपने पाठकों का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। तीर्थंकर भगवान महावीर की जन्मजयंती के परम पावन पुनीत अवसर (19.4.2000) पर आप सभी पाठकों को हार्दिक बधाई! 29 जून 1780 को जेम्स हिक्की द्वारा "बंगाल गजट" साप्ताहिक के प्रकाशन से प्रारंभ हुई भारतीय पत्रकारिता की विकास यात्रा में जैन पत्र/पत्रिकाओं का विशिष्ट योगदान रहा है। प्राप्त सूचनानुसार हिन्दी भाषा का प्रथम पत्र 30 मई 1826 को श्री युगल किशोर शुक्ल के संपादकत्व में "उदन्त मार्तण्ड' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसके लगभग 54 वर्षों के बाद 'जैन पत्रिका' का प्रयाग से 1880 में प्रकाशन हुआ किन्तु इसके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। "जीयालाल प्रकाश' और 'जैन' शीर्षक 2 पत्र 1884 में प्रकाशित हुये। इसी वर्ष हिन्दी एवं मराठी में द्विभाषी 'जैन बोधक' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो आज भी शोलापुर से सौ. शरयू दफ्तरी के कुशल संपादकत्व में प्रकाशित हो रहा है। वर्ष 2000 में इस पत्र के गौरवपूर्ण प्रकाशन का 115 वाँ वर्ष चल रहा है। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा का मुख पत्र 'जैनगजट' जहाँ यशस्वी तथा निर्भीक संपादक एवं मूर्धन्य विद्वान प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन के संपादकत्व में 104 वें वर्ष में गतिमान है वहीं कापड़िया परिवार के अहर्निश श्रम एवं सतत् प्रयासों से 'जैनमित्र' ने प्रकाशन का 100 वां वर्ष पूर्ण कर 101 वें वर्ष में प्रवेश पा लिया है। सम्प्रति भाई श्री शैलेष - डाह्या भाई कापड़िया के सुयोग्य संपादकत्व में "जैन मित्र' ने समय पर प्रकाशित होने की एक विशिष्ट पहचान बनाई है। शोध पत्रिकाओं के क्षेत्र में भी 'जैन हितैषी', 'जैन दर्शन', 'जैन सिद्धांत भास्कर', 'The Jaina Antiquary', 'अनेकांत', 'जैन संदेश' एवं 'जैन पथ प्रदर्शक' के शोधांकों आदि ने जैन साहित्य और संस्कृति की अप्रतिम सेवा की है। मैंने ऊपर की पंक्तियों में जैन पत्रकारिता के इतिहास की संक्षिप्त चर्चा की। वस्ततः मझे यह लिखते हये गर्व की अनभति हो रही है कि जैन पत्रकारिता का इतिहास अत्यंत गौरवपूर्ण है। पं. नाथूराम 'प्रेमी', पं. जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर', डा. हीरालाल जैन, डा. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, डा. नेमिचन्द्र जैन शास्त्री ज्योतिषाचार्य, डा. ज्योतिप्रसाद जैन, डा. कस्तूरचंद कासलीवाल जैसे मूर्धन्य मनीषी विद्वान जैन पत्रकारिता के स्तंभ रहे हैं। इन्होंने अपनी लेखनी से जैन साहित्य, संस्कृति एवं समाज की अतुलनीय सेवा की है। इतिहास एवं पुरातत्व पर जमी धूल की परतों को हटाकर सत्य को अनावृत तो किया ही सुषुप्त सामाजिक चेतना को झकझोरते एवं सड़ी गली परंपराओं तथा रूढ़ियों को ध्वस्त करते हुये प्रगति के नये आयामों के द्वार भी खोले। जैन पत्रकारिता के 100 साल के इतिहास में अनेक उतार - चढ़ाव आये हैं। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा तथा दिगम्बर जैन परिषद की विचारधाराओं में टकराव, तेरापंथ - बीसपंथ, चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज द्वारा संस्कृति संरक्षण हेतु लिये गये कठोर निर्णयों की जैन पत्रों में चर्चा रही और इन पर खुलकर बहस भी हुई लेकिन वर्तमान में जैन संघ के लिये संक्रांति का काल अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चल रहा है। यदि एक ओर युवा वर्ग में दीक्षा लेकर मुनि, आर्यिका बनने की प्रवृत्ति बढ़ रही है तो दूसरी ओर मुनिसंघों में बढ़ते शिथिलाचार की यत्र-तत्र-सर्वत्र चर्चा हो रही है। जैन विद्याओं के अध्ययन एवं अनुसंधान कार्य में लगे समर्पित मनीषी साधकों के सम्मुख भी कई बार उलझन भरी स्थिति आ जाती है। राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही नहीं जैन समाचार पत्र-पत्रिकायें भी कई बार तो वास्तविक किन्तु कई बार अतिरंजित समाचार भी प्रकाशित कर देते हैं। सम्प्रति आलोचना प्रधान लेखन एक फैशन बनता जा रहा है हर लेखक शिथिलाचार एवं आगम विरूद्ध चर्या के विरोध में लिखने के साथ चतुर्विध संघ को अपनी राय देने लगा है ऐसे व्यक्ति जिन्हें न तो सामाजिक जीवन का विशेष अनुभव है और न सामाजिक पुनर्रचना अथवा संस्कृति संरक्षण में उनका कोई उल्लेखनीय योगदान है वे भी 'रायचंद' बनकर अपनी राय देने लगे हैं। विद्या वयोवृद्ध विद्वानों, पत्रकारों, समाजसेवियों जिन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष समाज या साहित्य की सेवा में समर्पित कर दिये, जिन्हें आगम की व्यवस्थाओं तथा समाज की प्रकृति का सूक्ष्म ज्ञान है वे जब श्रमण संघ के व्यापक हित को दृष्टिगत करते हये शिथिलाचार पर कुछ लिखते हैं तो समाज को उस पर तत्काल और पूरा ध्यान देना चाहिये साथ ही निर्णय लेकर उसका क्रियान्वयन भी सुनिश्चित करना चाहिये, किन्तु हर किसी के द्वारा इस विषय पर लेख लिखने से समाज का अहित ही होता है। जैनेत्तर समाज में तो हम हँसी के पात्र बनते ही हैं हमारे समाज की युवा पीढ़ी की श्रद्धा भी डगमगा जाती है। गत एक शताब्दी की यात्रा में जैन पत्रकारिता अव्यावसायिक एवं स्वान्त: सुखाय बनी रही। अवैतनिक सम्पादक, कार्यालयीन सुविधाओं के अभाव, घटिया कागज सी-पिटी मुद्रण व्यवस्थाओं के बावजूद उच्च आदर्श कायम करना जैन पत्रकारिता की बड़ी उल्लेखनीय उपलब्धि है। किन्तु आज परिस्थितियाँ एवं चुनौती गम्भीर है। तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ द्वारा प्रकाशित "संपर्क" डायरेक्ट्री की सूचनानुसार जैन समाज द्वारा वर्तमान में 412 पत्र - पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है जिनकी आवृत्तियाँ दैनिक से लेकर वार्षिक तक है। ये पत्र-पत्रिकायें हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल आदि भाषाओं में प्रकाशित हैं। ये सब मिलकर यदि रचनात्मक लेखन की ओर प्रवृत्त हों तो समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकते हैं। जातीय संगठनों की पत्रिकाओं को अपनी जाति विशेष, साध विशेष द्वारा प्रायोजित, संपोषित पत्रिकाओं को उस साधु अथवा उससे संबद्ध संघ तथा किसी संस्था विशेष की पत्रिका को उस संस्था की गतिविधियों को तो प्रमुखता देनी ही होगी किन्तु वह जैन समाज की समग्र छवि को उन्नत करने वाले राष्ट्र एवं समाज निर्माण में जैन बंधुओं द्वारा प्रदत्त योगदान अथवा जैन ट्रस्टों, संस्थाओं द्वारा चलाई जा रही जनकल्याणकारी गतिविधियों, प्राचीन एवं अर्वाचीन जैन आचार्यों, मुनियों, आर्यिकाओं त्यागीव्रती पुरुषों द्वारा किये जा रहे जनकल्याणकारी कार्यों को भी प्रमुखता से प्रकाशित करें तो समाज का अधिक हित होगा। जैन साहित्य में निहित जीवन पद्धति की प्रासंगिकता, जैन सिद्धांतों की उपादेयता, जैन पाण्डुलिपियों, जैन साहित्य एवं इतिहास के अनावृत पक्षों को उजागर करने से जहाँ नई पीढ़ी के ज्ञान में वृद्धि होगी वहीं इतिहास का भी संरक्षण होगा। समग्र जैन समाज की एकता एवं संपूर्ण जैन समाज के हित के कार्यों में पारस्परिक सहयोग एवं समन्वय विकसित करना हम सब का कर्तव्य तो है ही, जिम्मेदारी भी है। यदि समाज का हर घटक दूसरे का विरोध करने में शक्ति लगाने के बजाय अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना - अपना विकास करने लगे तो भी बहुत बड़ा काम होगा क्योंकि समाज के किसी भी घटक का विकास समाज का ही विकास है। किसी भी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति सदैव छोटे - छोटे खण्डों में ही होती है। समाज में मूल आगम ग्रंथों के अध्ययन/अध्यापन, प्रकाशन की रूचि घटती जा रही है। नतीजा यह है कि मूल ग्रन्थों के अध्येता विद्वानों का लोप होता जा रहा है। समाज में रचनात्मक कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं का भी अभाव बढ़ रहा है। नेतृत्व करने की प्यास तो बढ़ रही है किन्तु कार्य करने की निष्ठा का लोप हो रहा है। समाज के व्यापक हित के कामों में से एक - एक कार्य को एक- एक सगठन अथवा समर्पित समाजसेवियों की टीम को हाथ में लेना चाहिये तभी उन्हें किसी दूसरे को कोई भी राय देने का अधिकार बनता है। प्राथमिकता के कुछ बड़े कामों की चर्चा मैंने इसी स्तम्भ में विगत वर्षों में की है। यह विषय बहुत लंबा है लेकिन मुझे इस आशा और विश्वास के साथ लेखनी को विराम देना पड़ रहा है कि "अर्हत् वचन" के सुधी पाठक रचनात्मक चिंतन को गति देते हुये अपनी शक्ति, रूचि के अनुसार कार्य करेंगे तथा सकारात्मक सोच को विकसित करते हुए अपने - अपने क्षेत्र में नेतृत्व करेंगे। आज जैन समाज ने पत्रकारिता को प्रोत्साहन देने हेतु अनेक पुरस्कारों की स्थापना कर रखी है। इनके माध्यम से, पत्रकारिता के माध्यम से समाज विकास में योगदान देने वाले पत्रकारों को पुरस्कृत किया जाता है। पत्रकारिता पुरस्कारों के आयोजकों/निर्णायकों से भी हमारा अनुरोध है कि वे उक्त पक्ष को भी सम्यक् वरीयता प्रदान करें। परिवर्तन के इस दौर में अधिकांश शोध पत्रिकाएँ अपना दम तोड़ रही हैं। कागज, प्रिंटिंग की बढ़ती दरें, बढ़ते कार्यालयीन एवं डाक व्यय तथा घटती ग्राहक संख्या से शोध पत्रिकाओं का संचालन संस्थाओं के लिये हाथी पालने के समान है। ऐसे समय में भी दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट के आर्थिक अनुदान से संचालित कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा अर्हत् वचन शोध त्रैमासिकी का गत 12 वर्षों से नियमित प्रकाशन माननीय ट्रस्टियों की प्रशस्त अभिरुचि एवं प्रतिबद्धता को ही प्रतिबिम्बित करता है। इस अवसर पर श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल (काकासाहब) की पत्रकारिता एवं जैन साहित्य के वैज्ञानिक पक्ष के उद्घाटन के क्षेत्र में रुचि का सादर उल्लेख आवश्यक है। _ अर्हत् वचन के प्रस्तुत अंक के लेखन, संपादन, प्रकाशन एवं वितरण में -सहयोगी सभी बंधुओं का मैं हृदय से आभार ज्ञापित करता हूँ एवं आशा करता हूँ कि उनका यह सहयोग एवं मार्गदर्शन भविष्य में भी हमें प्राप्त होता रहेगा। डा. अनुपम जैन अगले अंकों में प्रकाश्य आलेख The Early Kadamabas and Jainism in Karnataka A. Sundara Jainism Abroad Satish Kumar Jain Rightful Exposition of Jainism in West N.L. Jain जैन आयुर्वेद शकुन्तला जैन आधुनिक विज्ञान, 'वर्गणायें' तथा 'निगोद' स्नेहरानी जैन Jaina Paintings in Tamilnadu T. Ganesan अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार श्री दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा जैन साहित्य के सृजन, अध्ययन, अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर के अन्तर्गत रुपये 25,000 = 00 का कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रतिवर्ष देने का निर्णय 1992 में लिया गया था। इसके अन्तर्गत नगद राशि के अतिरिक्त लेखक को प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिन्ह, शाल, श्रीफल भेंट कर सम्मानित किया जाता है। 1993 से 1998 के मध्य संहितासूरि पं. नाथूलाल जैन शास्त्री ( इन्दौर), प्रो. लक्ष्मीचन्द्र जैन (जबलपुर), प्रो. भागचन्द्र 'भास्कर' (नागपुर), डा. उदयचन्द्र जैन (उदयपुर), आचार्य गोपीलाल 'अमर' (नई दिल्ली) एवं प्रो. राधाचरण गुप्त (झांसी) को कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। 1999 के पुरस्कार हेतु प्रविष्टि भेजने की अन्तिम तिथि 30.6.2000 तक बढ़ा दी गई है। वर्ष 1999 का पुरस्कार जैनधर्म की किसी एक विधा पर लिखित मौलिक अप्रकाशित कृति पर दिया जायेगा । वर्ष 2000 का पुरस्कार 'भगवान ऋषभदेव' पर लिखित किसी मौलिक प्रकाशित / अप्रकाशित कृति पर दिया जायेगा । कृति में भगवान ऋषभदेव के साहित्य, इतिहास एवं पुरातत्व में उपलब्ध सभी सन्दर्भ मूलत: एवं प्रामाणिक रूप में संकलित होने चाहिये। वैदिक साहित्य के उद्धरणों प्रामाणिक अनुवाद भी ससन्दर्भ दिये जाना अपेक्षित है। हिन्दी / अंग्रेजी भाषा में लिखित मौलिक प्रकाशित / अप्रकाशित एकल कृति निर्धारित प्रस्ताव पत्र के साथ 30 सितम्बर 2000 तक कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के कार्यालय में प्राप्त होना आवश्यक है। प्रस्ताव पत्र कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ कार्यालय में उपलब्ध हैं। देवकुमारसिंह कासलीवाल अध्यक्ष उपाध्याय ज्ञानसागर श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार - 2000 1 लाख रुपये, अन्तिम तिथि - 30 जून 2000 पुरस्कार राशि डॉ. अनुपम जैन मानद सचिव - विज्ञप्ति, प्रस्ताव पत्र तथा नियमावली हेतु सम्पर्क : डॉ. अनुपम जैन, संयोजक पुरस्कार समिति C/o. कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452001 फोन : 0731-545421 (का.) 787790 (नि.) अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल 2000, 9 - 30 संस्कृत साहित्य के विकास में गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का योगदान - आर्यिका चन्दनामती* संस्कृत भाषा का उद्गम दिव्यध्वनि से हुआ है - जैन धर्म के अनुसार तीर्थंकर महापुरुषों की दिव्यध्वनि सात सौ अठारह भाषाओं में परिणत हुई मानी गई है अर्थात् केवलज्ञान के प्रगट होने पर तीर्थंकर की दिव्यध्वनि तो ऊँकारमय खिरती है किन्तु सुनने वाले भव्यात्माओं के कानों में जाकर वह उन सबकी भाषा में परिवर्तित होकर सात सौ अठारह भेदरूप हो जाती है। इनमें से अठारह महाभाषाएँ मानी गई हैं और सात सौ लघु भाषाएँ हैं। उन महाभाषाओं के अन्तर्गत ही संस्कृत और प्राकृत को सर्व प्राचीन एवं प्रमुख भाषा के रूप में स्वीकृत किया जाता है। संस्कृत जहाँ एक परिष्कृत, लालित्यपूर्ण भाषा है वहीं उसे साहित्यकारों ने 'देवनागरी' भाषा कहकर सम्मान प्रदान किया है। समय-समय पर अनेक साहित्यकारों ने संस्कृत भाषा . में गद्य साहित्य, पद्य साहित्य एवं गद्य - पद्य मिश्रित चम्पू साहित्य लिखकर प्राचीन महापुरुषों और सतियों के चारित्र से लोगों को परिचित कराया है। साहित्य रचना की पृष्ठभूमि - इसी श्रृंखला में बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध काल एक नई क्रान्ति के साथ प्रारम्भ होकर अनेक साहित्यिक उपलब्धियों के साथ समापन की ओर अग्रसर है। जैन समाज सदैव उत्कृष्ट त्याग, ज्ञान और वैराग्य में प्रसिद्ध रहा है। यहाँ उच्च कोटि के मनीषी लेखक के रूप में आचार्य श्री गुणधर, कुन्दकुन्द, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, उमास्वामी, समंतभद्र, यतिवृषभ, पूज्यपाद, अकलंकदेव, वीरसेन, जिनसेन, गणभद्र स्वामी आदि दिगम्बराचार्यों ने सिद्धान्त. न्याय, अध्यात्म, व्याकरण, पुराण आदि ग्रंथ प्राकृत और संस्कृत भाषा में लिखकर जिज्ञासुओं को प्रदान किया है किन्तु न जाने क्या कारण रहा कि अनेक विदुषी गणिनी आर्यिका पद को प्राप्त करने के बाद भी दिगम्बर जैन साध्वियों के द्वारा लिखित कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है। लगभग ढाई सहस्राब्दियों का इतिहास तो इस बात का साक्षी है ही कि साध्वियों ने ग्रन्थों का लेखन नहीं किया है अन्यथा देश के किसी न किसी संग्रहालय या पुस्तकालय में उनके कुछ अवशेष तो अवश्य प्राप्त होते। मूलाचार आदि चरणानुयोग ग्रन्थों में जैन आर्यिकाओं की समस्त चर्या जैन मुनियों के समान ही वर्णित है अत: उन्हें सैद्धान्तिक सूत्र ग्रन्थों को भी पढ़ने का अधिकार प्रदान किया है। महापुराण ग्रन्थ में आचार्य श्री जिनसेन स्वामी ने भगवान ऋषभदेव के समवसरण की एक आर्यिका सुलोचना माता के लिये बताया है कि वे ग्यारह अंग रूप श्रुत में पारंगत थीं। यथा - "एकादशांगभूज्जाता सार्यिकापि सुलोचना'1 जैन शासन में तीर्थंकर भगवन्तों की दिव्यध्वनि ग्यारह अंग - चौदह पूर्व रूप मानी गई है। यह सारा ज्ञान भगवान महावीर तक तो अविच्छिन्न रूप से रहा है, पुन: क्रम परम्परा से ईसा पूर्व लगभग द्वितीय शताब्दी में इसका कुछ अंश श्री गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ और उसके पश्चात अंग - पूर्वो का अंशात्मक ज्ञान ही अन्य संतों को मिला जो उनके निबद्ध वर्तमान श्रुत में उपलब्ध होता है। * संघस्थ - गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी। सम्पर्क - दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर - 250404 (मेरठ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी का उत्तरार्ध नारी प्रगति का रहा - मैंने ऊपर वर्तमान शताब्दी के उत्तरार्ध का जो उल्लेख किया है उस ओर ही अपने विषय को ले चलती हैं कि जैन साध्वी की लेखन प्रतिभा में निखार आना सन् 1954 से प्रारम्भ हुआ और इसका प्रथम श्रेय प्राप्त किया शताब्दी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने। ईसवी सन् 1934 में 22 अक्टूबर को वि. सं. 1991 की आश्विन शुक्ला पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) के शुभ दिन रात्रि में 9 बजकर 15 मिनट पर उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिले में 'टिकैतनगर' कस्बे में श्रेष्ठी श्री धनकुमार जैन के सुपुत्र श्री छोटेलालजी की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी ने प्रथम कन्यारत्न को जन्म दिया था। वही कन्या आगे चलकर शास्त्रीय इतिहास को साकार करने में महात्मा गांधी के समान प्रथम आत्मस्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रसिद्ध हो गई और तब सन् 1952 में वि.सं. 2009 को शरदपूर्णिमा के दिन से ही नया स्वर्णिम इतिहास शुरु हुआ अर्थात् 3 अक्टूबर सन् 1952 में इस कन्या 'मैना' ने आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज से सप्तम प्रतिमा व आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर घर का त्याग कर दिया। क्षुल्लिका दीक्षा - परिवार के तीव्र मोह तथा सामाजिक संघर्षों पर विजय प्राप्त करके ब्रह्मचारिणी मैना यद्यपि उसी दिन से एक उत्कृष्ट साध्वी के समान चर्या पालने लगी थी तथापि उनके दीक्षित जीवन का प्रारम्भ हुआ मार्च सन् 1953 से, जब वि.सं. 2009 की चैत्र कृष्णा एकम तिथि, रविवार को श्रीमहावीरजी अतिशय क्षेत्र पर आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ने इन्हें क्षुल्लिका दीक्षा देकर 'वीरमती' नाम प्रदान किया था। पूर्वजन्म के संस्कारवश इन्हें प्रारम्भ से जहाँ ज्ञानार्जन की तीव्र पिपासा थी, वहीं संस्कृत ज्ञान प्राप्ति की अपूर्व अभिलाषा थी। सन् 1954 में ये एक क्षुल्लिका श्री विशालमती माताजी के साथ दक्षिण भारत गई। वहाँ चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज से उदबोधन प्राप्त कर पुन: गुरु के पास आकर सन् 1954 का चातुर्मास जयपुर में किया। गुरु की कृपा प्रसाद से इन्होंने वहाँ पर मात्र दो माह में 'कातंत्ररूपमाला' नाम की जैन संस्कृत व्याकरण पढ़ी और वही इनके जीवन में साहित्य सृजन का मूल आधार बन गई। उसके बाद आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की सल्लेखना देखने के उद्देश्य से ये पुन: उन्हीं क्षुल्लिका जी के साथ दक्षिण प्रान्त में गईं और सन 1955 का चातुर्मास 'म्हसवड' नामक शहर में किया। बस, यही चातुर्मास उनके संस्कृत ज्ञान के प्रयोगात्मक काल का प्रारम्भीकरण था, जब उन्होंने आचार्य श्री जिनसेन स्वामी द्वारा रचित 'सहस्रनाम स्तोत्र' के आधार से भगवान के एक हजार आठ नाम निकालकर नमः के साथ उनमें चतुर्थी विभक्ति लगा लगाकर भगवान को नमस्कार करते हुए पूरे एक हजार आठ "सहस्रनाम मंत्र" बना दिये। उन मंत्रों को देखकर क्षुल्लिका विशालमती जी बड़ी प्रसन्न हुई और उसी चातुर्मास में उन्होंने इन मंत्रों की एक छोटी सी पुस्तक छपवा दी। प्रभु के श्रीचरणों में अपने ज्ञान का समर्पण इनके जीवन का वरदान बन गया, फिर तो दिन दूनी - रात चौगुनी वृद्धि के साथ इनके संस्कृत ज्ञान का विकास होने लगा। आर्यिका दीक्षा - इसके पश्चात् इन्होंने 27 अप्रैल 1956 विक्रम संवत् 2012 में वैशाख कृष्णा द्वितीया अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के दिन राजस्थान के माधोराजपुरा (अतिशय क्षेत्र पद्मपुरा के निकट) ग्राम में आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज के कर कमलों से आर्यिका दीक्षा धारण कर "ज्ञानमती" नाम प्राप्त किया। नाम के साथ - साथ गुरुदेव के द्वारा एक लघु सम्बोधन मिला कि "ज्ञानमती। तुम अपने नाम का सदैव ध्यान रखना।" गुरुभक्ति से लेखनी का प्रारंभीकरण - . ऐसा लगता है कि गुरु का वह आशीर्वाद एवं सम्बोधन ही इनके जीवन में ज्ञान का भंडार भरने में अतिशयकारी संबल बन गया और अपनी लघुवय में ही इन्होंने पहले अपनी शिष्याओं को व्याकरण, सिद्धान्त, न्याय आदि ग्रन्थ पढ़ा - पढ़ा कर अपने ज्ञान को परिमार्जित किया पुन: उस ज्ञान को जब प्रयोगात्मकरूप में प्रस्तुत किया तो इनकी कृतियाँ पढ़ - पढ़कर उच्चकोटि के विद्वान भी आश्चर्यचकित हो गये। ___ इनकी प्रथम शिष्या आर्यिका जिनमती माताजी थी, जिन्हें कु. प्रभावती के रूप में इन्होंने सन् 1955 में म्हसवड़ (महा.) से निकालकर ज्ञान के अमृत से समूलचूल अभिसिंचित किया था। उन्हें जब ये संस्कृत भाषा में धारावाहिक बोलना सिखाती थीं तो साक्षात् सरस्वती माता के समान इनकी प्रतिभा प्रतीत होती थी। इनकी साहित्यिक कृतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इन्होंने अपना प्रथम लक्ष्य बनाया बैंक के फिक्स डिपॉजिट की तरह ज्ञान का कोठार भरना और उसके बाद समयानुसार उसका उपयोग करना। इसी लक्ष्य के कारण सन् 1955 से 1964 तक मात्र अध्ययन और अध्यापन में अपना समय व्यतीत किया पुन: सन् 1965 से उसका प्रयोगात्मक कार्य साहित्य सृजन के रूप में प्रारंभ हआ। इस मध्य आचार्य श्री शिवसागर महाराज के संघ में रहते हुए सन् 1959 के अजमेर (राज.) के चातुर्मास में आपने अपने दीक्षागुरु पूज्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज की एक स्तुति "उपजाति' छन्द में (10 श्लोकों में) बनाई। जिसमें व्याकरण, छन्द, अलंकार और कोष के पूर्ण उपयोग के साथ आचार्य श्री की कछ विशेषताओं का भी दिग्दर्शन है। जैसे पाँचवें श्लोक में वे कहती हैं - स्वाध्यायध्यानादिक्रियासु सक्त:, संसारभोगेषु विरक्तचित्तः।। बाह्यान्तरंग तप आचरन्यो, दुःखाभिभूतो न हि बाह्यक्लेशात्।। 5 ॥2 ___ इस छन्द के माध्यम से शिष्या को अपने गुरुदेव की शारीरिक दुःख की शहनशीलता कहानी याद आती प्रतीत होती है। कहते है कि आचार्य वीरसागर महाराज की पीठ में एक बार बहुत बड़ा "अदीठ का फोड़ा" हुआ था। उसका डॉक्टर ने बिना बेहोश किये आपरेशन किया किन्तु आचार्य श्री ज्ञान - ध्यान में इतना तन्मय हो गये कि असहनीय दर्द को भी अपने तत्वचिंतन के द्वारा सहन कर लिया था। इसीलिए उनकी स्तुति के उपर्युक्त शब्द बिल्कुल सार्थक प्रतीत होते हैं कि वे आचार्यदेव स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाओं में पूर्ण अनुरक्त थे और सांसारिक विषयभोगों से पूर्ण विरक्त - वैरागी थे तथा बाह्य - आभ्यंतर तपस्या में लीन रहते हुए वे बाह्यक्लेशों और दु:खों से कभी दुःखी नहीं होते थे। ऐसे वीतरागी गुरु की शिष्या वास्तव में खुद को गौरवशाली अनुभव करती हैं और उसी पथ की अनुगामिनी बनती हुई ज्ञानमती माताजी की चारित्रिक दृढ़ता भी सचमुच में अनुकरणीय है। सन् 1964 तथा 1985 - 86 में उनकी रूग्णावस्था की कट्टरता उनकी ही ऐतिहासिक कृति "मेरी स्मृतियाँ "3 में दृष्टव्य है। अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलंकारिक सौन्दर्य भरा है स्तुतियों में - सन् 1963 में आपने आर्यिका ज्ञानमती माताजी के रूप में अपने आर्यिकासंघ के साथ सम्मेदशिखर यात्रा के लिए आचार्य श्री शिवसागरजी के संघ से पृथक विहार किया पुन: कलकत्ता और हैदराबाद चातुर्मास करके सन् 1965 में कर्नाटक प्रान्त के श्रवणबेलगोला तीर्थ पर पहुँची। संघ में उस समय आपके अतिरिक्त आर्यिका जिनमतीजी, आर्यिका आदिमतीजी, आर्यिका पद्मावतीजी, क्षुल्लिका श्रेयांसमतीजी और क्षुल्लिका अभयमतीजी थीं। इनमें से कुछ माताओं की अस्वस्थता के कारण आपका श्रवणबेलगोला में एक वर्ष तक (चातुर्मास सहित) प्रवास रहा अत: भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में ध्यान करने का अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ ध्यान में तेरहद्वीप रचना एवं जम्बूद्वीप की उपलब्धि के साथ - साथ आपकी काव्यप्रतिभा भी विशेष रूप से ऐसी प्रस्फुटित हुई कि वह अविरल प्रवाह रूप से चलती आ रही है। वहाँ सर्वप्रथम 'श्री बाहुबलिस्तोत्रम्'4 नाम से भगवान बाहुबली की स्तुति बसन्ततिलका के इक्यावन (51) छन्दों में रची जिसमें अलंकारों की बहुलता ने रत्नजटित आभूषणों से सुसज्जित सुन्दर कन्या की भाँति लालित्य प्रकट किया है। इस स्तोत्र का शुभारंभ आपने इस प्रकार किया है - सिद्धिप्रदं मुनिगणेन्द्रशतेन्द्रवंधे। कल्पद्रुमं शुभकरं धृतिकीर्तिसम॥ पापापहं भवभृतां भववार्धिपोत - मानम्य पादयुगलं पुरूदेवसूनोः ।। 1। स्तोत्र रचयित्री का यह अपना मत है कि कार्य के प्रारंभ में सिद्ध या सिद्धि शब्द के प्रयोग से वह सिद्धिप्रदायक तथा निर्विघ्न कार्यपूर्णता का परिचायक होता है। इसीलिए उनकी संस्कृत और हिन्दी की लगभग समस्त साहित्यिक कृतियों में सिद्ध शब्द से ही रचना की शुरूआत हुई है। इस बाहुबलि स्तोत्र में बाहुबलि भगवान के गुणवर्णन के साथ - साथ उनके शरीर का वर्ण, ऊँचाई, सुन्दरता तथा उनकी ध्यानस्थ अवस्था का बड़ा सुन्दर वर्णन है। श्रवणबेलगोला में विराजमान अतिशयकारी 57 फुट उत्तुंग बाहुबली प्रतिमा के समक्ष बैठकर ही यह स्तोत्र लिखा गया है इसीलिए उनकी छवि भी इसमें वर्णित है - मूर्तिः प्रभो। निरूपमा सुयशोलताभिर्युक्ता सुबाहुबलिनो जिनपस्य तेऽत्र। तिष्ठेच्चिरं जयतु जैनमतश्च नित्यं, चामुंडराजसितकीर्तिलतापि तन्यात्।। 50॥ इसी के हिन्दी पद्यानुवाद में लेखिका संस्कृत का भाव प्रगट करती हैं कि - प्रभो। आपकी मूर्ती अनुपम सुयशलताओं से वेष्टित। , हे बाहूबलि। हे जिनपति। तव मूर्ती तुंग सतावन फुट। तिष्ठे भूपर चिर कालावधि जैनधर्म जयशील रहे। चामुंडराय की उज्ज्वल कीर्तिबेली भी विस्तार लहे। सन् 1965 के इसी प्रवास काल में माताजी ने वहां मालिनी छन्द के 8 श्लोकों में श्रीजम्बूस्वामी की संस्कृतस्तुति लिखी है जो इस युग के अंतिम केवली बनकर मथुरा चौरासी से मोक्ष गये हैं। उन जम्बूस्वामी की रोमांचक कथा शास्त्रों में बहुप्रचलित है कि वे चार सुन्दरी कन्याओं के साथ विवाह करके प्रथम सुहागरात में भी कामभोग में लिप्त न होकर अखंड ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहे और प्रात: जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। उनकी अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिमा स्तुति के प्रथम छन्द में ही निहित है - विहित विमल - सम्यक्खड्गधाराव्रतः प्राक् । भव इह न हि कांतासक्तचेता निकामः ॥ इह भरतधरायामंतिमः केवली तम् । त्रिभुवननुतजम्बूस्वामिनं स्तौमि भक्त्या ॥ 1 ॥ 8 अर्थात् जम्बूस्वामी के पूर्वभव के कथानक का भी इसमें संकेत है कि पहले भव में भी आपने असिधाराव्रत का पालन किया था इसीलिए इस भव में भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर आप इस भरत क्षेत्र के अंतिम अनुबद्ध केवली प्रसिद्ध हुए हैं। इसी प्रकार श्रीमहावीर स्तुति, चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की, आचार्य श्री शिवसागर महाराज की और युग की प्रथम गणिनी आर्यिका ब्राह्मी माता की स्तुतियाँ भी क्रमश: सांगत्यराग भुजंगप्रयातं छंद, बसंततिलका एवं अनुष्टुप् छंद में 41 श्लोकों में रची है जो उन उन के गुणों की परिचायक हैं तथा ज्ञानमती माताजी की संस्कृत साहित्य के प्रति अविस्मरणीय देन है। ' स्तोत्र साहित्य की श्रृंखला में सन् 1965 में आर्यिकाजी ने उपर्युक्त 6 स्तोत्रों में एक सौ ग्यारह (111) श्लोकों की रचना करके मानों 108 कर्मास्रव रोकने एवं रत्नत्रय की पूर्ण प्राप्ति का ही निवेदन भगवान् बाहुबली से किया है। इनके अतिरिक्त वहां बाहुबली का हिन्दी पद्यात्मक चारित्र भी 111 पद्यों में लिखा, जो स्टूडियो से रेकार्डिंग होकर आकाशवाणी से प्रसारित भी हो चुका है। 10 कर्नाटक में जाते ही आपने कुछ पुस्तकों के माध्यम से वहाँ की प्रादेशिक कन्नड़ भाषा सीख ली और तुरंत बाहुबली भगवान की तथा अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की स्तुति कन्नड़ में बनाई और एक कन्नड़ की सुन्दर बारहभावना लिखी जो उधर अत्यधिक प्रचलित हुई है। उससे पूर्व उधर कन्नड़ की बारह भावना शायद कोई थी ही नहीं, इसीलिए यह बारह भावना सबके आकर्षण का केन्द्र बन गई। ऐसी कुछ फुटकर रचनाऐं और भी हुई किन्तु वे पुरानी कापियों में ही छिपकर रह गईं, प्रकाशित न हो पाने से अब उनकी उपलब्धि ही नहीं है, केवल पूज्य माताजी से मैंने सुना ही है। जन्मदिन की सार्थकता संस्कृत साहित्य रचना से - संसार के सामान्य प्राणियों की भांति जन्म लेना और आयु के क्षणों को व्यतीत कर प्रयाण कर जाना कोई विशेष बात नहीं है। पूज्य ज्ञानमती उन सामान्य आत्माओं में से न होकर प्रारंभ से ही विलक्षण प्रतिभा की धनी हैं, तभी तो 7-8 वर्ष की उम्र से ही सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध आन्दोलन कर अपने माता पिता को ही उनसे दूर नहीं किया प्रत्युत गाँव में जिनेन्द्र भक्ति का शंखनाद कर दिया। उसका प्रभाव आज भी टिकैतनगर तथा आस-पास के गाँवों में दृष्टिगत होता है। - दूसरी बात प्राचीन बालसतियों के कथानक पढ़कर उसे अपने ही जीवन में साकार करना इनके ही बस की बात थी अन्यथा इस भौतिकवादी युग में ऐसे कठोर त्याग की बातें सुनना भी सुकुमारिकाएं पसन्द नहीं करती हैं। 47 वर्षों से निरंतर गर्मी, सर्दी, बरसात आदि सहन करते हुए मात्र एक श्वेत साड़ी में रहना, जीवन भर नंगे पैर चलना, चौबीस घंटे में एक बार रूखा सूखा भोजन करपात्र में लेना, प्रत्येक 3 से 4 माह के भीतर सिर के केशों को उखाड़ कर केशलोंच करना, चटाई, पाटे अथवा घास में सो कर शीत अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह सहना आदि दिगम्बर जैन साध्वी की चर्या का उत्कृष्टता के साथ पालन करना एक कुमारी कन्या की दृढ़ इच्छाशक्ति का ही प्रतीक है। इन्होंने शरदपूर्णिमा के दिन शारीरिक जन्म को ही धारण नहीं किया बल्कि सन् 1952 में जब गृहत्याग कर ब्रह्मचर्य दीक्षा ग्रहण की तब उस दिन भी शरदपूर्णिमा ही थी और माँ मोहिनी ने उस समय कहा था कि बेटी! आज तूने जीवन के 18 वर्ष पूर्ण कर 19 वें वर्ष में प्रवेश करते समय जो यह ''भीष्मप्रतिज्ञा'' स्वीकार की है उसके लिए मेरी शमकामनाएँ सदैव तेरे साथ हैं। इस प्रकार शरदपर्णिमा तिथि इनकी संयम बन गई और ज्ञान की चाँदनी से आलोकित होकर ये जन - जन को ज्ञान वितरित करने वाली महासती ब्राह्मी माता के समान प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई। अपने जन्मदिवस पर कभी कोई ख्याति, पूजा की इच्छा न रखते हुए भगवान् जिनेन्द्र के श्रीचरणों में कोई न कोई अपना भक्ति साहित्य का पुष्प समर्पित करने लगीं। यह मौन झलक इनके द्वारा रचित स्तोत्रों की श्लोकगणना में मिलती है, जैसे सन 1966 के सोलापुर चातुर्मास में इन्होंने शरदपूर्णिमा के दिन जन्म के 32 वर्ष पूर्ण कर 33 वें वर्ष में प्रवेश किया था अत: वहाँ उस दिन एक "चन्द्रप्रभस्तुति" के 32 छन्द भुजंगप्रयात, शिखरिणी, पृथ्वी, द्रुतविलम्बित छन्द में बनाकर 33 वें "शार्दूलविक्रीडित छन्द'' में भाव व्यक्त किये हैं - मुक्ति श्रीललनापति: शुभशरत्पूर्णकचंद्रो जिनः। मोहैकाहिविष प्रभूर्च्छितजनान् पुष्यन्सुधावर्षणैः ।। श्रीचन्द्रप्रभ एष चेत्खलु, मया स्तूयेत भक्त्या मयि। पूर्णज्ञानमतीव तर्हि परमानंदात्मकं प्रस्फुरेत्।। 33111 अर्थात् शरदऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान गुणों से परिपूर्ण हे चन्द्रप्रभु भगवान् ! मुझमें भी पूर्णज्ञान का विकास कीजिए। इस स्तुति में रचयित्री की 32 वर्ष पूर्व की रोमांचक गाथा छिपी है उसे प्रसंगोपात्त यहाँ स्पष्ट करना उचित ही होगा - सन् 1952 में आचार्य श्री देशभूषण महाराज का चातुर्मास बाराबंकी शहर में हो रहा था। वहाँ सरावगी मोहल्ले में एक दिगम्बर जैन पंचायती बड़ा मंदिर है जहाँ एक वेदी में भगवान् चन्द्रप्रभ की लगभग 2- फुट की श्वेतपाषाण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। पूज्य ज्ञानमती माताजी के ऊपर क. मैना की अवस्था में जब ब्रह्मचर्य व्रत लेते समय समाज और परिवार के घोर विरोध आए तो ये भगवान के मंदिर में जाकर चन्द्रप्रभ भगवान की शरण में चतुराहार त्याग करके बैठ गईं और कहने लगीं कि हे प्रभो! मेरे गृहत्याग करने के मनोरथ सिद्धि तक अन्नजल का त्याग है तथा अब घर जाकर विवाह बंधन में फंसना मुझे कदापि स्वीकार नहीं है। सदी की यह प्रथम घटना होने के कारण ही शायद इन्हें विरोध का सामना करना पड़ा था जब जनता का वातावरण देखकर आचार्यश्री ने भी कह दिया था कि इस लड़की को उठाकर घर ले जाओ, मैं इसे व्रत नहीं दूंगा। ___ ज्ञानमती माताजी बताती हैं कि उस समय मेरे दिल पर बहुत चोट पहुँची कि अब तो गुरु का सहारा भी छूट गया है फिर भी भगवान् चन्द्रप्रभु के भरोसे अपनी नैया डाल दी और मुझे लगा कि ये भगवान मुझे मेरी रक्षा करने का आश्वासन दे रहे हैं अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन: वास्तव में ऐसा चमत्कार हुआ कि राग पर वैराग्य की विजय हुई। मेरी आराधना की शक्ति से माँ के भावों में परिवर्तन आया और मेरे द्वारा रात भर उन्हें समझाए जाने पर उन्होंने रोते हुए एक कागज पर अपनी स्वीकृति लिखकर दे दी, जिससे मुझे अगले दिन शरदपूर्णिमा को आचार्यश्री ने ब्रह्मचर्य व्रत एवं गृहत्याग व्रत प्रदान कर दिया। भारत को आजादी दिलाने में सहयोगी वीरपुरूषों की भाँति इनका त्याग सचमुच में वर्तमान की कुमारी बालसती आर्यिकाओं के लिए अनुकरणीय है कि इनके बनाये मार्ग पर आज हम चलने के लिए स्वतंत्र हो सके हैं। आपने 33 वें जन्मदिन पर पूज्य श्री द्वारा रचित यह चन्द्रप्रभस्तुति वास्तव में बनारस की घटना वाली समन्तभद्रस्वामी की चमत्कारिक स्तुति का ही स्मरण कराती है। " इसी चातुर्मास में इन्होंने आर्याछन्द के 63 श्लोकों में एक " त्रैलोक्य चैत्यवंदना 12 बनाई जिसमें तीनों लोकों के आठ करोड़ छप्पन लाख सतानवे हजार चार सौ इक्यासी अकृत्रिम जिन चैत्यालयों में विराजमान नव सौ पचीस करोड़, त्रेपन लाख, सत्ताइस हजार, नव सौ अड़तालीस जिन प्रतिमाओं की वन्दना करते हुए मोक्ष के शाश्वतसुख की अभिलाषा व्यक्त की है। पुनः इसी सन् 1966 में इन्होंने 84 श्लोकों के द्वारा " श्रीसम्मेदशिखरवंदना 13 लिखी है। उसमें प्रत्येक कूट से मोक्ष जाने वाले तीर्थंकर एवं मुनियों की गणना देकर सबको सोलापुर में ही बैठकर भावों से नमन किया है। स्तुति के अंतिम छन्दों में कैलाशपर्वत, चम्पापुर, गिरनार, पावापुर आदि अन्य निर्वाणभूमियों की भी वन्दना की है। उपर्युक्त तीनों स्तुतियों का हिन्दी पद्यानुवाद भी माताजी ने स्वयं करके जनसामान्य को उनके रसास्वादन का अवसर प्रदान कर दिया है। इस प्रकार संस्कृत साहित्य के विकास में इन्होंने सन् 1966 में 180 श्लोक तीन संस्कृत स्तुतियों के माध्यम से प्रदान किये और कुछ फुटकर हिन्दी रचनाओं के साथ सदैव संघ का अध्यापन कार्य चलता रहा जो इनके अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का प्रतीक है। सोलापुर के "श्राविकाश्रम'' में किये गये इस चातुर्मास की स्मृति वहाँ आज भी नजर आती है कि वहाँ की संचालिका ब्र. सुमतिबाई जी एवं ब्र. कु. विद्युल्लता जैन शहा के आदेशानुसार वहाँ की सैकड़ों बालिकाएं पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित "उषा वंदना' 14 सामूहिक रूप से पढ़ती हैं। माताजी बताती हैं कि मेरे प्रवास काल में ही वहाँ यह उषा वंदना खूब अच्छी तरह से पढ़ी जाती थी और पण्डिता सुमतिबाईजी मेरे ज्ञान का क्षयोपशम देखकर अतीव प्रसन्न होती थीं तथा मेरे द्वारा चलाई गयी लब्धिसार एवं समयसार आदि की शिक्षण कक्षा में भी वे भाग लेती थी । उपर्युक्त स्तुतियों पर यदि विद्वानों द्वारा जाय तो कालिदास के रघुवंश आदि काव्यों की से वृद्धि हो सकती है। 34 श्लोकों की शांतिजिनस्तुति दक्षिण भारत से विहार करके ज्ञानमती माताजी राजस्थान में आचार्यश्री शिवसागर महाराज के संघ में आ रही थीं उसके मध्य इन्दौर शहर के निकट " सनावद " नामक नगर में सन् 1967 के चातुर्मास का योग आ गया। वहाँ अपने जीवन के 34 वें वर्ष के प्रवेश पर इन्होंने पृथ्वीछन्द के 34 श्लोकों में शांतिनाथ भगवान की एक स्तुति 15 रचकर अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 15 संस्कृत - हिन्दी टीकाओं का लेखन किया भाँति इनकी लोकप्रियता में निश्चित रूप - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरदपूर्णिमा के दिन प्रभु चरणों में समर्पित की। अनेक रस और अलंकारों से समन्वित इस स्तुति का बीसवां छन्द दृष्टव्य है - सुभक्तिवरयंत्रत: स्फुटरवा ध्वनिक्षेपकात्। सुदूर - जिन - पार्श्वगा भगवत: स्पृशंति क्षणात्॥ पुन: पतनशीलतोऽवपतिता नु ते स्पर्शनात्। भवन्त्यभिमतार्थदा: स्तुतिफलं ततश्चाप्यते।। 20॥ अर्थात् हे भगवन्! आपकी श्रेष्ठ भक्ति ही ध्वनिविक्षेपण (रेडियो आदि) यंत्र है उससे प्रगट हई शब्द वर्गणाएं बहत ही दर तक सिद्धालय में आपके पास जाती हैं और वहाँ आपका स्पर्श करती हैं। पुन: पुदगलमयी शब्द वर्गणाएं पतनशील होने से यहाँ आकर भव्यजीवों के मनोरथ की सिद्ध कर देती हैं अतएव इस लोक में स्तुति का फल पाया जाता है अन्यथा नहीं पाया जा सकता था। इसमें उपमा अलंकार का प्रयोग करते हुए लेखिका ने जिनेन्द्रभक्ति को वायरलेस की तरह बतलाया है कि भक्तों की स्तुति के शब्द सिद्धशिला का स्पर्श करने के कारण कार्यसिद्धिकारक बन जाते हैं इसीलिए सच्चे मन से स्तुति करने वाले भक्त श्रीमानतुंगाचार्य, श्रीवादिराजमुनिराज, धनंजयकवि आदि के मनोरथ तुरन्त सिद्ध होने के उदाहरण स्पष्ट हैं। संस्कृत की इस मूलरचना के साथ ही इस चातुर्मास में माताजी ने "पात्रकेसरी स्तोत्र'' 16 का हिन्दी पद्यानुवाद एवं "आलापपद्धति' 17 नामक पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी किया जो पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुकी है। इसी प्रकार सन् 1968 के प्रतापगढ़ (राज.) के चातुर्मास में 35 श्लोकों में "पंचमेरूस्तुति' 18 की रचना हुई जो वर्तमान में "पंचमेरूभक्ति:" नाम से जिनस्तोत्रसंग्रह 19 में प्रकाशित है। पूज्य माताजी ने इस स्तुति के अन्त में प्राकृत की अंचलिका जोड़कर आचार्य श्री कुन्दकुन्द एवं पूज्यपादस्वामी द्वारा रचित दशभक्तियों के समान यह नई भक्ति बना दी है जिसे अनेक साधु - साध्वी पंचमेरू व्रतादि में पढ़ करके अतिशय प्रसन्न होते हैं। सन् 1969 के जयपुर चातुर्मास में इन्हेंने 36 श्लोकों में 'वीरजिनस्तुति" 20 बनाई और उस समय आचार्यश्री शांतिसागरजी महाराज के पट्ट पर आसीन तृतीय पट्टाचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज की दो स्तुतियाँ संस्कृत में लिखीं। इनमें से एक में "वसन्ततिलका" छन्द के 8 श्लोक हैं और दूसरी उपजाति के 12 छन्दों में निबद्ध है। 21 पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् 1957 से लेकर सन् 1971 तक और उसके बाद समय - समय पर अनेक मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं को अपने विशिष्ट ज्ञान के आधार पर संस्कृत व्याकरण, न्याय, छन्द, अलंकार, सिद्धान्त आदि का अध्ययन कराया। जिसे देख - देखकर आचार्यश्री वीरसागर महाराज, आचार्य श्री शिवसागर महाराज एवं आचार्य श्री धर्मसागर महाराज अतीव प्रसन्न होते थे। जयपुर चातुर्मास में मैं प्रथम बार पूज्य माताजी के दर्शन करने आई तो देखा कि मेंहदी चौक के मंदिर में एक आर्यिका माताजी सुबह 7 से 10 बजे तक और मध्यान्ह 11 बजे से 12 बजे तक अपरान्ह 1 बजे से 5 बजे तक अनेक साधु - साध्वियों को पढ़ाती रहती थीं। मुझे तब पहली बार ज्ञात हुआ कि ये मेरी सबसे बड़ी बहन और वर्तमान में आर्यिका ज्ञानमती माताजी हैं। उस समय अध्ययन कक्षा में आचार्य श्री के अतिरिक्त मुनि श्री बोधिसागरजी, मुनि श्री निर्मलसागरजी, मुनि श्री बुद्धिसागरजी, मुनि श्री 16 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमसागरजी, मुनि श्री अभिनन्दनसागरजी, मुनि श्री संभवसागरजी मुनि श्री वर्धमानसागरजी आदि सभी मुनिगण एवं आर्यिका श्री जिनमतीजी, आ. आदिमतीजी, आ. पद्मावतीजी, आ. अभयमतीजी, आ. श्रेष्ठमतीजी, आ. जयमतीजी आदि समस्त आर्यिका माताऐं एवं ब्रह्मचारी मोतीचंदजी सहित संघ के सभी ब्रह्माचारी - ब्रह्मचारिणी पूर्ण निष्ठा एवं रूचिपूर्वक भाग लेते थे। इससे पूर्व मुनि श्री श्रुतसागरजी मुनि श्री अजितसागरजी, मुनि श्री श्रेयांससागरजी, आर्यिका श्रेयांसमतीजी, आर्यिका विशुद्धमतीजी आदि लगभग समस्त मुनि आर्यिकाओं ने इनसे कुछ ग्रंथों का अध्ययन किया जिसे उसी कक्षा में बैठने वाले पं. पन्नालालजी सोनी - ब्यावर, पं. श्रीलालजी शास्त्री - श्रीमहावीरजी, पं. खूबचन्दजी शास्त्री - इन्दौर, पं. इन्द्रलालजी शास्त्री - जयपुर, पं. गुलाबचंदजी दर्शनाचार्य जयपुर आदि उच्चकोटि के विद्वान देखकर आश्चर्यचकित हो कहते थे कि हमारे महाविद्यालय आदि में तो एक एक विषय को मात्र 45-45 मिनट पढ़ाने वाले विद्वान अलग अलग रहते हैं लेकिन ये माताजी अनेक ग्रन्थ जैसे जैनेन्द्रप्रक्रिया ( संस्कृत व्याकरण), राजवार्तिक, गद्यचिंतामणि, अष्टसहस्री, गोम्मटसारजीवकांड, कर्मकांड, प्रमेयरत्नमाला, आप्तपरीक्षा आदि क्लिष्टतम ग्रन्थों को अकेली पढ़ाती हैं। जबकि उन दिनों ये संग्रहणी रोग से ग्रस्त थीं और आहार में मीठा, नमक, तेल, दही आदि रसों का त्याग करके रूखा सूखा निःस्वाद भोजन प्राय: केवल मट्ठा और रोटी ग्रहण करती थीं । - इनकी आत्मशक्ति, ब्रह्मचर्य का प्रभाव और पूर्वजन्म के संस्कार ही इस ज्ञान प्रतिभा में निमित्त मानने होंगे इस जन्म में किसी से उपर्युक्त ग्रन्थों का अध्ययन किये बिना दूसरों को पढ़ाकर निष्णात कर देना भला किसके लिए शक्य हो सकता है ? किन्तु 'इन्होंने तो केवल पढ़ा- पढ़ाकर ही अपने ज्ञान का परिमार्जन किया है। जैन साहित्य जगत् का इतिहास ऐसी अलौकिक साध्वी के उपकारों को युगों-युगों तक भूल नहीं सकता है। - मैंने उपर्युक्त सन् 1969 की कृतियों में जिस "वीरजिनस्तुति" का उल्लेख किया है, कुछ वर्ष पूर्व मैंने उसकी संस्कृत और हिन्दी टीका लिखकर सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका के " चरणानुयोग" स्तंभ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित कराई थी जो भविष्य में लघुकाय ग्रन्थ के रूप में प्रकाशनाधीन है। चातुर्मास की अविस्मरणीय देन संस्कृत साहित्य की क्लिष्टता में जैनागम का न्यायग्रन्थ " अष्टसहस्री" सबसे कठिन ग्रन्थ माना जाता है। जिसे उसके रचयिता श्रीविद्यानन्दि आचार्य ने स्वयं "कष्टसहस्री" संज्ञा से सम्बोधित किया है। 'न्यायतीर्थ' उपाधि की परीक्षा देने वाले विद्यार्थी उसे न्यायदर्शन के विद्वानों की सहायता से बड़ी कठिनतापूर्वक पढ़ते थे। पूज्य ज्ञानमती माताजी के शिष्य ब्र. मोतीचंदजी ने भी न्यायतीर्थ परीक्षा का फार्म कलकत्ता से भरा था अतः माताजी उन्हें अष्टसहस्री का अध्ययन कराती थीं तो उनके निमित्त से सभी साधु-साध्वियों को भी उसका ज्ञान प्राप्त होता था। - अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 अध्ययन के उस माध्यम से पूज्य माताजी ने अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद सन् 1969 के श्रावणमास से करना शुरू कर दिया और सन् 1970 में टोंक (राज.) के चातुर्मास के पश्चात् पौषशुक्ला द्वादशी को लगभग डेढ़ वर्ष में सारा अनुवाद पूर्ण भी कर दिया। जिसे देखकर न्यायदर्शन के उच्चकोटि के विद्वान दांतों तले अंगुली दबाने लगे और तब से ज्ञानमती माताजी की दिव्यज्ञानप्रतिभा से लोग विशेष परिचित होने लगे । दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप - हस्तिनापुर की "वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला' 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से यह अष्टसहस्री ग्रन्थ तीन भागों में प्रकाशित हो चुका है। इसकी हिन्दी टीका का नाम है - स्याद्वादचिन्तामणि टीका। ग्रन्थ की महनता और उसके अनुवाद की सरलता देखकर मुझे तो यह प्रतीत हुआ कि अपनी स्वतंत्र कृति की रचना में अपने ज्ञान का उपयोग करना तो सरल है किन्तु दूसरों की कृति के कठिनतम रहस्य को समझकर उसका अनुवाद करना अत्यन्त दुरूह कार्य है। यदि यह कार्य कुछ बुद्धिजीवियों के द्वारा संभव न होता तो संभवत: संस्कृत साहित्य के विकास में भीषण रूकावट उत्पन्न हो सकती थी। इस दुरूह कार्य को अपने अथक परिश्रम से ज्ञानमती माताजी ने सरल रूप में उपलब्ध कराकर वास्तव में संस्कृत साहित्य के विस्तारीकरण में अपूर्व योगदान प्रदान किया है। न्यायदर्शन के जिज्ञासुओं को अष्टसहस्री के तीनों भागों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। आचार्यश्री विद्यानन्दि देव ने उसमें कहा भी है - श्रोताव्याष्टसहस्री, श्रुतै: किमन्यैः सहसंख्यानैः। विज्ञायते ययैव, स्वसमयपरसमयसद्भावः । अर्थात् एक अष्टसहस्री ग्रन्थ को ही सुनना चाहिए, अन्य हजारों ग्रन्थों को सुनने से क्या लाभ है? क्योंकि उस अष्टसहस्री के स्वाध्याय से स्वसमय और परसमय के सद्भाव की जानकारी प्राप्त होती है। इस अनुवाद की पूर्णता पर माताजी की असीम प्रसन्नता तो स्वाभाविक ही है। उसी प्रसन्नता के फलस्वरूप इन्होंने अनुष्टुप, मन्दाक्रान्ता, आर्या और उपजाति इन चार छन्दों का प्रयोग करते हुए चौबीस श्लोकों में एक "अष्टसहनीवंदना''23 संस्कृत में लिखी, जिसमें ग्रन्थ का प्राचीन इतिहास दर्शाया है कि आज से लगभग अट्ठारह सौ वर्ष पूर्व हुए आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने 114 कारिकाओं में "देवागम स्तोत्र' अपरनाम "आप्तमीमांसा" की रचना की, उन्हीं कारिकाओं पर आठ हजार श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका श्रीविद्यानन्दिदेव ने रचकर ग्रन्थ का नाम "अष्टसहनी" रखा है। इसी श्रृंखला में अपने 37 वें वर्ष के प्रवेश में सन् 1970 में इन्होंने 24 श्लोकों में एक "उपसर्गविजयीपार्श्वनाथ स्तुति:" 24 तथा एक 13 श्लोकप्रमाण "श्रीपायजिनस्तुति:" 25 रची है जो निज पर आक्रामक कर्मों के उपसर्ग दूर करने की भावना को दर्शाने वाली हैं। सन् 1971 के अजमेर (राज.) चातुर्मास में "सुप्रभातस्तोत्र" (७ श्लोकों में) 'मंगल स्तुति' 26 (5 श्लोकों में), 'जम्बूद्रीपभक्ति' 27 (20 श्लोकों में) रची है और सन् 1972 में राजस्थान से विहार करती हुई पूज्य माताजी अपने आर्यिकासंघ के साथ भारत की राजधानी दिल्ली में आ गई तब इनके संघ में इनकी गृहस्थावस्था की माँ मोहिनी जी "आर्यिका श्री रत्नमती माताजी" के रूप में सम्मिलित थीं क्योंकि सन् 1971 अजमेर के चातुर्मास में इन्होंने पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से मगसिर कृ. 3 को आचार्यश्री धर्मसागर महाराज के करकमलों से जब दीक्षा धारण की तो आचार्य श्री ने इनका "रत्नमती" यह सार्थक नाम रखा था। सन् 1972 से सन् 1992 तक 20 वर्ष के काल में पूज्य ज्ञानमती माताजी का प्रवास मुख्यरूप से दिल्ली, हस्तिनापुर एवं पश्चिमी उत्तरप्रदेश में रहा। जिसमें जम्बूद्वीप रचना निर्माण की प्रेरणा तथा विशाल साहित्य का सृजन इनका प्रमुख लक्ष्य रहा। यहाँ विषयवृद्धि के कारण उनका वर्णन शक्य नहीं है। हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप रचना स्थल पर पहुँचकर वहाँ की चतुर्मुखी गतिविधियों को देखने से ही इनका असली अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय प्राप्त हो सकता है, जो पूरे देश में "धरती का स्वर्ग' माना जाता है। संस्कृत साहित्य की रचना के अन्तर्गत इन्होंने सन् 1972 के चातुर्मास में एक 'चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रम्" 28 नाम से उपजाति छन्द के 25 श्लोकों में चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों की स्तुति लिखी, अनुष्टुप् के 25 छन्दों में एक 'श्रीतीर्थकरस्तुति' 29 रची। इसमें संक्षेप में चौबीस जिनवरों की वन्दना निहित है। दिल्ली में उस समय उनके क्षुल्लिका दीक्षा अवस्था के गुरू भारतगौरव आचार्य श्री देशभूषण महाराज भी विराजमान थे। लगभग 17 वर्षों के पश्चात गुरू के दर्शन की खुशी में ही मानो इन्होंने 10 श्लोकों की एक स्तुति गुरूचरणों में समर्पित की थी। 30 आचार्यश्री ने इनकी अलौकिक प्रतिभा तथा अनेक कृतियों का सृजन देखकर भावविभोर होकर आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा - ज्ञानमती! तुम इस युग की वह महान वीरांगना कन्या हो जिसका नाम इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर लिखा जाएगा। इसी सन् 1972 के चातुर्मास में इन्होंने करणानुयोग से सम्बन्धित ग्रन्थ "त्रिलोकभास्कर'' 31 लिखा पुन: 1973 में अनुष्टुप छन्द के 41 श्लोकों में एक 'गणधरवलयस्तुति:" 32 बनाई और 'कातन्त्ररूपमाला' 33 नाम की संस्कृत जैन व्याकरण, भावसंग्रह, भावत्रिभंगी, आस्रवत्रिभंगी नामक संस्कृत ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद कर जनसाधारण को उनके अध्ययन का लाभ प्राप्त कराया 34 तथा एक मौलिक ग्रन्थ "न्यायसार'" 35 लिखा जो न्यायग्रन्थों के ज्ञान प्राप्त कराने हेतु कुंजी के समान है। इनके साथ ही आचार्य श्री पूज्यपाद रचित संस्कृत व्याकरण "जैनेन्द्रप्रक्रिया" का हिन्दी अनुवाद भी प्रारंभ किया था जो लगभग आधा होने के बाद अन्य कार्य व्यस्तता से छूट गया था वह अब तक भी अधूरा ही है। इनमें से कातंत्रव्याकरण ग्रन्थ का प्रकाशन होने के बाद समस्त साधु संघों में उसका खूब अध्ययन / अध्यापन चल रहा है। पूज्य माताजी ने चूँकि अब तक बालक, युवा, प्रौढ़, वृद्ध, विद्वान, भक्त आदि सभी की रूचि और आवश्यकता को देखते हुए उपन्यास, साहित्य, सिद्धान्त, नाटक, पूजा विधान, अध्यात्म आदि के लगभग दो सौ ग्रन्थ लिखे हैं। उन सबकी चर्चा यहाँ न करके मैं उनके द्वारा रचित मात्र संस्कृत साहित्य के विषय में ही प्रकाश डालूँगी जो प्रसंगोपात्त स्तुति साहित्य रचना की श्रृंखला में सन् 1974 से 1977 के मध्य इन्होंने स्रग्धरा छन्द में "श्रीमहावीरस्तवनम्" (6 श्लोक), बसन्ततिलका छन्द में सुदर्शन में "मेरूभक्ति" (5 श्लोक), अनुष्टुप छन्द में "निरंजनस्तुति" (51 श्लोक), "कल्याणकल्पतरू स्तोत्रम्" (212 श्लोक), "वन्दना'' (9 श्लोक), "श्री त्रिंशच्चतुर्विंशतिनामस्तवनं" (130 श्लोक) आदि रचनाएं की हैं। 36 इनमें त्रिंशतचतुर्विंशतिमान स्तवन में सहस्रनामस्तोत्र की तरह से 10 श्लोकों में प्रथम पीठिका है पुन: अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध दश अधिकार हैं जिनके 1-1 अधिकार में एक- एक क्षेत्र सम्बन्धी त्रैकालिक चौबीस के बहत्तर - बहत्तर तीर्थंकरों के नाम हैं और अंत में आठ (8) श्लोक की अष्टप्रार्थना में पंचकल्याणकों से युक्त तीर्थंकर पद प्राप्ति का उत्कृष्ट भाव प्रगट किया है तथा तीन श्लोकों की प्रशस्ति में स्तोत्ररचना का काल वीर निर्वाण संवत् पच्चीस सौ तीन (सन् 1977) का माघ शुक्ला चतुर्दशी तिथि लिखी है जो हस्तिनापुर तीर्थ के प्राचीन मंदिर में लिखी गई कृति है। इसी चातुर्मास में इन्होंने तीसचौबीसी के सात सौ बीस (720) तीर्थंकरों के नाममंत्र भी बनाए जो अलग - अलग तीस पैराग्राफ में हैं। तीसचौबीसी का व्रत करने वालों के लिए उपर्युक्त स्तोत्र और मंत्र बहुत ही उपयोगी रहते हैं। इसी प्रकार पाँच महाविदेहक्षेत्रों में सदैव अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यमान रहने वाले "विरहमाण बीस तीर्थंकर' के नाम मंत्र भी रचे हैं और हिन्दी में उनकी स्तुति है। ये उपर्युक्त स्तोत्र और मंत्र पुण्य वृद्धि हेतु वास्तव में पठनीय हैं। "कल्याणकल्पतरूस्तोत्रम्" एक पठनीय छन्दशास्त्र है - मैंने ऊपर जिस कल्याणकल्पतरूस्तोत्र का नामोल्लेख किया है उसकी अपनी कुछ विशेष महिमा है जिससे पाठकों को परिचित कराना आवश्यक है। संस्कृत छन्द शास्त्रों में एक अक्षरी छन्द से लेकर तीस अक्षरों तक छन्दों का वर्णन आता है। पूज्य माताजी हम सभी शिष्य-शिष्याओं को व्याकरण के साथ-साथ छन्द ज्ञान कराने के लिए "वृत्तरत्नाकर" छन्दशास्त्र पढ़ाती थीं। पुन: उसी के आधार से सन् 1975 में उन्होंने इन सभी छन्दों का प्रयोग भगवान की स्तुति में करने हेतु एक "कल्याणकल्पतरू स्तोत्र'' की मौलिक रचना कर दी। इस स्तोत्र में भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी तक चौबीसों तीर्थंकरों की पृथक - पृथक स्तुतियाँ हैं तथा इनमें क्रम से एकाक्षरी से लेकर तीस अक्षरी छन्द तक कुल एक सौ चवालीस (144) छन्दों का प्रयोग करते हुए भगवन्तों की पंचकल्याणक तिथियाँ, उनके शरीर के वर्ण, आयु, कल्याणक स्थल आदि का पूरा इतिहास निहित कर दिया है। प्रत्येक स्तुति में पांच से दस-बीस तक भी श्लोकों की संख्या है और अन्त में एक 'चतुर्विशंतितीर्थकर स्तोत्र'' नाम से समुच्चय स्तोत्र है। इस प्रकार कुल मिलाकर पूरे कल्याणकल्पतरू स्तोत्र में दौ सौ बारह (212) श्लोक हैं तथा इसमें वर्णिक, मात्रिक, सम, विषम और दण्डक इन पाँच प्रकार के छन्दों का प्रयोग है। "जिनस्तोत्रसंग्रह" 37 पुस्तक में तो यह परा स्तोत्र मात्र छन्द के नामों सहित प्रकाशित है और "कल्याणकल्पतरू स्तोत्र'"38 के नाम से एक अलग पुस्तक भी जम्बूद्वीप से सन् 1992 में छपी है जिसमें सभी स्तुतियाँ पृष्ठ के बाई ओर हैं और दाहिनी ओर स्तुतियों के अन्वयार्थ तथा अर्थ हिन्दी में प्रकाशित हैं एवं स्तुतियों के नीचे आधे - आधे पृष्ठों में उन - उन, स्तुतियों में प्रयुक्त सभी छन्दों के लक्षण दिये गये हैं। स्तुतियों के पश्चात् भी इस पुस्तक में "छन्दविज्ञान' नामक प्रकरण के अन्दर छन्दों के विशेष लक्षण, उनकी उपयोगिता तथा अर्धसमवर्णछन्द, विषमवर्ण छन्द, मात्रा छन्द आदि के भेद और लक्षणों का वर्णन होने से यह पुस्तक एक साकार उदाहरण सहित एक "छन्दशास्त्र" ग्रन्थ बन गया है जो छन्द ज्ञानपिपासुओं के लिए अत्यंत' पठनीय एवं दर्शनीय है। इस पुस्तक के अन्त में संस्कृत का एक "एकाक्षरी कोश" भी प्रकाशित स्तोत्र के किंचित प्रकरण यहाँ उद्धृत करती हूँ जिससे पाठकों को उसके विषय का आंशिक ज्ञान प्राप्त हो सकेगा। यथा - एकाक्षरी, द्विअक्षरी, त्रिअक्षरी और चतुरक्षरी छन्दों में निबद्ध ऋषभजिनस्तुति के कुछ पद्य देखें - श्री छन्द (एकाक्षरी) - ॐ, मां। सोऽव्यात्॥1॥ स्त्रीछन्द (दो अक्षरी) - जैनी, वाणी। सिद्धिं, दद्यात्।।2।। केसाछन्द (तीन अक्षरी) - गणीन्द्र। त्वदंधिं। नमामि, त्रिकालं॥3॥ नारी छन्द (तीन अक्षरी) - श्री देवो, नाभेयः। वन्देऽहं, तं मूर्ना॥4॥ कन्या छन्द (चार अक्षरी) - पू: साकेता, पूता जाता। त्वत्सूते:सा, सेन्द्रमान्या।। 5 ।। व्रीड़ा छन्द (चार अक्षरी) - महासत्यां, मरूदेव्यां। सुतोभूस्त्वं, जगत्पूज्य: ।। 6 ॥39 उपर्युक्त छन्दों के माध्यम से भगवान की दिव्यध्वनि का प्रतीक 'ॐ' बीजाक्षर जो परम ब्रह्म परमेष्ठी का वाचक सर्वसम्प्रदाय मान्य मंत्र है। उसे प्राणियों का रक्षक बतलाकर जैन वाणी - जिनेन्द्र भगवान की वाणी को सर्वसिद्धिप्रदायक कहा है तथा ऋषभदेव की अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म नगरी अयोध्या और उनके माता - पिता का भी नामोल्लेख किया है। इसी प्रकार सत्रह अक्षरी छन्द 'हरिणी' के द्वारा मुनिसुव्रत भगवान की स्तुति में कहती हैं - स्वगुणरूचिरैः रत्नैः, रत्नाकरो व्रतशीलभृत। समरसभरैः नीरैः, पूर्ण: महानिधिमान् पुमान्॥ त्रिभुवनगुरुर्विष्णु-ब्रह्मा शिवो जिनपुंगवः । विगलितमहामोहो दोषो जिनो मुनिसुव्रतः।।40 अर्थात् हे मुनिसुव्रत जिनेन्द्र! आप तीन लोक के गुरु हैं, विष्णु हैं, ब्रह्मा हैं, महादेव हैं और जिनों में श्रेष्ठ जिनेन्द्र देव हैं। आप महामोह से रहित एवं अठारह दोषों से रहित तीर्थंकर भगवान हैं। पुन: स्तोत्र के समापन में समुच्चय स्तुति के अन्दर 'अर्णोदण्डक' नामक तीस अक्षरी छन्द में माताजी ने पंचबालयतियों की पृथक वन्दना की है - प्रणतसुरपतिस्फुरन्मौलिमालामहारत्नमाणिक्यरश्मिच्छटारंजितां ! प्रभो। सुरभितभुवनोदरं त्वत्पदांभोरुहं प्राप्य भव्या जना: सौख्यपीयूषपानं व्यधुः। मुनिपतिनतवासुपूज्य: मल्लिर्जिनो नेमिपार्यो महावीरदेवश्च पंचेति ये। परिणयरहिता: कुमाराश्च निष्क्रम्य दीक्षावधूटीवरा भक्तितस्तान् सदा नौम्यहं6 ॥41 इस छन्द का सारांश यह है कि वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीरस्वामी ये पाँच तीर्थंकर विवाह न करके कुमार अवस्था में ही दीक्षा लेकर तपश्चर्यारूपी स्त्री के पति हो गये हैं। उन पाँच बालयति तीर्थंकरों को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करती हूँ सिद्धानाराध्य इत्यादि इस प्रकार यह कल्याणकल्पतरू स्तोत्र पढ़ने वाले भक्तों के लिये कल्याणकारी होगा और कल्पवृक्ष के समान इच्छित फल को प्रदान करेगा, यही मेरा विश्वास है। आराधना नामक आचार शास्त्र का सृजन - सन् 1977 (वी.नि.संवत् 2503) में पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र पर मूलाचार, आचारसार, अनगारधर्मामृत, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों के आधार से चार सौ चवालीस श्लोक प्रमाण एक 'आराधना' नाम से दिगम्बर जैन मुनि - आर्यिका आदि की चर्या बतलाने वाला आचारसंहिता ग्रन्थ रचा और उसका हिन्दी अनुवाद भी स्वय किया जो लगभग 150 पृष्ठों की पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुका है। 42 यह ग्रन्थ दर्शनाराधना. ज्ञानाराधना. चारित्राराधना. समाचारविधि नित्यक्रिया. नैमित्तिक क्रियाएँ, तप आराधना और आराधक नाम के आठ अधिकारों में निबद्ध है। इसका शुभारम्भ सिद्धानाराध्य .... इत्यादि मंगलाचरण से करके सर्वप्रथम एक श्लोक में आराध्य, आराधक, आराधना और उसका फल बतलाया है - रत्नत्रयं सदाराध्यं, भव्यस्त्वाराधक: सुधीः । आराधना युपाय: स्यात्, स्वर्गमोक्षौ च तत्फलम्।। 2 ।।43 अर्थ - सत् रत्नत्रय ही आराधना करने योग्य होने से 'आराध्य' है। बुद्धिमान भव्य ही आराधना करने वाला होने से 'आराधक' है। इसकी प्राप्ति का उपाय ही 'आराधना' है और स्वर्ग तथा मोक्ष ही 'आराधना का फल' है। वर्तमान में दुनिया भर में अपने को भगवान कहलाने वाले लगभग तीन सौ महानुभाव अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यमान हैं और साधु शब्द से सम्बोधित किये जाने वाले तो लाखों होंगे, किन्तु उन सभी में जैन संतों एवं साध्वियों की संख्या अत्यल्प है और उसमें भी दिगम्बर जैन मुनि, आर्यिका और क्षुल्लक, क्षुल्लिका के चतुर्विध संघ के साथ पैदल विहार करने वाले साधु - साध्वी मात्र भारतवर्ष की वसुन्धरा पर ही उपलब्ध होते हैं और उनकी संख्या 1000 से कम ही है। लगभग सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में सैकड़ों की यह संख्या यद्यपि नगण्य के बराबर है फिर भी उनकी चर्या अपने आप में विलक्षण और आत्मोन्मुखी मानी गई है। जैन साधु - साध्वियों की प्रत्येक चर्या एवं क्रिया में मूलरूप से अहिंसा धर्म के पालन की प्रमुखता है जिससे द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनों से विरक्ति होती है। इस 'आराधना' ग्रन्थ में उपर्युक्त आठ अधिकारों में से 'चारित्राराधना' नामक तृतीय अध्याय में मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण बतलाते हुए माताजी ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का वर्णन करते हुए 'महाव्रत' शब्द की सार्थकता बतलाई है - तीर्थकृच्चक्रवर्त्यादि महापुरुषसेवितम्। तस्मान्महाव्रतं ख्यातमित्युक्तं मुनिपुंगवै: ।। 55 ||" अर्थात् तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदिमहापुरुषों के द्वारा जो सेवित हैं इसलिये ये महाव्रत इस प्रकार से प्रसिद्ध हैं, ऐसा मुनिपुगंवों ने कहा है। इस विषय में श्वेताम्बर जैन परम्परा का मत है कि भगवान ऋषभदेव से लेकर पार्श्वनाथ तक चातुर्याम धर्म का प्रचलन था अर्थात् वे अहिंसा, सत्य, अचौर्य एवं अपरिग्रह ये चार महाव्रत पालते थे और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी ने इसमें ब्रह्मचर्य को मिलाकर पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है किन्तु दिगम्बर जैनियों की मान्यतानुसार ऐसा नहीं है। बल्कि पाँच महाव्रत तो प्राकृतिक रूप से अनादिकाल से जैन साधु- साध्वी पालन करते आ रहे हैं ऐसा वर्णन चरणानुयोग ग्रन्थों में पाया जाता है। श्री गौतमगणधरस्वामी ने भी पाक्षिक प्रतिक्रमण सूत्रों में महाव्रत के विषय में कहा है कि - 'पढ़मे महव्वदे पाणादिवादादो वेरमणं उवट्ठावण ---- मंडले महत्थे महागुणे महाणुभावे महाजसे महापुरिसाणु-चिण्णे ----145 इसके हिन्दी पद्यानुवाद में पूज्य ज्ञानमती माताजी ने लिखा है - प्रथममहाव्रत में प्राणों के घात से विरती होना है। यह महाव्रत उपस्थापनामंडल प्रशस्त सव्रतारोपण है। महाअर्थ है महानुगुणमय महानुभाव महात्म्य है। महासुयश महापुरुष तीर्थंकर आदि जनों से अनुष्ठित है।।46 अर्थात् तीर्थंकर आदि महापुरुष भी इन महाव्रतों को एक सामायिक चारित्र रूप से धारण करते हैं इसीलिये इन व्रतों को महाव्रत की संज्ञा दी है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों का पूर्ण रूप से त्याग ही महाव्रत रूप से परिणत हो जाता है तथा इन महाव्रतों का पालन करने वाले दिगम्बर साधु महाव्रती मुनि कहलाते इस आराधना ग्रन्थ के छठे अधिकार में साधुओं के संयम का उपकरण जो मयूरपंख की पिच्छिका होती है, उसके गुणों के बारे में बतलाया है - __ स्वेदधूल्योरग्रहणं, मार्दवं सुकुमारता। 22 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुत्वं चैति पंचैते, पिच्छिकायां गुणा मता: 147 अर्थात् पसीना और धूलि को ग्रहण न करना, मृदुता, सुकुमारता और लघुता ये पाँच गुण पिच्छिका में माने गये हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की रक्षा हेतु ही यह पिच्छिका समस्त दिगम्बर जैन आम्नाय के साधु-साध्वियों को ग्रहण करना आवश्यक होता है। अर्थात् उनका चिन्ह ही पिच्छिका होती है, उसके बिना 'साधु' संज्ञा प्राप्त नहीं होती है क्योंकि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी 'गिप्पिच्छे णत्थि जिव्वाणं' 48 पद से यही भाव प्रगट किया है। इस प्रकार अनेक प्रकरणों से समन्वित यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण पठनीय है। इसकी संस्कृत - हिन्दी टीका हो जाने पर निश्चित ही यह एक "मूलाचार' ग्रन्थ की भाँति साधुओं की संहिता के रूप में प्रचलित हो जाएगा। ग्रन्थ पर संस्कृत टीका लिखने की मेरी तीव्र अभिलाषा है, पूज्य माताजी के आशीर्वाद से मुझ में यह शक्ति जागृत हो यही मंगल भावना है। नियमसार की स्याद्वादचन्द्रिका टीका अध्यात्मजगत को अमर देन - आचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी का नियमसार ग्रन्थ आपकी विशेष अभिरूचि का पात्र प्रतीत होत है क्योंकि सन् 1977 में नियमसार की मूल गाथाओं का पद्यानुवाद किया एवं श्रीपद्मप्रभमलधारी देवकृत उसकी संस्कृत टीका का भी हिन्दी में अनुवाद किया जो फरवरी सन् 1985 में प्रकाशित हो चुका है। ___ इतना कार्य होने के बाद भी शायद आपको पूर्ण सन्तुष्टि नहीं हुई अत: कुन्दकुन्द के भावों को सरलतापूर्वक जनसाधारण को समझाने हेतु सन् 1978 में उन गाथाओं पर संस्कृत टीका लिखने का भाव बनाया और लगभग 62 ग्रन्थों के उद्धरण आदि के साथ नयव्यवस्था द्वारा मुणस्थान आदि के प्रकरण स्पष्ट करते हुए नवम्बर सन् 1984 में वह 'स्याद्रादचन्द्रिका" टीका लिखकर पूर्ण की है। टीका का हिन्दी अनुवाद भी आपने स्वयं ही किया है तथा प्रसंगोपात्त विशेषार्थों से ग्रन्थ में चार चाँद लग गए हैं। सन् 1985 में यह ग्रन्थ प्रकाशित होकर विद्वान पाठकों तक पहुँच मया।50 इस टीका में 6 वर्ष लगने का कारण माताजी ने स्वयं "आद्यउपोद्घात' में बताया है कि 74 गाथाओं की टीका एक वर्ष में हो गई थी पुन: सन् 1979 में सुमेरूपर्वत की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के बाद मैंने दिल्ली की ओर विहार कर दिया अत: लेखन बन्द हो गया पुन: अन्य अनेक लेखन कार्य आदि में व्यासंग से उसकी ओर ध्यान ही नहीं गया। सन् 1984 के चातुर्मास में जब उसका वाचन करने के लिए हस्तलिखित टीका पृष्ठ निकाले गये तो संघस्थ कु. माधुरी (वर्तमान में आर्यिका चन्दनामती माताजी) के निवेदन पर मैंने पुन: टीकालेखन प्रारंभ किया और 24 नवम्बर सन् 1984 को पूर्ण कर दिया। इस प्रकार पहले 11 माह तक पुन: 8 माह तक इसका लेखन करके कुल 19 माह में इसकी संस्कृत और हिन्दी दोनों टीकाएं लिखकर पूर्ण की हैं। इस नियमसार ग्रन्थ में कुल 187 गाथाएं हैं। तीन महाधिकार और सैंतीस अंतराधिकारों में माताजी ने ग्रन्थ का विभाजन किया है। इसकी प्रस्तावना में डा. लालबहादुर जैन शास्त्री-दिल्ली ने लिखा है कि "यदि इस टीका को नारी जगत के मस्तक का टीका कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी क्योंकि किसी महिला साध्वी के द्वारा की गई वह पहली ही टीका है जो शब्द, अर्थ और अभिप्रायों से सम्पन्न है।" 51 आचार्य श्रीकुन्दकुन्द ने जिस प्रकार समयसार आदि ग्रन्थों में अध्यात्मतत्व का विशेष वर्णन किया है उसी प्रकार नियमसार में मुनियों के व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय का वर्णन अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मता से किया है। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने संभवत: इसीलिए नियमसार ग्रन्थ को अपने कार्यक्षेत्र का विशेष अंग बनाया है कि कुन्दकुन्द स्वामी के प्रति लोगों की जो भ्रान्त धारणा है कि वे मात्र आध्यात्मिक थे और उन्होंने अध्यात्मग्रन्थ ही लिखे हैं वह इस नियमसार ग्रन्थ के स्वाध्याय से निकल जानी चाहिए। नियमसार की इस टीका में आचार्य श्री जयसेन स्वामी की समयसार, प्रवचनसार आदि की तात्पर्यवृत्ति टीका पद्धति की पूरी छाप दिखती है। यह अत्यंत सरल और प्रभावक तो है ही, साथ ही अनेक ग्रन्थों के प्रमाण इसकी प्रमाणिकता को द्विगुणित करते हैं। पण्डित मक्खनलाल जी ने कहा - आप श्रुतकेवली हैं - सन 1978 के एक प्रशिक्षण शिविर में जैन समाज के उच्चकोटि के लगभग 100 विद्वान हस्तिनापुर पधारे थे तब पूज्य माताजी के द्वारा लिखी जा रही इस टीका को देखकर उन लोगों ने महान आश्चर्य व्यक्त किया और मुरैना के पंडित मक्खनलाल जी शास्त्री तो हर्ष से उछल पड़े और बोले कि "माताजी"! आप तो इस पंचमकाल की श्रतकेवली हैं, क्योंकि आज तक जो कार्य हम विद्वान भी नहीं कर पाये, वह आपने कर दिखाया है।" इसी प्रकार पं. फूलचन्द जैन सिद्धान्तशास्त्री - बनारस ने सन् 1986 में माताजी की अस्वस्थता के समय इस ग्रंथ का पूरा स्वाध्याय पूज्य माताजी के सानिध्य में किया तो वे भी कहने लगे कि "माताजी ने पूर्णरूप से आर्ष परम्परा का अनुसरण करते हुए [ का लेखन किया है अत: इसमें शंका की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है।" अनेक विद्वान एवं स्वाध्यायियों ने ग्रंथ का स्वाध्याय करके अपने अच्छे - अच्छे विचार प्रगट किये हैं जिन्हें यहाँ देना संभव नहीं हो पा रहा है। वर्तमान में इस ग्रंथ की टीका पर पण्डित श्री शिवचरणलाल जैन - मैनपुरी एक हत्काय शोधप्रबन्ध लिख रहे है जो शीघ्र ही पाठकों के समक्ष प्रस्तत होगा। कल मिलाकर नियमसार ग्रन्थ की "स्याद्वादचन्द्रिका'' टीका इस बीसवीं सदी की एक अनोखी उपलब्धि है, जिसके विषय में टीकाकी स्वयं लिखती है कि - "अयं ग्रन्थो नियमकुमुदं विकासयितुं चन्द्रोदय: तस्य चन्द्रोदयस्य (ग्रन्थस्य) टीका चन्द्रिका।" अथवा द्वितीय व्युत्पत्ति इस प्रकार भी है - "यतिकैरवाणि प्रफुल्लीकर्तुं राकानिशीथिनीनाथत्वात् यतिकैरवचन्द्रोदयोऽस्ति। अस्मिन् पदे पदे व्यवहारनिश्चयनययोंर्व्यवहारनिश्चयक्रिययोर्व्यवहारनिश्चयमार्गयोश्च परस्परमित्रत्वात् अस्य विषय: स्याद्वादगीकृतो वर्ततेस्य टीका चन्द्रोदयस्य चन्द्रिका इव विभासतेऽतो स्याद्वादचन्द्रिका नाम्ना सार्थक्यं लभते''51 अर्थात सारांश यह है कि माताजी ने स्वरचित टीका का नाम "स्याद्वादचन्द्रिका' बड़ी सूझ - बूझ के साथ रखा है। टीका के एक - एक प्रकरण हृदयग्राही हैं जो ग्रंथ के स्वाध्याय से ही ज्ञात हो सकते हैं। लगभग छह सौ पृष्ठों में प्रकाशित यह "नियमसार प्राभृत' ग्रन्थ इस युग को एक अपूर्व देन है। इस वृहत्कार्य के पश्चात् भी पूज्य माताजी ने साहित्यिक कार्यों से विराम नहीं लिया प्रत्युत् समयोचित ग्रन्थों का सृजन भी करती रहीं और यदा - कदा संस्कृत स्तुति, भक्ति आदि का लेखन भी चलता रहा अत: संस्कृत काव्य श्रृंखला में पुन: संख्या वृद्धि हुई। दशलक्षण भक्ति (12 श्लोक), मंगलचतुर्विंशतिका (शार्दूलविक्रीडित के 25 श्लोक), 24 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाष्टक स्तोत्र (अनुष्टुप के 9 श्लोक), मंगलाष्टक (अनुष्टुप के 9 श्लोक), स्वस्तिस्तवन (इन्द्रवज्रा के श्लोक), समयसार वंदना (अनुष्टुप के 10 एवं मन्दाक्रान्ता का 1 ऐसे 11 श्लोक), सोलहकारणभक्ति (उपजाति के 17 एवं अनुष्टुप का 1 ऐसे 18 श्लोक) तथा उत्तमक्षमा आदि दशलक्षण धर्म का सार को बतलाने वाली "दशधर्मस्तुति" अनुष्टुप के 54 छन्दों में निबद्ध है। 52 इन सबमें भक्तिरस, अध्यात्म, करूणा एवं शान्तरस की प्रधानता के साथ - साथ उपमा, यमक, श्लेष, अनुप्रास आदि अलंकारों का समावेश स्तुति रचयित्रि की काव्य प्रतिभा का दिग्दर्शन कराता है। इनकी रचनाओं में कहीं भी ग्रामीण एवं अश्लील शब्दों का प्रयोग तो देखने में नहीं आता है प्रत्युत उच्चकोटि के साहित्यिक शब्दों का प्रयोग संस्कृत कोश के अध्ययन का प्रतीक है। संस्कृत रचनाओं में जैन व्याकरण के एक विशेष नियम का प्रयोग है - इनके द्वारा रचित अनेक स्तोत्रों में पाद के अन्त में कई जगह मकार के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है जिसे देखकर अच्छे - अच्छे संस्कृतज्ञ विद्वान इसे संस्कृत की त्रुटि मानकर वहां मकार लिखने की सलाह देने लगते हैं किन्तु इस विषय में पूज्य माताजी ने बताया कि मैंने अपनी स्तुतियों में जानबूझकर जैन व्याकरण के इस नियम को अपनाते हए ही पदांत मकार को. अनुस्वार किया है क्योंकि कातन्त्ररूपमाला में श्रीशर्ववर्म आचार्य ने व्यंजनसंधि के 92 वें सूत्र "विरामे वा' में कहा है कि "विराम में पदांत मकार का अनुस्वार विकल्प से होता है "जैसे - देवानां अथवा देवानाम्, पुरूषाणां अथवा पुरूषाणाम् देवं अथवा देवम्।53 यह वैकल्पिक नियम कातंत्रव्याकरण के अतिरिक्त अन्यत्र किसी भी व्याकरण में नहीं है, सर्वत्र विराम में अनुस्वार न करने अर्थात् मकार ही रखने का विधान है। इस नियम को प्रमाण मानकर विद्वज्जन माताजी द्वारा रचित गद्य-पद्य सभी रचनाओं में पदान्त में प्रयुक्त अनुस्वार को व्याकरण की गलती न समझकर विशेष नियम का प्रयोग ही समझें। जैसे - श्रीपार्श्वजिनस्तुति के इस पृथ्वी छन्द को देखें जिसके चारों चरणों के अन्त में अनुस्वार है - सुरासुर - खगेन्द्रवंद्य - चरणाब्जयुग्म प्रभुं। महामहिम- मोहमल्ल- गजराज-कंठीरवं॥ महामहिम - रागभूमिरुह - मूलमुत्पाटनं। स्तवीमि कमठोपसर्गजयि - पार्श्वनाथं जिनं। 1।54 तथा पदान्त में मकार प्रयोगवाली स्तुतियाँ भी हैं, श्रीशांतिसागर स्तुति का भुजंग प्रयात छंद में निबद्ध निम्न पद्य देखें - सुरत्नत्रयैः सद्रवतै जमान:, चतु:संघनाथो गणीन्द्रो मुनीन्द्रः। महामोहमल्लैकजेता यतीन्द्रः, स्तुवे तं सुचारित्रचक्रीशसूरिम्।। 1।।55 षट्खण्डागम ग्रन्थ की संस्कृत टीका - सिद्धान्तचिन्तामणि - अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के पश्चात् उनकी दिव्यध्वनि से प्राप्त अंग - पूर्वो का ज्ञान जब लुप्तप्राय: होने लगता तब ईसवी सन् 73 के लगभग श्रीधरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त - भूतबली अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 *25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम के दो सुयोग्य मुनिराजों को उनका अंशात्मक ज्ञान प्रदान किया जिसके फलस्वरूप उन्होंने 'षट्खंडागम' नामक सिद्धान्तशास्त्र का निर्माण किया। उल्लेखानुसार कतिपय अन्य आचार्यों ने भी उस पर टीकाएँ लिखीं। पुन: उनके सत्रों पर आज से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व (सन् 816 में हुए) श्रीवीरसेनाचार्य के द्वारा "धवला' नामक टीका (प्राकृत एवं संस्कृत मिश्रित) लिखी गई। उनके पश्चात् षट्खण्डागम सूत्रों पर किसी भी आरातीय आचार्य अथवा विद्वान ने लेखनी चलाने का उपक्रम नहीं किया था, वह उद्यम इस सदी की ऐतिहासिक नारी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने कर दिखाया है। 8 अक्टूबर सन् 1995 को शरदपूर्णिमा के पावन दिवस पर उन्होंने इस षट्खण्डागम सूत्रग्रन्थ का मंगलाचरण लिखकर एक सरल संस्कृत टीका लिखने का प्रारंभीकरण किया और मात्र 135 दिन में प्रथम खण्ड की एक पुस्तक में निहित 177 सूत्रों की संस्कृत टीका (फुलस्केप कागज के) 163 पृष्ठों में लिखकर पूर्ण कर दी। जो मेरे द्वारा की गई हिन्दी टीका समेत 5 अक्टूबर 1998 को ग्रन्थरूप में प्रकाशित हो चुकी है।56 इस टीका का नाम पूज्य माताजी ने "सिद्धान्तचिन्तामणि' यह सार्थक ही रखा है। पिछले तीन वर्षों में इन्हीं षट्खण्डागम के दो खण्डों की 7 पुस्तकों की टीका पूर्ण कर चुकी हैं और वर्तमान में आठवीं पुस्तक (तृतीय खण्ड) का लेखन चल रहा है, वह भी पूर्णप्राय होने वाला है। इनकी संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है - षटखण्डागम के प्रथम खण्ड में छह पुस्तकें हैं जिनकी सूत्र संख्या 2375 है। द्वितीय खण्ड में सातवीं पुस्तक है उसकी सूत्र संख्या 1594 है। तृतीय खण्ड में आठवीं पुस्तक है उसकी सूत्र संख्या 324 है। इस प्रकार कुल चार हजार दो सौ तिरानवे (4293) सूत्रों की संस्कृत टीका हो चुकी है इनकी हिन्दी टीका का कार्य चालू है जो यथा समय प्रकाशित होकर ग्रन्थरूप में पाठकों के हाथों तक पहुँचेगे। लगभग प्रन्द्रह सौ पृष्ठों में आठ पुस्तकों की संस्कृत टीका लिखी जा चुकी है। इन्होंने अपने टीकाग्रन्थ के मंगलाचरण में भी सर्वप्रथम "सिद्धान्' शब्द का प्रयोग किया है जो इनकी कार्यसिद्धि का प्रबल हेतु प्रतीत होता है। वह अनुष्टुप् छन्द यहाँ देखें सिद्धान् सिद्ध्यर्थमानम्य, सर्वांस्त्रैलोक्यमूर्ध्वगान्।। इष्टः सर्वक्रियान्तेऽसौ, शान्तीशो हृदि धार्यते॥.1057 प्रथम पुस्तक की टीका के समापन में माताजी ने प्रथम और अंतिम तीर्थंकर का स्मरण करते हुए लिखा है कि - जीयात् ऋषभदेवस्य, शासनं जिनशासनम्। ___ अन्तिमवीरनाथस्या - प्यहिंसाशासनं चिरम्।। 1 158 इसी प्रकार ग्रन्थ की अंतिम प्रशस्ति में माताजी ने अपनी गुरूपरंपरा का किंचित परिचय प्रदान किया है जो गुरूभक्ति के साथ ही इनके टीकाकाल की प्रमाणता का भी परिचायक है। बीसवीं सदी में जब इन्होंने प्रथम कुमारी कन्या के रूप में आर्यिका दीक्षा धारण कर "ज्ञानमती" नाम प्राप्त किया तब तक "ज्ञानमती" नाम से कोई भी आर्यिका - क्षुल्लिका नहीं थीं। किन्तु उसके बाद कुछ अन्य संघों में भी "ज्ञानमती" नाम की एक - दो आर्यिकाओं 26 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रादुर्भाव हुआ है अत: सामान्य लोग कभी - कभी नाम साम्य से दिग्भ्रमित हो जाते हैं किन्तु इनकी कृतियाँ विलक्षण प्रतिभाओं से युक्त होने के कारण इनके व्यक्तित्व का भी बिल्कुल पृथक ही अस्तित्व झलकाती हैं। "ऋषभदेवचरितम्" एक साहित्यिक देन - मैं ज्यों-ज्यों इस लेख को समापन की ओर पहुँचाने का प्रयास कर रही हूँ, त्यों - त्यों लेख का विषय बढ़ता जा रहा प्रतीत होता है। किन्तु एक और साहित्यिक देन से पाठकों को अपरिचित रखना भी उचित नहीं होगा। उपर्युक्त कृतियों का उल्लेख करते समय स्मरण आया कि प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का जो जीवन चरित्र पूज्य माताजी ने संस्कृत में लिखा है उसका भी कुछ अंश प्रस्तुत करूँ अत: "ऋषभदेव चरितम्'' का नाम एक साहित्यिक कृति के रूप में उल्लिखित किया है। इस कृति में भगवान् ऋषभदेव के जीवन का उत्थान किस पर्याय से शुरू हुआ है और वे भगवान् की श्रेणी तक कैसे एवं कब पहुँचे, इन समस्त विषयों का वर्णन महापुराण ग्रन्थ के आधार से दिया है। राजा महाबल से लेकर तीर्थंकर ऋषभदेव तक उनके दशभवों का वर्णन देकर भोगभूमि और देवगति के सुखों का भी वर्णन किया है। युग की आवश्यकता को देखते हुए वर्तमान में पूज्य माताजी ने भगवान् ऋषभदेव एवं जैन धर्म के सिद्धान्तों को देश - विदेश में प्रसारित करने का जो बीड़ा उठाया है उसी के अन्तर्गत विद्वत्समाज की आवश्यकता की पूर्ति हेतु इस "ऋषभदेवचरित' का लेखन 11 दिसम्बर 1977 को प्रारंभ किया है। षट्खण्डागम टीका एवं अन्य लेखनकार्यों के साथ - साथ इसका भी कार्य मध्यम गति से चला और कभी-कभी तो बिल्कुल बन्द भी रहा तथापि यह समापन की श्रृंखला में है। लगभग 150 पृष्ठों में माताजी द्वारा लिखित इस कृति का हिन्दी अनुवाद मेरे द्वारा किया जा रहा है, जो शीघ्र ही विद्वत्समाज के समक्ष प्रस्तुत होगा। इसका प्रारंभीकरण शार्दूलविक्रीडित छन्द के इन भावों से हुआ है - सिध्दा ये कृतकृत्यतामुपगतास्त्रैलोक्यमूर्ध्नि स्थिताः । तीर्येशा: ऋषभादिवीरचरमास्त्रैकालिका ये जिनाः ॥ तान् सर्वान् हृदि संनिधाय चरितं चाप्यादिनाथस्य हि। भक्त्या श्रीऋषभस्य केचिद्गुणा: कीर्त्यन्त एवाधुना।। 1।। अर्थात् सिद्धिशिला पर विराजमान अनन्त सिद्धपरमात्मा तथा ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थंकरों को हृदय से धारण करके लेखिका ने तीर्थंकर ऋषभदेव का शुभचरित्र लिखने का संकल्प उपर्युक्त श्लोक में दर्शाया है जो उनकी ईश्वरभक्ति एवं आस्तिक्यगुण का परिचायक है। उपसंहार - अपने अभीक्ष्णज्ञानोपयोग में संलग्न पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी को जहां जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी होने का श्रेय प्राप्त है वहीं इनकी अनमोल साहित्य सेवा का मूल्यांकन करते हुए फैजाबाद (उ.प्र.) के डा. राममनोहर लोहिया विश्वविद्यालय ने इन्हें 5 फरवरी 1995 को एक विशेष दीक्षान्त समारोह में "डी. लिट्' की मानद उपाधि से अलंकृत कर अपने विश्वविद्यालय को गौरवान्वित अनुभव किया। इनके जीवन की विशेषता में निम्न पंक्तियाँ बिल्कुल सार्थक ठहरती हैं - अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ITEMT नैराश्य मद में डबते नर के लिए नव आस हो। कोई अलौकिक शक्ति हो अभिव्यक्ति हो विश्वास हो॥ कलिकाल की नवज्योति हो उत्कर्ष का आभास हो। मानो न मानो सत्य है तुम स्वयं में इतिहास हो॥ उपर्युक्त काव्यकृतियों के आधार पर यदि ज्ञानमती माताजी को "महाकवयित्री'' कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि वैदिक परम्परा में महाकवि कालिदास, भास, माघ और बाणभट्ट का जो स्थान है, जैन परम्परा में अकलंकदेव, समन्तभद्र, अमृतचन्द्रसूरि, श्रीजयसेनाचार्य, ब्रह्मदेवसूरि आदि पूर्वाचार्यों की परम्परा का निर्वाह करने वाली साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का वही स्थान मानना चाहिए। उनके उत्कृष्ट त्याग और संयम ने उनके गद्य, पद्य, हिन्दी और संस्कृत के समस्त साहित्य में पूर्ण जीवन्तता उत्पन्न कर दी है। जैसा कि कवि श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी ने महाकवि कालिदास को भारतीय काव्य का प्रथम कर्ता मानते हुए कहा है - वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप, वही होगी कविता अनजान॥ लगता है कि इसी प्रकार से एक नारी हृदय की वीरता को ज्ञानमती माताजी की कृतियों ने उद्घाटित करके कलियुग की नारियों में चेतना का स्वर फूंका है। यही कारण है कि इनकी साहित्यसर्जना के प्रारंभीकरण के पश्चात् अन्य अनेक जैन साध्वियों ने भी साहित्यरचना के क्षेत्र में कदम बढ़ाए और उनकी कृतियों से भी समाज लाभन्वित हो रहा है। उपर्युक्त पंतजी की पंक्तियाँ इनके प्रति इस प्रकार घटित हो जाती हैं - बालसति हैं जो पहली नार, आत्मबल ही जिनका आधार। उन्होंने किया प्रभू गुणगान, बना यह साहित्यिक अवदान॥ संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में उनके द्वारा दिये गये अवदान को जैन समाज ही नहीं, संपूर्ण साहित्यजगत् कभी विस्मृत नहीं कर सकता है। ज्ञानमती माताजी की समस्त कृतियों में संस्कृत साहित्य की भाषा भी अत्यंत सरल और सौष्ठवपूर्ण है और उसमें माधुर्य का भी समावेश है। उसमें प्राय: लम्बे समासों तथा क्लिष्ट पदावली का अभाव है। उनकी वाक्ययोजना सरल तथा प्रभावोत्पादक है। भाषा में कहीं अस्वाभाविकता के दर्शन नहीं होते। यही कारण है कि उनके श्लोकों एवं टीकाग्रन्थों को पढ़ते ही उनका अभिप्राय अथवा तात्पर्य शीघ्र ज्ञात हो जाता है। इन समस्त विशेषताओं से परिपूर्ण आपकी कृतियाँ संसार में सभी को समीचीन बोध प्रदान करें तथा देवभाषा संस्कृत की अभिवृद्धि में कारण बने यहीं अभिलाषा है। सन्दर्भ - 1. महापुराण, आचार्य जिनसेन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली 2. जिनस्तोत्र संग्रह, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प क्रमांक 135, प्रकाशक - दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ), 1992, पृ. 319 28 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. मेरी स्मृतियाँ, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प ___ क्रमांक 124, प्रकाशक - दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) 4. जिनस्तोत्र संग्रह, पृ. 211-239 5. वही, पृ. 211 6. व्यक्तिगत चर्चा 7. जिन स्तोत्र संग्रह, पृ. 238 - 339 8. वही, पृ. 291 9. वही, पृ. 182, 183, 317, 322, 331 10. निजी डायरी से 11. जिन स्तोत्र संग्रह, पृ. 140 12. वही, पृ. 187 - 197 13. वही, पृ. 198 - 210 14. वही, पृ. 121 - 124 15. वही, पृ. 151 16. वही, पृ. 461 - 477 17. आलापपद्धति, 18. जिन स्तोत्र संग्रह, पृ. 259 - 272 19. वही, पृ. 259 - 272 20. वही, पृ. 168 - 180 21. वही, पृ. 317 - 324 22. अष्टसहस्री, भाग 1 - 3, टीकाकर्ती - आर्यिका ज्ञानमती, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प क्रमांक 1, 98, 100. जम्बूद्वीप - हस्तिनापुर (मेरठ) 23. जिन स्तोत्र संग्रह, पृ. 313 - 315 24. वही, पृ. 159 - 163 25. वही, पृ. 164 - 167 26. वही, पृ. 244 - 245 27. वही, पृ. 270 - 276 28. वही, पृ. 129 - 131 29. वही, पृ. 183 - 184 30. वही, पृ. 329 - 330 31. त्रिलोक भास्कर, गणिनी ज्ञानमती, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प क्रमांक 3, जम्बूद्वीप - हस्तिनापुर (मेरठ) 32. जिनस्तोत्र संग्रह, पृ. 280 - 284 33. कांतत्र रूपमाला, आचार्य शर्ववर्म, हिन्दी अनुवाद - गणिनी ज्ञानमती, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प क्रमांक 83, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) 34. वही 35. न्यायसार, गणिनी ज्ञानमती, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प क्रमांक 5, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. जिनस्तोत्र संग्रह, पृ. 181, 277, 294 - 298, 401 - 435, 128, 313 - 384 37. वही 38. वही, पृ. 401 - 434 39. छन्दशास्त्र, कविवर द्यानतराय, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प क्रमांक 114, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) 40. जिनस्तोत्र संग्रह 41. वही 42. आराधना, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प क्रमांक 26, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ), 1977 43. वही, पद्य 2 44. वही, चरित्राराधना पद्य 5 45. प्रतिक्रमण पाठ 46. मुनिचर्या, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) 47. आराधना, छठा अधिकार 48. आचार्य कुन्दकुन्द 49. नियमसार - पद्मप्रभमलधारी देव कृत संस्कृत टीका सहित, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प क्रमांक 75, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) 50. नियमसार की स्याद्वाद चन्द्रिका टीका का हिन्दी अनुवाद, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, पुष्प क्रमांक 81, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ), 1985 51. नियमसार प्राभृत, पूज्य आचार्य कुन्दकुन्द, स्याद्वाद चन्द्रिका टीका, गणित ज्ञानमती, पृ. 553 52. जिनस्तोत्र संग्रह, पृ. 255 - 258, 240 - 243, 246, 247, 248, 316, 249 - 254, 255 - 258 53. कातंत्र रूपमाला, संधिप्रकरण, सूत्र - 92 54. जिनस्तोत्र संग्रह, पृ. 164 55. वही, पृ. 317 56. षट्खंडागम की सिद्धान्त चिन्तामणि टीका, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, दिगम्बर जैन त्रिलोक __ शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ), 1998 57. वही, पद्य 1 प्राप्त - जुलाई 1999 30 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल 2000, 31 - 35 ऋषभ निर्वाण भूमि - अष्टापद - उषा पाटनी* शपा। 'अष्टापद कैलाश शिखर पर्वत को वंदू बारम्बार। ऋषभदेव निर्वाण धरा की गूंज रही है जय-जयकार॥ बाली महाबाली मुनि आदिक मोक्ष गये श्री नामकुमार। इस पर्वत की भाव वन्दना कर सुख पाऊँ अपरम्पार॥ भगवान ऋषभदेव भारत वर्ष के महाकाश में सदैव चमकने वाले जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। वे एक ऐसे ज्योतिपुंज हैं, जिन्होंने समस्त वसुन्धरा को अपने तप की तेजस्विता से दैदीप्यमान किया। भारतीय परम्परानुसार ऋषभदेव इस अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर हुए जिन्होंने अनादि निधन आत्मधर्म को स्वयं अंगीकार कर वीतराग भाव से उसकी पुनर्व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने आत्म साधना के विशुद्ध मार्ग पर चलकर मानव को स्वानुभूति के प्रतिष्ठित मार्ग पर चलने का मार्ग प्रशस्त किया। आधुनिक खोजों से यह सिद्ध हो गया है कि विश्व की अनेक संस्कृतियों में ऋषभदेव किसी न किसी रूप में पूज्य माने गये हैं। चैत्र बदी नवमी को महाराज नाभिराय के राजमहल में माता मरूदेवी के गर्भ से उत्पन्न ऋषभदेव हमारे प्रथम तीर्थंकर थे जिनका जन्म अयोध्या में हुआ था। पंचकल्याणक विभूति से विभूषित ऋषभदेव के गर्भ में आने से पूर्व माता मरूदेवी ने सोलह शुभ स्वप्न देखे, तब देवों द्वारा अयोध्या नगरी की सुन्दरतम रचना हुई। जन्म होने के पश्चात् देवों द्वारा भगवान का अभिषेक कर देवोपनीत वस्त्र पहनाये गये। वज्र वृषभनाराचसंहनन तथा समचतुरस्त्र संस्थान के धारी ऋषभदेव का रूप अनुपम था। 1008 लक्षणों से युक्त अनंत चतुष्टय के धारी ऋषभदेव 34 अतिशय से सम्पन्न थे। ऋषभदेव की दो रानियाँ थीं जिनसे उत्पन्न 100 पुत्र व 2 पुत्रियाँ थीं। कर्मयुग के प्रणेता श्री ऋषभदेव को नर्तकी नीलांजना की मत्य को देखकर वैराग्य हो उन्होंने अपने पुत्रों को राज्य भार सौंपकर जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार की एवं कठोर साधना का पथ अंगीकार किया। निराहार रहकर छह मास तक तपस्या करने का नियम पूर्ण होने पर ऋषभदेव आहार के लिये निकले, परन्तु आहार विधि का ज्ञान न होने से प्रजाजन चाहकर भी भगवान को आहार नहीं दे पाये। छह माह व्यतीत होने के पश्चात् हस्तिनापुर में राजा श्रेयांस के यहाँ उनका प्रथम आहार हुआ। कठोर तप साधना करते हुए पुरिमताल नगर के शकरास्य उद्यान में पद्मासन धारण कर उन्होंने शुक्ल ध्यान द्वारा क्षपक श्रेणी में आरोहण किया, चारों घातिया कर्मों को नष्ट कर उनकी आत्मा केवलज्ञान से मंडित हो गई, तब इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के निर्देशन में देवों ने समवसरण की रचना की जहाँ भगवान की लोक कल्याणकारी दिव्य - ध्वनि खिरी। भगवान ने सम्पूर्ण देश में एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम एक लाख पूर्व वर्षों तक धर्म विहार किया। जब उनकी आयु के चौदह दिन शेष रहे तब वे श्री शिखर और सिद्ध शिखर के बीच स्थित कैलाश पर्वत पर पहुँचे एवं योग - निरोध के लिये ध्यानस्थ हो गये। माघ कृष्णा चतुर्दशी को भगवान ने सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति नामक तृतीय शुक्ल ध्यान द्वारा तीन योगों का निरोध किया तथा व्युपरतक्रियानिवृति नामक चौथे शुक्ल ध्यान के द्वारा शेष अघातिया कर्मों का नाश किया और सिद्धत्व को प्राप्त कर जन्म - मरण के बंधनों से मुक्त हो मोक्ष महल में अपने कदम रखे। * सह - सम्पादिका - ऋषभदेशना, 365, कालानी नगर, इन्दौर। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ निर्वाण भूमि - अष्टापद : भगवान ऋषभदेव का निर्वाण अष्टापद पर्वत से हुआ। अष्टापद का अमर नाम कैलाश पर्वत भी कहा गया है। भगवान ऋषभदेव ने अपने विशाल मुनि समुदाय के साथ हिमालय की इस पवित्र श्रृंखला अष्टापद से मुक्ति पाई थी इसलिये इस पर्वत का कण-कण पवित्र है। यह सत्य है कि जैन समाज द्वारा इस निर्वाण स्थली की घोर उपेक्षा हुई है। विगत दो दशकों से श्री देवकुमारसिंहजी कासलीवाल व श्री कैलाशचन्दजी चौधरी के अथक प्रयासों से बद्रीनाथ धाम के प्रवेश द्वार पर एक स्थान निर्वाण भूमि के रूप में विकसित किया जा रहा है। इस बात का प्रमाण नहीं मिलता है कि आदिनाथ का निर्वाण इसी मन्दिर की भूमि पर हुआ है। इस निर्वाण भूमि का विकास करने वाली संस्था आदिनाथ आध्यात्मिक अहिंसा फाउण्डेशन के पदाधिकारीगण इस बात का दावा भी नहीं करते हैं कि यही निर्वाण स्थल है किन्तु निर्वाण भूमि कैलाश पर्वत की पर्वत श्रृंखला के ही एक भाग पर प्रतीकात्मक रूप से इसका विकास किया गया है। अष्टापद कैलाशंदेव म.आदिनाथ निर्वाण स्थली बद्रीनाथ में निर्मित ऋषभ निर्वाण भूमि का एक दृश्य अष्टापद मार्ग स्थिति : कैलाश पर्वत 19000 फीट की ऊँचाई पर चीन अधिकृत क्षेत्र की हिमालय पर्वत श्रृंखला में स्थित है। भारतीय वीसा प्राप्त कर यहाँ पहुँचने के 3 मार्ग हैं - 1. पूर्वोत्तर रेलवे के टनकपुर से सड़क मार्ग द्वारा पार लीपू नामक दर्रा व्हाया पिथौरागढ़ पहुँचा जा सकता है। गण 2. काठगोदाम स्टेशन से सड़क मार्ग द्वारा कमपोट (जिला अलमोडा) से पैदल यात्रा कर ऊँट जयंती तथा कंगूरी बिंगरी घाटियों को पार करके पहुँचा जा सकता है। 3. उत्तर रेलवे के ऋषिकेश स्टेशन से जोशीमठ सड़क मार्ग से पदयात्रा कर नीवीघाटी पार करके कैलाश पर्वत पहुँच सकते हैं। उत्तराखंड हिमालय के पास स्थित कैलाश पर्वत तथा मानसरोवर इस क्षेत्र के पवित्र २० अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं सुन्दरतम स्थान हैं जिनका आध्यात्मिक महत्व सर्वविदित है। मानसरोवर के पास ही एक सरोवर राकसताल (राक्षस तालाब या लंगत्सो) है। इन दो सरोवरों के उत्तर में कैलाश पर्वतमाला तथा गुरला शिखर है। इस क्षेत्र से उत्तर भारत की चार महा नदियाँ करनाली, सतलज, ब्रह्मपुत्र तथा सिंध निकलती है। अक्टूबर से अप्रैल में जब शीत ऋतु रहती है दोनों पर्वतमालाओं के साथ ही सरोवर भी बर्फ से ढंक व जम जाते हैं। भारत सरकार द्वारा हर वर्ष जून से सितम्बर माह के मध्य यहाँ की यात्रा आयोजित की जाती है। इस यात्रा से सम्बन्धित जानकारी के लिये मिनिस्ट्री ऑफ एक्सटरनल अफेयर्स, अण्डर सेक्रेटरी (चाइना), साउथ ब्लाक, गेट नं.4, नईदिल्ली में आवेदन करना होता है। यह दिल्ली से 480 कि.मी. दूर है, इसकी लगभग 3 कि.मी. तक की चढाई अत्यन्त कठिन है। अष्टापद सिद्धक्षेत्र : 'बाल - महाबाल मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय, श्री अष्टापद मुक्ति मंझार, तें वंदौ नित सुरत संभार।' 'अष्टापद आदिश्वर स्वामी' एवं 'नमों ऋषभ कैलाश पहार' सूक्तियों के द्वारा पूज्यनीय अष्टापद ऋषभदेव की निर्वाण भूमि के अतिरिक्त भरत आदि भाइयों, भगवान अजितनाथ के पितामह त्रिदशंजय, व्याल, महाव्याल, अच्छेद्य, अभेद्य, नागकुमारल हरिवाहन, भागीरथ आदि असंख्य मुनियों की सिद्ध भूमि रही है। मान्यता है कि भगवान ऋषभदेव के दर्शनों के लिये भरत चक्रवर्ती अपने 1200 पुत्रों सहित आये थे तथा भगवान ऋषभदेव की स्मृति में उन्होंने 72 जिनालय भी बनवाये, जिनमें रत्नजड़ित प्रतिमाएँ विराजमान कराईं। ये प्रतिमाएँ व जिनालय सहस्रों वर्षों तक वहाँ विद्यमान रहे। सगर चक्रवर्ती के आदेश से उनके साठ हजार पुत्रों ने उन मन्दिरों की रक्षा के लिये उस पर्वत के चारों ओर परिखा खोद कर गंगा को वहाँ बहाया। बाली मुनि यहीं तपस्या कर रहे थे। रावण ने क्रोधित होकर उस पर्वत को ही उलट देना चाहा तब बाली मुनि ने भरत चक्रवर्ती द्वारा बनाये गये जिनालयों की रक्षार्थ उस पर्वत को अपने पैर के अंगूठे से दबा दिया जिससे रावण उस पर्वत के नीचे दबकर रोने लगा। इन घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि भरत द्वारा निर्मित ये मन्दिर और मूर्तियाँ रावण के समय तक अवश्य विद्यमान थीं। कैलाश पर्वत की आकृति : कैलाश पर्वत की आकृति ऐसे लिंगाकार की है जो षोडसदल कमल के मध्य खड़ा हो। इन सोलह दल वाले शिखरों के सामने दो शिखर झुककर लंबे हो गये हैं। इस भाग से कैलाश का जल गौरीकुण्ड में गिरता है। कैलाश इन पर्वतों में सबसे ऊँचा है जिसका रंग कसौटी के ठोस पत्थर जैसा है किन्तु बर्फ से ढंके रहने के कारण वह रजतवर्ण दिखाई पड़ता है। दूसरे शिखर कच्चे लाल मटमैले पत्थर के हैं। कैलाश शिखर के चारों ओर कोनों में ऐसी मंदिराकृतियाँ स्वत: बनी हुई हैं, जैसे बहुत से मन्दिरों के शिखरों के चारों ओर बनी होती हैं। तिब्बत की ओर से यह पर्वत ढलान वाला है। तिब्बत के लोगों में कैलाश पर्वत के प्रति अपार श्रद्धा है। अनेक तिब्बती तो इसकी 32 मील की परिक्रमा दण्डवत प्रतिपात द्वारा लगाते हैं। अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वत पर ओम (ॐ) के दर्शन : नाबीडांग पर्वत पर ओम के आकार का दर्शन होता है जिसे नमन कर पंच परमेष्ठी को साक्षात नमन करने का असीम सुख प्राप्त होता है। ओम के प्राकृतिक दर्शन इस बात का प्रतीक है कि इस क्षेत्र से भगवान ऋषभदेव का निर्वाण हुआ है। इस पर्वतमाला का कण-कण पवित्र है। कैलाश और अष्टापद : प्राकृत निर्वाण भक्ति में 'अट्ठावयम्मि ऋसहो' अर्थात् ऋषभदेव । की निर्वाण भूमि अष्टापद बताई है, किन्तु संस्कृत निर्वाण भक्ति में अष्टापद के स्थान पर कैलाश को ऋषभदेव की निर्वाण भूमि मानते हुए लिखा है - "कैलाश शैल शिखरे परिनिवृत्रोऽसौ, शैलेभि भावमुपपद्य वृषो महात्मा। संस्कृत निर्वाण काव्य में एक श्लोक में निर्वाण क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए कहा है - 'सद्धाचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे।' इसमें सम्पूर्ण हिमालय को ही तीर्थक्षेत्र माना है। यह निर्विवाद सत्य है कि कैलाश पर्वत पर भगवान ऋषभदेव के चरण चिन्ह हैं जिन तक पहुँचने के लिये आठ सीढ़ियाँ अष्टापदरूप हैं। इसीलिये इस स्थान को अष्टापद कहा जाता है। ऋषभ निर्वाण भूमि में नवनिर्मित सभागृह में विराजमान 24 चरण चिन्ह यात्रा सौभाग्य सूचक : कैलाश पर्वत की यात्रा अति दुष्कर है इसके लिये व्यक्ति का पूर्ण स्वस्थ होना अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 34 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नितान्त आवश्यक है, इस यात्रा में करीब 300 कि.मी. पैदल चलना होता है तथा तापमान 5 सेन्टीग्रेड होता है। 19000 फीट की ऊँचाई पर बर्फ की अधिकता व आक्सीजन की भक्ति नृत्य करते हुए काकासा. श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल कमी होती है। कैलाश पर्वत की यात्रा भारत सरकार के पर्यटन विभाग के सहयोग से कोई सौभाग्यशाली साहसी व्यक्ति ही कर सकता है। इस यात्रा में करीब 50,000/- रुपये प्रति व्यक्ति का व्यय होता है। बद्रीनाथ में भगवान आदिनाथ की निर्वाण स्थली की स्थापना की घोषणा इन्दौर में तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम ज्ञानी जैलसिंहजी के सान्निध्य में की गई तब श्री देवकुमारसिंहजी कासलीवाल एवं श्री कैलाशचन्दजी चौधरी के अथक प्रयासों से जनसहयोग द्वारा राशि एकत्र कर भूखंड एवं अतिथिगृह खरीदकर उसे यात्रियों के लिये सुविधायुक्त बनाया गया। इसके अतिरिक्त यहाँ 6 नवीन अतिथिगृहों एवं 2 हालों का निर्माण हो चुका है। अब काफी लोग यहाँ की यात्रा भी करने लगे हैं। अंतत: आदि पुरुष, आदि तीर्थंकर, कर्मयोगी श्री आदिनाथ, मन, वच, तन से नमन करूँ, मैं अपने दोऊ जोर कर हाथ। पावन भूमि अष्टापद है गिरि कैलाश शिखर सुखकार, राग - द्वैष को जीत जिन्होंने खोला स्वयं मुक्ति का द्वार॥ प्राप्त: 2.2.2000 अर्हत् वचन पुरस्कार अर्हत् वचन के प्रति वर्ष में प्रकाशित 4 अंकों में से 3 सर्वश्रेष्ठ आलेखों का चयन कर उन्हें अर्हत् वचन पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है। अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 35 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे नवीन प्रकाशन 3858 NAME मूलराध और उसका प्राचीन साहित्य JAINIOHARMA VISHWA DHARMA 68800 382883 966508688000000000003083900384 THE JAIN SANCTUARIES OF JAIN DHARMA मूलसंघ THE FORTRESS OF GWALIOR VISHWA DHARMA और उसका प्राचीन साहित्य By - Dr. T.V.G. SASTRI By - Pt. Nathuram Dongariya Jain - लेखक- Price - Price - Rs. 20.00 पं. नाथूलाल जैन शास्त्री Rs. 500.00 (India) I.S.B.N.81-86933-15-8 U.S.$50.00 (Abroad) मूल्य - रु. 70.00 I.S.B.N. 81-86933-12-3 I.S.B.N. 81-86933-14-X कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित साहित्य पुस्तक का नाम लेखक I.S.B.N. *1. जैनधर्म का सरल परिचय पं. बलभद्र जैन 81-86933 -00-x 2. बालबोध जैनधर्म, पहला भाग संशोधित दयाचन्द गोयलीय 81-86933-01-8 3. बालबोध जैनधर्म, दूसरा भाग दयाचन्द गोयलीय 81-86933-02-6 4.बालबोध जैनधर्म, तीसरा भाग दयाचन्द गोयलीय 81-86933 - 03 -4 5. बालबोध जैनधर्म, चौथा भाग दयाचन्द गोयलीय 81-86933-04-2 6. नैतिक शिक्षा, प्रथम भाग नाथूलाल शास्त्री 81-86933-05-0 7. नैतिक शिक्षा, दूसरा भाग नाथूलाल शास्त्री 81-86933-06-9 8. नैतिक शिक्षा, तीसरा भाग नाथूलाल शास्त्री 81-86933-07-7 9. नैतिक शिक्षा, चौथा भाग नाथूलाल शास्त्री 81-86933 - 08-5 10. नैतिक शिक्षा, पांचवां भाग नाथूलाल शास्त्री 81-86933-09-3 11. नैतिक शिक्षा, छठा भाग नाथूलाल शास्त्री 81-86933 - 10 -7 12. नैतिक शिक्षा, सातवां भाग नाथूलाल शास्त्री 81-86933-11-5 13. The Jain Sanctuaries of Dr. T.V.G. Sastri 81-86933 - 12-3 The Fortress of Gwalior 14. जैन धर्म - विश्व धर्म पं. नाथूराम डोंगरीय जैन । 81-86933-13-1 15. मूलसंघ और उसका प्राचीन साहित्य पं. नाथूलाल शास्त्री 81-86933-14-X 16. Jaina Dharma - Vishva Dharma Pt. Nathuram Dongariya Jain 81 - 86933 - 15 - 8 * अनुपलब्ध ___प्राप्ति सम्पर्क : कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452 001 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 36 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल 2000, 37 - 40 ज्ञान विज्ञान का आविष्कारक - भारत - आचार्य कनकनन्दी* BHATANTRAggeaasansense दिनांक 23.11.99 को झाडोल (सागवाड़ा) में सम्पन्न सर्वोदय शिक्षा मनोविज्ञान संगोष्ठी में आचार्य श्री कनकनंदीजी द्वारा दिया गया प्रवचन, जिसे सुनकर उपस्थित वैज्ञानिक, प्राध्यापक, न्यायविद्, प्राचार्य, शोधार्थीगण, पत्रकार रोमांचित एवं गौरव से अभिभूत हुए। यह प्रेरणादायी उद्बोधन यहाँ प्रस्तुत है - जिस प्रकार वृक्ष के लिये बीज, उसी प्रकार भूतकालीन सभ्यता, संस्कृति हर राष्ट्र या समाज के लिये जरूरत है क्योंकि उन घटनाओं व परम्पराओं से शिक्षा लेकर के हम आगे बढ़ सकते हैं। केवल इतिहास पढ़ लेना यह तो केवल सड़े- गले शव को उखाड़ना है। इतिहास उसे कहते हैं जिसमें महापुरुष के बारे में वर्णन किया गया हो, जिससे हमें प्रेरणा मिले। एक मराठी कवि ने कहा है - महापुरुष होउनगेले त्यांचे चारित्र पहाजरा। आपण त्यांचे समान ह्वावे यांचे सापडे बोध खरा। हम इतिहास, पुराण आदि पढ़ते हैं वह क्या मनोरंजन, गुणगान या समय व्यतीत करने के लिये? नहीं। बल्कि केवल जो महापुरुष हो गये हैं उनके चरित्र क करने के लिये, उसको पढ़कर उनके आदर्शों को जीवन में अपनाकर, उनके समान बनकर राष्ट्र को विश्वगुरु के रूप में प्रतिस्थापित करने के लिये। हमारा भारत कभी विश्वगुरु था क्योंकि हमारे भारत में आधुनिक विज्ञान की हर शाखा थी। ऐसा कहा गया है कि - कला बहत्तर नरन की, यामें दो सरदार। एक जीवन की जीविका, एक जीव उद्धार । कलायें बहत्तर होती हैं। उन बहत्तर कलाओं में दो कलायें सर्वश्रेष्ठ हैं। एक कला है जीव की जीविका 'शरीर माद्यम् खलु धर्म साधनम्। जीव की जीविका के अन्तर्गत वाणिज्य, शिल्प कला, व्याकरण, इतिहास, पुराण आते हैं। दूसरी कला है - जीव उद्धार। इन बहत्तर कलाओं में समस्त विद्यायें, परा विद्याएँ हमारे भारत में किस प्रकार थी उन सभी के बारे में मैं यहाँ संक्षिप्त में प्रकाश डालंगा। सर्वप्रथम मैं यह बताना चाहँगा कि जिस प्रकार सम्पूर्ण सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, ब्रह्माण्ड आकाश में गर्भित हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान - विज्ञान का उदय विकास केवली तीर्थंकर से हुआ है। इसलिये सम्पूर्ण ज्ञान - विज्ञान के सम्पादक आविष्कारक प्रवक्ता केवली भगवान हैं। य: सर्वाणि चराचराणि विधि- वद, द्रव्याणि तेषां गुणान्। पयार्ययानपि भूत - भावि - भावित; सर्वान् सदा सर्वदा। जानीते युगपत - प्रतिक्षण - मत: सर्वज्ञ इत्युच्यतेः । सर्वज्ञाव जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः॥ आइंस्टिन ने कहा है - 'We can only know the relative truth. The real truth is known only to the Universal Observer.' *दि. जैन श्रमण परम्परा में दीक्षित आचार्य। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम सब केवल आंशिक सत्य को जान सकते हैं। कोई भी वैज्ञानिक / दार्शनिक कितना ही महान क्यों न हो, सम्पूर्ण सत्य को नहीं जान सकता है क्योंकि हमारे जो ज्ञान है वह सीमित है। जिस प्रकार हमारे पास अनन्त आकाश होते हुए भी हम अनन्त आकाश को देख नहीं सकते हैं क्योंकि हमारी दृष्टि शक्ति सीमित है। तीर्थंकर एक साथ कितनी भाषायें बोलते हैं - 718 भाषाएं बोलते हैं। इसलिये समस्त ज्ञान - विज्ञान के जन्मदाता तीर्थंकर हैं। उसके बाद सम्पादन करते हैं गणधर। समस्त कलाओं विद्याओं का प्रतिपादन आदिनाथ भगवान ने किया था। परन्तु उसका प्रायोगिक रूप में संक्षिप्त वर्णन मैं आज करूंगा। भारतीय संस्कृति में 6075 वर्ष पूर्व एक धन्वन्तरि हुए हैं जो कि शल्य - चिकित्सा और रसायन शास्त्र के प्रवक्ता थे। उसी प्रकार अश्विनीकुमार थे जो औषध / आयुर्वेद के माध्यम से चिर युवा रहे। एक ऋषि थे जिनका नाम था - च्यवन ऋषि। वो वृद्ध थे। इसलिये च्यवन ऋषि को अश्विनीकुमार ने औषधि दी जिसके माध्यम से वे वृद्ध ऋषि युवक बन गये। इसी औषधि का नाम च्यवनप्राश पड़ा। हमारे प्राचीन ग्रन्थ चरक संहिता तथा आयुर्वेद के अन्य ग्रंथों में इनका वर्णन है। इसके बाद पुन: वसु आत्रय हुए। वे ईसा के 2800 वर्ष पूर्व हुए। उन्होंने सभी शिक्षा पद्धतियों - आयुर्वेद, शल्य चिकित्सा का प्रतिपादन किया एवं शिष्यों को कराया। हिपोक्रिटिश यूनानी थे। ये शल्य चिकित्सा के आद्य प्रवक्ता थे। लिखित रूप में उन्होंने ग्रंथ लिखा सुश्रुत संहिता। इतिहासकार मानते हैं कि हिपोक्रिटिश आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा के आविष्कारक हैं, परन्तु उनसे भी कई हजार वर्ष पूर्व लिखित रूप में प्रयोग रूप में हमारे देश में शल्य चिकित्सा से लेकर अन्य प्रकार की शिक्षा व चिकित्सा थी। इस शल्य चिकित्सा का आविष्कार भी भारत में हुआ। हमारे मूल ग्रन्थों चरक संहिता, बागमट् संहिता, योगरत्नाकर आदि में इनका वर्णन मिलता है। ईसा पूर्व 600 वर्ष पहले भारत, ग्रीक आदि कुछ देशों को छोड़कर अन्य देश अनंत अंधकार में थे। उन्हें अंक व अक्षर का ज्ञान नहीं था और हमारे यहाँ सभी था। इन सबके साक्षी हमारे शिलालेख और ग्रंथ हैं। सुश्रुत नाक, कान, गले, आँख इन सभी की शल्य चिकित्सा करते थे। एक स्थान से मांस काटकर वे अन्य स्थान पर जोड़ देते थे। उन्होंने शल्य चिकित्सा के 120 प्रकार के यंत्रों का आविष्कार किया था। जीवक बुद्ध के चिकित्सक थे। एक सेठ की लड़की थी, जिसकी उल्टी के माध्यम से अन्दर की आंतड़ियाँ बाहर निकल गई और जीवक ने शल्य क्रिया (Operation) करके पुन: उसको स्थापन कर दिया। हमारे भारत में पशु - पक्षी की सुरक्षा और उसकी चिकित्सा पद्धति का भी आविष्कार किया गया। आदिनाथ भगवान की दो पुत्रियाँ थीं -ब्राह्मी और सुन्दरी। भरत, बाहुबलि को उन्होंने पहले विद्यादान देकर ब्राह्मी और सुन्दरी को भी विद्यादान दिया। क्योंकि विद्यादान के पहले आदिनाथ भगवान कहते हैं - विद्यादान पुरुषो लोके सम्मति याति कोविदैः। नारी च तद्धति घत्ते स्त्री सृष्टेरग्रिमं पदम्॥ जिस प्रकार विद्यावान पुरुष समाज में असीम पद प्राप्त करते है। उसी प्रकार शिक्षा प्राप्त करके स्त्री समाज में असीम स्थान प्राप्त करती हैं। इसलिये स्त्री शिक्षा भगवान आदिनाथ ने प्रारम्भ की क्योंकि माता प्रथम गुरु होती हैं। इससे सिद्ध होता है कि पुरुष शिक्षा से महत्वपूर्ण स्त्री शिक्षा है। परन्तु मध्यकालीन परतंत्रता के कारण हम स्त्री शिक्षा को भूल गये और प्रतिलोमी बन गये। हमनें स्त्री शिक्षा के महत्व के बजाये पुरुष शिक्षा पर जोर दिया और स्त्री को सिर्फ भोग की वस्तु मान लिया। आदिनाथ ब्राह्मी और सुन्दरी 38 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों को गोदी में बैठा कर सिखाते हैं। गणित में लिखाते हैं वह उल्टी संख्या है क्योंकि हम 123 में पहले 1, फिर 2, फिर 3 लिखते हैं जबकि इकाई की संख्या 3 है, 2 दहाई की संख्या है और 1 शतक की संख्या है। हमें पहले इकाई का अंक लिखना चाहिये लेकिन हम पहले शतक का अंक लिखते हैं। इसका कारण यह है कि सुन्दरी बांयी ओर बैठी थी। ब्राह्मी को दायें भाग में बिठाकर अ, आ की शिक्षा दी थी जिससे अक्षर की गति बायें से दायें की ओर होती है और सुन्दरी को बांयी गोद में बैठाकर 1-2......... की शिक्षा दी जिससे संख्या की गति दायें भाग से बायें की ओर होती है। इसलिये 'अंकानाम् वामतोगति'। इससे स्वत: प्रमाण सिद्ध हुआ कि ब्राह्मी लिपि का आविष्कार ब्राह्मी के नाम पर हुआ। ____ आदिनाथ भगवान ने कई खण्डों में व्याकरण शास्त्र को रचा था। परन्तु अभी लिपिबद्ध रूप में सबसे प्राचीन व्याकरण प्राणिनी व्याकरण है। पाणिनी व्याकरण ईसा पूर्व 500 वर्ष पूर्व लिखा हुआ था। हमारे भारत ने शून्य व दशमलव पद्धति का आविष्कार किया। यदि दशमलव पद्धति का आविष्कार नहीं होता तो गणित व विज्ञान का विकास भी नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि गणित व विज्ञान का विकास हमारे भारत में हुआ। परन्तु हम भूल गये कि केवल 1200 वर्ष पूर्व एक भारतीय वैज्ञानिक गणित, ज्योतिष लेकर अरब गया और अरब से यूरोप और यूनान गया। वहीं से गणित व विज्ञान का विकास हुआ। नवीं शताब्दी में नागार्जुन, जो रसायन शास्त्र के भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे, ने रसायन शास्त्र पर ग्रन्थ लिखे। गणित में आचार्य महावीर का एक ग्रन्थ है - 'गणित सार संग्रह', जिसमें लघुत्तम समावर्त्य, दीर्घवृत्त और अंक गणित व बीजगणित आदि का वर्णन है। 628 में ब्रह्मगुप्त हुए जिनका ग्रन्थ 1200 वर्ष पूर्व विदेशों में लोकप्रिय हो गया। आर्यभट ने आर्यभटीय लिखी। उसमें अंक गणित, बीजगणित, रेखागणित है और उसमें 'पाई का वर्णन है। भास्कराचार्य, जिसने कि न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व गुरुत्वाकर्षण की खोज की। न्यूटन आम के पेड़ के नीचे बैठे थे तो एक एप्पल उनके सिर पर गिरी तो उन्होंने सोचा कि एप्पल ऊपर या इधर - उधर क्यों नहीं गिरा सीधा नीचे की ओर ही क्यों आया और उन्होंने गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त की खोज की और सत्र दिया। भूमि में आकर्षण शक्ति है। अत: आकाश में स्थित भारी वस्तु को भूमि अपनी ओर खींच लेती है। हम मानते हैं और पढ़ते हैं कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति का प्रतिपादन न्यूटन ने किया। दरपन के नीचे अंधेरा है। हमारे अन्दर आत्म बल नहीं है जिससे हम अपने सिद्धान्त को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। आर्केमिडिस ने प्लावन सूत्र / आयतन सूत्र को प्रतिपादित किया था। जबकि इसका आविष्कार 3000 वर्ष पूर्व अभयकुमार ने किया था जो कि राजा श्रेणिक का पुत्र एवं महामंत्री था। सूर्य सिद्धान्त का प्रतिपादन सिद्धान्त शिरोमणि व लीलावती में किया। अभयकुमार ने हाथी का वजन करने के लिये आयतन सूत्र का आविष्कार कुछ गरीब बाह्मणों की रक्षा के लिये किया था। श्रेणिक उनको कष्ट देना चाहता था। श्रेणिक ने कहा कि हाथी का वजन करके ले आओ। इसके लिये उन्होंने (अभयकुमार ने) एक सूत्र दिया कि तुम एक नौका जल में रखो और उस नौका में हाथी को रखो। फिर नौका वजन के कारण पानी में डुबेगी तो जहाँ तक नौका डूबे वहाँ निशान लगा दो। फिर हाथी को निकाल लो। फिर उसमें इतने पत्थर डालो कि उस निशान तक पानी पहुँच जाये। उन पत्थरों का अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 39 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वजन करो। फिर वह हाथी के बराबर वजन हो जायेगा। आजतक हम यह जानते हैं कि हवाई जहाज का आविष्कार राइट ब्रदर्स ने किया था लेकिन पुष्पक विमान जो काफी बड़ा था उसका निर्माण महाभारत काल के पूर्व हो चुका था, जिसका निर्माण हिन्दू धर्म के अनुसार बह्मा ने किया और कुबेर को दिया। कुबेर से रावण युद्ध करके ले आया। पुष्पक विमान एक योजन (12 कि.मी.) लम्बा था और चौड़ाई (6 कि.मी.) आधा योजन थी। उसमें लाखों मनुष्य, हजारों हाथी - घोड़े, शस्त्र, भोजन, बगीचा, व्यायामशाला, तालाब आदि होते थे। ___आर्यभट सन् 476 में गुप्त काल में हुए और उन्होंने आर्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। शून्य का आविष्कार वर्षों पूर्व हो गया था। लेकिन शुन्य का लिपिबद्ध रूप में प्रयोग आर्यभट ने किया। त्रिकोणमिति में SinB, CosB को भी आर्यभट्ट ने दिया। आर्यभट्ट द्वितीय सन् 950 में हुए। उन्होंने महान सिद्धान्त दिये। रायल सोसायटी जो कि इंगलेंड में है ऐसी ही संस्था की स्थापना भारत में 1500 वर्ष पूर्व हुई थी। इसमें केवल विशिष्ट वैज्ञानिक ही सदस्य बन सकते थे। दूसरों के लिये इसमें कोई स्थान नहीं था। इसे ही विक्रमादित्य के नवरत्न पंडित कहते थे। उनमें से एक थे वराह मिहिर। उन्होंने वृहत् संहिता ग्रन्थ लिखा। उसमें ऋतु विज्ञान, कृषि विज्ञान के बारे में विस्तार से लिखा गया था। सभी विषय के वैज्ञानिक व गुरु हमारे भारत में थे जिन्होंने सर्वप्रथम धार्मिक दार्शनिक आविष्कार किये। इसलिये हमारा देश विश्वगुरु कहलाया। हमारा भारत विश्वगुरु रहा है यह केवल भारतीयों का गुणगान नहीं है। ठोस आधार पर सिद्ध है कि हमारा भारत विश्वगुरु रहा। अभी भी हमारे पास क्षमता, शक्ति व उपलब्धि है, केवल हमें जागना है। जैसे एक व्यक्ति के घर में गढ़ा हुआ करोड़ों का धन, सम्पत्ति है लेकिन उसे मालूम नहीं है कि हमारे यहाँ सम्पत्ति है तो जीवन भर केवल गरीब व अज्ञानी रहेगा। यदि मालूम होगा तो परिश्रम कर सम्पत्ति निकालेगा तो धनपति बन जायेगा। इसी प्रकार हमारे पास सब कुछ होते हुए भी जिस प्रकार कि मृग की नाभि में कस्तूरी होते हुए भी वह इधर - उधर भटक कर उसे ढूंढ़ता रहता है, उसी प्रकार हम हमारे मूल उद्देश्य से भटक गये, हम विछिन्न हो गये। जिस प्रकार वृक्ष मूल से कट जाता है तो कितना भी पानी पिलाओ. वह हरा नहीं होता है। उसी प्रकार हम मूल से कट गये तो कितना सिंचन करने पर हम विकसित नहीं हो पायेंगे। इसलिये हमे मूल से जुड़ना है। पुन: हमारी भारतीय संस्कृति, सभ्यता के ज्ञान - विज्ञान को पल्लवित करके पुष्पित करना है और दिखा देना चाहिये कि हमारा भारत विश्वगुरु था, अभी क्षमता रूप में है, भविष्य में इसे विश्वगुरु बनना है और 21वीं शताब्दी का स्वागत हमें ज्ञान क्रांति, प्रगति से करना है। उसके स्वागत के लिये यह संगोष्ठी है। यह संगोष्ठि 21वीं शताब्दी के आह्वान के लिये, स्वर्णिम व प्रकाशवान बनाने के लिये आयोजित की गई है और उसके लिये ही समर्पित है। प्रस्तुति सहयोग - समता जैन, सलूम्बर प्राप्त - 15.1.2000 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल 2000, 41 - 44 शंकराचार्य : व्यक्तित्व एवं गणितीय कृतित्व दिपक जाधव* Swamodara जगद्गुरु स्वामी श्री भारतीकृष्णतीर्थ महाराज का जन्म 1884 के मार्च माह में बालक वेंकटरमन के रूप में सुशिक्षित परिवार में हुआ। वे बाल्यकाल से ही प्रतिभा के धनी थे। मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में मेट्रिक की परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया तथा उन्हें संस्कृत तथा भाषण की कला में निपुणता के लिये सरस्वती की उपाधि से सम्मानित किया गया। उनकी शैक्षिक प्रतिभा इतनी प्रखर थी कि उन्होंने 1903 में बम्बई केन्द्र से अमेरिकन कालेज आफ साइंसेस, रोचेस्टर, न्यूयार्क की एम.ए. की परीक्षा सात विषयों में एक साथ उच्चतम सम्मान सहित उत्तीर्ण की। वे कालांतर में कालेज के प्रधानाचार्य भी बने। गहनतम अध्ययन, गहनतम योगसाधना और उच्चतम आध्यात्मिक उपलब्धि के पश्चात उन्होंने 4 जुलाई 1919 को संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। दो वर्ष पश्चात ही वे शारदा पीठ के शंकराचार्य हो गये और पुन: 1925 में गोवर्धनमठ, पुरी के। 1960 में उनके महासमाधि ग्रहण के कछ वर्षों पश्चात स्वामीजी की एक कति प्रकाशित हुई, जिसका नाम है 'वैदिक गणित'। इसे पढ़कर कोई भी प्रथम दृष्टया विस्मयाभिभूत हो सकता है। सोलह सूत्र इस कृति का आधार है, जिनमें सबसे बड़ा तेरह अक्षर का है तथा सबसे छोटा पाँच अक्षर का। इसके अतिरिक्त तेरह उपसत्र भी हैं। सभी सत्र सरल, सहज एवं बहुउपयोगी हैं। प्रत्येक सूत्र महत्वपूर्ण बिन्दु या सिद्धान्त का लाघव कथन है, जो सम्बद्धता और क्रम की उच्च दशा का निर्माण करता है। इसी कारण ये सूत्र वास्तविक विधि का स्मरण कराते हैं। ये सूत्र प्रचलित गणित के सूत्र जैसे नहीं हैं। प्राचीन भारतीय प्रणाली से ऐसा लगता है कि सूत्र उसे समझा जाता था, जो कुछ वास्तविक चरणों के माध्यम से संक्षिप्त किन्तु रहस्यमय पुनरूक्ति का निर्धारण करता हो। एकाधिकेण पूर्वेण।। चलनकलनाभ्याम् निखिलं नवतश्चरमं दशत:। यावदूनम्। ऊर्ध्वतिर्यग्भ्याम्। व्यष्टिसमष्टिः। परावर्त्य योजयेत्। शेषाण्इकेन चरमेण। शून्यं साम्यसमुच्चये। सोपान्त्यद्वयंमन्त्यम्। (आनुरूप्ये) शून्यमन्यत्। एकन्यूनेन पूर्वेण। संकलनव्यवकलनाभ्याम्। गुणितसमुच्चयः। पूरणापूरणाभ्याम्। गुणकसमुच्चयः। पं. गिरधर शर्मा के अनुसार जब स्वामीजी अध्यापन कार्य किया करते थे. उनके साथी अध्यापक वैदिक ऋचाओं की हँसी यह कहकर उड़ाया करते थे कि कुछ लोगों के अनुसार वेदों में समस्त ज्ञान भरा पड़ा है। स्वामीजी को ये बातें अच्छी नहीं लगती थीं। उन्हीं दिनों उन्होंने यह प्रण किया कि वह वैदिक सूत्रों की गुत्थी को खोल कर रहेंगे। स्वामीजी ने श्रृंगेरी के पास के वनों में आठ वर्षों की कठोर साधना के फलस्वरूप इन सूत्रों का पुनर्निर्माण किया। उनके अनुसार ये सूत्र अथर्व वेद के परिशिष्ट में आते हैं। परन्तु विद्वानों ने गहन अध्ययन करके पाया कि ये सूत्र अथर्व वेद ही नहीं शेष तीनों * शोध छात्र-कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर। व्याख्याता- गणित, जवाहरलाल नेहरू शा. आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, बड़वानी-451551 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भी प्राप्त नहीं होते हैं। स्वयं स्वामीजी गणित के विद्वानों के सम्मुख उस परिशिष्ट की प्रति या कोई ठोस आधार आगामी गवेषणा हेतु प्रस्तुत नहीं कर सके। सूत्रों की भाषा भी वैदिककालीन नहीं है। यह गहन चिन्तन का विषय है कि उनके जैसा विद्वान और पुनीत हृदय सन्त क्यों इन सूत्रों को वैदिक बताना चाहता है? इस संबंध में मंजुला त्रिवेदी के अभिकथन पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। उनके अनुसार स्वामीजी कहा करते थे कि उन्होंने प्रत्येक सूत्र के लिये अलग - अलग खण्ड लिखे हैं। परन्तु उनकी पाण्डुलिपियाँ पूर्ण रूप से विनष्ट हो गयीं। वैदिक गणित की कृति को उन्होंने एकान्तवास के वर्षों बाद स्मृति के आधार पर लिखा। कहीं वह युक्ति भी उन पाण्डुलिपियों के साथ विनष्ट तो नहीं हो गयीं, जिसके आधार पर उद्घाटित ज्ञान के सहारे इन सूत्रों का पुनर्निर्माण किया गया है। स्वामीजी का अध्ययन क्षेत्र बहुत व्यापक था। वेदों सहित सारे वैदिक साहित्य और तत्सामयिक शैली का उन्हें ज्ञान था। प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीय गणित का भी उन्हें बहुत ज्ञान होगा, ऐसा लगता है। गणित में स्वयं एम.ए. होने से उन्हें उनके समय के प्रचलित गणित का भी ज्ञान था। गणित के पाश्चात्य इतिहास से स्वामीजी अवगत थे, यह तथ्य राहुल सांकृत्यायन द्वारा उद्घाटित होता है। राहुलजी स्वामीजी के जेल के साथी थे, जहाँ स्वामीजी उन्हें गणित पढ़ाते - पढ़ाते पश्चिम के गणितज्ञों की कथायें भी सुनाया करते थे। मुंगेर में राजनीतिक भाषण देने के लिये 1923 में एक वर्ष की सजा सुनाकर स्वामीजी को बक्सर और हजारीबाग की जेलों में रखा गया था। भारतीय साहित्य में लाघव का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसे गणित एवं विज्ञान में विशेष रूप से मूल्यवान समझा जाता था। प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में लेखन सामग्री से लेकर अध्यापन प्रणाली तक लाघव पाया जाता है। __ ऐसा लगता है सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का ज्ञान, गणित का व्यापक ज्ञान और लाघव स्वामीजी को वह युक्ति खोजने में सहायक हुए हों, जिसके आधार पर इन सूत्रों को विकसित किया गया है। यदि ऐसा है, तो इन सूत्रों की गणित के एक विधा में खोज हुई है, जिसका श्रेय स्वामीजी को जाता है। अब यह भी संभव है कि नि:स्वार्थ महान संत स्वामीजी ने श्रेय स्वयं नहीं लेकर उन अज्ञात पूर्वजों को देना उचित समझा, जिनके साहित्य के आधार पर वे ऐसा कर पाये। स्वामीजी के पहले भी भारत और विदेशों में द्रुतगति से परिणाम देने वाली विधियों का विकास किया गया है। नवमी शताब्दी के जैन गणितज्ञ महावीराचार्य ने भी गुणा करने की एक से अधिक विधियों का वर्णन किया है। वर्ग करने की विशिष्ट रीति का भी उल्लेख किया है। स्वामीजी की विधियाँ उनके पूर्व के भारतीय गणितज्ञों की विधियों से या समानता रखती हैं या फिर तनिक नवीनता। अठारहवीं शताब्दी की फ्रांसीसी गणितज्ञा माक्र्वी एमिली दु शातले में भी त्वरित गणन शक्ति थी। सन् 1888 में जन्में रशियन इंजिनीयर जेकाऊ ट्रेचटनबर्ग ने भी द्रुतगति से परिणाम देने वाली विधियों का स्वयं विकास किया था। यह कार्य उन्होंने हिटलर के राजनैतिक कैदियों के शिविर में रहते हुए किया। स्वामीजी की द्रुतगति से परिणाम देने वाली विधियों की प्रमुख विशेषता यह है कि इन विधियों को सोलह सूत्रों के अधीन लाया गया है। यही अप्रतिम विशेषता उनको | अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी पूर्ववर्तियों से गणित की इस विधा में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है। परन्तु इन सूत्रों को गणित के इतिहास में स्थान देने के लिये डा. ब्रजमोहन ने विनम्र असहमति प्रकट की है। क्योंकि सूत्रों के वैदिककालीन होने और उनके खोज के आंधार की सत्यता असंदिग्ध रूप से प्रमाणित नहीं है। स्वतंत्रता के पहले स्वामीजी ने अनेक आंदोलनों में भाग लिया। उन्होंने अपना सार्वजनिक जीवन 1905 में गोपालकृष्ण गोखले के निर्देशन में राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन तथा दक्षिण अफ्रीका की भारतीय समस्या पर प्रारम्भ किया। 9 जुलाई 1921 को करांची में आल इंडिया खिलाफत कान्फ्रेन्स में भाग लेने वाले नेताओं को गिरफ्तार करके करांची में ही राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। गिरफ्तार नेताओं में मुहम्मदअली, शॉकत अली, सैफुद्दीन किचलू, पीर गुलाम, मौलवी हुसैन अहमद, मौलवी निसार अहमद और स्वयं स्वामीजी शामिल थे । ऐसे सर्वधर्म समभाव वाले स्वामीजी ने स्वयं अपनी सूत्राधीन विधियों का भारत के अलावा अमेरिका के अनेक विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन करके गणित जगत को आन्दोलित किया। वर्तमान में भी उनके कार्य का विकास एवं प्रचार करने में व्यक्तिगत एवं संस्थागत स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं। राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठानम् नई दिल्ली ( अब उज्जैन) ने वैदिक गणित पर जयपुर, अहमदाबाद और दिल्ली में कार्यशाला तथा गोलमेज चर्चा आयोजित की थी। अभिनव विद्या भारती, बैंगलोर और महर्षि महेश योगी संस्थान भी कार्य कर रहे हैं। आध्यात्मिक अध्ययन संस्था, रूढ़की के डा. नरेन्द्र पुरी इस दिशा में गंभीर रूप से प्रयासरत हैं। लंदन के निकोलस और उनके साथियों ने स्वामीजी के सूत्रों का कार्यक्षेत्र बढ़ाया है। फलस्वरूप स्वामीजी की इन सूत्राधीन विधियों को भारत के अलावा इंगलैंड, अमेरिका, जापान आदि देशों में पढ़ना प्रारम्भ किया गया है। देश के प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं गणित के इतिहासकार प्रो. आर. सी. गुप्त, जे. एन. कपूर, कृपाशंकर शुक्ल, टी.एस. भानुमूर्ति आदि ने स्वामीजी की कृति का महत्वपूर्ण विवेचन किया है, जो हमें भ्रम से बचाता है। स्वामीजी की सूत्राधीन विधियों का शैक्षणिक मूल्य है। इनसे गणित के आनन्दमय सौन्दर्य का बोध होता है, जो गणितसे भयभीत शिक्षार्थियों को गणित अध्ययन की मुख्य धारा में ला सकता है। परन्तु इन्हें नियमित शिक्षण का अंग नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि अंकगणित या बीजगणित के मात्र कुछ अंशों में द्रुतगति से परिणाम प्राप्त करना ही गणित नहीं है। गणित एवं गणना आज समानार्थी शब्द नहीं रहे हैं। स्वामीजी के सूत्राधीन विधियों में प्राचीन शिक्षण पद्धति के दोष हैं। सूत्रों के आगमन तर्क से अनभिज्ञ होने पर कोई भी अशुद्धि करने को बाध्य होता है। कण्ठस्थ करना और उनका अनुप्रयोग बिल्कुल यन्त्रवत होता है। ऐसा लगता है जैसे कोई जादू हो । स्वयं स्वामीजी के अनुसार जब तक न समझ में आये तब तक जादू और तत्पश्चात् गणित । स्वामी प्रत्यगात्मानन्द सरस्वती के अनुसार परिणाम निकालने में तो जादू का उपयोग किया जा सकता है। परन्तु प्रमाणित करने के लिये तर्क का उपयोग ही करना पड़ेगा। यह जादू कुछ और नहीं वरन् निगमन विधि का अनूठा प्रयोग है। T गणित में स्वामीजी की यह शैली अनुपम है। उनकी इस शैली का अनुप्रयोग ऐसे विषयों में किया जाये जहाँ वह सहवर्ती हो। उनके कार्य के विकास की यही दिशा निःसन्देह उनके चरणों में सही वन्दना होगी। अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 43 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतज्ञता ज्ञापन - इस आलेख के प्रणयन में प्रदत्त मार्गदर्शन एवं सहयोग हेतु लेखक डा. अनुपम जैन, सहायक प्राध्यापक - गणित, होल्कर स्वशासी विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर का आभारी सन्दर्भ सूची - 1. Bhanumurthy, T.S., A Modern Introduction to Ancient Indian Mathematics, Wiley Eastern Limited, Delhi, 1992. 2. भारतीकृष्णतीर्थ, वैदिक गणित, अनुवादक - एअर वाइस मार्शल विश्वमोहन तिवारी, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रा.लि., दिल्ली, 1991. 3. ब्रजमोहन, गणित का इतिहास, उ.प्र. हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, लखनऊ, 1965. 4. दत्त, विभूतिभूषण एवं सिंह, अवधेशनारायण, हिन्दू गणित शास्त्र का इतिहास, भाग - 1, अनुवादक-कृपाशकर शुक्ल, प्रकाशन ब्यूरो, उत्तरप्रदेश सरकार, लखनऊ, 1956. 5. जैन, अनुपम एवं अग्रवाल, सुरेशचन्द्र, महावीराचार्य (एक समीक्षात्मक अध्ययन), दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, 1985. 6. Ganitanand, In the Name of Vedic Mathematics,.Ganita Bharti, 10, 75-78, New Delhi, 1988. 7. Gupta, R. C., A Review of Vedic Mathematics, Indian Journal of History ___of Science, 18, 222-225, 1983. 8. Gupta, R. C., Six Type of Vedic Mathematics, Ganita Bharti, 16, 5-15, New Delhi, 1994. 9. जैन, एस.एल., गणित शिक्षण, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 1984. 10. 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Trachtenberg, The Trachtenberg Speed System of Basic Mathematics, Translated and Adopted by Ann Cutler and Rudolph McShane, Rupa & Co,1991. प्राप्त - 22.3.99 44 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् वच कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 12, अंक- 2, अप्रैल 2000, 4548 णमोकार मंत्र की जाप संख्या और पंच तंत्री वीणा ■ जयचन्द्र शर्मा अक्षर शक्ति से समस्त संसार का शक्तिविहीन नहीं हैं। अक्षरों का जब होती है। उस ध्वनि में कोमलता, महामंत्र के प्रत्येक अक्षर में दैविक शक्ति है। व्यापार चलता है। अक्षर चाहे किसी भी भाषा के हों उच्चारण करते हैं तब एक प्रकार की ध्वनि उत्पन्न मधुरता एवं कठोरता के भाव पाये जाते हैं। मंत्र के जाप में कोमलता एवं मधुरता के भाव होने पर ही उसका प्रभाव होता है। मुख से मधुर ध्वनि के साथ मंत्र को प्रगट किया और अन्तरावस्था में कठोरता के भाव भरे हैं, ऐसी भावना को समाप्त करने के लक्ष्य से ऋषियों, मनीषियों ने मंत्रों की जाप संख्या अधिकाधिक अर्थात् लाखों एवं करोड़ों तक का उल्लेख किया है। अक्षरांक - शक्ति का उपयोग चेतन एवं अचेतन पदार्थों के प्रभाव को जानने के लिये किया जाता है। योगी एवं वैज्ञानिक अपने विषयों की गहराई तक पहुँचने के लिये अक्षरांक - शक्ति का सहारा लेते हैं। उन ध्वनियों में रस है, रंग है और परमात्मा से साक्षात्कार कराने की अभूतपूर्व शक्ति है। इस शक्ति को प्राप्त करने की दृष्टि से प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मंत्र, यंत्र एवं तंत्र विद्याओं को आधार माना है। मंत्र विद्या सत् गुण प्रधान है। अतः मंत्र के जाप से आत्मा में कोमलता के भाव उत्पन्न होते हैं जो भगवान को भी प्रिय हैं। महामंत्र का जाप कितनी संख्या में किया जाये, उसका फल उक्त संख्याओं की शक्ति अनुसार जाप कर्ता को होगा। किस लाभ के लिये कितने जाप किये जायें, इस संबंध में जैन साहित्य एवं विद्वानों के लेखों का अध्ययन किया जाये । जाप संख्याओं की जानकारी के संबंध में दो प्रकार के विधि-विधान का आधार लिया जाये तो वैज्ञानिक दृष्टि से अप्रमाणिक नहीं माने जा सकते। प्रथम प्रकार गुणोत्तर प्रणाली एवं द्वितीय प्रकार है अक्षरांक प्रणाली । - गुणोत्तर प्रणाली महामंत्र के प्रत्येक पद के अक्षरों का गुणा करें। जैसे 'णमो अरिहंताणं', इस पद में सात अक्षर हैं। इनकी सात संख्याओं का गुणनफल निकालें 1x2x3x4x5x6x7 = 5040 जाप में ॐ का उपयोग करते हैं तो एक अंक बढ़ जाता है, इस आठवें अंक को उपर्युक्त संख्या से गुणा करने पर निम्न संख्या प्राप्त होगी 5040x8 40320 द्वितीय में पांच अक्षर हैं 'णमो सिद्धाणं'। इसका गुणनफल - 1x2x3x4x5 = 120 तृतीय पद ‘णमो आयरियाणं' के सात अक्षर हैं। इसका गुणनफल 1x2x3x4x5x6x7 = 5040 चतुर्थ पद 'णमो उवज्झायाणं' के भी सात अक्षर हैं। इसका गुणनफल 1x2x3x4x5x6 x 7 = 5040 * निदेशक - श्री संगीत भारती, शोध विभाग, रानी बाजार, बीकानेर- 334001 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम पांचवें पद ‘णमो लोए सव्व साहूणं' में नौ अक्षर हैं। इसका गुणनफल - 1x2x3x4x5x6x7x8x9 = 362880 उपर्युक्त पांचों पदों की संख्याओं का जो योग आये महामंत्र का जाप उतना किया जाये। पाँचों संख्याओं का योग - 40320 + 120+ 5040 + 5040 + 362880 = 373400 तीन लाख तहेत्तर हजार चार सौ जाप करने वाले व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ, पुत्र लाभ, धन लाभ, समाज में यश लाभ आदि लाभ निश्चित होगा, इसमें सन्देह नहीं। अक्षरांक विधि - महामंत्र के प्रत्येक पद के अक्षरों को मात्रिकाओं के अनुसार क्रमानुसार लिखने पर जो संख्या आये वह संख्या मंत्र जाप से होने वाले लाभ से संबंधित होगी। अक्षरों की संख्या हिन्दी वर्णमाला के 16 स्वर अ से अं तक, क- वर्ग से प - वर्ग तक के व्यंजन एवं 'य' से 'ह' तक के वर्गों के आधार पर प्रस्तुत की जाये। जैसे णमों में 'ण' का अक्षर ट-वर्ग का पांचवां अक्षर एवं मो का 'म' अक्षर प-वर्ग का पांचवां अक्षर है। णमो शब्द की संख्या 55 हई। अरिहंताणं की संख्या में अ - 1, रि - 2, हं - 4, ता - 1 और ण - 5 के अंक हैं। पूरे पद की संख्या हुई 5512415 - पचपन लाख बारह हजार चार सा पन्द्रह। पांचों पदों की संख्या एवं योग क्रम सं. पद अक्षर संख्या संख्याओं का योग 1 णमो अरिहंताणं 5512415 - 23 - 24 णमो सिद्धाणं 55345 - 22 = 2 + 2 = 4 णमो आइरियाणं 5521215 21 = 2 + 1 = 3 णमो उवज्झायाणं 5554415 29 = 2 + 9 = 11 : 1 + 1 - 2 5 णमो लोएसव्वसाहूणं 553234345= 34 = 3 + 4 = 7 उपर्युक्त पदों में सबसे कम संख्या 55345 द्वितीय पद की है। पद संख्या पांच के अंकों की संख्या पचपन करोड़, बत्तीस लाख, चौंतीस हजार, तीन सौ, पैंतालीस है जो अन्य पदों की संख्याओं से बहुत अधिक है। लाभ - 1. द्वितीय पद की संख्यानुसार महामंत्र का जाप करने से मन स्थिर होगा, धार्मिक भाव जाग्रत होंगे और आत्मा को शांति मिलेगी। 2. णमो अरिहंताणं द्वारा उत्पन्न संख्याओं के जाप से स्वास्थ्य लाभ, तृतीय पद की संख्याओं का जाप करने से धन लाभ, चतुर्थ पद की संख्याओं का जाप करने से वंश वृद्धि (पुत्र लाभ) तथा पंचम पद की संख्या का जाप करने से मोक्ष होना निश्चित है। पांचों पदों के संख्याओं का योग क्रम 5, 4, 3, 2, 7 है। इस संख्या का योग 21 = 2 + 1 = 3 बनता है। 3 का अंक द्वितीय पद एवं पंचम पद की संख्या के मध्य में है। पंचम पद की संख्या में 3 का अंक तीन स्थानों पर है। उनका अक्षर तीन-तीन अंकों की दूरी पर है। अत: इस अंक का महत्व अंकन प्रणाली में सर्वाधिक अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। प्रत्येक पद का प्रथम महामंत्र के पांच पद, महामंत्र के अक्षर संख्याओं में एक से पाँच के अंक हैं। एवं अंतिम अंक भी पांच ही है। पांच की संख्या में पांच तत्व, पंच परमेष्ठी, पंच तंत्री वीणा, पांच प्रकार की वायु, पांच देवी - देवताओं आदि की जानकारी मिलती है। तीन का अंक द्वितीय एवं पंचम पद के अतिरिक्त अन्य पदों की संख्याओं में नहीं है। सबसे कम एवं सबसे अधिक संख्या वाले इन पदों के अंकों द्वारा ध्वनि - शक्ति से कोमलता एवं मधुरता संबंधी जानकारी मिलती है, उस पर आगे प्रकाश डाला जा रहा है। प्रत्येक अक्षर में तीन प्रकार की ध्वनियाँ पायी जाती हैं। उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित ध्वनियों के आधार पर उन ध्वनियों के गुण, स्वभाव, प्रमाणादि की जानकारी मिलती है। उन ध्वनियों का संख्याओं से भी सम्बन्ध है। कोमल ध्वनि का जब प्रयोग किया जाता है तब उक्त ध्वनि के अन्तराल में संवादात्मक ध्वनि के सहयोग से मधुर ध्वनि ( स्वंयभू - नाद ) उत्पन्न होती है। उक्त ध्वनि को योगी ही सुनते जिसे अनाहत नाद कहा जाता है। अक्षरांक विधि के आधार पर महामंत्र का द्वितीय पद विशेष महत्वपूर्ण है । पद की संख्या 55345 का योग 22 है। नाद विशेष अर्थात् समुधुर नाद की बाईस ध्वनियाँ मानव के शरीर (कायपिण्ड) में बाईस नाड़ियों में स्थित है जिन्हें श्रुति कहते हैं। उन श्रुतियों को तीन भागों में विभाजित कर उन पर संगीत के सप्त स्वरों को मनीषियों ने स्थापित किया है। संगीत कला का प्रभाव श्रुतियों के स्वभावानुसार होता है। महामंत्र के प्रत्येक पद के अक्षरों को प्रभावित करने का कार्य श्रुति करती है। नाद का यह सूक्ष्म स्वरूप अनाहत नाद से संबंध स्थापित कराता है। उक्त पद में तीन का अंक मध्य स्थान पर । यह अंक तीन लोक, संगीत के तीन ग्राम ( षड़ज, मध्यम, गंधार ग्राम), तीन लय, तीन नाड़ियाँ ( इड़ा, पिंगला, सुषुप्ता) आदि की जानकारी कराता है। चार के अंक से चार गति, चार दिशाएँ, मूलाधार कमलदल की चार पंखुड़ियां, उस पर स्थित चार अक्षर, चार मात्राएँ आदि की जानकारी मिलती है। णमो सिद्धाणं में 'स' और 'ध' दोनों अक्षर संगीत के स्वर भी हैं। सा ( षड़ज) की चार श्रुतियां एवं ध ( धैवत ) की तीन श्रुतियां हैं। तीन एवं चार के अंक उक्त पद में भी हैं। षड्ज स्वर अचल है, उसी प्रकार सिद्ध (साधक) भी अचल है। सा का स्थान छंदोवती श्रुति पर एवं ध का स्थान रम्या नामक श्रुति पर है। छंदोवती का अर्थ है छंदवद्ध, कवित्रि एवं छेदन करने वाली तथा रम्या का अर्थ है सुन्दर महामंत्र छंदवद्ध, सुन्दर एवं कुण्डलिनी को जाग्रत करने वाला है। छंदोवती का स्थान मानव शरीर में नाभि है। इस श्रुति से पूर्व तीव्रा, कुमुद्रती, मन्दा नामक तीन श्रुतियां षडज स्वर से संबंधित हैं। तीव्रा का संबंध 'मूलाधार चक्र' से है। छंदोवती की ध्वनि षड़ज स्वर जो औंकार स्वरूप 'ॐ' है, मन्दा तथा कुमुद्रनी की ध्वनियों को छेदन करती हुई तीव्रा को प्रभावित करती है। तीव्रा का अर्थ तेज एवं प्रकाश है। अत: तीव्रा के तेज प्रकाश से कुण्डलिनी जाग्रत होती है। णमोकार महामंत्र में 'णमो' शब्द का उच्चारण ओंकार स्वरूप है। 'र' हृदय तंत्री अप्रैल 2000 अर्हत् वचन, 47 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को झंकृत करता है और 'मो' मधुर ध्वनि के कारण 'ॐ' की ध्वनि को धारण कर लेता है। हिन्दी वर्णमाला का यह 25 वां व्यञ्जन है। 25 का योग 2 + 5 = 7 है। सात स्वरों में सूर्य की सप्त रश्मियों का प्रभाव होने से पंचतंत्री वीणा (कायपिण्ड) की झंकार का आनन्द साध - संत एवं योगी प्राप्त करते हैं। सांसारिक व्यक्ति मोह - माया के चक्कर में फंसा रहने से वह मंत्र साधना के माध्यम से क्षणिक लाभ के लक्ष्य से मंत्र का जाप करता है। उसे लाभ अवश्य होता है पर वह पंच तंत्री वीणा की झंकार का आनन्द नहीं ले सकता। क्योंकि महामंत्र के पाँचों पद पंच तत्वों से सम्बन्धित हैं। सम्पूर्ण मंत्र में आकाश तत्व - 17, वायु तत्व - 7, जल तत्व - 5, अग्नि तत्व - 2 और पृथ्वी तत्व - 4 हैं। कुछ विद्वानों ने आकाश तत्व की संख्या 12 मानी है। उन्होंने 'णमो' शब्द को मिश्रित कर आकाश तत्व की संख्या एक मानी है जबकि 'ण' और 'म' ध्वनि के रंग, वार एवं राशि पृथक - प्रथक हैं। उपर्युक्त तत्वों की संख्याओं के अनुसार वीणा वाद्य पर 17 सुन्दरियों (परदे) पर सप्त स्वरों को दर्शाया जाता है। 5 का अर्थ है पंचम का तार, 2 का अर्थ जोड़े के नाद और म का अर्थ मध्यम स्वर अर्थात् बाज का तार से संबंध बनाता है। अत: महामंत्र के पांचों पद पंच तंत्री वीणा के अनुरूप हैं। वीणा का यह बाह्य रूप नहीं है इसका संबंध अन्तरात्मा से है। सन्दर्भ - 1. संगीत रत्नाकर 2. भारतीय श्रुति स्वर रागशास्त्र 3. नाद योग 4. ॐ नाद ब्रह्म (मराठी पत्रिका) 5. अमृत कलश 6. समस्या समाधान पत्रिका 7. संगीत मासिक प्राप्त -8.4.99 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल 2000, 49 - 51 क्या डूंगरसिंह जैन धर्मानुयायी था? - रामजीत जैन* 00000000000ठमाण एक अप्रत्यक्ष सत्य परन्तु सत्यानुवेषियों को संकेत है सत्य को प्रत्यक्षदर्शी बनाने हेतु। कुछ तथ्य दे रहे हैं आगे बढ़ने के लिये। गोपाद्रौ देवपत्तन - वीरमेन्द्र देव ग्वालियर के तोमर राजा (सन् 1402 - 1423) थे और वि.सं. 1469 (सन् 1412 ई.) में कुन्दकुन्दाचार्य (प्रथम श.ई.) द्वारा रचित 'प्रवचनसार' की आचार्य अमृतचन्द्र कृत 'तत्व दीपिका' टीका की एक प्रतिलिपि वीरमेन्द्र के राज्य में ग्वालियर में की गई थी। इसके प्रतिलिपि काल और स्थल के विषय में निम्नलिखित पंक्तियाँ प्राप्त होती हैं - विक्रमादिय राज्येद्रस्मिचतुर्दपरेशते। नवष्ठवा युते कितु गौपाद्रौ देवपत्तने॥ प्रतिलिपिकार ने वि.सं. 1469 में ग्वालियर को 'देवपत्तन' कहा है। जैन तीर्थमालाओं में भी ग्वालियर का उल्लेख प्रसिद्ध तीर्थ रूप में किया है। इसलिये ज्ञात होता है कि ग्वालियर जैनियों के लिये 'देवपत्तन' था। अगणित मूर्तियाँ - अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधू ने 'सम्मत्तगुणविहाण कव्व' ग्रन्थ में नगर वर्णन प्रसंग में लिखा है - 'उसने (डूंगरसिंह) अगणित मूर्तियों का निर्माण कराया था। उन्हें ब्रह्मा भी गिनने में असमर्थ हैं।' श्री हेमचन्द्रराय का निम्न कथन दृष्टव्य है - 'राजा डूंगरसिंह जैन धर्म का महान पोषक था। उसके राज्यकाल में ग्वालियर दुर्ग की चट्टानों में जैन मूर्तियों के उत्कीर्ण करने का कार्य प्रारम्भ किया गया था। जो उसके उत्तराधिकारी राजा कीर्तिसिंह के काल में पूरा हुआ। विशाल अवगाहन वाली प्राचीन जिन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ सशक्त संरक्षकों की भांति महान दुर्ग एवं उसके आस - पास की भूमि पर दृष्टि रखते हुए प्रतीत होती हैं। चट्टानों में खुदी हुई मूर्तियों की शिल्पकारी देखकर बाबर अत्यधिक क्रोधित हआ और सन् 1557 ई. में उसने उन मूर्तियों को नष्ट करने का आदेश दिया।' (मूल अंग्रेजी में भावार्थ) यह ऐतिहासिक सत्य है कि तोमर वंश के राजा डंगरसिंह ने वि.सं. 1481 में राज्य संभाला। उसी समय से किले की चट्टानों में जिन मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने का कार्य प्रारम्भ हुआ जो कला एवं पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और इसी कारण गोपाचल को कला तीर्थ माना जाता है।' सन् 1424 ई. में तंवर वंश के सिंहासन पर महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह आसीन हुए। युद्धों के बीच उनका ध्यान विद्वानों, धार्मिक समारोहों और निर्माणों की ओर गया। महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह के राज्यकाल में ही ग्वालियर गढ़ की चट्टानों में जैन प्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हुआ। सबसे पूर्व वि.सं. 1497 (सन् 1440) के तीन शिलालेख इस बात के सूचक हैं कि इनके आश्रय में अनेक जैन मतावलम्बियों ने उन विशाल जैन प्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ करा दिया था जो आज ग्वालियर गढ़ को चारों ओर से घेरे हुए हैं। इन अभिलेखों में उल्लिखित जैनाचार्य देवसेन, यश:कीर्ति, जयकीर्ति एवं अन्य भट्टारक राज दरबार में पूर्ण समादृत होंगे इसमें सन्देह नहीं। खेद यही है कि अभिलेखों द्वारा प्राप्त * एडवोकेट, दानाओली, टकसाल गली, ग्वालियर - 1 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस जानकारी की पूर्ति तत्कालीन जैन साहित्य की खोज द्वारा नहीं हो सकी। इतनी बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह जैन धर्म के प्रबल पोषक थे और उन्हीं के प्रोत्साहन से जैन धर्मालु भाइयों ने ग्वालियर गढ़ को जैन मूर्तियों से अलंकृत करने का संकल्प किया। महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह के समय में हुई जैन सम्प्रदाय की उन्नति के इतिहास की खोज अभी शेष है और आवश्यक है। डूंगरेन्द्रसिंह के पश्चात् उनके पुत्र कीर्तिसिंह तंवर ग्वालियर गढ़ के अधिपति बने। उन्होंने जैन सम्प्रदाय को आश्रय दिया। इनके राज्यकाल में ग्वालियर की जैन प्रतिमाओं का निर्माण पूर्ण हआ। महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह कीर्तिसिंह के शासन काल में सन् 1440 ई. से 1473 ई. तक 33 वर्ष के समय में प्रतिमाएँ बनीं। इन दोनों नरेशों के राज्यकाल में जैन धर्म को प्रश्रय मिला।' 2 ग्वालियर के उरवाई गेट पर भगवान 'आदिनाथ की 57 फुट ऊँची प्रतिमा है। इस विशाल प्रतिमा के निर्माण में महाकवि रइधू (वि.सं. 1440 - 1536) के प्रभावशाली व्यक्तित्व, कमलसिंह संघवी की दानवीरता एवं धर्मप्रियता तथा तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह की जैन धर्म के प्रति उदारता का योगदान है। कहा जाता है कि अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधू की साहित्य सौरभता जब फैली तो राजा डूंगरसिंह ने कविवर से कहा कि - "हे कवि श्रेष्ठ! तुम अपनी साहित्य साधना हमारे पास दुर्ग में ही रहकर करो, जिसे रइधू ने स्वीकार कर लिया। रइधू आदिनाथ का भक्त था। किले में भगवान आदिनाथ के दर्शन न होने से उसका चित्त उदास रहता था। उसने अपनी भावना अपने मित्र, सहयोगी एवं श्रेष्ठी संघवी कमलसिंह से प्रकट की। मंत्री कमलसिंह संघवी आनन्द विभोर होकर गोपाचल दुर्ग में गोम्मटेश्वर के समान आदिनाथ की विशाल खड्गासन मूर्ति के निर्माण की भावना लेकर राजा डूंगरसिंह के राजदरबार में गया और शिष्टाचार पूर्वक प्रार्थना की - 'हे राजन! मैंने कुछ विशेष धर्म कार्य करने का विचार किया है किन्तु उसे कर नहीं पा रहा हूँ। अत: प्रतिदिन यही सोचता रहता हूँ कि अब वह आपकी कृपा पूर्ण सहायता एवं आदेश एवं सहायता से ही सम्पूर्ण करूँ क्योंकि आपका यश एवं कीर्ति अखण्ड है एवं अनन्त है। मैं तो इस पृथ्वी पर एक दरिद्र एवं असमर्थ के समान हूँ। इस मनुष्य पर्याय में मैं कर ही क्या सकता राजा डूंगरसिंह कमलसिंह को जो आश्वासन देता है वह निश्चय ही भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम सन्दर्भ है। उससे डूंगरसिंयह के इतिहास प्रेम के साथ-साथ उसकी धर्म निरपेक्षता, समरसता, कलाप्रियता तथा अपने राजकर्मियों की भावनाओं के प्रति अनन्य स्नेह एवं ममता की झांकी स्पष्ट दिखाई देती है। वह कहता है - 'हे सज्जनोत्तम, जो भी पुण्य कार्य तुम्हें रूचिकर लगे, उसे अवश्य पूरा करो। यदि धर्म सहायक और भी कोई कार्य हो तो उसे हो तो उसे भी पूरा करो। अपने मन में किसी भी प्रकार की शंका मत करो, धर्म के प्रति तुम संतुष्ट रहो। जिस प्रकार राजा बीसलदेव के राज्य सौराष्ट्र (सोरट्ठ देश) में धर्म साधना निर्विघ्न रूप से प्रतिष्ठित थी, वस्तुपाल - तेजपाल ने हाथी दांतों से प्रवर तीर्थराज का निर्माण कराया था, जिस प्रकार पेरोजशाह (फिरोजशाह) की महान कृपा से योगिनपुर (दिल्ली) में निवास करते हुए सारंग साहू ने अत्यंत अनुराग पूर्वक धर्मयात्रा करके ख्याति अर्जित की थी, उसी प्रकार हे गुणाकर! धर्मकार्यों के लिये मुझसे पर्याप्त द्रव्य ले लो, जो भी कार्य करना हो उसे निश्चय ही पूरा कर लो। यदि द्रव्य में कुछ कमी आ जाये तो मैं उसे भी अपनी ओर से पूर्ण कर दूंगा। जो जो भी मांगेंगे , वही वही (मुँहमांगा) दूंगा।' राजा ने बार - बार आश्वासन देते हुए कमलसिंह को पान का बीड़ा देकर सम्मानित किया। राजा का आश्वासन एवं सम्मान प्राप्त कर कमलसिंह अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यन्त गद्गद् हो उठा और वह राजा से इतना ही कह सका कि 'हे स्वामिन ! आज आपका यह दास धन्य हो गया । ' कमलसिंह ने गोपाचल दुर्ग पर उरवाही द्वार के पास 57 फुट ऊँची आदिनाथ की मूर्ति का निर्माण कराया। उसकी प्रतिष्ठा का कार्य रइधू ने कराया। 3 जयेन्द्रगंज का प्राचीन नाम जयेन्द्रगंज नहीं जिनेन्द्रगंज था, स्वर्णरेखा नदी के आसपास का यह क्षेत्र जहाँ जैन मुनि तथा सिंह का विचरण क्षेत्र था, जो पूर्व में काफी पवित्र माना जाता था, लेकिन समय की मार ने सभी स्मृति चिन्ह मिटा दिये हैं तथा यह क्षेत्र जिनेन्द्रगंज से जयेन्द्रगंज में परिवर्तित हो गया। प्रो. रघुनाथसिंह भदौरिया ने इतिहास के पन्नों को उलटते हुए उक्त जानकारी देते हुए बताया कि 'वैसे तो ग्वालियर जैन धर्म एवं परम्परा का मध्यकाल में प्रकाश स्तम्भ रहा है, जो कुछ भी मध्य क्षेत्र यानी केन्द्रीय भारत में प्राचीन निर्माण दिखता है, उसका श्रेय ग्वालियर के तोमर राजपूत राजाओं को है। तोमर राजाओं के काल में लगभग आधे काल तक महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह तोमर से कीर्तिसिंह तक जैन धर्म राज धर्म घोषित था। ग्वालियर किले के उरवाई क्षेत्र में लगभग साढ़े चार हजार जैन मूर्तियां थीं जो 1878-79 ( सरकारी रिकार्ड से यह 1868-69 होना प्रतीत होता है) में सिंधिया के शासन में एक अंग्रेज इंजीनियर द्वारा सड़क निर्माण में नष्ट कर दी गईं थी । केवल किले के पत्थरों में उकेरी गई प्रतिमाएँ ही शेष बची हैं। इसी तरह किले के पूवी पार्श्व की प्रतिमाएँ और गुफाएँ भी इसी काल में बनाई गई थीं। मालवा और बुन्देलखण्ड तक और मथुरा क्षेत्र तक इस काल में जैन धर्म का राजपूत राजाओं ने खूब प्रचार प्रसार किया, यद्यपि यह शोध का विषय | श्री भदौरिया ने बताया कि डूंगरेन्द्रसिंह तोमर को डोंगरशाह एवं कीर्तिसिंह को तत्कालीन जैन साहित्य में कीर्ति शाह नाम से सम्बोधित किया गया है। पाँच सौ वर्ष पुरानी बात है, इस कारण इस पर बहुत धूल चढ़ चुकी है। ' 4 दरअसल जैनियों की निहायत मशहूर यादगार सिर्फ जैन मूर्तियों के पाँच मजमुए (समूह) हैं। यह खास पहाड़ी के ड़ाल में काटी गई हैं और यह सब तोमर खानदान की हुकूमत के जमाने में सन् 1440 ई. से सन् 1473 ई. तक तैयार की गई थी। कुछ मूर्तियां तो बड़ी कद्दावर आकार की हैं। उरवाही दरवाजा के पास एक मजमुए (समूह) की एक मूर्ति 57 फुट बुलन्द है । बाबर ने इस मूर्ति के जिक्र में लिखा है कि मैंने इन तमाम मूर्तियों को तोड़ने का हुक्म दे दिया था। इनमें से सिर्फ वो ही मूर्तियां किसी कद्र तोड़ डाली गई थीं जिन तक आसानी से पहुँच हो सकती थीं। बाद को कुछ किले के मुसलमान हाकिमों के जमाने में गारत कर दी गई और बहुत सी महकमा पब्लिक वरक्स वालों ने सन् 1869 ई. में पक्की सड़क बनाने के लिये तोड़ डालीं । प्रो. रघुनाथसिंह भदौरिया से हमारी रूबरू बातचीत में उन्होंने बताया कि महाराजा डूंगरसिंह एवं कीर्तिसिंह दोनों ने जिन दीक्षा ली थी। ग्वालियर राज्य में जैन धर्म राज धर्म घोषित होने के परिणाम स्वरूप यहाँ के भदौरिया, तोमर एवं कुछवाह राजपूतों में मांस और शराब का प्रचलन कतई बन्द था जो अब से पचास वर्ष तक देखा गया। अब तथ्य आपके सामने हैं, कथ्य आपको बढ़ाना है, सत्य प्रगटाना है। सन्दर्भ 1. हरिहर निवास द्विवेदी, मानकुतूहल । 2. अर्हत् वचन ( इन्दौर), जनवरी 1993. 3. जैन धर्म राज धर्म, दैनिक भास्कर (ग्वालियर), 4.12.97. 4. गजेटियर - रियासत ग्वालियर, 1908, जिल्द पहली ) - - प्राप्त अर्हत् वचन, - 10.4.98 अप्रैल 2000 51 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर का प्रकल्प सन्दर्भ ग्रन्थालय आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि महोत्सव वर्ष के सन्दर्भ में 1987 में स्थापित कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ने एक महत्वपूर्ण प्रकल्प के रूप में भारतीय विद्याओं, विशेषत: जैन विद्याओं, के अध्येताओं की सुविधा हेतु देश के मध्य में अवस्थित इन्दौर नगर में एक सर्वांगपूर्ण सन्दर्भ ग्रन्थालय की स्थापना का निश्चय किया। हमारी योजना है कि आधुनिक रीति से दाशमिक पद्धति से वर्गीकृत किये गये इस पुस्तकालय में जैन विद्या के किसी भी क्षेत्र में कार्य करने वाले अध्येताओं को सभी सम्बद्ध ग्रन्थ / शोध पत्र एक ही स्थल पर उपलब्ध हो जायें। हम यहाँ जैन विद्याओं से सम्बद्ध विभिन्न विषयों पर होने वाली शोध के सन्दर्भ में समस्त सूचनाएँ अद्यतन उपलब्ध कराना चाहते हैं। इससे जैन विद्याओं के शोध में रूचि रखने वालों को प्रथम चरण में ही हतोत्साहित होने एवं पुनरावृत्ति को रोका जा सकेगा। केवल इतना ही नहीं, हमारी योजना दुर्लभ पांडुलिपियों की खोज, मूल अथवा उसकी छाया प्रतियों/माइक्रो फिल्मों के संकलन की भी है। इन विचारों को मूर्तरूप देने हेतु दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम, 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर पर नवीन पुस्तकालय भवन का निर्माण किया गया है। 31 मार्च 2000 तक पुस्तकालय में 7000 महत्वपूर्ण ग्रन्थ एवं 1000 पांडुलिपियों का संकलन हो चुका है। जिसमें अनेक दुर्लभ ग्रन्थों की फोटो प्रतियाँ सम्मिलित हैं ही। अब उपलब्ध पुस्तकों की समस्त जानकारी कम्प्यूटर पर भी उपलब्ध है। फलत: किसी भी पुस्तक को क्षण मात्र में ही प्राप्त किया जा सकता है। हमारे पुस्तकालय में लगभग 300 पत्र - पत्रिकाएँ भी नियमित रूप से आती हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ है। आपसे अनुरोध है कि - संस्थाओं से : 1. अपनी संस्था के प्रकाशनों की 1 - 1 प्रति पुस्तकालय को प्रेषित करें। लेखकों से : 2. अपनी कृतियों (पुस्तकों / लेखों) की सूची प्रेषित करें, जिससे उनको पुस्तकालय में उपलब्ध किया जा सके। 3. जैन विद्या के क्षेत्र में होने वाली नवीनतम शोधों की सूचनाएँ प्रेषित करें। दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम परिसर में ही अमर ग्रन्थालय के अन्तर्गत पुस्तक विक्रय केन्द्र की स्थापना की गई है। सन्दर्भ ग्रन्थालय में प्राप्त होने वाली कृतियों का प्रकाशकों के अनुरोध पर बिक्री केन्द्र पर बिक्री की जाने वाली पुस्तकों की नमूना प्रति के रूप में उपयोग किया जा सकेगा। आवश्यकतानुसार नमूना प्रति के आधार पर अधिक प्रतियों के आर्डर दिये जायेंगे। श्री सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर के सहयोग से संचालित प्रकाशित जैन साहित्य एवं जैन पांडुलिपियों के सूचीकरण की परियोजना भी यहीं संचालित होने के कारण पाठकों को बहुत सी सूचनाएँ यहाँ सहज उपलब्ध हैं। देवकुमारसिंह कासलीवाल डॉ. अनुपम जैन अध्यक्ष 31.3.2000 मानद सचिव 52 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 वर्ष- 12, अंक-2, अप्रैल 2000, 53-55 अहेत् वचन विदिशा का कल्पवृक्ष अंकित स्तम्भ शीर्ष कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर - गुलाबचन्द जैन* अवसर्पिणी के प्रारम्भिक काल में जब मानव सन्तोषी था तथा उसकी आवश्यकताएँ भी अल्प थीं. सीमित थीं तब उसे कल्पवक्षों के सहारे कल्पना मात्र से ही सभी जीवनोप सामग्री सहज ही प्राप्त हो जाती थीं। खाद्य, पेय, वस्त्र, आभूषण आदि के लिये उसे कोई विशेष श्रम नहीं करना पड़ता था। जैन आगम में गुणों के अनुरूप कल्पवृक्षों का दस विभिन्न नामों से उल्लेख किया गया है। ये नाम हैं - 1. गृहांग, 2. भाजनांग, 3. भोजनांग, 4. पानांग, 5. वस्त्रांग 6. भूषणांग, 7. माल्यांग, 8. दीपांग, 9. ज्योतिरांग, 10. वाद्यांग कल्पवृक्ष के उपरोक्त नामों के अनुरूप उनसे गृह, वर्तन, खाद्य, पेय, वस्त्र, आभूषण, पुष्प, दीप, प्रकाश एवं वाद्य यंत्रादि सभी जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति सहज एवं अल्प श्रम से ही हो जाती थीं। समय का चक्र सदैव प्रवाहमान रहता है। काल परिवर्तन के साथ तीसरे सुषमा - दुषमा काल के आरम्भ होते ही कल्पवृक्षों का अभाव होने लगा। भोग भूमि समाप्त होकर कर्म भूमि का प्रारम्भ हुआ। मनुष्यों की रूचि, स्वास्थ्य व बुद्धि हीन होने लगी। अब जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं को जुटाने का प्रश्न सम्मुख उपस्थित था। ऐसे समय में बुद्धिमान महामानवों ने मानव की कठिनाइयों को समझते हुए उन्हें युक्तिपूर्वक कर्म करने की प्रेरणा दी। इन विद्वानों को कुलकर या मनु कहा जाता था। चौदह कुलकरों में अंतिम कुलकर श्री नाभिराय थे जिन्हें प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ के पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इन्होंने लोगों को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प - इन षट् कर्मों की शिक्षा देकर, इनके माध्यम से जीवन को निर्विघ्न, सहज रूप से जीने का मार्ग प्रशस्त किया था। जैन धर्म प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की पहचान के लिये विभिन्न प्रतीक या लांछन निश्चित हैं। यथा आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ का प्रतीक वृषभ या अंतिम तीर्थंकर महावीर का प्रतीक सिंह है। इसी परम्परा में दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ का प्रतीक 'कल्पवृक्ष' है। ये प्रतीक तीर्थंकर प्रतिमाओं के पादपीठ के मध्य अंकित किये जाते हैं। इन्हीं प्रतीकों के माध्यम से यह निश्चित किया जा सकता है कि यह प्रतिमा किस तीर्थंकर की है? जिनालयों में विराजमान मूलनायक प्रतिमा के लांछन के अनुरूप लांछन युक्त स्तम्भ भी जिनालयों के समक्ष स्थापित करने की प्रथा प्राचीन काल में प्रचलित रही है। मथुरा स्थित कंकाली टीले के उत्खनन में तीर्थंकरों के प्रतीक चिन्ह युक्त कुछ स्तम्भ प्राप्त भी हुए हैं। मौर्यकाल में विदिशा एक विशाल एवं समृद्ध नगर था। मथुरा अवन्ति आदि सम्पन्न नगरों में इसकी गणना की जाती थी। कोशाम्बी से उज्जयिनी तथा हस्तिनापुर मथुरा होकर दक्षिण की ओर जाने वाले राजमार्गों के मध्य विदिशा की स्थिति थी। उस काल में विदिशा के समृद्ध एवं सम्पन्न नागरिकों ने यहाँ अनेक विशाल, भव्य एवं कलापूर्ण मंदिरों, मूर्तियों, स्तूपों एवं भवनों का निर्माण किया था जिनके भग्नावशेष उत्खनन में आज भी यहाँ प्राप्त होते रहते हैं। उत्खनन की श्रृंखला में लगभग एक शताब्दी पूर्व महान पुरातत्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम * राजकमल स्टोर्स, सावरकर पथ, विदिशा (म.प्र.) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदान करने या प्राप्त होने की क्षमता आकार ग्रहण करने लगती है। फलों से खाद्य - पेय, रेशों से वस्त्र - थैले, रस भरे घंट तथा इन सभी वस्तुओं के विक्रय से प्राप्त होने वाली विशाल धन राशि, इससे कल्पवृक्ष की सभी विशेषताएँ एक साथ परिलक्षित होती है। आज के इस भौतिकवादी युग में वृक्ष सभी आधुनिक सुख सुविधाएँ प्रदान करने में भले ही समर्थ प्रतीत न हों किन्तु आडम्बर विहीन, सरल, शांत पुरातन काल में जब आवश्यकताएँ अत्यल्प थीं, कल्पवृक्षों से सभी कामनाओं की सहज रूप से पूर्ति होना असंभव प्रतीत नहीं होता। भारत शासन ने सन् 1987 में स्तम्भ शीर्ष अंकित इस कल्पवृक्ष पर एक डाक टिकिट भी प्रकाशित किया था। दक्षिण भारत के समुद्र तटों पर अधिकता से पाये जाने वाले नारियल के वृक्षों को भी कुछ अर्थों में आधुनिक कल्पवृक्ष के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। कल्पवृक्ष के अनुरूप इन वृक्षों से भी स्वादिष्ट खाद्य, मधुर पेय तो उपलब्द होते ही हैं, इनकी जटाओं के रेशे से वस्त्र, तनों से काष्ठ व ईंधन तथा इनके व्यवसाय से भरपूर अर्थ लाभ भी सहज ही प्राप्त होता है। केरलवासी तो इन्हें तीवन तरू या कल्पवृक्ष कहते भी हैं। यहाँ एक कहावत प्रचलित है कि जो नारियल का वृक्ष लगाता है वह अपने लिये पात्र, वस्त्र, भोजन, पेय, घर आदि का प्रबन्ध तो करता ही है अपने वंशजों के लिये भी एक अच्छी एवं स्थायी जायदाद छोड़ जाता है। नारियल के वृक्षों को कल्पवृक्षों के अनुरूप स्वीकार करने से यह भी सहज सिद्ध हो जाता है कि प्राचीन काल में भारत या दक्षिणी भाग जैन धर्म एवं जैन संस्कृति का एक महान केन्द्र था। आज भी भारत के इस भूभाग में जैन धर्मस्थलों, जैन प्रतिमाओं एवं जैन धर्मानुयायियों की सख्या कम नहीं है। पूर्वी भारत की सराक जाति की भाति धर्म परिवर्तन के बाद भी यहाँ की कुछ जातियों के आचार - विचार आज भी जैन धर्मानुकूल हैं तथा भगवान पार्श्वनाथ एवं उनकी यक्षी पद्मावती उनके आराध्य हैं। वृद्ध लोग यह भी स्वीकार करते हैं कि उनके पूर्वज जैन थे। कई गाँव तो आज भी पूरे के पूरे जैन धर्मानुयायी हैं। भले ही उनके व्यवसाय भिन्न-भिन्न हैं। विस्तृत कलापूर्ण जिनालय, विविध गुफाओं एवं रत्न निर्मित दुर्लभ एवं अति मूल्यवान जिन प्रतिमाओं के अतिरिक्त गोम्मटेश्वर बाहुबली की अनेक विशाल प्रतिमाओं के कारण यह प्रदेश आज भी जैन धर्म एवं जैन संस्कृति से परिपूर्ण है, दर्शनीय है। प्राप्त - 1.7.99 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को विदिशा के उपनगर बेस नगर में भगवान शीतलनाथ के प्रतीक चिन्ह कल्पतरू युक्त एक आश्चर्यप्रद पाषाण निर्मित विशाल स्तम्भ शीर्ष प्राप्त हुआ था। कल्पवृक्ष के समस्त गुणों को साकार रूप प्रदान करता हुआ यह स्तम्भ शीर्ष समस्त भारत में एकमात्र स्तम्भ शीर्ष है। वर्तमान में यह कलानिधि, कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में प्रदर्शित है। विदिशा - वेस नगर में प्राप्त स्तम्भ शीर्ष पर उत्कीर्णित यह कल्प वृक्ष एक चौकोर चौकी के मध्य स्थित है। वृक्ष की ऊँचाई पाँच फुट नौ इंच तथा ऊपरी भाग का घेरा तीन फुट तीन इंच है। इसका प्रारम्भिक भाग गोलाकार है जिसे प्रस्तर निर्मित एक कलापूर्ण जाली द्वारा चारों ओर से घेर दिया गया है। साधारण दृष्टि से यह एक विशाल वट वृक्ष का लघु रूप प्रतीत होता है किन्तु यह वट वृक्ष नहीं है। वक्ष के ऊपरी भाग से निकल रही शाखा ही नीचे तक लटक रही है। वृक्ष के निम्न भाग में चारों ओर चार थैलियाँ लटक रही हैं। दो-दो थैलियों के मध्य एक घट निर्मित है जिनमें ऊपर तक मुद्रायें भरी हुई हैं। वृक्ष पत्रों से भरा हुआ है जिनके बीच में झांकते रसीले, गोलाकार, मनोहर फल दृष्टिगोचर होते हैं। चौकी पर वृक्ष के चारों ओर चार लघु स्तम्भ निर्मित हैं जिन्हें लम्बाकार मुंडेरों द्वारा एक दूसरे में पिरोकर एक सुन्दर बाड़ का रूप दे दिया गया है। - प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता जार्ज कनिंघम, कुमार स्वामी, वासुदेवशरण अग्रवाल आदि इसे कल्पवृक्ष का प्रतीक स्वीकार करते हैं। निर्माण कला की दृष्टि से इसका निर्माण काल ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी निर्धारित किया गया है। इसी काल में दक्षशिला निवासी दिय का पुत्र हेलिओदोरस यवनराज अन्तलिकित के राजदत के रूप में विदिशा आया था तथा उसने विदिशा के विष्ण मंदिर के समक्ष एक गरूढध्वज स्तम्भ का निर्माण करवाया था। सांची के इतिहास प्रसिद्ध स्तपों का निर्माण भी इसी क्रम में हुआ था। कुछ पुरातत्वविद् कल्पवृक्ष की अनुकृति को शुंग काल के पूर्व मौर्यकाल में निर्मित मानते हैं। मौर्यकाल में जैन धर्म अपने उत्कर्ष पर था। _जैन आगम एवं जैन इतिहास के मनीषी विद्वान स्वीकार करते हैं कि विदिशा दसवें तीर्थकर शीतलनाथ की जन्मभूमि है तथा उन्होंने विदिशा के समीपस्थ गिरि शिखरों पर तपश्चरण किया था। अति प्राचीन काल में यह नगर भदिदलपुर, भद्रिलपुर, भद्रपुर या भद्रावती आदि अनेक नामों से विख्यात रहा है। उत्तर पुराण में भदिदलपुर की स्थिति विंध्यांचल पर्वतमाला के उत्तर में दिखाई गई है। वर्तमान विदिशा की भी यही स्थिति है। दर्शाण प्रदेश की यह राजधानी थी। दर्शाण के शासक महाराज दर्शाणभद्र ने भगवान महावीर के विहारकाल में विदिशा में आयोजित उनके समवशरण में मुनि दीक्षा ग्रहण की थी। प्रस्तर निर्मित कल्पवृक्ष का यहाँ पाया जाना इस तथ्य को सुनिश्चित करता है कि तीर्थंकर शीतलनाथ के विशाल एवं भव्य जिनालय के समक्ष स्थापित था। स्तम्भ शीर्ष पर निर्मित इस वृक्ष को देखकर कल्पवृक्ष द्वारा सभी इच्छित वस्तुएँ 54 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानोदय पुरस्कार श्रीमती शांतादेवी रतनलालजी बोबरा की स्मृति में श्री सूरजमलजी बोबरा, इन्दौर द्वारा कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर के माध्यम से ज्ञानोदय पुरस्कर की स्थापना 1998 से की गई है। यह सर्वविदित तथ्य है कि दर्शन एवं साहित्य की अपेक्षा इतिहास एवं पुरातत्व के क्षेत्र में मौलिक शोध की मात्रा अल्प रहती है। फलत: यह पुरस्कार जैन इतिहास के क्षेत्र में मौलिक शोध को समर्पित किया गया है। इसके अन्तर्गत प्रतिवर्ष जैन इतिहास के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ शोध पत्र / पुस्तक प्रस्तुत करने वाले विद्वान को रु. 5,001 = 00 की नगद राशि, प्रशस्ति पत्र, शाल एवं श्रीफल से सम्मानित किया जायेगा। 1994 - 98 की अवधि में प्रकाशित अथवा अप्रकाशित जैन इतिहास / पुरातत्व विषयक मौलिक शोधपूर्ण लेख / पुस्तक के आमंत्रण की प्रतिक्रिया में 31.12.98 तक हमें 6 प्रविष्ठियाँ प्राप्त हुईं। इनका मूल्यांकन प्रो. सी. के. तिवारी, से.नि. प्राध्यापक - इतिहास, प्रो. जे.सी. उपाध्याय, प्राध्यापक - इतिहास एवं श्री सूरजमल बोबरा के त्रिसदस्यीय निर्णायक मंडल द्वारा किया गया। निर्णायक मंडल की अनुशंसा पर श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल, अध्यक्ष - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ने ज्ञानोदय पुरस्कार - 98 की निम्नवत् घोषणा की है - ___ डॉ. शैलेन्द्र रस्तोगी, पूर्व निदेशक - रामकथा संग्रहालय (उ.प्र. सरकार का संग्रहालय), अयोध्या, निवास - 223/10, रस्तोगी टोला, राजा बाजार, लखनऊ। जैनधर्म कला प्राण ऋषभदेव और उनके अभिलेखीय साक्ष्य, अप्रकाशित पुस्तक। यह पुरस्कार 29.3.2000 को समारोह पूर्वक इन्दौर में समर्पित किया गया। __1999 के पुरस्कार हेतु 1995 - 99 की अवधि में प्रकाशित / अप्रकाशित मौलिक शोधपूर्ण लेख / पुस्तकें 31 मार्च 2000 तक आमंत्रित की गई थी। प्राप्त प्रविष्ठियों का मूल्यांकन कार्य प्रगति पर है। वर्ष 2000 के पुरस्कार हेतु प्रविष्ठियाँ 15 अगस्त 2000 तक सादर आमंत्रित हैं। प्रस्ताव पत्र का प्रारूप एवं नियमावली कार्यालय से प्राप्त की जा सकती हैं। देवकुमारसिंह कासलीवाल डॉ. अनुपम जैन अध्यक्ष मानद सचिव अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 56 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, वर्ष - 12, अंक- 2, अप्रैल 2000, 57-62 जैन साहित्य और पर्यावरण । जिनेन्द्र कुमार जैन* · ऐतिहासिक अनुसंधान एवं इतिहास रचना के उद्देश्य और अर्थ समय एवं समाज की स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। प्रत्येक युग का समाज अनुसंधानकर्ता से प्रश्न करता है जिसका उत्तर अनुसंधानकर्ता देता है। समसामयिक आवश्यकता भी ऐतिहासिक अनुसंधान की अपरिहार्यता है, वर्तमानकालिक जीवन में अभिरूचि ही अतीत के अनुसंधान को प्रेरित करती है। इतिहास के क्षेत्र की सीमा राज्य व राजा से समाज और मनुष्य केन्द्रित तक विस्तृत हो गयी है। आज जबकि संपूर्ण विश्व पर्यावरण की समस्या से ग्रसित है, पर्यावरण इतिहास का अध्ययन एवं शोध हो रहा है। नवपाषाण काल से मनुष्य ने प्राकृतिक पद्धतियों में दखल देना शुरू किया और ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक मस्तिष्क का विकास होता गया, प्राकृतिक पद्धति में दखल का सिलसिला उत्तरोत्तर बढ़ता गया । मनुष्य का इतिहास प्रकृति का इतिहास है एवं मनुष्य के भविष्य का निर्धारण भी प्रकृति एवं पर्यावरण पर निर्भर करता है अतः मनुष्य का व्यवहार (जैविक एवं सामाजिक) पर्यावरण के अनुकूल होना चाहिए । प्राचीन भारतीय इतिहास के वैदिक, जैन, बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि धार्मिक मान्यताओं, सिद्धांतों एवं परम्परा के माध्यम से हर व्यक्ति पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता प्रदान करता था। वैज्ञानिक शोध द्वारा यह प्रमाणित हुआ है कि पारिस्थितिक पद्धति में सभी जीव वर्ग, पौधे और जानवर एवं अन्य पदार्थ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। किसी भी वर्ग के मामले में दखल होने से दूसरे वर्गों पर दीर्घकालिक स्थायी प्रतिक्रिया होगी । समवाओ पंचण्हंः समउत्ति जिणुत्तमेहि पण्णत्तं । सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अओओ खं ॥ पाँच अस्तिकाय का समभाव पूर्वक निरूपण अथवा सम्यक बोध वह समय है। ऐसा जिनवरों ने कहा है। वह पंचास्तिकाय समूह रूप जितना ही लोक है उसके आगे अनंत आकाश है, वह अलोक है। 1 जीवा पुग्गलकाया आयासं अत्थिकाइया सेसा । अभया अत्तमया कारणभूदा हि लोगस्य ॥ "जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश पांच अस्तिकाय हैं। ये किसी के भी बनाये हुए नहीं हैं, स्वभाव से स्वयंसिद्ध हैं, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप अपने अस्तित्व के लिये हुए परिणामी हैं और लोक इनसे ही बना हुआ है। विशेष छह द्रव्यों में काल द्रव्य के बिना 5 द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। "2 जीवादि पदार्थ जहां भी होंगे वह लोक है। कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है जो ये पांच अस्तिकाय हैं, यही द्रव्य लोक के निमित्त कारण हैं अर्थात इनके परस्पर सहयोग से लोक बन सकता है। स्वाभाविक है किसी भी द्रव्य में दखल से असंतुलन हो सकता है। जैनमतानुसार जीव और अजीव इन दोनों की मित्रता से यह जगत और जगत * शोध छात्र, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, डॉ. हरिसिंह गौर वि.वि., सागर । निवास : ग्राम- मोकलमऊ, पोस्ट- नैनधरा, तहसील बंडा, जिला सागर - 470335 (म. प्र. ) । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का व्यापार चलता है। ये दोनों मित्र द्रव्य हैं इन दोनों का संबंध अलग- अलग करना किसी के लिए संभव नहीं है। ये दोनों द्रव्य आकाश में आश्रय को पाकर अनंत काल से धर्म द्रव्य की सहायता से गति करते हुए अधर्म द्रव्य के आश्रय से विश्राम करते हैं। यह व्यापार हमेशा परंपरा से चला आ रहा है। जीव और अजीव पर्याय रूप में परिभ्रमण करने वालों में से है ऐसा देखने पर भी तदरूप रूपायी है। अर्थात यह संसार यह लोक छह द्रव्यों का समुदाय ही है इनका परस्पर प्रभाव अवश्यंभावी है। ऐसा ही एक दार्शनिक ने अपने तत्व चिंतन में स्वीकार किया है। नार्वे के दार्शनिक अर्नेनीस ने पर्यावरण का संबंध समस्त संसार व इंसान के बीच घनिष्टता से उन्होंने कहा कि - "श्रीमद्भगवद्गीता में प्रकृति के अंग आठ बताये गये हैं। पहले पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश पांच बाहरी एवं मन, बुद्धि, अहंकार तीन आंतरिक। ये बाहरी आन्तरिक घटक आपस में खुब गहराई से जुड़े हैं बाहरी प्रकृति की हलचलें इंसान की आंतरिक प्रकृति को हिलाये बिना नहीं रहती।" 3 अत: यह आवश्यक है कि पारिस्थितिक पद्धति के किसी वर्ग में एवं सृष्टि संगठन संतुलन के लिए आवश्यक किसी भी तत्व में आवश्यकता से अधिक दखल व दोहन नहीं होना चाहिए। मनुष्य किसी तत्व को नष्ट कर ही नहीं सकता लेकिन इसके प्रयास से तत्व का स्वरूप बदल सकता है। "उत्पत्तीव विणासो दव्वस्स णत्थि अस्थि सम्भावो। विगमुपादधुवत्तं करेति तस्सेव पज्जाया॥ द्रव्य का उत्पाद या विनाश नहीं है सद्भाव है उसी की पर्यायें विनाश, उत्पाद और ध्रुवता करती हैं। गुणपर्यायस्वरूप जो द्रव्य है उसका उत्पाद, व्यय नहीं होता परन्तु उसी द्रव्य में जो गुण सहभावी रूप है वे तो अविनाशी हैं और जो पर्यायरूप क्रमवत है वे विनाशी हैं अत: द्रव्यायिकनय से द्रव्य ध्रौव्य स्वरूप है और पयायायकनय स उत्पाद व्ययरूप हैं। तत्व का स्वरूप बदल सकता है. लेकिन द्रव्य का बदला हुआ स्वरूप खतरनाक भी हो सकता है और लाभदायक भी। एवं पर्यावरण के प्रत्येक अंग को महत्वपूर्ण स्थान देना, उसका यथोचित सम्मान होना चाहिए। जिस प्रकार मानवीय सुन्दर पर्यावरण के लिए नैतिक मूल्य, आचार संहिता, मर्यादा आवश्यक संबंध, रिश्ता स्थापित कर उनका सम्मान किया जाता है उसी प्रकार पर्यावरण के प्रत्येक तत्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल का भी यथोचित सम्मान होना चाहिए। जीव - उपयोगो लक्षणं। ज्ञान दर्शनादि असाधारण चित्त स्वभाव और उसके जो परिणाम आदि हैं, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ऐसे भाव प्राण से हमेशा जीने वाला और पंचेन्द्रिय मन-वचन-काय, आयु और श्वासोच्छवास इस प्रकार द्रव्य प्राणों से जीने वाले जीव हैं। पुद्गल - स्पर्श रस गंध वर्णवृत्त: पुद्गला: अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कुछ भी पांचों इन्द्रिय के ग्रहण योग्य दिखलायी पड़ता है वह पुद्गल है। क्रिया स्वभाव युक्त वस्तु को पुद्गल कहते हैं। धर्म - अधर्म - गति स्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरूपकार: जो जीव और पुद्गलों को चलने में सहायक है वह धर्मद्रव्य है जो ठहरने में सहायक होता है वह अधर्मद्रव्य है। आकाश आकाशस्यवगाह: 10 जो सब द्रव्यों को ठहरने के लिए स्थान देता है उसे आकाश कहते हैं। जीवविज्ञानी डा. एम. गुप्ता ने अपने शोध पत्र Ecological Aspect of Indian Myth में कहा कि पर्यावरण की सुरक्षा अपने धर्म में अटूट आस्था,विश्वास के द्वारा ही होती ___ "विख्यात वैज्ञानिक फ्रिटजौफ काप्रा ने अभी कुछ ही समय पहले प्रकाशित अपने ग्रन्थ The Wave of Life में Deep Ecology को मानव समाज व प्रकृति के अन्तर्सम्बंधों के क्रियात्मक पहल के रूप में निरूपित किया है काप्रा ने इसे धार्मिक व आध्यात्मिक तथ्यों से जोड़ने का प्रयास किया है। पर्यावरण की सुरक्षा अपने धर्म में आस्था एवं विश्वास से की जा सकती है जहां वैदिक धर्म में भूमि, जल, अग्नि, वनस्पति, नदी, पर्वत को पूजनीय माना जाता है जो पर्यावरण संतुलन के लिए सर्वोत्कृष्ट सिद्धांत है और पूजनीय के प्रति विध्वंसक या हानिकारक कार्यवाही अन्तरात्मा से ही अक्षम्य मानी जाती है। उसी तरह जैन साहित्य में अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल, वनस्पति में जीवन स्वीकार किया गया है। पुढ़वी या उदगमगणी वाउ वणत्फदि जीव संसिदा काया देति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं। 13 पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ये पाँच स्थावरकाय के भेद हैं, वे एकेन्द्रिय जीव से सहित हैं। निश्चय से उन जीवों को मोहगर्भित बहुत परद्रव्यों से राग उत्पन्न करते हैं, स्पर्शनेन्द्रिय के विषय को देते हैं। वनस्पति के संदर्भ में महान वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने यही कहा है। उन्होंने इंग्लैण्ड में अपने वैज्ञानिक प्रयोग के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि पौधे हमारी तरह दुख - दर्द का अनुभव करते हैं। ___ केप्टन स्ववोर्सवी ने जल में नंगी आंखों से न दिखने वाले जलकाय जीवों का सूक्ष्मदर्शी से अध्ययन किया है। मन, वचन, काय से किसी जीव के द्रव्य प्राण या भावप्राण को कष्ट पहुंचाना हिंसा है। 14 उपरोक्त पांच प्रकार के जीव स्थावर हैं। इसके अतिरिक्त त्रस जीव हैं जिसमें मनुष्य भी सम्मिलित हैं। स्पर्श और रसना इन्द्रिय को प्राप्त हुए शंख, अलिशीप, मोती अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 59 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैल सेही वज्र आदि अनेक प्रकार के दो इन्द्रिय होते हैं। स्पर्श, रसना, घ्राण को धारण किये हुए चींटी आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु वाले चार इन्द्रिय जीव हैं। स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु व श्रोत इन पांच इन्द्रियों को ग्रहण करने वाले मनुष्य, मृग, पशु, पक्षी, देव, नारकी आदि ये पांच इन्द्रियों को धारण करने वाले जीव हैं। इन जीवों के हृदय में अष्टदल कमलाकर कमल के समान एक मांस का पिण्ड या टुकड़ा होता है उसको द्रव्य मन कहते हैं। भाव मन को प्राप्त किये हुए जीव के अन्दर ग्रहण और मनन की शक्ति होती है। इन जीवों को सैनी पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। द्रव्य मन से रहित जीवों को मनन करने की शक्ति नहीं रहने वाले जीवों को असैनी पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। इन जीवों को न सताने के लिए सिर्फ जीव हिंसा का त्याग ही सिद्धांत के रूप में अपनाने के लिए ही नहीं कहा गया है, बल्कि तीर्थंकरों ने पशु, पक्षी एवं वनस्पति को महत्व भी दिया। तीर्थकरों के चिन्ह पर्यावरणीय तत्व ही हैं। प्रकृति के अंगों को तीर्थकरों के चिन्ह के रूप में निरूपित करने में प्रकृति के प्रति महत्व को ही बताया गया है। 24 तीर्थंकरों के क्रम से चिन्ह इस प्रकार हैं - 1. श्री ऋषभदेव 13. श्री विमलनाथ शूकर 2. श्री अजितनाथ हाथी 14. श्री अनंतनाथ 3. श्री संभवनाथ घोड़ा 15. श्री धर्मनाथ 4. श्री अभिनंदननाथ बन्दर 16. श्री शांतिनाथ हिरण 5. श्री सुमतिनाथ चकवा 17. श्री कुन्थुनाथ बकरा 6. श्री पद्मनाथ कमल 18. श्री अरहनाथ मछली 7. श्री सुपार्श्वनाथ साथिया 19. श्री मल्लिनाथ कलश 8. श्री चन्द्रप्रभु चन्द्रमा 20. श्री मुनिसुव्रतनाथ कछवा 9. श्री पुष्पदन्त मगर 21. श्री नमिनाथ नीलकमल 10. श्री शीतलनाथ कल्पवृक्ष 22. श्री नेमिनाथ शंख 11. श्री श्रेयांसनाथ 23. श्री पार्श्वनाथ नाग 12. श्री वासुपूज्य भैंसा 24. श्री वर्द्धमान जीव जन्तुओं पर एक समग्र सोच न बनने से छोटे - छोटे निरीह एवं मूक प्राणी उपेक्षित रह जाते हैं। पशुओं एवं अन्य जन्तुओं के प्रति मानवता के स्थान पर वाणिज्यिक दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है। हमारी संस्कृति मानवतावादी रही है। जीव, जन्तुओं एवं वनस्पति के प्रति संरक्षणवादी नीति तभी अपनायी जा सकती है जब मानव का अन्तर्मन इसको प्रेरित करें। कानून के साथ ही चेतना की भी आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब हम स्वयं में एवं प्रकृति के समस्त घटकों में चेतना का अनुभव करें तभी सभी जन्तुओं एवं वनस्पति के प्रति संवेदनाके भाव का विकास संभव हो सकेगा। भगवान महावीर और उनका तत्व दर्शन में भगवान के लक्षण बताये गये हैं। "दिव्य शरीर को पाकर वे प्रभु ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे धर्मात्माओं को पाकर धर्मादि गुण सुशोभित होते हैं। उन भगवान के लक्षण ये हैं। श्री वृक्ष, शंख, पद्म, स्वास्तिक, अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 60 गैंडा सिंह Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकुश, तोरण, चमर, श्वेतछत्र, ध्वजा, सिंहासन, दो मछलियां, दो घड़े, समुद्र, चक्र, तालाब, विमान, लागभवन, पुरुष स्त्री का जोड़ा, बड़ा भारी सिंह, तोमर, गंगा इन्द्र, सुमेरू, गोपुर, चन्द्रमा, पुर, सूर्य, घोड़ा, बीजना, मृदंग, सर्प, माला, वीणा, वसुरी, रेशमी वस्त्र, दैदीप्यमान, कुण्डल, विचित्र आभूषण, फल सहित बगर, पके हुए अनाज वाला खेत, हीरा रतन, बड़ा दीपक, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती सुवण, कल्पबेल, चूडा रत्न, महानिधि, गाय, बैल, जामुन का वृक्ष, पक्षिराज, सिद्धार्थ वृक्ष, महल, नक्षत्र, गृह प्रतिकार्य आनि दिव्य एक सौ आठ लक्ष्क्षों से तथा नौ सौ सर्वश्रेष्ठ व्यंजनों से विचित्र आभूषणों से और मालाओं से प्रभु का स्वभाव सुन्दर दिव्य औदारिक शरीर अत्यन्त सुशोभित हआ। 15 भगवान के लक्षणों में पर्यावरण के इन तत्वों अंगों का शामिल होना भगवान द्वारा ही इन तत्वों को महत्व प्रदान करता है। जिसके लिए भगवान महत्व प्रदान करते उनको अनुयायियों द्वारा महत्व दिया ही जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त भगवान के 10 अतिशय में वृक्ष भी शामिल हैं। भगवान महावीर को प्रकृति के साथ कई तरह से जोड़ा गया। महावीर के संसार में आने की सूचना प्रकृति के अंगों से दी गयी। उनकी माता त्रिशला देवी को स्वप्न में 16 प्रकार की वस्तुएं दिखीं। 1. मदोन्मत्त हाथी, 2. गंभीर शब्द और ऊंचे कंधे वाला चन्द्रमा के सदृश्य शुभ्र कांति वाला बैल, 3. अपूर्व कांति वृहद् शरीर और लाल कंधे वाला सिंह, 4. कमलरूपी सिंहासन पर आरोहित लक्ष्मीदेवी को देव स्नान कराते हुए, 5. सुगंधित दो माला, 6. ताराओं से घिरा हुआ चन्द्रमा, 7. सूर्य उदयाचल पर्वत से निकलते हुए, 8. कमल के पत्तों से आच्छादित मुंहवाले सोने के दो मल, 9. तालाब में क्रीड़ा करती हुई मछलियां यह तालाब कुमुदनी एवं कमलिनी से खिल रहा था। 10. भरपूर ताल जिसमें कमलों की पीली रज तैर रही थी। 11. गंभीर गर्जना करता हुआ चंचल तरंगों से युक्त समुद्र। 12. दैदीप्यमान मणि से युक्त ऊंचा सिंहासन। 13. बहुमूल्य रत्नें से प्रकाशित स्वर्ग का विमान, 14. पृथ्वी को फाड़कर ऊपर की और आता हआ फणीन्द्र का ऊंचा भवन, 15. रत्न की विशाल राशि, 1 अग्नि। इन स्वप्नों का फल सिद्धार्थ ने बताया। उन्होंने वही बताया जो हुआ लेकिन यहां महत्व इस बात का है कि प्रकृति के लगभग प्रत्येक अंग को महत्व दिया गया। भगवान के संदर्भ में शुभपरिणाम घोषित किये गये। मनुष्य का प्रकृति से संबंध सुन्दर होता है। जैन साहित्य में प्रकृति के प्रत्येक अंग को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जीव का अस्तित्व होने पर उन्हें विनष्ट या हानि न पहुंचाने के लिए सिद्धांतों और पाप - पुण्य के नियमों से उन्हें सुरक्षित रखने का आव्हान तो किया ही है, साथ ही उन्हें यथोचित सम्मान भी दिया गया है। जैन साहित्य लोक के वर्णन में प्रकृति के समस्त घटकों की अपरिहार्यता पर बल दिया गया है एवं महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। मानव के परस्पर सौहार्द्र एवं सौमनस्यपूर्ण व्यवहार पर्यावरण संतुलन के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह सोच विश्वव्यापी होना अनिवार्य है अन्यथा पृथ्वी का ताप बढ़ने, ओजोन परत नष्ट होने, समुद्र जल स्तर बढने आदि से मनुष्य जाति पर संकट आ सकता है समय से पहले विश्व युद्ध हो सकता है। भारत - पाक, अरब - इजराइल समस्या एक ऐतिहासिक वैमनस्यता का परिणाम है। मानव में परस्पर सौहार्द्र पूर्वक संबंध एवं प्रकृति के जीवों के प्रति चेतना एवं सम्मान के लिए उमास्वामी का मोक्षशास्त्र में लिखा महावीर का उपदेश रूपी एक वाक्य ही पर्याप्त अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 61 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इसके अतिरिक्त उमास्वामी ने 25 भावनाओं का पालन एवं 70 अतिचारों का त्याग भी बताया है। विज्ञान पर्यावरण के संकट, उससे हानि, प्रदूषण की दर अधिक बेहतर तरीके से ज्ञात करता है किन्तु पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक है मनुष्य को भावनात्मक, धार्मिक, नैतिक रूप से प्रेरित करने की। सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 1. पंचास्तिकाय आचार्य कुन्दकुन्द, टीका अमृतचन्द्र सूरि एवं आ. जयसेन हिन्दी अनुवाद श्री लालजी न्यायतीर्थ, प्रबंध संपादक धर्मचन्द्र शास्त्री एवं कु. प्रभा पाटनी, प्रकाशक अनेकान्त विद्वत परिषद, गाथा - 3, पृ. 20 2. वही, गाथा - 22, पृ. 83 3. अखंड ज्योति, सितम्बर 1997 4. पंचास्तिकाय गाथा 11, पृ. 48 5. तत्वार्थ सूत्र, अ - 2, सूत्र - 8 6. भगवान महावीर और उनका तत्व दर्शन, पृ. 5 7. तत्वार्थ सूत्र, अ - 2, सूत्र - 23. 8. सन्दर्भ 6, पृ. 9 9. तत्वार्थ सूत्र, अ - 2, सूत्र- 17 10. वही, अ- 2, सूत्र - 18 11. दैनिक भास्कर, भोपाल 97 12. अखंड ज्योति, 14 सितम्बर 1997 13. पंचास्तिकाय, गाथा - 110, पृ. 282 - 14. सनदर्भ - 6, पृ. 359-360 15. वही, पृ. 359-360 16 तत्वार्थ सूत्र, अ - 5, सूत्र 21 प्राप्त 62 - परस्परोपग्रहोजीवानाम् । 23.6.98 16 DINAMANJARI जैन विद्या का पठनीय षट्मासिक JINAMANJARI - - Editor S.A. Bhuvanendra Kumar Periodicity Bi-annual (April & October) Publisher Brahmi Society, Canada-U.S.A. Contact Dr. S.A. Bhuvanendra Kumar 4665 Moccasin Trail, MISSISSAUGA, ONTARIO, Canada 14z2w5 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् वच कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - - 12, अंक- 2, अप्रैल 2000, 63-65 जैन आगम में पर्यावरण विज्ञान ■ सनत कुमार जैन* वर्तमान में विभिन्न क्षेत्रों में जहाँ विज्ञान का बोलबाला नजर आ रहा है वहीं लोगों का धर्म के प्रति रूझान दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है। धार्मिक दर्शन ( सिद्धान्तों) को स्वाध्याय के अभाव में अंधविश्वास कहकर टाल दिया जाता है या फिर आधुनिक विज्ञान की प्रयोगात्मक कसौटी का प्रादुर्भाव न हो सकने के कारण मानने से इंकार कर दिया जाता है। अतः आज यह नितांत आवश्यक है कि लोग स्वाध्याय कर धार्मिक सिद्धान्तों में निहित विभिन्न वैज्ञानिक तथ्यों की गूढ़ता को सरल भाषा में व सही परिप्रेक्ष्य में जन-जन तक पहुँचायें ताकि लोग भ्रमित मानसिकता के बंधन में न बंध सकें। यही जैन दर्शन का भी मूल है व आज हम दावे के साथ कह सकते हैं कि जैन धर्म पूर्णत: वैज्ञानिक धर्म है। इसमें आधुनिक विज्ञान जैसे गणित, भूगोल, रसायन शास्त्र, भूगर्भ शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, जीव शास्त्र, इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान आदि सभी का समावेश है एवं समय समय पर प्रकाशित लेखों के माध्यम से यह सर्वविदित भी हो चुका है। इसी आधुनिक विज्ञान की देन पर्यावरण विज्ञान | विज्ञान की इस शाखा की उत्पत्ति आधुनिक वैज्ञानिक सन् 1865 से मानते हैं, जब एक जर्मन वैज्ञानिक अन्सर्ट हैकल (जो कि मूलत: जीव विज्ञानी थे ) द्वारा जीवों के आपसी सम्बन्धों एवं निवास स्थान में समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से अध्ययन शुरु किया गया । शुरु शुरु में ( 1940) तक प्राणी वैज्ञानिकों व पादप वैज्ञानिकों द्वारा अलग-अलग अध्ययन किये जाते रहे, परन्तु बाद के वर्षों में संयुक्त अध्ययन होने लगे, क्योंकि यह माना जाने लगा कि प्राणी व वनस्पति जगत एक दूसरे से पृथक नहीं बल्कि पूरक हैं। इनका आपसी संबंध बहुत जटिल है। बाद के अध्ययनों में यह भी स्पष्ट हुआ कि प्राणियों एवं वनस्पतियों के साथ-साथ भू तत्वों व वायु इत्यादि का भी गहरा संबंध है। इस प्रकार पचास साठ के दशक में पर्यावरण के विभिन्न सिद्धान्तों का तेजी से प्रतिपादन हुआ और पर्यावरण विज्ञान की प्रगति तेज होती चली गई। साठ सत्तर के दशक में अमेरिकी वैज्ञानिक प्रो. ओडम ब्रदर्स द्वारा पर्यावरण की सर्वमान्य व्याख्या की गई व हमारे आस-पास के वातावरण को पर्यावरण तंत्र कहा जाने लगा। यह एक जीवित तंत्र है। इसमें निरन्तर गतिशीलता बनी रहती है। इसमें ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है तथा भू- तत्वों एवं गैसों का आदान प्रदान होता रहता है। इस तंत्र की विशिष्ट संरचना होती है। यह विभिन्न तत्वों से मिलकर बना है, जिनका आपस में व आस पास के वातावरण के साथ विशिष्ट सम्बन्ध होता है। पर्यावरण विज्ञान के अनुसार हमारा पर्यावरण मुख्यतः दो तत्वों से मिलकर बना है जिन्हें जीव व अजीव तत्व समूह में विभक्त किया गया है। जीव तत्व में वे सभी तत्व आते हैं जो जीवित हैं व जिनमें जीवन क्रिया चलती रहती है यानि कि जो अपना जीवन चक्र पूर्ण करते हैं, चेतन रहते हैं व गैसों का आदान प्रदान करते हैं। जीव तत्व को भोज्य पदार्थ के निर्माण कर सकने या न कर सकने की मतानुसार दो समूहों में विभक्त किया जाता है प्रथम वह जो जमीन से अकार्बनिक तत्वों को सोखकर तथा वायुमंडल से गैस एवं सूर्य प्रकाश को अवशोषित करते हुए प्रकाश संश्लेषण विधि द्वार भोजन का निर्माण करते हैं। इन्हें प्रायमरी प्रोड्यूसर कहते हैं। पादप जगत की हरी वनस्पतियाँ एवं सूक्ष्म जीवी विशेष प्रकार के बैक्टीरिया इसके अन्तर्गत आते हैं। यहीं से पर्यावरणीय तंत्र की शुरुआत होती है। द्वितीय समूह में वे सभी प्राणी व सूक्ष्म जीवी बैक्टीरिया आदि आते हैं जो कि स्वयं के लिये भोजन * पर्यावरण कन्सलटेन्ट, ए-7, ए. बी. रोड़, तोरण गार्डन के अन्दर, इन्दौर-452008 · - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निर्माण नहीं कर सकते हैं परन्तु भोजन के लिये दूसरों पर आश्रित रहते हैं। इन्हें कन्ज्यूमर्स कहते हैं। सृष्टि में कन्ज्यूमर्स वर्ग में अनेक प्रकार के प्राणी व जीव जंतु विद्यमान हैं जो कि पौधों द्वारा बनाये गये भोजन को ग्रहण न करके उन प्राणियों का शिकार करते हैं जिनका जीवन पौधों या वनस्पति जगत पर आश्रित होता है। इस प्रकार इनमें भोजन आधारित श्रृंखला का निर्माण होता है। इन प्राणियों को प्रायमरी कन्ज्यूमर्स , सेकंडरी, टरशियरी इत्यादि वर्गों में बांटते हैं या फिर श्रृंखलाबद्ध करते हुए कन्ज्यूमर लेवल - 1, 2, 3 आदि क्रम दे देते हैं। जब सभी पौधों व प्राणियों का जीवनकाल समाप्त होता है तो उनके मृत शरीर में बन्द विभिन्न तत्व व ऊर्जा को सूक्ष्म जीवों द्वारा विघटन क्रिया करके वातावरण में निसर्ग किया जाता है। जिससे गैसेस व विभिन्न तत्व अपने-अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं। इस प्रकार यह पारिस्थिति तंत्र लाखों वर्षों से अपना कार्य करता आ रहा है। इस तंत्र में हम देखते हैं कि प्रत्येक जीव वर्ग का वातावरण के साथ व आपस में गहन संबंध है तथा वे सभी एक-दूसरे से मकड़ी के जाल के समान आपस में गूंथे हुए हैं। एक कड़ी के अलग होते ही सम्पूर्ण तंत्र अव्यवस्थित हो जाता है यानी अहिंसा का ही परिपालन अनिवार्य है। जैन आगम में पर्यावरण विज्ञान के विषय में चिंतन व व्याख्या तत्वार्थ सूत्र के चतर्थ एवं पंचम सत्रों में, भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति के 21, 22 और 23 वें शतकों में तथा पंचास्तिकाय की 181 गाथाओं में मिलता है। तत्वार्थ सूत्र के चतुर्थ सूत्रानुसार - जीवाजीवास्रव - बंध - संवर - निर्जरा मोक्षास्तत्वम्।।4।। अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व प्रयोजन भूत हैं। जीव - जिसका लक्षण चेतना है, वह जीवन है। चेतना ज्ञान - दर्शन रूप होता है, इसी के कारण जीव अन्य द्रव्यों से भावृत होता है। अजीव - जिनमें चेतना नहीं पायी जाती है। ऐसे अजीव तत्व पाँच होते हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। आगे स्पष्ट किया गया है कि तत्व सात ही क्यों हैं, जबकि पर्यावरण विज्ञान में इनका कोई स्पष्टीकरण नहीं है। तत्वार्थ सूत्रानुसार यह मोक्षशास्त्र है, इसका प्रधान विषय मोक्ष है। मोक्ष जीव को होता है अत: जीव को ग्रहण किया तथा संसार पूर्वक ही मोक्ष होता है और संसार अजीव के होने पर होता है, क्योंकि जीव और अजीव के परस्पर में बद्ध होने का ही नाम संसार है। अत: अजीव को ग्रहण किया। संसार के प्रथम कारण आस्रव और बंध हैं, अत: आस्रव बंध कहे तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर निर्जरा है अत: संवर - निर्जरा कहें। इसलिये तत्व सात ही कहे गये हैं। सात तत्वों में से प्रथम दो तत्व 'जीव' और 'अजीव' द्रव्य हैं तथा शेष पाँच तत्व उनकी संभोगी तथा वियोगी पर्याय (विशेष अवस्थाएँ) हैं। आस्रव और बंध संयोगी हैं। संसार के मूलभूत आस्रव - बंध के कारणों को जानकर उनको दूर करने का उपाय करना व संवर - निर्जरा के कारणों को जानकर उन उपायों को मिलाने से मोक्ष प्राप्त होता है। जीव के स्वभाव और विभाव को जानने के लिये ये सात तत्व बहुत उपयोगी हैं। आसव बंध आत्मा के विभाव है और संवर - निर्जरा स्वभाव रूप हैं। श्वेताम्बर जैन आगम भगवती सूत्र (व्याख्या प्रज्ञप्ति) में 41 शतक हैं और प्रत्येक शतक अनेक उद्देशकों में विभाजित है। 21, 22 और 23 वें शतक वनस्पति शास्त्र के अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 6A Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यहाँ नाना प्रकार से वनस्पति का वर्गीकरण किया गया है एवं उनके कंद, मूल, स्कन्द, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज के सजीवत्व और निर्जीवत्व की दृष्टि से विचार किया गया है। पंचास्तिकाय की 181 गाथाएँ दो श्रत स्कंधों में विभाजित हैं। प्रथम श्रुतस्कंध 111 गाथाओं में समाप्त हआ है और इसमें 6 द्रव्यों में से पाँच अस्तिकायों अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश का स्वरूप समझाया गया है। करणानुयोग जैसे सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप - प्रज्ञप्ति और द्वीपसागर - प्रज्ञप्ति में समस्त संसार को दो भागों में बांटा गया है - लोकाकाश और अलोकाकाश। निष्कर्ष - वर्णित तथ्यों से स्पष्ट है कि जैन आगम में पर्यावरण को वृहद् एवं गूढ़ रूप में समझा गया है तथा उसके महत्व को भी प्रतिपादित किया गया है। जबकि आधुनिक पर्यावरण विज्ञान में पर्यावरण की व्याख्या अभी भी अपूर्ण है। वर्ष प्रति वर्ष नई-नई जानकारियों का समवेश होता जा रहा है। इस विज्ञान में सम्पूर्ण संसार या विश्व का चिंतन न होकर जैविक संसार की ही प्रधानता है। जीव तत्वों का ही वर्गीकरण विशेष रूप से किया गया है। जैन आगम में दी गई जीव व अजीव की व्याख्याएँ एवं उनमें बताये गये परस्पर संबंधों का महत्व आज का पर्यावरण विज्ञान भी स्वीकारता है। तत्वार्थ सूत्र में वर्णित 'आसव' और 'बंध' की तुलना हम पर्यावरण तंत्र की ऊर्जा (Energy) व भू तत्वों और गैसों (Nuitrients & Gases) से कर सकते हैं, जिनकी वजह से सम्पूर्ण तंत्र गतिशील होकर चलता रहता है। ऊपर वर्णित संसार के मूलभूत आस्रव बंध के कारणों को जानकर उनको दूर करने को उपाय करने से आज के सन्दर्भ में तात्पर्य है - पर्यावरण असंतुलन और जिसकी उत्पत्ति है पर्यावरण प्रदूषण, चूंकि हमनें पर्यावरण को ठीक से नहीं समझा व कारणों को समय रहते नहीं जान सके। यदि हमनें सही समय पर कारणों को जानकर उनको दूर करने का उपाय कर लिया तो नई - नई समस्याएँ पैदा नहीं होंगी। अत: स्पष्ट है कि जैन आगम में पर्यावरण विज्ञान का सविस्तार उल्लेख हजारों वर्ष पूर्व किया जा चुका है एवं उसकी गूढता को आधुनिक संदर्भ में विस्तार से समझाना होगा। सन्दर्भ ग्रनथ एवं लेख - 1. तत्वार्थ सूत्र (मोक्ष शास्त्र), टीकाकार - बाल ब्र. प्रद्युम्न कुमार। 2. जैन भूगोल : वैज्ञानिक सन्दर्भ, जैन लालचन्द, अर्हत वचन (इन्दौर), वर्ष 11, अंक-3, जुलाई 19991 3. रसायन के क्षेत्र में जैनाचार्यों का योगदान, जैन एन.एल., अर्हत् वचन (इन्दौर), वर्ष 11, अंक-3, जुलाई 19991 4. कालद्रव्य : जैन दर्शन और विज्ञान, जैन के.ए., अर्हत् वचन (इन्दौर), वर्ष 11, अंक - 3, जुलाई 1999। 5. फन्डामेंटल्स अफि इकॉलाजी, ओडम एवं ओडम, 1970 प्राप्त - 12.11.99 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के मनीषी इतिहासकारों से निवेदन राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद NCERT द्वारा 11 वीं कक्षा के इतिहास के छात्रों के लिये प्रकाशित पुस्तक 'प्राचीन भारत' में दसवां अध्याय 'जैन और बौद्ध धर्म' के सम्बन्ध में है जिसमें जैन धर्म का प्रवर्तक भगवान महावीर को बताया गया है एवं इससे पूर्व 23 तीर्थकरों की मिथक कथा जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिये गढ़ना बताया गया है तथा उक्त पाठ के लेखक प्रो. रामशरण शर्मा द्वारा निम्न स्तरीय भाषा का प्रयोग करते हुए तीर्थंकरों को आचार्य व मुनियों के विहार के लिये भटकना बताया गया है। भगवान महावीर द्वारा 30 वर्ष की आयु में संन्यास लेकर 12 वर्ष तक बिना वस्त्र बदले इधर उधर भटकते रहना अंकित किया है, जो समस्त जैन समाज के लिये एक चिन्तन का विषय है कि पाठ्य पुस्तकों के ऐसे प्रकाशन से आगे आने वाली पीढ़ी को जैन धर्म के बारे में क्या शिक्षा मिलेगी। मैंने इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद को उक्त पाठ में संशोधन किये जाने हेतु पत्र लिखा, जिस पर उन्होंने प्रो. रामशरण शर्मा को पत्र की प्रति प्रेषित कर टिप्पणी चाही। प्रो. रामशरण शर्मा ने उक्त पाठ की विषय वस्तु में परिवर्तन करने से इन्कार करते हुए भगवान ऋषभदेव से नेमिनाथ तक के सम्बन्ध में पुरातात्विक एवं शास्त्रीय प्रमाण मांगे हैं। मैंने अपनी ओर से पंडित कैलाशचन्द शास्त्री की पुस्तक 'जैन धर्म' से उद्धरण लेकर निम्नलिखित सन्दर्भ उन्हें प्रेषित किये थे, जिन्हें प्रो. शर्मा ने अस्वीकार कर दिया - 1. Indian Philosophy Vol. 1, page no. 287, Dr. S. Radha Krishnana 2. श्रीमद भागवत पुराण, स्कन्ध-5. अध्याय 2 से 61 3. मथुरा में कंकाली टीले से प्राप्त शिलालेख जिनमें भगवान ऋषभदेव की पूजा के लिये दान दिये जाने का उल्लेख है। 4. हाथी गुम्फा - उदयगिरि, खण्ड गिरि (उड़ीसा) से प्राप्त शिलालेख जो सम्राट खारवेल ने लिखाया था, में ऋषभदेव की प्रतिमा के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है। 5. हिन्दू काल गणना के आधार पर स्वयंभू मनु की पांचवीं पीढ़ी में उत्पन्न होने वाले ऋषभदेव का जन्म प्रथम सतयुग में हुआ और अब तक 6 मन्वन्तर तथा 7वें मन्वन्तर के 28 सतयुग बीत चुके हैं, जिससे जैन धर्म की प्राचीनता असंदिग्ध है। 6. मेजर जनरल जे. आर. फलांग के अनुसार ईसा से अगणित वर्ष पहले जैन धर्म भारत में फैला हुआ था। प्रो. शर्मा ई.पू. छठी शताब्दी मध्य गंगा मैदान के पूर्व में आबादी न होने के आधार पर 15 तीर्थंकरों के जन्म को अस्वीकार करते हैं तथा डॉ. राधाकृष्णन को इतिहास के बारे में कोई प्रशिक्षण नहीं होना मानते हुए कहते हैं कि यजुर्वेद और ऋग्वेद में 'ऋषभ, अजित, नेमि' का वर्णन तीर्थकर के रूप में नहीं किया गया है, बल्कि बैल या मनुष्य के रूप मात्र में है तथा भागवत पुराण की रचना छठी शताब्दी से पूर्व की नहीं है तथा इसे अवतारों की रचना का समय कहा जाता है। उन्होंने खारवेल की हाथी गुम्फा एवं मथुरा से प्राप्त शिलालेख में भी ऋषभदेव का वर्णन तीर्थकर के रूप में होने से इन्कार किया है। उन्होंने कहा है कि पांचवीं शताब्दी के करीब तीर्थकरों की रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ है तथा उन्होंने महती प्रभावना हासिल की है। जबकि प्रथम शताब्दी के भगवान ऋषभदेव की पूजा के प्रमाण उपलब्ध हैं। सर्वश्री डा. महेन्द्र सागर प्रचंडिया (अलीगढ़), डॉ. अनुपम जैन (इन्दौर) व श्री राजमल जैन (दिल्ली) ने प्रो. शर्मा के उपरोक्त दावों का खंडन किया है। उन्होंने अपने सन्दर्भो में डा. रामचन्द्रन, डा. सतीशचन्द्र काला, डॉ. चन्द्रा, डॉ. कृष्णदत्त बाजपेयी एवं डॉ. रमेशचन्द शर्मा आदि विद्वानों के आलेखों का सन्दर्भ दिया है तथा हड़प्पा लिपि एवं मू-अन - जोदड़ो (सिन्धु घाटी सम्यता) से प्राप्त शिलालेखों एवं अवशेषों के आधार पर जैन संस्कृति के प्रमाण पाये जाते हैं जो करीब 5000 वर्ष प्राचीन हैं। मेरा आपसे अनुरोध है कि जब एक ओर भारत में 5 लाख ई.पू. का मानव इतिहास माना जा रहा है तब जैन धर्म की प्राचीनता के लिये पुरातात्विक साक्ष्यों की आवश्यकता क्यो है? जैन धर्म के इतिहास को अनुश्रुतियों के आधार पर आधारित मानकर इतिहासकारों द्वारा अस्वीकार किया जा रहा है, जिस पर आप जैसे विद्वानों को चिंतन कर NCERT को माकूल उत्तर देना है। मैं न तो इतिहास का विद्यार्थी हूँ और नही जैन दर्शन का। में तो सिर्फ कानून का विद्यार्थी हूँ। लेकिन 'प्राचीन भारत ' पुस्तक में वर्णित तथ्यों ने मेरी भावना को कचोट कर रख दिया, जिससे मैंने उपरोक्त कार्य प्रारम्भ किया है। इसमें आपके सहयोग की महती आवश्यकता है। कृपया सम्बन्धित विषय - वस्तु पर अपने विचार गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के सान्निध्य में, उन्हीं की प्रेरणा से जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर में दिनांक 11 जन 2000 को आयोजित होने वाली विद्वत् संगोष्ठी में स्वयं उपस्थित होकर प्रस्तुत करने की कृपा करें एवं मुझे अनुग्रहीत करें। . खिल्ली मल जैन, एडवोकेट 2, विकास पथ, अलवर (राज.) 66 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणी-1 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर आकाश द्रव्य - एक उर्जीय रूप - विवेक कुमार कोठिया* धर्म और विज्ञान में हमेशा तकरार होती रही है, परन्तु जब वे एक दूसरे के क्षेत्र में दबे पांव प्रविष्ट होते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है, इसलिये सत्य को स्वीकारने में दोनों ही झिझकते हैं। जैनाचार्यों ने तो प्रकृति का बहुत गहराई से मनन किया है। अत: जैन शास्त्रों में जिन सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है, या तो वे वैज्ञानिक रूप ले चुके हैं या फिर उसकी तैयारी में हैं। परन्तु जो वैज्ञानिक दृष्टि से उपयुक्त प्रतीत नहीं होते हैं, उन्हें येन - केन - प्रकारेण सही ठहराना भी शोभा नहीं देता है। आकाश द्रव्य जैनाचार्यों की एक अनूठी कल्पना थी। पहले 'द्रव्य' क्या है इस पर विचार कर लें। गुणपर्यवद्रव्यम् के अनुसार गुण एवं पर्याय दोनों ही मिलकर द्रव्य की संरचना होती है। पर्याय तो देखी जा सकती है, परन्तु गुण अनुभवगम्य होता है। जैन सिद्धान्त विश्व (Universe) को छह द्रव्यों से निर्मित मानता है। वे निम्न है - 1. जीव 2. पुद्गल 3. धर्म 4. अधर्म . 5. आकाश 6. काल यहाँ पर हम केवल आकाश द्रव्य की चर्चा कर रहे हैं। आकाश को अंग्रेजी में Space कहा जाता है। जैन दर्शन में इसकी इकाई 'प्रदेश' के रूप में मानी गई है।इसी प्रदेश में एक पुद्गल परमाणु स्थान घेरता है और इसे एक प्रदेश में जाने में जितना काल लगता है वह 'समय' कहलाता है। आकाश द्रव्य को भी दो भागों में विभाजित किया गया है (अ) लोकाकाश - जो कि दृष्टव्य है और इसके परे (ब) अलोकाकाश - जो कि रिक्त है। आकाश में कोई भी द्रव्य एक निश्चित स्थान अवश्य घेरता है। अगर यह स्थान न घेरा जाये तो सचमुच वह द्रव्य शून्य ही हो जायेगा और उसका कुछ भी अस्तित्व नहीं रह जायेगा। विश्वविख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटाइन की थ्योरी के अनुसार किसी भी द्रव्य (Mass) को शक्ति (Energy) में E = MC2 के समीकरण से परिवर्तित किया जा सकता है। इसमें C को प्रकाश के वेग के लिये प्रयुक्त किया गया है जो कि एक स्थिरांक है और M (Mass) को पदार्थ या द्रव्य अथवा जैन दर्शन के अनुसार गणों/पर्यायों के समूह को कहते हैं। यह वही मास है जो आकाश में एक निश्चित स्थान घेरता है। इसी मास M को अगर (g) गुरुत्वीय त्वरण से गुणा कर दिया जाये तो वह वस्तु का भार W (Weight) कहलाता है। स्पष्टत: वस्तु का भार ब्रह्माण्ड में तो परिवर्तित हो सकता है, परन्तु उसके आकार में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है। अक्सर लोग आइन्सटाइन के उर्जा समीकरण में M की जगह W (मात्रा की जगह भार) का उपयोग कर लेते हैं जिससे पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच जहाँ गुरुत्वाकर्षण शून्य हो जाता है और वस्तुएँ भारहीन होकर तैरती लगती हैं, वहाँ आइन्सटाइन के इस समीकरण को गलत ठहराने में नहीं चूकते हैं। दरअसल आइन्सटाइन को अपने ऊर्जा समीकरण में पदार्थ के आकार को साफ साफ दर्शाना था। यद्यपि 'आकार' को आज तक न तो विज्ञान ने ही महत्व दिया है और न ही किसी वैज्ञानिक ने इस पर चर्चा करना आवश्यक समझा है। सूर्यग्रहण के दौरान छपे अपने लेखों में मैंने एक प्रश्न तो अवश्य किया है कि सूर्य एवं चन्द्र के दृश्य आकार लगभग बराबर क्यों होते हैं? वस्तुओं के वास्तविक आकार अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 67 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दृश्य आकार में फर्क होता है। दूरी के साथ- साथ दृश्य आकार भी घटता चला जाता है। जैन दर्शन ने आकाश द्रव्य लोकाकाश के माध्यम से दृश्यता को पूरा महत्व दिया है जिसमें किसी भी वस्तु के आकार को प्रधानता दी गई है। यहाँ मैं एक बार फिर उल्लेख करना चाहूंगा कि सूर्य एवं चन्द्र Equal and Opposite होते हुए ही पृथ्वी पर जीवन संभव एवं सुरक्षित है इस तरह सूर्य एवं चन्द्र हमारे जीवन के लिये बराबर के भागीदार हैं और इसी बराबरी को देखते हुए सूर्य एवं चन्द्र के दृश्य आकार लगभग बराबर होना मायने रखता है। इस पर अनुसंधान की अब सख्त जरूरत है। वैसे तो एक से भार वाली विभिन्न वस्तुओं के आकारों में बड़ा फर्क होता है। इसलिये इतना तो अवश्य है कि 'आकार' के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। क्योंकि बिना 'आकार' के ऊर्जा की कल्पना करना असंभव है अर्थात् आकाश द्रव्य एक ऊर्जा का ही रूप है जिसको जैन विचारकों ने अच्छी तरह समझ लिया था। प्राप्त 68 - 15.9.99 - * निदेशक प्रकृति एवं विज्ञान मूलभूत अनुसंधान केन्द्र, 10 गोस्वामी भवन, रंजी बस्ती, जबलपुर- 482005 A NEW EDITION OF GANITASARA SAM GRAHA OF ACARYA MAHAVĪRA An Ancient Jaina Mathematical Text in Sanskrata In Three Languages ENGLISH, HINDI AND KANNADA Editor : Dr. Padmavathamma Professor of Mathematics, University of Mysore, Mysore, India Is Now Published Under the Patronage of Rev. Devendrakirti Bhattaraka For Sri Siddhantakirti Granthamala Jain Matha of Humcha, Hombuja-577 436, Karnataka, India अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् वच कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर टिप्पणी - 2 महाराजा छत्रसाल संग्रहालय थुबेला जिला छतरपुर में सुरक्षित मऊ - सहानिया की ऋषभनाथ प्रतिमाएँ ■ नरेशकुमार पाठक * ऋषभनाथ अथवा आदिनाथ को जैन सम्प्रदाय का प्रथम तीर्थंकर माना जाता है, किन्तु जैन पुराणों एवं शिल्पशास्त्र से संबंधित ग्रन्थों में प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से ऋषभनाथ अथवा आदिनाथ विषयक वर्णन बहुत ही कम है, जो कुछ भी विवरण मिलता है, वह उनके लांछनों आदि से ही संबंधित है। " प्रवचनसारोद्धार" से ज्ञात होता है, कि ऋषभनाथ का लांछन " वृषभ" है। जबकि कुछ सन्दर्भ ऐसे भी है, जिनमें इस प्रथम तीर्थंकर का लांछन " धर्मचक्र" कहा गया है। अभिधान चिन्तामणि, तिलोयपण्णती, निर्वाणकलिका तथा प्रतिष्ठा सारोद्धार आदि ग्रन्थों में आदिनाथ से संबंधित जो जानकारी मिलती है, तदनुरूप उनकी माता का नाम मरूदेवी और पिता का नाम नाभि था उनका जन्म अयोध्या नगरी में हुआ था और वहीं पर तपस्या करते हुए न्यग्रोधवृक्ष के नीचे उन्होंने "कैवल्य ज्ञान" प्राप्त किया था। जैन ग्रन्थों के अनुसार ऋषभनाथ की निर्वाण भूमि कैलाश पर्वत अथवा अष्टापद है। शासन देवता के रूप में उनके साथ गोमुख यक्ष और यक्षी चक्रेश्वरी को शिल्पांकित किया जाता है। भरत और बाहुबलि को उनका मुख्य आराधक माना गया है पार्श्वयोभरतबाहुबलिभ्यामुपसेवितः " इन लक्षणों और लांछनों से युक्त आदिनाथ भगवान की अनेक प्रतिमाएं प्राप्त हुई है। उन्हें जैन धर्म का प्रथम प्रवर्तक माना जाता है। दिगम्बर परम्परा के आचार्य जिनसेन कृत " आदिपुराण' से ऋषभनाथ विषयक जानकारी उपलब्ध होती है, महाराजा छत्रसाल संग्रहालय धुबेला जिला छतरपुर में सुरक्षित मऊ - सहानिया से प्राप्त आठ ऋषभनाथ प्रतिमाओं का विवरण प्रस्तुत लेख में प्रस्तुत किया जा रहा है, तिथि क्रम की दृष्टि से सभी प्रतिमाएँ लगभग 11 वीं शती ई. की है, प्रतिमाओं का विवरण इस प्रकार हैं 1. सं. क्र. - 5 पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में बैठे प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के सिर पर लाईनदार केश, लम्बेकर्ण, जटाये कंधों पर फैली है। पीछे साधारण प्रभामण्डल, वितान में त्रिछत्र, दुन्दभि, गज एवं उड़ते हुये गन्धर्व अंकित हैं। पार्श्व में चांवरधारी, पादपीठ पर विपरीत दिशा में मुख किये सिंह सेवक, सेविका अंकित हैं। पादपीठ के नीचे के भाग में लांछन वृषभ की रेखानुकृति बनी हुई है। लाल बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा 62X35X19 से.मी. आकार की है। 2. सं. क्र. - 8 तीर्थंकर ऋषभनाथ का पादपीठ है, जिस पर उनका लांछन 'वृषभ', विपरीत दिशा में मुख किये सिंह मध्य में चक्र, दोनों पार्श्व में दायें गोमुख यक्ष, बायें यक्षी चक्रेश्वरी अंकित है। बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा 12X23X11 से.मी. आकार की है। - 3. सं. क्र. 19 पद्मासन में बैठे तीर्थंकर ऋषभनाथ का कमर से नीचे का भाग है। पादपीठ, पैर हाथ शेष रहे है। पादपीठ के निम्नतर भाग पर एक पंक्ति में विक्रम संवत 1128 (ई. सन् 1071 ) का लेख उत्कीर्ण है, जिसमें गोल्लाकुल द्वारा प्रतिमा स्थापित अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 69 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवायी गई थी यह उल्लेख है एवं मध्य में उनका लांछन वृषभ का आलेखन है। लेख का वाचन इस प्रकार है - (1) संवत् 1128 श्रीम गोल्ला प्रव्वार्थ ये सावु विवी तत्य पुत्र स्त्रीतं इस्तस्याणि पुत्रणो ___ विदं प्रणमति नित्य माघ दवं॥ 4. सं. क्र.-396 - यह प्रतिमा जगत सागर से प्राप्त हुई हैं, कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्मित तीर्थंकर की दोनों भुजा टूटी है। ऋषभनाथ के सिर पर कुन्तलित केश, सादा प्रभामण्डल श्रीवत्स से अलंकृत है। दोनों पार्श्व में चांवरधारी अंकित है। पादपीठ पर ऋषभनाथ का ध्वज लांछन नन्दी (वृषभ) की रेखांकित अंकित है। काले पत्थर पर निर्मित प्रतिमा 110X405X24 से.मी. आकार है। 5. सं. क्र. - 409 - तीर्थंकर ऋषभनाथ का कमर से नीचे का भाग है। अलंकृत पादपीठ पर ऋषभनाथ का ध्वज लांछन वृषभ अंकित है। पादपीठ के नीचे विपरीत दिशा में मुख किये सिंह चक्र का अंकन हैं। पार्श्व में यक्ष गोमुख एवं यक्षी चक्रेश्वरी की लघु आकृतियों को उत्कीर्ण किया गया है। बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा का आकार 42X54X20 से.मी. हैं। 6. सं. क्र. - 418 - पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में अंकित तीर्थंकर का सिर एवं भुजा टूटी हुई हैं। बायीं आधी भुजा भी टूटी हुई, जो प्रतिमा से अलग हो गयी है। वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है। दांयी ओर चाँवरधारी खड़ा हैं, बांयी ओर का चाँवरधारी खण्डित है। पादपीठ के आसन पर तीर्थंकर ऋषभनाथ का ध्वज लांछन वृषभ दोनों और विपरीत दिशा में मुख किये सिंह और पूजक अंकित है। दायीं और गोमुख यक्ष खड़ा है, जो अपने दायें हाथ में सर्प लिये है, पत्थर के क्षरण के कारण प्रतिमा की कलात्मकता समाप्त हो गयी है। बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा का आकार 30X28 से.मी. है। पादपीठ पर नीचे एक पंक्ति में अस्पष्ट लेख उत्कीर्ण है, पठनीय शब्दों का वाचन इस प्रकार हैं - करन.......................तलाव........................वहीला। 7. सं. क्र. - 1815 - तीर्थंकर ऋषभनाथ के कमर से नीचे का भाग टूटा हुआ है। दोनों भुजा व चेहरा भग्न है। दोनों पार्श्व में खड़े चाँवर धारियों का कमर से नीचे का भाग भग्न है। तीर्थकर कुन्तलित केश, कंधे तक फैली लम्बी जटाओं से अलंकृत है। चाँवरधारियों के ऊपर एक - एक कायोत्सर्ग में जिन प्रतिमा अंकित है। वितान में मालाधारी विद्याधर एवं अभिषेक करते हये गजों का आलेखन है। लाल बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा का आकार 50X48X25 से.मी. है। 8. सं. क्र. 581 - यह प्रथम तीर्थकर आदिनाथ प्रतिमा का दाया भाग है, जिस पर खण्डित सिंह एवं पार्श्व में गोमुख यक्ष का अंकन है, जो गोमुखी, हार, श्रीवत्स से अलंकृत है। बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा का आकार 15X145X13 से.मी. है। उपरोक्त प्रतिमाओं के विवरण से स्पष्ट होता है कि मऊ - सहानिया चन्देल काल में जैन धर्म का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा होगा। यहाँ से प्राप्त अनेक अभिलिखित प्रतिमाओं पर उल्लेख मिलता है कि इन्हें गोल्ला कुल के लोगों द्वारा स्थापित कराया गया था। प्राप्त - 31.1.2000 * संग्रहाध्यक्ष - केन्द्रीय संग्रहालय, ए. बी. रोड़, इन्दौर 70 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणी - 3 । अर्हत् वचन । ऊण्डेल की सुपार्श्वनाथ की परमारकालीन प्रतिमा कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) - नरेशकुमार पाठक* मध्यप्रदेश के इन्दौर जिले की इन्दौर तहसील में कम्पेल - पेडमी मार्ग पर कम्पेल से लगभग 8 कि.मी. की दूरी पर उण्डेल स्थित है। यह 22°38' उत्तरी अक्षांस 76°4' पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। समुद्र की सतह से यह 2345 फीट ऊँचाई पर है। इस गाँव से प्राप्त भग्नावशेषों के साथ लघु पाषाण औजार प्राप्त हुए हैं, गाँव के बाहर तालाब के किनारे प्राचीन मंदिर के अवशेष एवं नक्कासीदार प्रस्तर बहुतायत मात्रा में बिखरे पड़े हैं। इनको देखकर प्रतीत होता है कि यहाँ मंदिरों का समूह रहा होगा। ग्राम के पश्चिम की ओर श्री जंगबहादुरसिंह के बगीचे में तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा रखी हुई है। पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में बैठे सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के सिर पर कुन्तलित केश, जिनके ऊपर पाँच फण की नागमौलि का अंकन है। तीर्थकर के दोनों ओर चांवरधारी एवं एक - एक तीर्थकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं। वितान में कायोत्सर्ग में तीर्थकर, विद्याधर युगल, गज, त्रिछत्र व दुन्दुभिक अंकित है। पादपीठ पर यक्ष मातंग, यक्षी शान्ता, काली या कालिका का अंकन है। पादपीठ के नीचे मध्य में चक्र जिसमें दोनों ओर विपरीत दिशा में मुख किये सिंहों का अंकन है। उपासक - उपासिकाओं के नीचे संभवत: पंच जिनेन्द्र अंकित हैं। इस प्रतिमा में सुपार्श्वनाथ का लांछन अंकित नहीं किया गया है। लगभग 12 वीं शती ईस्वी की प्रतिमा परमारकालीन है। ___सुपार्श्वनाथ का लांछन स्वस्तिक है। शिल्प में सुपार्श्वनाथ का लांछन कुछ उदाहरणों में ही उत्कीर्ण है। मूर्तियों में सुपार्श्वनाथ की पहचान मुख्यत: पाँच या नौ सर्पफणों के शिरस्त्राण के आधार पर की गई है।जैन ग्रन्थों में उल्लेख है कि गर्भ काल में सुपार्श्वनाथ की माता ने स्वप्न में अपने को एक, पाँच और नौ फणों वाले सर्पो की शय्या पर सोते हुए देखा था। वास्तु विद्या के अनुसार सुपार्श्वनाथ तीन या पाँच सर्पफणों के छत्र से शोभित होंगे। एक या नौ फणों के छत्रों वाली सुपार्श्वनाथ की स्वतंत्र मूर्तियाँ नहीं मिली हैं, पर दिगम्बर स्थलों की कुछ जिन मूर्तियों के परिकर में एक या नौ सर्पफणों के छत्रों वाली सुपार्श्वनाथ की कुछ लघु मूर्तियाँ अवश्य उत्कीर्ण हैं। स्वतंत्र मूर्तियों में सुपार्श्वनाथ सदैव पाँच सर्पफणों के छत्र से युक्त हैं। सर्प की कुण्डलियाँ सामान्यत: चरणों तक प्रसारित होती हैं। उण्डेल से प्राप्त उपरोक्त तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा इन्दौर जिले में जैन प्रतिमा के विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सन्दर्भ - 1. इ. आ. रि., 1958-59, पृष्ठ 27 2. तिवारी मारूति नन्दन प्रसाद, 'जैन प्रतिमा विज्ञान', वाराणसी, 1981, पृष्ठ 100-191 * संग्रहाध्यक्ष - केन्द्रीय संग्रहालय, ए. बी. रोड़, इन्दौर प्राप्त - राष्ट्र की धड़कनों की अभिव्यक्ति नवभारत टाइम्स अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 71 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणी-4 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर अल्पसंख्यक क्यों नहीं घोषित करते? . अनाम पाठक संघ लोक सेवा आयोग ने वर्ष 1999 की प्रारम्भिक परीक्षा में 'सामान्य अध्ययन' के प्रश्नपत्र में प्रश्न क्र. 69 निम्न प्रकार से पछा। जिसमें जैनियों को धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक माना है किन्तु भारत सरकार इसे अल्पसंख्यक घोषित करने में संकोच महसूस कर रही है। पाठकों की जानकारी हेतु एक अनाम पाठक द्वारा प्रेषित इस प्रश्न को हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 69. दिये गये मानचित्र में A, B, C तथा D से चिन्हित क्षेत्रों को सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों से सुमेलित कीजिये। अल्पसंख्यक वर्ग की सूची के नीचे दिये गये कूट का प्रयोग करते हुए सही ऊत्तर चुनिये - सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग भारत 1. बौद्ध सबसे बड़ा धार्मिक 2. ईसाई अल्पसंख्यक वर्ग 3. जैन मुसलमान 5. सिख कूट : A Bc A B C D 32 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत्व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर अर्हत् वचन, 10 (3), जिज्ञासा प्रकट की गई है में प्राप्त हैं ?' कि पत्र में लेख अर्द्धपद्मासन प्रतिमाएँ ■ शिवकुमार जैन जुलाई - 98, पृ. 71 में श्री कुन्दनलाल जैन, प्राचार्य द्वारा 'क्या अर्हन्तों की प्रतिमाएँ सुखासन या अर्द्धपद्मासन - इस सन्दर्भ में जिज्ञासु लेखक को निवेदन करना चाहता हूँ कि मूल दक्षिण भारत की अधिसंख्य बैठी हुई प्रतिमायें, अर्द्धपद्मासन ( सुखासन) में उपलब्ध हैं। स्वयं लेखक के अनुसार (यदि यह उद्धरण स्व. अजितप्रसादजी का नहीं है)। 'किन्तु हैदराबाद (दक्षिण) के केसरगंज में बीसों प्राचीन मूर्तियाँ अर्द्धपद्मासन बिराजमान हैं तब उनकी जिज्ञासा / सन्देह का मर्म रहस्यमय है तथा लेखक महोदय को भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 'जैन कला और स्थापत्य' में 'सुखासन वाली कोई प्रतिमा का चित्र दृष्टिगोचर नहीं होना भी आश्चर्यजनक है। मैं उनका ध्यान उक्त ग्रन्थ में प्रकाशित निम्न चित्रों की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ जो अर्द्ध पद्मासन की प्रतिमाओं के हैं । यथा - खण्ड 1 चित्र संख्या - 88 खण्ड 2 चित्र संख्या क्रमश: 123, 133, 135, 136, 138, 206, 208, 218, 257 खण्ड 3 चित्र संख्या क्रमश: 308, 309, 312, 320, 325, 328, 339, 383 भारतवर्ष के दि. जैन तीर्थ, भाग 5 - चित्र संख्या : 2, 5, 9, 13, 22, 38, 42, 45, 47, 49, 52, 57 तथा 100 उत्तर भारत की प्रतिमा निर्माण शैली अर्द्धपद्मासन की नहीं है। अतः उत्तर भारत के मंदिरों में विराजमान अर्द्धपद्मासन की धातु प्रतिमायें मूलतः दक्षिण भारत की हैं जिन्हें उत्तर भारतीय तीर्थ यात्रियों द्वारा दक्षिण भारत से लाया गया है तथा दक्षिण भारतीय भट्टारक महोदयों द्वारा भी लाया / उपलब्ध कराया गया है। वर्तमान समय में भी दक्षिण भारत के बाजारों और मठों में धातु प्रतिमाएँ सहज विक्रय हेतु उपलब्ध हैं। अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 श्री टी. एन. रामचन्द्रन की पुस्तक JAIN MONUMENTS AND PLACES OF FIRST CLASS IMPORTANCE' में प्रकाशित अर्द्धपद्मासन प्रतिमाओं के अनेक चित्रों में से 3 चित्र ( अगले पृष्ठ पर ) लेखक महोदय की शंका समाधान हेतु प्रस्तुत कर रहा हूँ। * 37 / 7 बी, खेलात बाबू लेन, कलकत्ता - 700037 तीर्थ एवं जिन प्रतिमाएँ हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। इनके संरक्षण एवं विकास में हम सभी को योगदान देना चाहिये । 73 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ, पल्लव गुफा मन्दिर, सित्तान्नवसाल, पुडुकोटई (द.भा.) भगवान महावीर वल्लिमलाई गुफा, चित्तूर (द.भा,.) भगवान चन्द्रप्रभ पल्लव गुफा मन्दिर, सित्तान्नवसाल, पुडकोटई (द.भा.) 74 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीक्षा अराकसोपान ___सराक सोपान - एक विशेष मिशन को समर्पित सराक सोपान, वर्ष - 1, अंक - 1 (प्रवेशांक), अप्रैल 2000 सम्पादक - सुभाषचन्द्र जैन, ज्ञान भवन, 150 खन्दक बाजार, मेरठ-2 प्रबन्ध सम्पादक - पंकजकुमार जैन, प्रथम तल, 247, देहली रोड, मेरठ-2 प्रकाशक - सोसायटी फार वेलफेअर एण्ड डेवलपमेन्ट, मेरठ वार्षिक शुल्क - रु. 100/- आजीवन शुल्क - रु. 1100/ समीक्षक - डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर । भगवान पार्श्वनाथ के अनन्य भक्त तथा युगों-युगों से जैन धर्म और संस्कृति से जुड़े हुए, भगवान महावीर के पश्चात् के इन ढाई हजार वर्षों के अंतराल में आतताईयों के हाथों आर्थिक रूप से बर्बाद किये जाने पर भी अपने धर्म, संस्कृति एवं संस्कारों को बचाये रखने वाले सराक बंधु वर्तमान में बिहार, बंगाल और उड़ीसा के दुर्गम क्षेत्रों में आदिवासियों के समान, जीवन - यापन करने को विवश हैं। पूर्णत: अहिंसक एवं शाकाहारी जीवन व्यतीत करने वाले जैन संस्कारों से ओत-प्रोत इन सराक बंधुओं में जैन धर्म का व्यापक प्रचार करने, उनके आर्थिक एवं सामाजिक पुनरूत्थान में महती भूमिका का निर्वाह करने वाले युवा उपाध्याय मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज की प्रेरणा से सराक गतिविधियों का परिचय देने हेतु पत्रिका 'सराक सोपान' का प्रवेशांक महावीर जयंती विशेषांक के रूप में हमारे सम्मुख है। इसी उद्देश्य से पूर्व में 'दिगम्बर जैन सराक बुलेटिन' एवं 'सराक ज्योति' का प्रकाशन किया गया था। तकनीकी कारणों से यह नये नाम से प्रकाशित की गई है। जैन पत्र-पत्रिकाओं के परिवार में 'सराक सोपान' का हम स्वागत करते हैं एवं आशा करते हैं कि पत्रिकाओं की भीड़ में यह अपनी अलग पहचान बनायेगी। इसके लिये जरूरी है कि पत्रिका के संपादकगण सराक क्षेत्र के अध्ययन में रत विशेषज्ञों, सराक बंधुओं के बीच से ही लेखन प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों से सम्पर्क कर उनसे मौलिक सामग्री प्राप्त करें। सराक बंधुओं के पारंपरिक ज्ञान, उनके अनुभव, किंवदन्तियाँ, लोकोक्तियाँ, उनके रीति-रिवाजों, योहारो, परम्पराओं को प्रमुखता से प्रकाशित किया जाना चाहिये। सराक क्षेत्रों के विकास के लिये सामाजिक एवं शासकीय प्रयासों का मूल्यांकन, प्रभाव और सांख्यिकीय विश्लेषण भी रोचक होगा वरना यह भी भीड़ का एक हिस्सा बनकर रह जायेगी। पत्रिका की सफलता की हम कामना करते हैं तथा सुन्दर प्रवेशांक की प्रस्तुति हेतु संपादक एवं प्रकाशक को साधुवाद। पत्रिका पठनीय है। आचार्य श्री कनकनन्दीजी द्वारा प्रणीत साहित्य इन्टरनेट पर आचार्य श्री कनकनंदी द्वारा प्रणीत विपुल जैन वैज्ञानिक साहित्य शीघ्र ही धर्म - दर्शन विज्ञान शोध संस्थान के तत्वावधान में इन्टरनेट पर उपलब्ध किया जाने । कार्य में सहयोग देने के इच्छुक बंधु निम्न पते पर संपर्क करें - डॉ. राजमल जैन एवं श्रीमती रतनमाला जैन 4-5, आदर्श कालोनी, पुलाँ उदयपुर - 313 001 (राज.) अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 75 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीक्षा तलमी प्रजा TULSI PRAJNA तुलसी प्रज्ञा - मौलिक शोध पूर्ण आ लेखों की त्रैमासिकी तुलसी प्रज्ञा, वर्ष- 26, अंक - 106, जुलाई - सितम्बर 1999 सम्पादक - मुमुक्षु डॉ. शान्ता जैन, लाडनूं प्रकाशक - जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं समीक्षक - डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं को प्रथम एवं एकमात्र जैन मानित विश्वविद्यालय होने का गौरव प्राप्त है। इस संस्था ने मानित विश्वविद्यालय बनने के पूर्व एवं बाद जैन साहित्य विशेषत: जैन श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य के संरक्षण, आलोचनात्मक अध्ययन एवं प्रकाशन के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है। इस संस्था की शोध पत्रिका "तुलसी प्रज्ञा' ने अपने प्रकाशन की रजत जयंती मना ली है। इस अंतराल में बहुत से उतार - चढ़ाव आये, कभी मासिक, कभी द्विमासिक, कभी त्रैमासिक या चातुर्मासिक भी रही किन्तु अनुसंधान पत्रिका नाम से प्रारंभ हुई इसकी विकास यात्रा के प्रत्येक पड़ाव पर यह शोध पूर्ण मौलिक आलेखों से परिपूर्ण रही। पत्रिका का समीक्ष्य नया अंक इसकी नव नियुक्त संपादिका डॉ. शांता जैन की मौलिक प्रतिभा तथा संपादकीय कौशल को प्रतिबिंबित करता है। प्रस्तुत अंक में संकलित 18 आलेख जैन विद्याओं की विविध शाखाओं से सम्बद्ध है तथा सभी मौलिकताओं से परिपूर्ण हैं। पत्रिका के मुद्रण स्तर में भी व्यापक सुधार हुआ है। सभी दृष्टियों से पत्रिका संग्रहणीय एवं स्वागत योग्य है। सुन्दर प्रस्तुति हेतु संपादक एवं प्रकाशक दोनों बधाई के पात्र है। भूलसंध और उखका प्राचीन साहित्य मूलसंघ और उसका प्राचीन साहित्य ADE पुस्तक - मूलसंघ और उसका प्राचीन साहित्य लेखक - पं. नाथूलाल जैन शास्त्री प्रकाशक - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर मूल्य - रु. 70/ समीक्षक - पं. नेमीचन्द शास्त्री, नौगांव - 471 209 जिला छतरपुर 'मूलसंघ और उसका प्राचीन साहित्य' में ज्ञान - मय - अनुभव वृद्ध पं. नाथूलालजी ने गवेषणात्मक विषयों पर गहन अध्ययन पूर्ण नीर - क्षीर विवेक न्याय से बिना किसी व्यामोह के सबको जानने के लिये खोजपूर्ण सामग्री इकट्ठी करके स्वस्थ परम्परा के लिये स्वस्थ विचार का जो अमूल्य पाथेय ग्रन्थ में दिया है, वह इतिहास का भी इतिहास बनेगा। ग्रन्थ में परीक्ष्य विषयों का तर्क सम्मत विश्लेषण किया गया है। यह ग्रन्थ जैन दर्शन के इतिहास विषय की परीक्षा में रखे जाने योग्य है। अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्या अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्विदिवसीय भगवान ऋषभदेव संगोष्ठी __इन्दौर, दिनांक 28 - 29 मार्च 2000 -अरविन्दकुमार जैन* परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी की पावन प्रेरणा से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाये जा रहे भगवान ऋषभदेव निर्वाण महामहोत्सव वर्ष के अन्तर्गत देवी अहिल्या वि.वि. द्वारा मान्य शोध केन्द्र कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन 28 - 29 मार्च 2000 को ऋषभदेव जयन्ती के पावन प्रसंग पर किया गया। परमपूज्य उपाध्याय मुनि श्री निजानन्दसागरजी महाराज के पावन सान्निध्य में आयोजित इस द्विदिवसीय संगोष्ठी के 4 सत्रों में 10 वक्ताओं ने भगवान ऋषभदेव के जीवन, जैनेतर ग्रंथों में ऋषभदेव विषयक उल्लेख, ऋषभदेव की परम्परा के आचार्यों के वैज्ञानिक अवदान तथा जैन धर्म के ऐतिहासिक एवं पौराणिक सन्दर्भो पर सारगर्भित एवं तथ्यपूर्ण आलेख प्रस्तुत किये। ____ संगोष्ठी का उद्घाटन 28 मार्च 2000 को प्रात: 8.30 पर सम्पूर्णानन्द संस्कृत वि.वि. वाराणसी के श्रमण विद्या संकाय के पूर्व संकायाध्यक्ष डॉ. गोकुलचन्द्र जैन की अध्यक्षता में पुरातत्व प्रेमी श्री सूरजमल बोबरा के दीप प्रज्जवलन से सम्पन्न हुआ। ब्र. प्रदीपजी के मंगलाचरण से प्रारम्भ इस सत्र में डॉ. प्रकाशचन्द जैन (इन्दौर) तथा डॉ. स्नेहरानी जैन (सागर) ने ऋषभदेव के जीवन तथा जैन धर्म की प्राचीनता पर अपने आमंत्रित व्याख्यान दिये। सत्र का संचालन पं. जयसेन जैन (इन्दौर) ने किया। पूज्य उपाध्याय श्री निजानन्दसागरजी ने कहा कि आदि पुरुष भगवान ऋषभदेव ने ही विश्व को जीवन जीने की कला सिखाई। उनके व्यक्तित्व ने न केवल जैन समाज अपितु सम्पूर्ण मानवता को प्रभावित किया है। युग के प्रारम्भ में बताये गये उनके मार्ग का अनुसरण करके ही आज मनुष्य ज्ञान - विज्ञान के विविध क्षेत्रों में प्रगति कर रहा है। सत्र में श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल (अध्यक्ष), श्री महाराजा बहादुरसिंह कासलीवाल (उपाध्यक्ष), प्रो. नवीन सी. जैन (निदेशक) की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। 28 मार्च को ही अपरान्ह 3 बजे संगोष्ठी के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता विक्रम वि.वि. के पूर्व कुलपति प्रो. आर. आर. नांदगांवकर (नागपुर) ने की तथा मुख्य अतिथि के रूप में चौधरी चरणसिंह वि.वि., मेरठ के विज्ञान संकायाध्यक्ष प्रो. सुरेशचन्द्र अग्रवाल (मेरठ) उपस्थित थे। इस सत्र में भगवान ऋषभदेव की परम्परा के आचार्यों के वैज्ञानिक अवदान पर मगध वि.वि., बोधगया के महाविद्यालय विकास परिषद के संयोजक डॉ. नलिन के. शास्त्री (बोधगया) एवं होलकर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर के गणित के सहायक प्राध्यापक डॉ. अनुपम जैन (इन्दौर) ने अपने विचार व्यक्त किये। डॉ. शास्त्री ने जीव विज्ञान को अपने उदबोधन का आधार बनाया वहीं डॉ. जैन ने गणित एवं गणितीय विज्ञान पर अपने विचारों को केन्द्रित किया। 28 मार्च को सायं 5 बजे से प्रारम्भ तृतीय सत्र जैन परम्परा के प्रागैतिहासिक साक्ष्यों पर केन्द्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता की डॉ. नलिन के. शास्त्री (बोधगया) ने। मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे प्रसिद्ध समाजसेवी श्री अजितकुमारसिंह कासलीवाल (इन्दौर)। श्री सूरजमल बोबरा (इन्दौर) ने ऐतिहासिक तथ्यों, पुरातात्विक साक्ष्यों, जन - जन अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में प्रचलित किंवदन्तियों, लोक रूढ़ियों एवं लोकाचारों को आधार बनाते हुए पार्श्वनाथ से पूर्व जैन धर्म की अवस्थिति को सप्रमाण विस्तार से सिद्ध किया । సార్ ఏర్ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ऋषभदेव संगोष्ठी पुरस्कार समर्पण समारोह इन्दौर 28-29 मार्च 2000 संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए श्री बोबरा 29 मार्च को पूर्वान्ह 11 बजे संगोष्ठी का चतुर्थ एवं समापन सत्र ज्ञानपीठ के निदेशक प्रो. नवीन सी. जैन (इन्दौर) की अध्यक्षता एवं विख्यात पुराविद् डॉ. टी. व्ही. जी. शास्त्री (सिकन्दराबाद) के मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न हुआ। इस सत्र में डॉ. टी.व्ही.जी. शास्त्री (सिकन्दराबाद), डॉ. अशोक के. मिश्र (फैजाबाद), श्री दिपक जाधव (बड़वानी), डॉ. शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी (लखनऊ), प्रो. आर. सी. गुप्त (झांसी) ने अपने विचार व्यक्त किये तथा प्रो. गुप्त ने जैन गणित एवं भारतीय गणित के अध्ययन के क्षेत्र में कार्य के अपने अनुभव सुनाये। समागत सभी विद्वानों का ज्ञानपीठ की ओर से श्रीफल द्वारा सम्मान किया गया। संगोष्ठी के विभिन्न सत्र में ब्र. अनिलजी, ब्र. अभयजी, ब्र. अजितजी, ब्र. रजनीजी, प्रो. ए. ए. अब्बासी पूर्व कुलपति प्रो. सी. के. तिवारी पूर्व प्राचार्य, प्रो. जे. सी. उपाध्याय, प्रो. महेश दुबे, डा. सरोज कोठारी, डॉ. सरोज चौधरी, श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल, श्री महाराजाबहादुरसिंह कासलीवाल, श्री कैलाशचन्द चौधरी, पद्मश्री बाबूलालजी पाटोदी, श्री हीरालालजी जैन भावनगर, श्री रमेश कासलीवाल, श्री ऋषभकुमार जैन आदि विशिष्ट विद्वानों, पत्रकारों एवं समाजसेवियों की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। समस्त कार्यक्रम के प्रचार संयोजक श्री जयसेन जैन सम्पादक-सन्मति वाणी थे। 78 ज्ञातव्य है कि परम पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से सम्पूर्ण विश्व में भगवान ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष में 1008 संगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है। फरवरी के अन्त में लाल मन्दिर - दिल्ली में प्रथम संगोष्ठी आयोजित हुई। इस श्रृंखला में यह दूसरी संगोष्ठी थी। * प्रबन्धक - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452001 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्या । अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का पुरस्कार समर्पण समारोह कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर 3 इन्दौर, दिनांक 29 मार्च 2000 -जयसेन जैन* दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्थापित एवं देवी अहिल्या वि.वि., इन्दौर द्वारा मान्य शोध केन्द्र कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह 29 मार्च 2000 को कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ परिसर में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर 1993 से प्रवर्तित कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार, वर्ष 1998 से प्रारम्भ हुए ज्ञानोदय पुरस्कार एवं वर्ष 1990 से दिये जा रहे अर्हत् वचन पुरस्कार का समर्पण उपाध्याय मुनि श्री निजानन्दसागरजी महाराज के मंगल सान्निध्य में ऋषभदेव जयन्ती के पावन अवसर पर सम्पन्न हुआ। विक्रम वि.वि. के पूर्व कुलपति प्रो. आर. आर. नांदगांवकर की अध्यक्षता तथा म. प्र. उच्च न्यायालय की इन्दौर खंडपीठ के न्यायमूर्ति श्री एन. के. जैन के मुख्य आतिथ्य में यह कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें विशिष्ट अतिथि के रूप में देवी अहिल्या वि.वि., इन्दौर के पूर्व कुलपति प्रो. ए. ए. अब्बासी, पद्मश्री बाबूलालजी पाटोदी, दिगम्बर जैन समाज इन्दौर के अध्यक्ष श्री हीरालालजी झांझरी विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे। डॉ. प्रकाशचन्द्र जैन के मंगलाचरण से प्रारम्भ हई सभा में संस्थाध्यक्ष श्री देवकमारसिंह कासलीवाल ने माननीय अतिथियों के सम्मान में स्वागत भाषण तथा निदेशक प्रो. नवीन सी. जैन ने संस्था की उपलब्धियों का परिचय दिया। श्री सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर के अध्यक्ष श्री हीरालाल जैन ने ट्रस्ट के सहयोग से कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ में संचालित प्रकाशित जैन साहित्य पांडुलिपि सूचीकरण परियोजना पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए बताया कि अब तक लगभग 14,000 प्रकाशित पुस्तकों तथा 8,000 पांडुलिपियों के विवरण कम्प्यूटर में फीड किये जा चुके हैं। इन विवरणों के सुसम्पादित संशोधित प्रिन्टआऊट्स का विमोचन भी किया गया। डॉ. एन. पी. जैन, कुन्दकुन्दज्ञानप पूर्व राजदूत- इन्दौर, प्रो. नामदेव समोठी-एक सरोजकुमार - इन्दौर एवं प्रो. আমেডিকেল सी. एल. परिहार - इन्दौर के त्रिसदस्यीय निर्णायक मंडल की अनुशंसा के आधार पर श्री दिपक जाधव - बड़वानी तथा डॉ. अशोक के. मिश्र, अवध वि.वि. - फैजाबाद को अर्हत् वचन पुरस्कार -98 से सम्मानित किया गया। उन्हें यह पुरस्कार वर्ष 1998 में अर्हत् वचन में प्रकाशित उनके सूचीकरण परियोजना के प्रिन्टआऊट्स का विमोचन श्रेष्ठ आलेखों हेतु प्रदान किये गये। श्रीमती शांतादेवी रतनलाल बोबरा की स्मृति में श्री सूरजमल बोबरा के सौजन्य से कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा स्थापित ज्ञानोदय पुरस्कारों की श्रृंखला में प्रथम पुरस्कार अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 79 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूरजमल बोबरा, प्रो. सी. के. तिवारी, प्रो. जे. सी. उपाध्याय के निर्णायक मंडल की अनुशंसा पर रामकथा संग्रहालय फैजाबाद के पूर्व निदेशक एवं विख्यात इतिहासवेत्ता डॉ. शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी को उनकी कृति 'जैनधर्म कलाप्राण भगवान ऋषभदेव' पर प्रदान किया गया। इस पुरस्कार के अन्तर्गत शाल, श्रीफल एवं प्रशस्ति के अतिरिक्त रु.5,000/- की राशि भी प्रदान की गई। - प्रतिष्ठित कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार - 98 इस वर्ष प्रो. राधाचरण गुप्त, पूर्व प्राध्यापक- गणित, बिरला प्रौद्योगिकी संस्थान, मेसरा (रांची) एवं सम्पादक गणित भारती (झांसी) को उनकी कृति 'जैन गणित' पर प्रदान किया गया । ( पुरस्कृत विद्वानों के चित्रों हेतु देखें कवर - 2 एवं 3 ) उनको यह पुरस्कार प्रो. ए. ए. अब्बासी - इन्दौर, प्रो. सुरेशचन्द्र अग्रवाल- मेरठ एवं पं. शिवचरणलाल जैन मैनपुरी के त्रिसदस्यीय निर्णायक मंडल की सर्वसम्मत अनुशंसा के आधार पर प्रदान किया गया। पुरस्कार समर्पण समारोह के अवसर पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए प्रो. गुप्त ने कहा कि 'अति अल्प अवधि में अधुनातन तकनीकों के माध्यम से इस संस्थान ने शोध के क्षेत्र में इतनी अधिक प्रगति कर ली है, जो श्लाघनीय है। कार्य को मूर्त रूप देने वाले अनुपमजी तो अनुपम ही हैं। इतनी कम उम्र में इतना काम करने वाले बहुत ही कम मिलेंगे। मैं आभारी हूँ इस संस्था का जिसने मुझे मेरे काम के लिये सम्मानित किया है। मैं 40-50 वर्षों से गणित पर काम कर रहा हूँ। इसमें वैदिक गणित भी है, अन्य गणित भी है पर मुझे जो आनन्द जैन गणित पर काम करने में आया वह अद्वितीय है। यह वर्ष (2000) विश्व गणितीय वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। इस संस्थान ने गणित पर पुरस्कार देकर सूझ बूझ का परिचय दिया है। वास्तव में आज के तकनीकी युग में कोई काम बिना गणित के नहीं चलता। आज भगवान ऋषभदेव का जन्मदिन है जिन्होंने अपनी पुत्री सुन्दरी को गणित सिखाया। गणित सार संग्रह बड़ा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, और भी कई ग्रन्थ हैं। आज जो पुरस्कार मुझे जिस संकलन पर दिया गया है उसका पहला लेख मैंने 1975 में लिखा था। उसकी भी सिल्वर जुबली मनाई जा रही है। यह भी एक संयोग है। जम्बूद्वीप की परिधि की पूरी गणना करके हमनें जो मान निकाला था वह जैन ग्रन्थों से पूरा मेल खाता है। मैंने यह काम प्राचीन जैन ग्रन्थों में उपलब्ध सूत्रों के आधार पर किया था । तिलोयपण्णत्ती के कुछ अंश पांडुलिपि में नष्ट हो जाने से पहले अनुपलब्ध होने से मैंने उस अंश के कुछ सूत्र निकाले जिनके आधार पर मैं अपने काम को मंजिल तक जा सका। यह सूत्र तिलोयपण्णत्ती के आगामी संस्करण में देख मुझे हर्ष हुआ। मैं इस संस्थान का जैन गणित के क्षेत्र में कार्य करने हेतु दिये गये प्रोत्साहन हेतु आभारी हूँ।' कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार निर्णायक मंडल के अध्यक्ष प्रो. ए. ए. अब्बासी ने कहा कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की दुत प्रगति को मैं देख रहा हूँ। अधिकांश संस्थाओं में नेतृत्व बुजुर्गों के हाथ में रहता है। उन्होंने बुजुर्गों की ओर इशारा करते हुए विनोदपूर्ण लहजे में कहा कि 'हमारी और आपकी लाल बत्ती जल चुकी है इसलिये पता नहीं कब बुलावा आ जाये। किन्तु यहाँ नेतृत्व ने अनुपम जैसे युवा को जोड़ रखा है इसलिये इस संस्था की दीर्घकाल तक निर्बाध प्रगति सुनिश्चित है। अनुपम तो हर वक्त ज्ञानपीठ की तरक्की का ही चिंतन करता है।' मुख्य अतिथि न्यायमूर्ति जैन ने भगवान ऋषभदेव के जीवन पर अपने विचार रखते हुए सभी पुरस्कृत विद्वानों को बधाई दी तथा आयोजकों को ऐसे श्रेष्ठ कार्यों हेतु साधुवाद दिया। कहा कि 80 - कार्यक्रम के अध्यक्ष विक्रम वि.वि. के पूर्व कुलपति प्रो. 'भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती समारोह के पावन - आर. आर. नांदगांवकर ने पर्व पर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष 1998 के अर्हत् वचन पुरस्कारों का वितरण कर रहा है। तीसरी सहस्राब्दी में प्रवेश करने के लिये अभी कुछ ही महीने शेष हैं। वैसे तो गत प्रथम जनवरी को हमनें ब शताब्दी को बड़े जोर - शोर के साथ बिदा किया है और इसवी सन् 2000 का स्वागत किया है। यह अत्यंत खेद का विषय है कि भारत अनेक प्राचीन संस्कृतियों का उद्गम स्थल होने के बावजूद उसी पाश्चात्य संस्कृति की अंधश्रद्धा और गुलामगिरी के अंधानुकरण की भावना से निजात नहीं पा सका है। आप सभी महानुभावों को याद तो होगा ही कि हम जैन मतावलम्बियों द्वारा लगभग 26-27 वर्ष पूर्व ही भगवान महावीर का 2500 वाँ निर्वाण दिवस धूमधाम से मनाया था। याने कि हमारी स्वयं की मान्य कालगणना थी। उसकी केवली प्रणीत विशिष्ट अवधारणा है। बीस कोड़ाकोड़ी सागर वर्ष प्रमाण के समय को एक कल्पकाल तथा प्रत्येक कल्पकाल के समान समय का एक उत्सर्पिणी और एक अवसर्पिणी काल। समय के निरन्तर गति के साथ - साथ विकास तथा अवनति काल के रूप में अविचलित बदलते विश्व में भगवान ऋषभदेव द्वारा उद्घाटित मानव संस्कृति और सम्यकज्ञान को आज विश्व को फिर से अवगत कराने का समय आया है।' 'जैन संस्कृति और जैन परम्पराओं के बारे में अनेक प्रकार की भ्रांतिमूलक अवधारणाएँ आज भी भारतीय समाज तथा विद्वान मनीषियों में विद्यमान हैं, पूर्व में भी थीं। आज इसी सन्दर्भ में मुझे प्रसिद्ध जैन विद्वान, चिंतक, मनीषी डॉ. कामताप्रसादजी जैन द्वारा 1989 में प्रकाशित कल्याणश्री (जुलाई-अगस्त 89 अंक) के एक वक्तव्य की याद आ रही है। वक्तव्य की कुछ लाइनें इस प्रकार हैं - "मुझे तो यह कहने में भी संकोच नहीं है कि अब तक जो कुछ भी भ्रांत किंवदन्तियाँ जैन धर्म के विषय में प्रचलित हुई हैं या होती हैं उन सबका दोष हम जैनियों के सिर पर है। क्योंकि हम भी अपने धर्मग्रन्थों को विधर्मी सज्जनों के हाथों तक पहुँचाने में हिचक रहे हैं। प्राचीन शास्त्रों के उद्धार करने के स्थान पर उन्हें ताले में बन्द रखना ही अधिक उत्तम समझते हैं अथवा इनमें व्यापारिक स्पर्धा का आस्वाद न लेना अपना कर्तव्य समझते हैं। यह परिस्थिति अवश्य ही हमारे लिये लज्जास्पद है। यदि विधर्मी विद्वानों के निकट संस्कृत, अंग्रेजी आदि किसी भाषा में ग्रन्थ पहुँचाने से धर्म के सम्बन्ध में प्रचलित झूठे विचार दूर होते हैं तो अवश्य ही इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये, क्योंकि धर्म के विषय में प्रचलित कुत्सित विचारों को दूर करना ही धर्म प्रभावना है।" 'कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का आज का यह पुरस्कार वितरण समारोह धर्म प्रभावना के लिये ठोस कदम साबित हुआ है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के संस्थापक, संरक्षक तथा कार्यकर्तावृन्द कोटि - कोटि साधुवाद के लिये प्रशंसनीय हैं। मैं उनको धन्यवाद देते हुए भविष्य के लिये मंगल कामना करता हूँ।' आभार माना प्रो. नवीन सी. जैन ने। कार्यक्रम में सैकड़ों श्रद्धालुजनों के अतिरिक्त प्रो. सुरेशचन्द्र अग्रवाल - मेरठ, डॉ. टी. वी. जी. शास्त्री - सिकन्दराबाद, प्रो. गोकुलचन्द्र जैन - आरा. डॉ. स्नेहरानी जैन - सागर, प्रो. सी. के. तिवारी, प्रो. जे. सी. उपाध्याय, प्रो. महेश दुबे, श्री सूरजमल बोबरा, डॉ. सरोज कोठारी, डॉ. सरोज चौधरी (सभी इन्दौर) आदि अनेक विद्वान उपस्थित थे। ___ कार्यक्रम का संचालन किया डॉ. अनुपम जैन ने एवं आभार माना प्रसिद्ध समाजसेवी श्री अजितकुमारसिंह कासलीवाल ने। * सम्पदक - सन्मति वाणी 201, अमित अपार्टमेन्ट, 1/1, पारसी मोहल्ला, छावनी, इन्दौर - 452 001 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 नये पैक में उपलब्ध खाद स्वास्थ्य वचत की सौगात. GUT mmm प्रेस्टीज सुपर रिफाइन्ड कुकिंग ऑइल 1 / 2, 1, 2, 5 व 15 लिटर पैक में उपलब्ध। www शय प्रेस्टीज वनस्पति परख वनस्पति भी उपलब्ध अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिविधियाँ प्राकृत भाषा भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा है प्रो. भोला शंकर व्यास 26.12.99 को शारदानगर कालोनी, वाराणसी स्थित अनेकान्त विद्या भवनम् में 'इक्कीसवीं शती में प्राकृत भाषा एवं साहित्य विकास की संभावनायें' विषय पर आयोजित परिचर्चा संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे प्रो. भोलाशंकर व्यास ने कहा कि प्राकृत भाषा मात्र भाषा ही नहीं बल्कि यह भारत की अन्तरात्मा और संपूर्ण सांस्कृतिक पहचान का माध्यम है। आज भी इसका प्राय: सभी भाषाओं पर प्रभाव विद्यमान है। अनेक प्रादेशिक और लोक भाषायें इसी से उद्भूत हैं किन्तु विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में इसकी उपेक्षा असहनीय है। संस्कृत, हिन्दी आदि भाषा साहित्य के अध्ययन के साथ प्राकृत का अध्ययन अनिवार्य कर देना चाहिए। संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की साहित्याचार्य तथा अन्य परीक्षाओं में इसका एक प्रश्न पत्र जरूर होना चाहिए तभी प्राकृत भाषा और साहित्य की सुरक्षा होगी। प्रमुख वक्ता के रूप में प्रो. लक्ष्मीनारायण तिवारी ने कहा कि प्राकृत भाषा और साहित्य में हमारी भारतीय संस्कृति का हार्द समाया हुआ है। अत: इसकी रक्षा और विकास के लिए संघर्ष की आवश्यकता है साथ ही शताब्दियों पूर्व स्थापित यह भ्रम. टूटना चाहिए कि संस्कृत भाषा से प्राकृत भाषा की उत्पत्ति हुयी। यथार्थ यह है कि संस्कृत भी प्राकृत से व्युत्पन्न है। जहां इसका और विकास तथा विस्तार होना चाहिए वहीं विश्वविद्यालय अनुदान मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रो. भोलाशंकर व्यास। बायें प्रसिद्ध पुरातत्वविद् आयोग नई दिल्ली ने राष्ट्रीय प्रो. रमेशचन्द्र शर्मा तथा दायें प्राकृत के अग्रणी विद्वान् प्रो. लक्ष्मीनारायण तिवारी ये प्राकृत क अग्रणा विद्वान् प्रा. लक्ष्मानारायण तिवारा पात्रता परीक्षा (नेट) से प्राकत भाषा को हटाकर मूलभूत भारतीय भाषा और संस्कृति के साथ अन्याय किया है (डा. सुदीप जैन, सम्पादक-प्राकृत विद्या, ने सूचना दी है कि डा. मण्डन मिश्र के अथक प्रयासों से यह पुन: नेट में पूर्ववत सम्मिलित कर ली गई है। - सम्पादक) तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे विशाल और गौरवपूर्ण विश्वविद्यालय में प्राकृत अध्ययन का अभाव भी कम आश्चर्यकारी नहीं है। पहले के मम्मट इत्यादि विद्वानों ने अलंकार और ध्वनियों के उदाहरण में प्राकृत के छंदों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किये हैं। आपने रामभक्त हनुमान को प्राकृत भाषा का विशेषज्ञ बतलाते हुए कहा कि जिस समय रावण ने सीता का अपहरण किया तब सीता से मिलने हनुमान पहुँचे तो हनुमान ने सीता से संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत भाषा में बात करना इसलिए उचित समझा कि कहीं वे मुझे वानर वेश धारी प्रकाण्ड संस्कृतज्ञ रावण ही न समझ बैठे। _ संगोष्ठी के संयोजक संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में जैन दर्शन विभागाध्यक्ष डॉ. फूलचन्द जैन 'प्रेमी' ने कहा कि प्राकृत भाषा अपने देश की प्राचीनतम मूल जीवन्त भाषा है, जिसे अनेक प्रादेशिक भाषाओं तथा राष्ट्र भाषा हिन्दी की जननी होने का गौरव प्राप्त है। प्राकृत भाषा का विशाल वांङ्गमय आज भी विद्यमान है किन्तु इसकी वि.वि. क्षेत्रों में हो रही उपेक्षा से चिंतित होना अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 83 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाभाविक है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं अपभ्रंश भाषा के विख्यात विद्वान प्रो. संभूनाथ पाण्डे ने पं. हजारीप्रसाद द्विवेदीजी का संस्मरण सुनाते हुए कहा कि पं. जी हमेशा कहा करते थे कि संस्कृत भाषा से मैं संस्कार प्राप्त करता हूँ किन्तु प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से मैं ओज, शक्ति तथा जीवन प्राप्त करता हूँ। उन्होंने कहा कि जिसे प्राकृत और अपभ्रंश भाषा का ज्ञान न हो वह भारतीय संस्कृति को भी नहीं समझ सकता। प्राकत भाषा मात्र भाषा ही नहीं अपितु वह प्राणधारा है जिसमें संपूर्ण भारतीय संस्कृति समाहित है। भगवान महावीर और बुद्ध ने इन जन भाषाओं की महत्ता समझकर के संपूर्ण जनमानस को प्रभावित किया। संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में तुलनात्मक धर्म - दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. राधेश्याम घर द्विवेदी ने कहा कि संस्कृत भाषा के पूर्ण विकास के लिए प्राकृत और पाली का विकास आवश्यक है। भारतीय तथा प्रादेशिक सरकारों को इसका समचित विकास करने का प्रयास करना चाहिए। इन्होंने आगे कहा कि किसी भाषा या संस्कृति विशेष को महत्व दिये बिना सभी भाषाओं और संस्कृतियों का समान रूप से विकास करना चाहिए अन्यथा हम संपूर्ण भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकते। ___ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में उपाचार्य डॉ. बलराज पाण्डेजी ने कहा कि प्राकृत और अपभ्रंश भाषायें भारतीय ज्ञान - विज्ञान और संस्कृति की सेतु भाषायें हैं। इनके समुचित विकास के लिए सभी को समान रूप से प्रयास करना चाहिए। काशी हिन्दू वि.वि. के ही डॉ. कमलेश कुमार जैन ने कहा कि प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के प्रति जो अपेक्षात्मक दृष्टि सरकार की ओर से रहती है वह चिन्ताजनक है। अन्य भाषाओं की तरह प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के विकास के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास होना आवश्यक है। मुख्य अतिथि पद से भारत कला भवन के पूर्व निदेशक प्रो. रमेशचन्द्र शर्मा ने कहा कि प्राकृत भाषा भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है और इसका अनादर भारतीय संस्कृति का अनादर है। यह भाषा मात्र जैन समुदाय तक ही सीमित नहीं है अपितु इसका बहत विशाल क्षेत्र है। सम्राट अशोक के तथा भारत के अन्य प्राचीनतम शिलालेख प्राकृत भाषा में ही उपलब्ध हैं वस्तुत: यह भाषा भारतीय समाज को प्रतिबिंबित करती है। इसलिए यदि सामान्य जनता तक पहुँचना है तो प्राकृत भाषा का अध्ययन आवश्यक है। आज यदि इसकी उपेक्षा करेंगे तो भविष्य हमें कभी माफ नहीं करेगा। धन्यवाद ज्ञापन करते हुए जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.) के शोध छात्र अनेकान्त जैन ने कहा कि प्राकृत भाषा को जीवित रखने के लिए सर्वप्रथम हमें उसे चर्चा में जीवित रखना होगा। विद्वानों तथा जनसामान्य के मध्य उसे चर्चा का विषय बनाने के लिए भविष्य में अनेक योजनाएँ बनानी होगी तभी इस भाषा को हम इक्कीसवीं सदी में जीवित रख पायेगें और भावी पीढ़ी को यह अनमोल विरासत सौंप पायेगें। संगोष्ठी के प्रारंभ में कु. इन्द जैन ने प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में मंगलाचरण प्रस्तुत किया। डॉ. कमलेश कुमार जैन ने प्राकृत भाषा में मंगलाचरण प्रस्तुत किया। समागत् विद्वानों और अतिथियों का स्वागत श्रीमती डॉ. मुन्नी पुष्पा जैन ने किया। जैन सरस्वती श्रुतदेवी के चित्र के समक्ष प्रो. आर.सी. शर्मा तथा प्रो. भोलाशंकर व्यास ने दीप प्रज्जवलन किया तथा प्रो. लक्ष्मीनारायण तिवारी ने श्रुत देवी पर माल्यार्पण किया। संगोष्ठी में प्रसिद्ध वैदिक विद्वान डॉ. हृदय रंजन शर्मा, डॉ. गंगाधर, डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा, प्रसिद्ध गांधीवादी श्री शरद कुमार साधक, डॉ. विजयकुमार, सरयूपारी ब्राह्मण परिषद के महामंत्री श्री नरेन्द्र राम त्रिपाठी, श्री सुनील जैन, अतुल कुमार, महेश कुमार त्रिपाठी, सुरेन्द्र मिश्र, सत्येन्द्र मोहन जैन, गिरधारीलाल, विश्वनाथ अग्रवाल, श्री रतनलाल साहू आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किये। - डा. फूलचन्द जैन 'प्रेमी', वाराणसी अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ की कार्यकारिणी की प्रथम बैठक सम्पन्न दिनांक 5 फरवरी 2000 को तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ की नवगठित कार्यकारिणी की प्रथम बैठक लालकिला मैदान, दिल्ली के पैवेलियन क्रमांक 5 में भगवान ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव के पावन अवसर पर सम्पन्न हुई जिसमें निम्न विद्वान उपस्थित थेअध्यक्ष - पं. शिवचरणलाल जैन, मैनपुरी, उपाध्यक्ष - प्रो. नलिन के. शास्त्री, बोधगया, महामंत्री - डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर, प्रचारमंत्री - डॉ. अभयप्रकाश जैन, ग्वालियर, सहमंत्री - कु. सारिका जैन (संघस्थ), कार्यकारिणी सदस्य - डॉ. (कु.) मालती जैन, मैनपुरी, पं. उत्तमचन्द जैन 'राकेश', ललितपुर, श्री संजीव सराफ, सागर तथा विशेष निमंत्रित महासंघ के सदस्य श्री हृदयराज जैन, दिल्ली, पं.. जयसेन जैन, इन्दौर, श्री रमेश कासलीवाल, इन्दौर, डॉ. देवेन्द्र जैन, भोपाल. डॉ. (श्रीमती) विमला जैन. फिरोजाबाद पं शीतलचन्द जैन, सागर, श्री प्रकाशचन्द जैन, फिरोजाबाद, श्री अरविन्दकुमार जैन, इन्दौर एवं डॉ. रमा जैन, छतरपुर। __बैठक का शुभारम्भ पं. उत्तमचन्द जैन 'राकेश', ललितपुर के मंगलाचरण से हुआ। सर्वप्रथम महामंत्री डा. अनुपम जैन, इन्दौर ने गत बैठक की कार्यवाही का वाचन किया एवं सर्वानुमति से बैठक की कार्यवाही की पुष्टि की गई। _ वर्ष 2000 में महासंघ की गतिविधियों के निर्धारण के क्रम में यह तय किया गया कि जैन धर्म की प्राचीनता तथा भगवान ऋषभदेव विषयक साहित्यिक, ऐतिहासिक संदर्भो को प्रामाणिक रूप में एकत्रित करने का कार्य डॉ. अनुपम जैन को दिया जाये। महासंघ के अन्य सदस्य अपने-अपने स्रोतों से सामग्री एवं ग्रन्थों को उपलब्ध करायेंगे जिससे भगवान ऋषभदेव पर एक प्रामाणिक ग्रन्थ तैयार किये जा सके। कार्यकारिणी के निर्वाचन हेतु आयोजित महासंघ की साधारण सभा की बैठक (दिल्ली - 24.10.99) में लिये गये निर्णय एवं प्रदत्त शक्तियों के अधीन अध्यक्ष महोदय ने कार्यकारिणी के 4 रिक्त पदों पर डॉ. मालती जैन - मैनपुरी, डा. सुशील जैन - मैनपुरी, पं. खेमचन्द जैन - जबलपुर तथा श्री संजीव सराफ- सागर को मनोनीत किया। इस प्रकार कार्यकारिणी का गठन पूर्ण हुआ। अध्यक्ष महोदय द्वारा 24.10,99 को दिल्ली में सम्पन्न विद्वत् महासंघ की बैठक का दृश्य किये गये मनोनयन की __कार्यकारिणी ने पुष्टि की। प्राप्त सदस्यता आवेदनों पर स्थाई समिति के अध्यक्ष डा. नलिन के. शास्त्री की अनुशंसा सहित विचार कर सदस्यताएँ स्वीकृत की गईं। आगामी बैठक तक प्राप्त आवेदनों पर गुण - दोषों के आधार पर निर्णय करने हेतु महामंत्री को अधिकृत किया गया। जैन विद्या के अध्येताओं, पत्र-पत्रिकाओं, शोध संस्थानों, पुस्तक विक्रेताओं / प्रकाशकों की डायरेक्टरी का 'सम्पर्क' नाम से प्रकाशन कर इसका विमोचन श्री अनिलकुमार जैन अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कागजी' के करकमलों से कराकर सभी सदस्यों एवं विशिष्ट महानुभावों को प्रति वितरित की गई। सम्पर्क का मूल्य रु. 50/- निर्धारित किया गया। DEEDO 5 फरवरी 2000 को दिल्ली में सम्पन्न नवगठित कार्यकारिणी की प्रथम बैठक अध्यक्ष की अनुमति से विभिन्न सदस्यों ने निम्न सुझाव दिये - 1. इंजी. श्री धर्मवीर जैन, लखनऊ ने सुझाव दिया कि शाकाहार का प्रचार मांसाहारी समाज में करना चाहिये तथा B.w.c. पूना जैसी संस्थाओं की सदस्यता लेकर उसे परोक्ष सहयोग देना चाहिये। हमें अपने तीर्थंकरों के चित्र नहीं छापना चाहिये। 2. पाठ्य पुस्तकों में प्रचलित भ्रांतियों के निवारण के सन्दर्भ में डा. नलिन के. शास्त्री, बोधगया ने कहा कि डॉ. रामशरण शर्मा द्वारा लिखित 'प्राचीन भारत' पुस्तक में संशोधन थोड़ा जटिल कार्य राजनैतिक प्रभाव काननी लडाई तथा तथ्यों का संकलन एवं प्रतिष्ठित विद्वानों के मंतव्यों को प्राप्त करना आवश्यक होगा। डॉ. शास्त्री ने इस पर विस्तार से प्रकाश डाला। 3. पं. उत्तमचन्द जैन 'राकेश', ललितपुर ने धार्मिक शिक्षण शिविर आयोजित करने तथा जैन विद्यालयों में नैतिक शिक्षा एवं भगवान ऋषभदेव के जीवन को अनिवार्य रूप से पढाने पर जोर दिया। 4. अन्य अनेक सुझावों का समाहार करते हुए अध्यक्ष महोदय ने कहा कि - ___हमें महासंघ की गतिविधियों को शास्त्री परिषद एवं विद्वत् परिषद की गतिविधियों से थोड़ा भिन्न रखते हुए पूरक रूप में चलना है। ऋषभदेव के बारे में प्रामाणिक जानकारी संकलित करने हेतु एक उच्च स्तरीय संगोष्ठी आयोजित की जाना चाहिये। महामंत्री ने सूचित किया कि विद्वत् परिषद के दोनों गुटों तथा शास्त्री परिषद के अध्यक्ष और महामंत्री को पदेन कार्यकारिणी की आगामी बैठकों में विशेष आमंत्रित के रूप में सादर आमंत्रित किया जाना चाहिये। धन्यवाद ज्ञापन से सभा विसर्जित हुई। - डॉ. अनुपम जैन, महामंत्री अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 86 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर जैन महासमिति एकता शंखनाद समारोह के अवसर पर आयोजित पत्रकार सम्मेलन एवं पत्रकारिता पुरस्कार समर्पण समारोह दिगम्बर जैन पत्रकार बन्धुओं द्वारा अपनी पत्र-पत्रिकाओं द्वारा समाज निर्माण एवं उसके रचनात्मक विकास में दिये जा रहे विशिष्ट योगदान का सम्यक मूल्यांकन करते हुए दिगम्बर जैन महासमिति ने फरवरी 99 में समस्त दि. जैन पत्र - पत्रिकाओं के सम्पादकों का सम्मेलन आयोजित करने एवं श्रेष्ठ पत्रिकाओं को सम्मानित करने का निर्णय लिया था। निर्णय के क्रियान्वयन के प्रथम चरण में डॉ. अनुपम जैन द्वारा मार्च-99 में देशभर में पाँच वर्गों में प्रविष्टियाँ आंमत्रित कर प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन सम्पादक - जैनगजट, डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल सम्पादक - वीतराग विज्ञान, डॉ. वृषभप्रसाद जैन निदेशक - केन्द्रीय हिन्दी वि.वि. के त्रिसदस्यीय निर्णायक मंडल द्वारा अगस्त 99 में पाँच श्रेष्ठ पत्रिकाओं का चयन किया गया। पुरस्कृत सम्पादक महासमिति पदाधिकारियों के साथ दिगम्बर जैन महासमिति के रजत जयन्ती वर्ष में संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में गोम्मटगिरि (इन्दौर) में 30-31 अक्टूबर में आयोजित एकता शंखनाद समारोह के अन्तर्गत 30 अक्टूबर 99 की सायं 7.30 पर पुरस्कार समर्पण समारोह आयोजित किया गया। जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर के अध्यक्ष तथा सम्यग्ज्ञान के सम्पादक कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन तथा विशेष अतिथि के रूप में समाज कल्याण बोर्ड सरकार की अध्यक्षा श्रीमती मृदुला सिन्हा एवं दिल्ली के प्रसिद्ध समाजसेवी गुरूभक्त श्री अनिलकुमार जैन कागजी उपस्थित थे। इन्दौर की महिला नेत्री श्रीमती मंजू अजमेरा के मंगलाचरण से प्रारंभ इस सत्र की अध्यक्षता दि. जैन महासमिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री प्रदीप कुमारसिंह कासलीवाल ने की। पुरस्कार समिति के संयोजक डा. अनुपम जैन ने सम्मेलन एवं पुरस्कार योजना की रूपरेखा पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए पत्रकार बन्धुओं से महासमिति की अपेक्षाओ एव समाज के प्रति उनके दायित्व को रेखांकित किया। तदुपरान्त जैन मित्र-सुरत के संपादक श्री शैलेष जैन कापड़िया, दिशाबोध - कलकत्ता के सम्पादक डा. चिरंजीलाल जैन बगडा, जैसवाल जैन दर्पण आगरा के प्रधान संपादक श्री जगदीश प्रसाद जैन, प्राकृत विद्या - दिल्ली के संपादक डा. सुदीप जैन एवं सन्मति (मराठी), कोल्हापुर के संपादक श्री माणिकचन्द जयवंतसा भिसीकर के प्रतिनिधि श्री सुन्दरलाल जैन (नागपुर) को श्रीफल, प्रशस्ति, प्रतीक चिन्ह तथा 5000-00 की नगद राशि से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त प्रविष्टि भेजने वाले सभी उपस्थित संपादकों को भी प्रतीक चिन्ह से सम्मानित किया गया। अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 87 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 अक्टूबर 99 को प्रात: 8.30 पर यशोदा निलय गोम्मटगिरी में पत्रकार सम्मेलन का द्वितीय सत्र सम्यग्ज्ञान के संपादक कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। - इस सम्मेलन में दिगम्बर जैन महासमिति पत्रिका के संपादक श्री अशोक जैन बड़जात्या (इन्दौर) उपसंपादक श्री प्रकाशचन्द जैन (दिल्ली), जैन मित्र के संपादक श्री शैलेष जैन कापड़िया (सूरत), अनेकान्त पथ के संपादक श्री सुरेशचन्द जैन (जबलपुर), अंकलेश्वर वाणी के संपादक प्रतिष्ठाचार्य पं. फतहसागर जैन (उदयपुर), जैन महिलादर्श की संपादिका डा. नीलम जैन (गाजियाबाद) एवं सहसंपादिका डा. विमला जैन (फिरोजाबाद), अध्यात्म पर्व पत्रिका के संपादक श्री नरेन्द्र कुमार जैन (झांसी), सन्मतिवाणी के संपादक पं. जयसेन जैन (इन्दौर), वीर निकलंक के संपादक श्री रमेश जैन कासलीवाल (इन्दौर), दर्शन ज्ञान चारित्र के संपादक श्री विजय जैन लुहाडिय (दिल्ली), हुमड़मित्र के संपादक श्री सूरजमल बोबरा (इन्दौर), हुमंड संदेश के संपादक श्री दिलीप मेहता (इन्दौर), जिनेन्द्र वाणी के संपादक श्री निर्मल कुमार के होटपोटे (हुबली) एवं श्री शांतिकुमार होटपोटे (हुबली), संहिता के संपादक श्री यशवंत चिंतामणि जैन इंगोले (अकोला), दयोदय के संपादक श्री भागचंद जैन पहाड़िया (बुरहानुपर), स्वतंत्र जैन चिन्तन के श्री नरेन्द्र कुमार जैन (अजमेर), श्री रिषभचन्द जैन नायक, प्रदीप जैन नायक आदि उपस्थित थे। विशेष अतिथि के रूप में जैना के अध्यक्ष श्री महेन्द्र जैन पाण्डया (न्यूयार्क) श्री माणिकचन्द जैन पाटनी (महामंत्री - महासमिति) श्री हुकमचंद जैन (अध्यक्ष मध्यांचल), राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री प्रदीप जैन कासलीवाल, श्री जगमोहन जैन (अतिरिक्त महामंत्री) एवं श्री अनिल कुमार जैन कागजी भी उपस्थित रहे। दिगम्बर जैन महासा रात जयतिवर्ष एकताशेरबाट पत्रकार सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए श्री हुकमचन्द जैन (अध्यक्ष-मध्यांचल)। समीप हैं (मंच पर) डॉ. अनुपम जैन, श्री माणिकचन्द पाटनी, ब्र. रवीन्द्रकुमार जैन, श्री महेन्द्र पांड्या, श्री अनिलकुमार जैन कागजी एवं श्री जगमोहन जैन कार्यक्रम का शुभारंभ पं. फतहसागर जैन के मंगलाचरण से हुआ। डा. अनुपम जैन सम्पादक अर्हत वचन (इन्दौर) ने सम्मेलन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए सम्पादकों में पारस्परिक सहयोग एवं संवाद की आवश्यकता निरूपित की। श्री अशोक जैन बड़जात्या संपादक महासमिति पत्रिका ने कहा कि सम्मेलन को इस बात पर विचार करना चाहिये कि हमारे समाज की पत्रिकाओं को व्यावसायिक विज्ञापन क्यों नहीं मिलते हैं? हमारी पत्रिकाओं की प्रसार संख्या है। प्रकाशन स्तर भी अच्छा है फिर विज्ञापन क्यों नहीं? श्री माणिकचन्द जैन पाटनी राष्ट्रीय महामंत्री ने कहा कि महासमिति समाज में समन्वय एवं सद्भावना के लिए प्रतिबद्ध है। हम महासमिति पत्रिका में निष्पक्ष होकर सभी के 88 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारों को स्थान देते है। मैं पत्रकार बन्धुओं से अनुरोध करूँगा कि वे हमें अपनी - अपनी पत्रिकायें अवश्य भेजे। जिससे हम उनके विचारों से अवगत हो सकें। डा. विमल जैन सहसम्पादिका - जैन महिलादर्श ने कहा कि जैन पत्र-पत्रिकाओं को लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से उन्हें प्रशस्तिगान से बचना चाहिये। आज अधिकांश पत्रिकायें अपने - अपने पक्ष के साधु के गुणगान में ही लगी रहती है। कतिपय अन्य पत्र-पत्रिकायें केवल साधु संस्था की आलोचना में ही व्यस्त रहती है। इससे भावी पीढी की रही-सही श्रद्धा भी खत्म हो जाती है। पत्रकारों को इन दोनों स्थितियों से बचकर समाचारों, प्रशंसा एवं आलोचना में संतुलन रखना चाहिये। पत्रकार सम्मेलन का एक दृश्य सन्मतिवाणी के संपादक पं. जयसेन जैन ने अपने उद्बोधन में कहा कि कुछ पत्र संतों से बंधे है और वे केवल उनकी ही बात करते हैं। हमारा निवेदन है कि पत्रकार कैची नई काम करें इससे ही समाज में एकता का सत्रपात होगा। हमड मित्र के संपादक श्री सरजमल बोबरा ने कहा कि जातीय संगठनों के पत्रों को अपनी-अपनी समाज की प्रतिभाओं के संरक्षण एवं विकास का काम हाथ में लेना चाहिए। स्वतंत्रता सेनानी श्री सुरेशचन्द जैन संपादक - अनेकान्तपथ ने कहा कि पत्रकारों को केवल चर्चा नहीं समर्पण करना चाहिये। उन्होंने महासमिति के समाज में एकता विषयक विचार को आगे बढाने के लिए स्वयं को समर्पित करने का प्रस्ताव किया। श्री विजय जैन लहाडिया (दर्शन ज्ञान चारित्र), श्री नरेन्द्र जैन (अध्यात्म पर्व पत्रिका) श्री रमेश कासलीवाल (वीर निकलंक) ने भी अपने विचार रखे। _महासमिति मध्यांचल के अध्यक्ष श्री हुकमचन्द जैन ने कहा कि चेतना के लिए विचार आवश्यक है एवं पत्र विचार देने तथा चेतना जगाने का काम करते है। हमें समाज की ज्वलंत समस्याओं जनगणना, बेरोजगारी, अल्पसख्यक के रूप में मान्यता आदि पर ध्यान देना चाहिये। इसके लिए जरूरी है कि समाज अनुत्पादक व्ययों पर नियंत्रण कर उसे उत्पादक कार्यों में लगाये जब हम 35 करोड थे तब हमारे बीच कोई साधु, नहीं था। आज दिगम्बर परम्परा में लगभग 800 साधु है। फिर भी जैनों की संख्या 50 लाख है आखिर क्यों? इस पर विचार होना चाहिये। सम्मेलन के संयोजक डा. अनुपम जैन ने कहा कि समाज में प्रकाशित होने वाले पत्रों में पर्याप्त विविधता है। समाचार प्रधान साप्ताहिक पत्रों, शोध प्रधान शोध पत्रिकाओं एवं सामाजिक चिंतन प्रधान मासिकों में एकरूपता नहीं हो सकती। अहिन्दी भाषा पत्रिकाओं को क्षेत्रीय समाचारों को प्रमुखता देनी ही होगी तो जातीय संगठनों के अपने अलग दायित्व है। जरूरत इस बात की है वे परस्पर अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 89 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिस्पर्धा नहीं पूरक बनकर एक दूसरे की प्रगति में सहभागी बनें। फेडरेशन ऑफ जैन एसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका के अध्यक्ष श्री महेन्द्र जैन पांड्या न्यूयार्क ने कहा हम विलय एवं एकरूपता नहीं चाहते है किन्तु एकता जरूर चाहते है। जिससे सभी का अस्तित्व एवं पहचान बनी रहे एवं सभी में परस्पर समन्वय भी विकसित हो। राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री प्रदीप जैन कासलीवाल ने अपने उद्बोधन में कहा कि पत्रकारों को समाचारों के प्रकाशन से विमान तल पर वित्त राज्य मंत्री का स्वागत करते हुए पहले उससे समाज पर पड़ने श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल एवं अन्य वाले प्रभाव का अध्ययन कर लेना चाहिये। वे समाज के जिम्मेदार अंग है। अत: उन्हें ऐसे किसी समाचार या आलेख को पत्र में स्थान नहीं देना चाहिये जिससे समाज में टूटन हो, विघटन हो, संघर्ष हो या कटुता बढ़े। कार्यक्रम के अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन ने सभी वक्ताओं के विचारों का समाहार करते हुए कहा कि आज समाज के सामने 4 प्रमुख मुद्दे है। 1. मांस निर्यात निरोध। 2. जैन समाज को अल्पसंख्यक घोषित कराना। 3. जनगणना में जैनों की सही स्थिति अंकित कराना। 4. भगवान ऋषभदेव एवं जैन धर्म की प्राचीनता का प्रचार। मैं चाहता हूँ कि पत्रकार बन्धु अपने-अपने वर्तमान उद्देश्यों की पूर्ति के साथ ही अपनी पत्रिका में इन 4 मुद्दों पर नियमित रूप से सामग्री प्रकाशित करें। इससे सबका समान हित है और कहीं कोई विरोधाभास नहीं है। उन्होंने महासमिति को इस पत्रकार सम्मेलन के आयोजन हेतु धन्यवाद देते हुए कहा कि पत्रकारों को अपना एक स्वतंत्र संगठन बनाना चाहिये जो किसी संस्था से सम्बद्ध न हो। पत्रकार सम्मेलन में समागत बन्धुओं को 1. तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ द्वारा प्रकाशित जैन पत्र-पत्रिकाओं की सची (प्रथम पारूप) 2 जैन धर्म के विषय में प्रचलित भांतियां । भ्रांतियां एवं वास्तविकतायें (पुस्तक) 3. स्वास्थ्य बोधामृत (पुस्तक) 4. सन्मतिवाणी (पत्रिका) 5. हूमड़ मित्र (पत्रिका) 6. संस्कार सागर (पत्रिका) 7. कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की 12 वर्षीय प्रगति आख्या का सेट भेंट स्वरूप प्रदान किया गया। संयोजक डा. अनुपम जैन के आभार प्रदर्शन से सम्मेलन का समापन किया गया। .डा. अनुपम जैन केन्द्रीय प्रचार मंत्री- महासमिति "ज्ञानछाया" डी-14, सुदामानगर, इन्दौर -9 90 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा इण्टरनेशनल द्वारा जैन धर्म पर संपूर्ण पुस्तक लेखन के लिए 51 हजार रूपये का पुरस्कार अभी तक जैन धर्म पर संपूर्ण पुस्तक उपलब्ध नहीं है, जिसका अभाव देश एवं विदेश दोनों में ही खटक रहा है। अहिंसा इण्टरनेशनल ने देश के अतिख्याति प्राप्त विद्वानों से साक्षात बैठक में विचार विमर्श कर इस पुस्तक के लिए निम्न परिच्छेद निश्चित किये हैं - 1. उद्भव (20 पृष्ठ) 2. विकास (30 पृष्ठ) 3. धर्म (40 पृष्ठ) 4. दर्शन (40 पृष्ठ) 5. जैन योग तंत्र - मंत्र (30 पृष्ठ) 6. भाषा (30 पृष्ठ) 7. साहित्य (40 पृष्ठ) 8. जैन संघ (40 पृष्ठ) 9. समाज (30 पृष्ठ) 10. विदेशों में जैन धर्म (30 पृष्ठ) 11. मूलाचार (30 पृष्ठ) 12. श्रावकाचार (30 पृष्ठ) 13. आहार - शाकाहार (20 पृष्ठ) 14. जैन विज्ञान (30 पृष्ठ) 15. संस्कृति (30 पृष्ठ) 16. जैन कला, पुरातत्व एवं तीर्थ (80 पृष्ठ)। कुल 550 पृष्ठ की यह पुस्तक रॉयल आक्टेव आकार में हिन्दी में बहुत अच्छे कागज पर प्रकाशित होनी है। ___ उपर्युक्त परिच्छेदों पर पुस्तक की टाइप की हुई दो पाण्डुलिपियां भेजना आवश्यक है। पुस्तक की भाषा साहित्यिक हिन्दी होनी है, किन्तु संस्कृतनिष्ठ नहीं। उर्दू शब्दों का प्रयोग नहीं। सामग्री प्रामाणिक हो। भाषा प्रवाह तथा तारतम्य का विशेष ध्यान रहे। सर्वोत्तम कृति के कृतिकार को 51 हजार का पुरस्कार एक भव्य समारोह में दिल्ली में भेंट किया जायेगा। पुस्तक लेखन पर अन्य रायल्टी नहीं दी जायेगी। पुस्तक के स्व - प्रकाशन अथवा अन्य प्रकाशक से प्रकाशन पर अधिकार अहिंसा इण्टरनेशनल का होगा। पुस्तक सचित्र होगी, जिसके लिए चित्र अहिंसा इण्टरनेशनल उपलब्ध करेगा। लेखक भी बहुत सुन्दर चित्र दे सकते हैं। पाण्डुलिपि में संशोधन करने का अधिकार अहिंसा इण्टरनेशनल को रहेगा। पाण्डुलिपि लगभग दिसम्बर 2000 के अंत तक निम्न पते पर प्राप्त होना अपेक्षित है। श्री सतीश कुमार जैन, महासचिव, अहिंसा इण्टरनेशनल सी-||1/3129 बसंतकुंज, नई दिल्ली- 110070 पूज्य शशि भाई स्मृति जिनवाणी संरक्षण पुरस्कार -99 श्री सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर द्वारा घोषित पूज्य शशिभाई स्मृति जिनवाणी संरक्षण पुरस्कार - 99 हेत डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर के संयोजकत्व में गठित त्रिसदस्यीय निर्णायक मंडल की अनुशंसा के आधार पर प्राचीन पांडुलिपियों के संकलन, संरक्षण एवं पांडुलिपियों की सुरक्षा के प्रति जन चेतना जाग्रत करने के क्षेत्र में किये गये उत्कृष्ट कार्य हेतु अनेकान्त ज्ञान मन्दिर, बीना के संस्थापक ब्र. संदीप जैन 'सरल' को पूज्य शशि भाई स्मृति जिनवाणी संरक्षण पुरस्कार 99 प्रदान करने की घोषणा की जाती है। इस पुरस्कार के अन्तर्गत चयनित विद्वान को रु. 51,000/- की नकद राशि, शाल, श्रीफल एवं प्रशस्ति से सम्मानित किया जायेगा। पुरस्कार समर्पण निकट भविष्य में समारोहपूर्वक सम्पन्न होगा। स्थान एवं तिथि की घोषणा शीघ्र की जायेगी। डॉ.अनुपम जैन हीरालाल जैन संयोजक - चयन समिति अध्यक्ष - ट्रस्ट अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 91 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा इन्टरनेशनल वर्ष 1999 पुरस्कार समर्पण समारोह सम्पन्न नई दिल्ली। अहिंसा इन्टरनेशनल के वर्ष 1999 के वार्षिक पुरस्कार माँ श्री कौशलजी के सान्निध्य में कमानी सभागार, नई दिल्ली में आयोजित एक भव्य समारोह में भेंट किये गये। सामरोह के मुख्य अतिथि श्री विष्णु हरि डालमिया थे। अध्यक्षता पूर्व सासंद श्री डालचन्द जैन, सागर ने की। इस अवसर पर पद्मभूषण से सम्मानित प्रख्यात सरोदवादिका श्रीमती शरन रानी बाकलीवाल तथा गांधीवादी लेकक पद्मश्री डा. यशपाल जैन का कानपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट्. की उपाधि प्रदान करने पर अभिनन्दन किया गया। वार्षिक समारोह पर निम्न प्रख्यात विद्वानों एवं निष्ठावान कार्यकर्ताओं को पुरस्कार प्रदान किये गये - 1. अहिंसा इन्टरनेशनल डिप्टीमल आदीश्वरलाल जैन साहित्य पुरस्कार डॉ. के. आर. चन्द्रा (अहमदाबाद) प्राकृत भाषा में शोध एवं संशोधन के लिये। 2. अहिंसा इन्टरनेशनल भगवानदास शोभालाल जैन शाकाहार पुरस्कार डॉ. (कुमारी) अर्चना जैन, सागर। 3. अहिंसा इन्टरनेशनल रघुवीरसिंह जैन जीवरक्षा पुरस्कार सुश्री रश्मि शर्मा, नई दिल्ली। 4. अहिंसा इन्टरनेशनल प्रेमचन्द जैन पत्रकारिता पुरस्कार डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर, अर्हत् वचन के कुशल सम्पादक, प्रसिद्ध जैन गणितज्ञ, वक्ता एवं सभा संयोजक। इस अवसर पर संस्था के संस्थापक महासचिव श्री सतीशकुमार जैन ने वैशाली (बिहार) में भगवान महावीर की विशाल प्रतिमा स्थापित करने बर बल दिया। उन्होंने घोषणा की कि जैन धर्म पर सम्पूर्ण पुस्तक लिखने वाले विद्वान को इक्यावन हजार रुपये का पुरस्कार दिया जायेगा। विदुषी माँ श्री कौशलजी ने अपने प्रवचन में अहिंसा और प्रेम को एक दूसरे का पर्यायवाची बताया। समारोह के आयोजन में संस्था के सचिवों श्री प्रवीणकुमार जैन एवं श्री प्रदीपकुमार जैन का सरहानीय योगदान रहा। मंच संचालन श्रीमती त्रिशला जैन ने किया। - सतीशकुमार जैन, महासचिव माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा दि. जैन हाईस्कूल, नवलखा को रु. 25000/- का पुरस्कार श्री दिगम्बर जैन हाईस्कूल, नवलखा - इन्दौर को माध्यमिक शिक्षा मंडल (म.प्र. भोपाल) द्वारा विगत वर्षों में सर्वोच्च परीक्षा परिणाम पर रु. 25,000/- की राशि का पुरस्कार प्रदान किया गया। ___ इस हेतु आयोजित एक समारोह में सभी शिक्षकों के प्रतीक स्वरूप एवं संस्था के प्रतिनिधि के रूप में विद्यालय की प्राचार्य श्रीमती सुषमा शर्मा को सम्मानित किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि आंचलिक शिक्षा अधिकारी श्री रवीन्द्रसिंहजी ने इस अवसर पर अपने संबोधन में कहा कि राशि का कोई महत्व नहीं, संस्था को सम्मान प्राप्त हुआ, यह अधिक महत्वपूर्ण है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे संस्था के अध्यक्ष श्री निर्मल कासलीवाल ने कहा कि यह व्यक्ति का नहीं समस्त शिक्षकों द्वारा टीम भावना से संस्था के लिये समन्वित समर्पण एवं प्रयास का सम्मान है अत: सभी शिक्षक बधाई के पात्र हैं। 92 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रीष्मकालीन अध्ययनशाला का आयोजन भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इन्डालोजी द्वारा इस वर्ष ग्रीष्मकाल में एक साथ तीन अध्ययनशालाओं का आयोजन किया जा रहा है। __ 1. प्राकृत भाषा एवं साहित्य 2. जैनधर्म व दर्शन। ये दोनों अध्ययनशालायें स्वतंत्र रूप से, परन्तु उन्हीं तिथियों में दिनांक 28 मई से 18 जून तक आयोजित हैं। 3. पाण्डुलिपि विज्ञान और लिपि विज्ञान। यह अध्ययनशाला दिनांक 18 जून से 2 जुलाई 2000 तक होगी। इन तीन अध्ययनशालाओं में से प्रवेशार्थी क्र. 1 व 3, अथवा क्र. 2 व 3 अथवा अपनी रूचि के अनुसार, किसी एक अध्ययनशाला में भाग ले सकते हैं। प्रवेशार्थियों की योग्यता भारतीय दर्शन, संस्कृत, पालि, प्राकृत, भाषा विज्ञान, प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व, इनमें से किसी भी विषय में एम.ए. होनी चाहिए शोध व शिक्षण अनुभव प्राप्त प्रवेशार्थियों को वरीयता दी जायेगी। आयु सीमा 22 से 45 वर्ष रखी गई है। विशेष योग्यता प्राप्त प्रवेशार्थियों को आय सीमा में छट दी जा सकती है। आवेदन एवं नियमों का एक प्रपत्र विशेष जानकारी के लिए कृपया निम्न पते पर सम्पर्क करें - भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलाजी 20 वाँ किलोमीटर, जी. टी. करनाल रोड़, पो. अलीपुर, दिल्ली - 110036 फोन : 011-720 2065 मयंक मरकर भी अमर हो गया हुमड़ जैन युवा मंच के पूर्व मंत्री तथा दिगम्बर जैन सोशल ग्रुप 'इन्दौरनगर' के सहमंत्री श्री दिलीप मेहता एवं कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ आदि अनेक प्रतिष्ठित शोध संस्थानों से अभिन्न रूप से जुड़ी प्रसिद्ध लेखिका एवं विदुषी डॉ. संगीता मेहता के सुपुत्र चि. मयंक मेहता का दुःखद निधन तीर्थयात्रा पर जाते हुए नागदा के समीप कार दुर्घटना में दिनांक 23.4.2000 को हो गया। यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, इन्दौर में अधिकारी श्री दिलीपजी तथा शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर के संस्कृत विभाग में कार्यरत डॉ. संगीताजी समाजसेवा एवं साहित्य सेवा की विभिन्न गतिविधियों से अभिन्न रूप से जुड़ी रहीं। किन्तु चि. मयंक के निधन के समय इस दम्पति द्वारा प्रदर्शित दृढ़ता और मानवता के कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने इस दम्पति को वंदनीय एवं अभिनंदनीय बना दिया। साथ ही चि. मयंक भी अपने यश शरीर से सदैव के लिये अमर हो गया। दिनांक 23.4.2000 को दुर्घटना के बाद मयंक को उपचार हेतु इन्दौर लाया गया जहाँ श्रेष्ठतम सुविधायें उपलब्ध कराये जाने के बाद भी उसे बचाया नहीं जा सका तथा विशेषज्ञ चिकित्सकों के एक दल ने 24 अप्रैल को मयंक की ब्रेनडेथ घोषित कर दी। जैन दर्शन के गहन अध्ययन एवं ज्ञान की सार्थकता सिद्ध करते हुए मेहता दम्पति ने अविलम्ब निर्णय लेकर मयंक के दोनों गुर्दे, नेत्र एवं त्वचा दान कर दी। समय पर लिये गये निर्णय से दो किशोरों के जीवन को बचाया जा सका जो गुर्दे की बीमारी से पीड़ित थे एवं गुर्दा प्रत्यारोपण ही जिनका एकमात्र इलाज था। इन लाइनों के लिखे जाने तक दो अन्य मानवों को नेत्र ज्योति प्राप्त हो चुकी होगी। मेहता दम्पति के इस आदर्श, प्रेरणादायक, साहसिक निर्णय पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय श्री दिग्विजयसिंह, इन्दौर के महापौर श्री कैलाश विजयवर्गीय, जैन एवं जैनेतर संस्थाओं के पदाधिकारियों एवं समाज नेताओं ने उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की। ज्ञातव्य है कि मेहता दम्पति की दोनों सन्तानों कु. श्वेता एवं चि. मयंक में से चि. मयंक सिक्का स्कूल में कक्षा 9वीं में अध्ययनरत था तथा दुर्घटना के दिन 22 अप्रैल को उसका जन्मदिन भी था। इस अनुकरणीय दान से मयंक एवं मेहता दम्पति का नाम मानवता के इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में कित रहेगा। - डॉ. अनुपम जैन, सचिव अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 93 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ज्ञान मन्दिर बीना को महाकवि रइधू पुरस्कार प्राप्त अनेकान्त ज्ञान मन्दिर बीना (सागर) को भगवान महावीर जयन्ती के पावन अवसर पर पं. श्याम सुन्दर लाल शास्त्री श्रुत प्रभावक न्यास, फिरोजाबाद (उ.प्र.) द्वारा स्थापित महाकवि रइधू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। न्यास के मंत्री एवं अ. भा. शास्त्री परिषद के अध्यक्ष प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाशजी जैन, सम्पादक - जैन गजट, ने बतलाया कि जैन गजट के प्रधान सम्पादक, सरस्वती पुत्र पं. श्यास सुन्दर लाल शास्त्री को गाँधीनाथा रंग ट्रस्ट सोलापुर द्वारा प्राप्त कुन्दकुन्द पुरस्कार में प्राप्त सम्मान निधि में कुछ अपनी राशि संयुक्त करके महाकवि रइधू पुरस्कार की स्थापना वर्ष 98 में की गई थी। गत वर्ष (1999) यह पुरस्कार तीर्थंकर ऋषभदेव विद्वत महासंघ के अध्यक्ष पं. शिवचरणलालजी मैनपुरी को प्रदान किया गया था। वर्ष 2000 का महाकवि रइधू पुरस्कार न्यास के द्वारा अनेकान्त ज्ञान मन्दिर की सृजनात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने के लिये एवं जिनवाणी के संरक्षण के पुनीत कार्य के लिये दिया गया है। बंधाईयाँ प्रसिद्ध लेखिका डॉ. सुषमा जैन को सर्वोदय शिक्षा मनोविज्ञान शीर्षक राष्ट्रीय संगोष्ठी में आचार्य श्री कनकनन्दी के सान्निध्य में 'प्राचीन तथा आधुनिक शिक्षा प्रणाली में कमियाँ, खामियाँ एवं उसमें सुधार के उपाय' शीर्षक शोध आलेख पर 'विद्या श्री' की उपाधि एवं प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। विगत 36 वर्षों से विक्रम वि.वि., उज्जैन के सांख्यिकी विभाग में सेवारत डॉ. रमेशचन्द जैन की पदोन्नति 1998 से आचार्य (प्रोफेसर) पद पर हो गई है। वे इससे पूर्व 1990 से 98 के मध्य सांख्यिकी विभाग में उपाचार्य (रीडर) पर रहते हुये कम्प्यूटर विज्ञान विभाग के अध्यक्ष के रूप में कार्य कर चुके हैं। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की स्थापना से ही ज्ञानपीठ से सक्रिय रूप में जुड़े हैं। परमपूज्य उपाध्याय श्री 108 गुप्तिसागरजी महाराज के सान्निध्य में उत्तरप्रदेश के महामहिम राज्यपाल श्री सूरजभानसिंहजी जैन ने जैन दर्शन के प्रख्यात विद्वान पं. निहालचंद जैन बीना को वर्ष 2000 का प्रथम गुरु आशीष पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया। उक्त पुरस्कार (नगद रु. 11000/- एवं प्रतीक चिन्ह) प्रदान करने के साथ ही प्राचार्य निहालचंद जैन की कृति - 'किसने मेरे ख्याल में गुप्ति संदेश सुना दिया' का लोकार्पण भी महामहिम राज्यपालजी के करकमलों द्वारा हुआ। 'पुरस्कार समारोह महावीर जयन्ती के शुभअवसर पर नोएडा सेक्टर 27 में नवनिर्मित श्री दि. जैन मंदिरजी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के पावन प्रसंग पर हुआ। आवश्यकता है एन्साइक्लोपीडिया जैनिका (जैनविद्या विश्वकोश) के कार्य के लिए जैनविद्या के एक निष्णात विद्वान् की आवश्यकता है। जो लखनऊ में रहकर जैनविद्या विश्वकोश के लखनऊ कार्यालय में अकादमिक कार्य कर सके। वेतन योग्यतानुसार। सम्बद्ध विद्वान् अपने बायोडाटा भेजें। बायोडाटा में यह उल्लेख अवश्य करें कि अभ्यर्थी विद्वान् जैनविद्या की किस ज्ञानशाखा में अपनी विशेषज्ञता रखते हैं तथा उन्हें किन-किन भाषाओं में लिखने और पढ़ने की क्षमता है? आयु व अपेक्षित मानदेय का उल्लेख भी अवश्य करें। बायोडाटा भेजने का पता - प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, जैन विद्या विश्वकोश बी 1/132, सेक्टर - जी, अलीगंज, लखनऊ-226024 94 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ के प्रांगण से मत- अभिमत मैंने कुन्दकुन्द ज्ञानपा निष्ठा और उनका पाठ निरन्तर वृद्धि करणा- प्रो. (डॉ.) सुदर्शविद्यालय, आज मैंने कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की व्यवस्था तथा ग्रन्थालय को देखा। दोनों को देखकर प्रसन्नता का अनुभव हुआ। डॉ. अनुपम जैन की निष्ठा और उनकी समर्पण की भावना श्लाघनीय है। उन्हीं की निष्ठा का यह प्रतिफल है। आशा करता हूँ कि उनके संरक्षण में यह ज्ञानपीठ निरन्तर वृद्धि करेगा। 21.8.99 पूर्व प्राध्यापक - संस्कृत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी मैंने आज शोध संस्थान को विस्तृत रूप से देखा। जो कार्य इन्होंने किया है वह सराहनीय है। लगता है कुछ दिनों में देश में कहीं भी कोई भी जैन धर्म पर शास्त्र या पुस्तकें हैं उसके लिये जानकारियाँ प्राप्त करना हो तो वह यहाँ पर लिखने से फौरन पता चल सकेगा। जैन पत्र - पत्रिकाओं की लिस्ट देश में कहीं नहीं है किन्तु इनके पास है। बहुत ही चुस्ती और मेहनत से ऐसे कार्य होते हैं। आशा है कि इनका स्टॉक पुस्तकों का एवं शास्त्रों का बढ़ता रहे। 23.9.99 . मदनलाल काला पी- 15, कलाकार स्ट्रीट, कलकत्ता-700007 आज शोध संस्थान कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ आने का सुअवसर प्राप्त हुआ। संस्थान में ग्रन्थों एवं समाचार पत्रों का संग्रह निश्चित रूप से आशा से कहीं अधिक अच्छा लगा। निश्चित रूप से इस हेतु डॉ. अनुपम जैन एवं उनकी टीम बधाई की पात्र है। ___ संस्थान की निरन्तर प्रगति का आकांक्षी हूँ। 9.10.99 . राजेन्द्र नारद 9, पद्मावती कालोनी, इन्दौर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ में दो-तीन वर्षों के बाद आना हुआ। इन दो-तीन वर्षों में यहाँ के कार्य में कई गुना वृद्धि हुई है, यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई। इस सब कार्य के पीछे एक व्यक्ति की लगन तथा परिश्रम सम्मिलित हैं, यह है डॉ. अनुपम जैन। संस्था की उनकी मेहनत से दिनोंदिन उन्नति होगी, ऐसा मुझे विश्वास है। 9.10.99 - डॉ. अनिलकुमार जैन बी - 26, सूर्यनारायण सोसायटी, विसत पेट्रोल पम्प के सामने, साबरमती, अहमदाबाद - 380005 फोन : 079-7507520 तीन साल के बाद आने पा यहाँ की जो Progress देखी, वह प्रशंसनीय है। डॉ. अनुपमजी का विचार इस संस्थान को National ही नहीं International बनाने का है। बहुत ही अच्छा है। शीघ्र ही यह संस्था International Jain की हो, ऐसी उम्मीद ही नहीं विश्वास है। 18.10.99 । डॉ. महेन्द्र पांड्या 73, बीबी. स्ट्रीट, स्टेटेन आइलेण्ड, न्यूयार्क, यू.एस.ए. - 10301 - संस्थान का कार्य प्रसार बहुत सुन्दर और सुदृढ़ है। हमारी सबकी कामना है, यह आगे बहुत यश को प्राप्त हो। 26.10.99 . राकेशकुमार जैन 172 - ए, सदर, मेरठ अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुस्तकालय व्यवस्थित है, देखकर प्रसन्नता हुई। 31.10.99 - अनिलकुमार जैन कागजी डी - 107, प्रीतविहार, दिल्ली- 110092 आज दिगम्बर जैन महासमिति के एकता शंखनाद समारोह के सिलसिले में इन्दौर आना हुआ, स्वाभाविक है कि मैं कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ आता, विगत वर्षों में भी मैं अनेक बार कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ आया, किन्तु आज पुस्तकालय तथा जैन साहित्य सूचीकरण परियोजना को नजदीक से देखने और जानने का योग बना। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ एक अन्तर्राष्ट्रीय सूचना केन्द्र के रूप में विकसित हो रहा है। संस्था के प्रमुख श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल एवं सचिव डॉ. अनुपम जैन का समर्पण प्रशंसनीय है। मैं इस संस्था की निरन्तर प्रगति की कामना करता हूँ। 31.10.99 .ब्र. रवीन्द्रकुमार जैन अध्यक्ष - दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर - 250404 कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का अवलोकन कर परमानन्द का अनुभव हुआ। इस ज्ञान मन्दिर में धर्म और ज्ञान के पिपासुओं के लिये जो अमृत घट भरे रक्खे हैं, वह अमरत्व के प्रतीक हैं। विभिन्न विषयों की प्राचीन / अर्वाचीन पुस्तकें, आगम, पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध ही नहीं, सहज प्राप्य तथा पठन-पाठन की समुचित व्यवस्था भी है, यह कार्य वास्तव में ही बहुत ही उपयोगी तथा महान कार्य है। ज्ञान पिपासुओं तथा शोधकर्ताओं के लिये तो बहुत ही उत्तम स्थान है। इस प्रकार की संस्थाएँ हर प्रान्त में मुख्यत: जहाँ भी जैन - जैनेतर विद्वत् समुदाय है, अवश्य ही होनी चाहिये। संस्था के संस्थापक तथा अध्यक्ष श्री कासलीवालजी एवं मानद् सचिव डॉ. अनुपम जैन साधुवाद के पात्र हैं। उनके सान्निध्य में यह संस्था लघु बीज से महान विशाल विटप बने, ऐसी मेरी हार्दिक मंगल कामना है। 2.11.99 - डॉ. विमला जैन 1/344, सुहाग नगर, फिरोजाबाद-283203 कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का अवलोकन करने के उपरान्त इसे साहित्य से अति समृद्ध लाइब्रेरी पाया, इसमें विभिन्न आगमों एवं ग्रन्थों का दुर्लभ संग्रह है। डॉ. अनुपम जैन ने अत्यन्त सुव्यवस्थित एवं वैज्ञानिक वर्गीकरण करके पुस्तकों की देखरेख की अनुकरणीय व्यवस्था की है। ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'अर्हत् वचन' जैन धर्म की पंथ निरपेक्ष एकमात्र शोध पत्रिका है, लेखों का संग्रह उच्च स्तर का है। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर द्वारा मान्यता प्राप्त होने के कारण ज्ञानपीठ की प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध मैं ज्ञानपीठ की उन्नति की कामना करता हूँ तथा देश के लब्ध प्रतिष्ठित ग्रन्थागारों में गिनती होने के लिये अपनी शुभकामनाएँ देता हूँ। 10.11.99 - प्रवीण कुमार जैन विद्या प्रकाशन मन्दिर मेरठ आज के ज्ञान व विज्ञान का केन्द्र सूचना विज्ञान है, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ इस तंत्र से जुड़ा है इसलिये वह अब आज की बौद्धिक सोच का केन्द्र हो गया है, यह देखकर अच्छा लग रहा है। 25.11.99 .प्रो. वृषभप्रसाद जैन निदेशक - महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी वि.वि., वर्धा (महा.) अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर के कार्यालय, पुस्तकालय और सूचना केन्द्र में आकर जैन साहित्य और पत्र - पत्रिकाओं का अवलोकन करने का सुयोग मिला। पुस्तकालय तकनीक और आद्यतन वैज्ञानिक विधि से संचालित इस संस्थान का स्वरूप अनुकरणीय और शोध साहित्य के अध्येताओं तथा पाठकों के लिये अद्वितीय केन्द्र है। मेरा प्रयास होगा कि मैं यहाँ अनेक बार आऊँ और इस संस्था से बहुविधि अपने को जोडूं। 25.11.99 - डॉ. धरमचन्द जैन 761, अग्रवाल कालोनी, जबलपुर - 462 002 झाड़ोल में आचार्य श्री कनकनंदीजी की प्रेरणा से आयोजित तृतीय राष्ट्रीय वैज्ञानिक संगोष्ठी में भाग लेने के बाद अपने मित्र संजीव सराफ के आग्रह पर जब कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ देखने का मौका प्राप्त हुआ तब ऐसा लगा कि डॉ. अनुपम जैन के अनुपमी प्रयास जैन धर्म की वैज्ञानिकता को प्रतिपादित करेंगे। 27.11.99 . डॉ. मुकेश जैन प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर (म.प्र.) आज प्रथम बार कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ में जैन धर्म के इतिहास के बारे में जानने के उद्देश्य से आया। डॉ. अनुपम जैन के सहयोग से उद्देश्य की पूर्ति हुई, इसके लिये उन्हें बहुत - बहुत धन्यवाद। 8.12.99 - संतोष कुमार जैन 202, मेक्सटेल एपार्टमेन्ट, 15/3, ओल्ड पलासिया, इन्दौर पुस्तकालय देखा। अब Computer की सहायता से शोध विद्यार्थियों को पुस्तकें मिलने, विषय को जानने में बहुत सुविधा हो गई। डॉ. अनुपमजी ने पुस्तकालय की गतिविधियों से परिचित कराया। उन्होंने बड़े श्रम से इस काम को किया है। साधुवाद ! 8.12.99 हुकमचन्द जैन बी/क्यू. 161- ए, शालिमार बाग, दिल्ली- 110052 पिछले 20 वर्षों से आते - जाते 'कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ' संस्था का बोई देखता था। आज प्रथम बार देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। डॉ. अनुपम जैन की लगन और सोच के कारण शायद यह संस्था इतनी सुनियोजित प्रतीत हुई। अद्भुत शोध साहित्य अत्यन्त सुलभ तरीके से सरलता से उपलब्ध है। संस्था के मूल उद्देश्यों एवं लक्ष्य की प्राप्ति हेतु निदेशक मंडल की सजगता ने भी मुझे प्रभावित किया। शुभकामनाएँ। 4.3.2000 - शांतिलाल गुप्ता 70 बी.जी., स्कीम नं. 74 - सी, विजयनगर, इन्दौर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के अनुरूप 'कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ' को लाना डा. अनुपम द्वारा ही संभव हो सका है। भारत के IIT स्तर के संस्थानों जैसा इन्दौर का यह संस्थान हो गया है, हो रहा है और आगे भी अब और बढ़ेगा। भारत के किसी भी जैन संस्थान में इतना सुव्यवस्थित कार्य नहीं है। प्रभु से यही प्रार्थना है कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का कलेवर इतना विशाल हो जाये कि उदासीन आश्रम की सम्पूर्ण जगह भी अपर्याप्त साबित हो। 13.3.2000 . प्रो. मन्नालाल जैन इंजी. महाविद्यालय के पास, उज्जैन It feels good to see the progress and the speed of progress. 16.3.2000 . Dr. Dilip Bobra U.S.A. अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 07 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के ज्ञान अनुष्ठान का सहभागी बनना एक सुखद प्रसंग है। सीमित साधनों के साथ निष्ठावान और समर्पित कार्यकर्ताओं ने जिन प्रतिमानों की रचना की है, वह श्लाघ्य है। अर्हत् वचन के माध्यम से शोध के कीर्तिमान स्थापित करने के अनन्तर पाण्डुलिपियों के सूचीकरण की परियोजना श्रुत संवर्द्धन की दिशा में एक नया अध्याय है। सूचना प्रोद्यौगिकी का प्रयोग एक स्तुत्य प्रयास है। काकासाहब और बाबूसाहब की संकल्पनाओं को मूर्त रूप दे रहे युवा अध्येता डॉ. अनुपम जैन का सुव्यवस्थित अहर्निश परिश्रम तो प्रेरणास्पद है ही, उनके सहकर्मियों की निष्ठा और चेहरे पर बिना शिकन लाये काम करने की जुगत आज के दौर में अनुपम है। कोटिश: बधाइयाँ। 29.3.2000 . प्रो. नलिन के. शास्त्री समायोजक - महाविद्यालय विकास परिषद, मगध वि.वि., बोधगया - 824 234 I have visited the Jñanapitha and found the library very excellent with its limited resources. I feel it should be a leading centre of research in the field of Jainology not only in India but in abroad too. I am really impressed by the dynasim of Dr. Anupam Jain. 29.3.2000 . Dr. Ashoka K. Mishra Reader-Dept. of History, Culture and Archaelogy, Dr. Ram Manohar Lohia Avadh University, Faizabad (U.P.) नया स्तम्भ - आगम का प्रकाश : जीवन का विकास अर्हत् वचन की लोकप्रियता एवं समसामयिक उपयोगिता में अभिवृद्धि एवं इसके पाठकों को जिनागम के गूढ रहस्यों से सहज परिचित कराने हेतु हम एक स्तम्भ 'आगम का प्रकाश-जीवन का विकास' अगले अक से प्रारम्भ कर रहे हैं। ___ इस स्तम्भ के अन्तर्गत हम ऐसे लघु शोध आलेख या टिप्पणी प्रकाशित करेंगे जिसमें निम्नांकित विशेषताएँ हों - 1. जैनागम का कोई मूल उद्धरण अवश्य हो। 2. हमारे जीवन में सीधा उपयोगी हो। अर्हत वचन के पाठक इस स्थल पर अपने जीवन के विकास / सुख / शांति के लिये कुछ प्राप्त करने के उद्देश्य से इस अंक की उत्सुक्ता से प्रतीक्षा करें व उन्हें अवश्य इससे कुछ शांति मिले। 3. जैन दर्शन के कोई कम प्रचारित या दबे हुए पक्ष की जीवन में महत्ता उद्घाटित होती हो। 4. नवीन वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हो। उपर्युक्त 4 बिन्दुओं में प्रथम दो आवश्यक हैं व शेष 2 आवश्यक तो नहीं किन्तु हो जाये तो अच्छा है। सम्पादक मंडल के माननीय सदस्य प्रो. पारसमल अग्रवाल - ओक्लोहोमा (अमेरिका) के सुझाव पर प्रारम्भ इस स्तम्भ के अन्तर्गत प्रथम आलेख उनका ही - "जैनागम में प्राणायाम एवं ध्यान' अर्हत् वचन के जुलाई - 2000 अंक में प्रकाश्य है। सुधी पाठकों से उक्त निर्देशों के अनुरुप आलेख प्रेषित करने का निवेदन है। - सम्पादक अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. नाम श्रुत संवर्द्धन संस्थान, मेरठ द्वारा प्रवर्तित श्रत संवर्द्धन पुरस्कार 2000 सराकोद्धारक संत, परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज की प्रेरणा से स्थापित श्रुत संवर्द्धन संस्थान, मेरठ द्वारा जिनवाणी के प्रचार - प्रसार में अपने-अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान करने वाले विशिष्ट विद्वानों को निम्नांकित पाँच श्रुत संवर्द्धन वार्षिक पुरस्कारों से सम्मानित करने का निश्चय किया गया है। इन पुरस्कारों के अंतर्गत प्रतिवर्ष पूज्य उपाध्याय श्री के पावन सान्निध्य में आयोजित होने वाले भव्य समारोह में प्रत्येक चयनित विद्वान को रु. 31000 = 00 की सम्मान निधि, प्रशस्ति पत्र, शाल एवं श्रीफल से सम्मानित किया जाता है। पुरस्कार का संक्षिप्त विवरण निम्नवत है। विषय परिधि आचार्य श्री शांतिसागर छाणी स्मृति यह पुरस्कार जैन आगम साहित्य के पारंपरिक श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार अध्येता / टीकाकार विद्वान को आगमिक ज्ञान के संरक्षण में उसके योगदान के आधार पर प्रदान किया जायेगा। 2. आचार्य श्री सूर्यसागर स्मृति यह पुरस्कार प्रवचन - निष्णात एवं जिनवाणी की श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार प्रभावना करने वाले विद्वान को प्रदान किया जायेगा। 3. आचार्य श्री विमलसागर (भिण्ड) स्मृति यह पुरस्कार जैन पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार कार्य करने वाले जैन पत्रकार को दिया जायेगा। 4. आचार्य श्री सुमतिसागर स्मृति यह पुरस्कार जैन विद्याओं के शोध / अनुसंधान श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य हेतु प्रदान किया जाएगा। चयन का आधार समग्र योगदान होगा। 5. मुनि श्री वर्द्धमान सागर स्मृति यह पुरस्कार जैन धर्म - दर्शन के किसी क्षेत्र में श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार लिखी गई शोधपूर्ण, मौलिक, अप्रकाशित कृति पर प्रदान किया जाएगा। पुरस्कार हेतु कोई भी विद्वान / सामाजिक कार्यकर्ता/संस्था प्रस्ताव निर्धारित प्रस्ताव पत्र पर 15 जून 2000 तक निम्न पते पर प्रेषित कर सकते हैं। प्रत्येक पुरस्कार हेतु प्रस्ताव पृथक-पृथक प्रस्ताव पत्र पर सभी आवश्यक संलग्नकों सहित भेजे जाना चाहिये। प्रस्ताव - पत्र एवं नियमावली भी इसी पते से प्राप्त की जा सकती है। अखिल भारतीय दिगम्बर जैन सराक ट्रस्ट द्वारा प्रवर्तित रु. 25000/- के सराक पुरस्कार-2000 हेतु भी नियमावली, प्रस्तावपत्र आदि निम्नांकित पते से ही प्राप्त की जा सकती है। डॉ. अनुपम जैन संयोजक - श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार समिति C/0. कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ 584, महात्मा गांधी मार्ग, तुकोगंज, इन्दौर - 452 001 फोन : 0731 - (का.) 545421, 787790(नि.) डा. नलिन. के. शास्त्री अध्यक्ष अर्हत् वचनं, अप्रैल 2000 हंस कुमार जैन महामंत्री डॉ. अनुपम जैन संयोजक Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Filling hearts with happiness and minds with memories. It has been 50 glorious years and this is just the beginning of our journey. Shumars Visit us at: http://www.skumars.com FABRIC OF A GOLDEN INDIA . SUSSESSOR BOOST PERCEPTISK-838 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह की झलकियाँ कुन्द न्दज्ञानपी कामदेवसमाठा-पुरस्का रस्कारसमर्थनम म कुन्दकुन्दज्ञानपीठ इले शाकि उमिलन्टनकरताह अजयनशाल कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार -98 से सम्मानित प्रो. आर. सी. गुप्त (झांसी) कुन्दकुन्दज्ञानपीठ इन्दौर 2GC शोध संस्थान परीक्षा संस्थ अर्हतगंथालय-पुरान रोहतकोगेज प्रथम अर्हत् वचन पुरस्कार -98 से सम्मानित युवा गणितज्ञ श्री दिपक जाधव (बड़वानी) २४ प्रकल्प यमदेवसंगोष्ठी-पुरस्काररपणसम क० कन्दज्ञापाइल शोध संस्थान परीक्षा संस्थान अईतवचन ग्रंथालय पुरात जी.रोडतुकोगंज इन्दौर2829220001 प तृतीय अर्हत् वचन पुरस्कार - 98 को स्वीकार करते हुए डॉ. अशोक के. मिश्रा (फैजाबाद) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I.S.S.N. 0971-9024 अर्हत् वचन भारत सरकार के समाचार - पत्रों के महापंजीयक से प्राप्त पंजीयन संख्या 50199/88 Tarana पहरो पिहिनेतकामानेसरणं / एनजेमाजमाणाणवणमा बैंकमेकाहितराजलेजमा डन्टारक स्वामित्व श्री दि. जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर की ओर से देवकुमारसिंह कासलीवाल द्वारा 584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर से प्रकाशित एवं सुगन ग्राफिक्स, सिटी प्लाजा, म.गा. मार्ग, इन्दौर द्वारा मुद्रित। मानद् सम्पादक - डॉ. अनुपम जैन