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________________ 17 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल 2000, 41 - 44 शंकराचार्य : व्यक्तित्व एवं गणितीय कृतित्व दिपक जाधव* Swamodara जगद्गुरु स्वामी श्री भारतीकृष्णतीर्थ महाराज का जन्म 1884 के मार्च माह में बालक वेंकटरमन के रूप में सुशिक्षित परिवार में हुआ। वे बाल्यकाल से ही प्रतिभा के धनी थे। मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में मेट्रिक की परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया तथा उन्हें संस्कृत तथा भाषण की कला में निपुणता के लिये सरस्वती की उपाधि से सम्मानित किया गया। उनकी शैक्षिक प्रतिभा इतनी प्रखर थी कि उन्होंने 1903 में बम्बई केन्द्र से अमेरिकन कालेज आफ साइंसेस, रोचेस्टर, न्यूयार्क की एम.ए. की परीक्षा सात विषयों में एक साथ उच्चतम सम्मान सहित उत्तीर्ण की। वे कालांतर में कालेज के प्रधानाचार्य भी बने। गहनतम अध्ययन, गहनतम योगसाधना और उच्चतम आध्यात्मिक उपलब्धि के पश्चात उन्होंने 4 जुलाई 1919 को संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। दो वर्ष पश्चात ही वे शारदा पीठ के शंकराचार्य हो गये और पुन: 1925 में गोवर्धनमठ, पुरी के। 1960 में उनके महासमाधि ग्रहण के कछ वर्षों पश्चात स्वामीजी की एक कति प्रकाशित हुई, जिसका नाम है 'वैदिक गणित'। इसे पढ़कर कोई भी प्रथम दृष्टया विस्मयाभिभूत हो सकता है। सोलह सूत्र इस कृति का आधार है, जिनमें सबसे बड़ा तेरह अक्षर का है तथा सबसे छोटा पाँच अक्षर का। इसके अतिरिक्त तेरह उपसत्र भी हैं। सभी सत्र सरल, सहज एवं बहुउपयोगी हैं। प्रत्येक सूत्र महत्वपूर्ण बिन्दु या सिद्धान्त का लाघव कथन है, जो सम्बद्धता और क्रम की उच्च दशा का निर्माण करता है। इसी कारण ये सूत्र वास्तविक विधि का स्मरण कराते हैं। ये सूत्र प्रचलित गणित के सूत्र जैसे नहीं हैं। प्राचीन भारतीय प्रणाली से ऐसा लगता है कि सूत्र उसे समझा जाता था, जो कुछ वास्तविक चरणों के माध्यम से संक्षिप्त किन्तु रहस्यमय पुनरूक्ति का निर्धारण करता हो। एकाधिकेण पूर्वेण।। चलनकलनाभ्याम् निखिलं नवतश्चरमं दशत:। यावदूनम्। ऊर्ध्वतिर्यग्भ्याम्। व्यष्टिसमष्टिः। परावर्त्य योजयेत्। शेषाण्इकेन चरमेण। शून्यं साम्यसमुच्चये। सोपान्त्यद्वयंमन्त्यम्। (आनुरूप्ये) शून्यमन्यत्। एकन्यूनेन पूर्वेण। संकलनव्यवकलनाभ्याम्। गुणितसमुच्चयः। पूरणापूरणाभ्याम्। गुणकसमुच्चयः। पं. गिरधर शर्मा के अनुसार जब स्वामीजी अध्यापन कार्य किया करते थे. उनके साथी अध्यापक वैदिक ऋचाओं की हँसी यह कहकर उड़ाया करते थे कि कुछ लोगों के अनुसार वेदों में समस्त ज्ञान भरा पड़ा है। स्वामीजी को ये बातें अच्छी नहीं लगती थीं। उन्हीं दिनों उन्होंने यह प्रण किया कि वह वैदिक सूत्रों की गुत्थी को खोल कर रहेंगे। स्वामीजी ने श्रृंगेरी के पास के वनों में आठ वर्षों की कठोर साधना के फलस्वरूप इन सूत्रों का पुनर्निर्माण किया। उनके अनुसार ये सूत्र अथर्व वेद के परिशिष्ट में आते हैं। परन्तु विद्वानों ने गहन अध्ययन करके पाया कि ये सूत्र अथर्व वेद ही नहीं शेष तीनों * शोध छात्र-कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर। व्याख्याता- गणित, जवाहरलाल नेहरू शा. आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, बड़वानी-451551
SR No.526546
Book TitleArhat Vachan 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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