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________________ जन्म नगरी अयोध्या और उनके माता - पिता का भी नामोल्लेख किया है। इसी प्रकार सत्रह अक्षरी छन्द 'हरिणी' के द्वारा मुनिसुव्रत भगवान की स्तुति में कहती हैं - स्वगुणरूचिरैः रत्नैः, रत्नाकरो व्रतशीलभृत। समरसभरैः नीरैः, पूर्ण: महानिधिमान् पुमान्॥ त्रिभुवनगुरुर्विष्णु-ब्रह्मा शिवो जिनपुंगवः । विगलितमहामोहो दोषो जिनो मुनिसुव्रतः।।40 अर्थात् हे मुनिसुव्रत जिनेन्द्र! आप तीन लोक के गुरु हैं, विष्णु हैं, ब्रह्मा हैं, महादेव हैं और जिनों में श्रेष्ठ जिनेन्द्र देव हैं। आप महामोह से रहित एवं अठारह दोषों से रहित तीर्थंकर भगवान हैं। पुन: स्तोत्र के समापन में समुच्चय स्तुति के अन्दर 'अर्णोदण्डक' नामक तीस अक्षरी छन्द में माताजी ने पंचबालयतियों की पृथक वन्दना की है - प्रणतसुरपतिस्फुरन्मौलिमालामहारत्नमाणिक्यरश्मिच्छटारंजितां ! प्रभो। सुरभितभुवनोदरं त्वत्पदांभोरुहं प्राप्य भव्या जना: सौख्यपीयूषपानं व्यधुः। मुनिपतिनतवासुपूज्य: मल्लिर्जिनो नेमिपार्यो महावीरदेवश्च पंचेति ये। परिणयरहिता: कुमाराश्च निष्क्रम्य दीक्षावधूटीवरा भक्तितस्तान् सदा नौम्यहं6 ॥41 इस छन्द का सारांश यह है कि वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीरस्वामी ये पाँच तीर्थंकर विवाह न करके कुमार अवस्था में ही दीक्षा लेकर तपश्चर्यारूपी स्त्री के पति हो गये हैं। उन पाँच बालयति तीर्थंकरों को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करती हूँ सिद्धानाराध्य इत्यादि इस प्रकार यह कल्याणकल्पतरू स्तोत्र पढ़ने वाले भक्तों के लिये कल्याणकारी होगा और कल्पवृक्ष के समान इच्छित फल को प्रदान करेगा, यही मेरा विश्वास है। आराधना नामक आचार शास्त्र का सृजन - सन् 1977 (वी.नि.संवत् 2503) में पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र पर मूलाचार, आचारसार, अनगारधर्मामृत, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों के आधार से चार सौ चवालीस श्लोक प्रमाण एक 'आराधना' नाम से दिगम्बर जैन मुनि - आर्यिका आदि की चर्या बतलाने वाला आचारसंहिता ग्रन्थ रचा और उसका हिन्दी अनुवाद भी स्वय किया जो लगभग 150 पृष्ठों की पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुका है। 42 यह ग्रन्थ दर्शनाराधना. ज्ञानाराधना. चारित्राराधना. समाचारविधि नित्यक्रिया. नैमित्तिक क्रियाएँ, तप आराधना और आराधक नाम के आठ अधिकारों में निबद्ध है। इसका शुभारम्भ सिद्धानाराध्य .... इत्यादि मंगलाचरण से करके सर्वप्रथम एक श्लोक में आराध्य, आराधक, आराधना और उसका फल बतलाया है - रत्नत्रयं सदाराध्यं, भव्यस्त्वाराधक: सुधीः । आराधना युपाय: स्यात्, स्वर्गमोक्षौ च तत्फलम्।। 2 ।।43 अर्थ - सत् रत्नत्रय ही आराधना करने योग्य होने से 'आराध्य' है। बुद्धिमान भव्य ही आराधना करने वाला होने से 'आराधक' है। इसकी प्राप्ति का उपाय ही 'आराधना' है और स्वर्ग तथा मोक्ष ही 'आराधना का फल' है। वर्तमान में दुनिया भर में अपने को भगवान कहलाने वाले लगभग तीन सौ महानुभाव अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 21
SR No.526546
Book TitleArhat Vachan 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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