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नैराश्य मद में डबते नर के लिए नव आस हो। कोई अलौकिक शक्ति हो अभिव्यक्ति हो विश्वास हो॥ कलिकाल की नवज्योति हो उत्कर्ष का आभास हो।
मानो न मानो सत्य है तुम स्वयं में इतिहास हो॥ उपर्युक्त काव्यकृतियों के आधार पर यदि ज्ञानमती माताजी को "महाकवयित्री'' कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि वैदिक परम्परा में महाकवि कालिदास, भास,
माघ और बाणभट्ट का जो स्थान है, जैन परम्परा में अकलंकदेव, समन्तभद्र, अमृतचन्द्रसूरि, श्रीजयसेनाचार्य, ब्रह्मदेवसूरि आदि पूर्वाचार्यों की परम्परा का निर्वाह करने वाली साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का वही स्थान मानना चाहिए। उनके उत्कृष्ट त्याग और संयम ने उनके गद्य, पद्य, हिन्दी और संस्कृत के समस्त साहित्य में पूर्ण जीवन्तता उत्पन्न कर दी है।
जैसा कि कवि श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी ने महाकवि कालिदास को भारतीय काव्य का प्रथम कर्ता मानते हुए कहा है -
वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान।
निकलकर आँखों से चुपचाप, वही होगी कविता अनजान॥ लगता है कि इसी प्रकार से एक नारी हृदय की वीरता को ज्ञानमती माताजी की कृतियों ने उद्घाटित करके कलियुग की नारियों में चेतना का स्वर फूंका है। यही कारण है कि इनकी साहित्यसर्जना के प्रारंभीकरण के पश्चात् अन्य अनेक जैन साध्वियों ने भी साहित्यरचना के क्षेत्र में कदम बढ़ाए और उनकी कृतियों से भी समाज लाभन्वित हो रहा है। उपर्युक्त पंतजी की पंक्तियाँ इनके प्रति इस प्रकार घटित हो जाती हैं -
बालसति हैं जो पहली नार, आत्मबल ही जिनका आधार।
उन्होंने किया प्रभू गुणगान, बना यह साहित्यिक अवदान॥ संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में उनके द्वारा दिये गये अवदान को जैन समाज ही नहीं, संपूर्ण साहित्यजगत् कभी विस्मृत नहीं कर सकता है।
ज्ञानमती माताजी की समस्त कृतियों में संस्कृत साहित्य की भाषा भी अत्यंत सरल और सौष्ठवपूर्ण है और उसमें माधुर्य का भी समावेश है। उसमें प्राय: लम्बे समासों तथा क्लिष्ट पदावली का अभाव है। उनकी वाक्ययोजना सरल तथा प्रभावोत्पादक है। भाषा में कहीं अस्वाभाविकता के दर्शन नहीं होते। यही कारण है कि उनके श्लोकों एवं टीकाग्रन्थों को पढ़ते ही उनका अभिप्राय अथवा तात्पर्य शीघ्र ज्ञात हो जाता है।
इन समस्त विशेषताओं से परिपूर्ण आपकी कृतियाँ संसार में सभी को समीचीन बोध प्रदान करें तथा देवभाषा संस्कृत की अभिवृद्धि में कारण बने यहीं अभिलाषा है।
सन्दर्भ - 1. महापुराण, आचार्य जिनसेन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली 2. जिनस्तोत्र संग्रह, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला,
पुष्प क्रमांक 135, प्रकाशक - दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ), 1992, पृ. 319
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अर्हत् वचन, अप्रैल 2000