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________________ का प्रादुर्भाव हुआ है अत: सामान्य लोग कभी - कभी नाम साम्य से दिग्भ्रमित हो जाते हैं किन्तु इनकी कृतियाँ विलक्षण प्रतिभाओं से युक्त होने के कारण इनके व्यक्तित्व का भी बिल्कुल पृथक ही अस्तित्व झलकाती हैं। "ऋषभदेवचरितम्" एक साहित्यिक देन - मैं ज्यों-ज्यों इस लेख को समापन की ओर पहुँचाने का प्रयास कर रही हूँ, त्यों - त्यों लेख का विषय बढ़ता जा रहा प्रतीत होता है। किन्तु एक और साहित्यिक देन से पाठकों को अपरिचित रखना भी उचित नहीं होगा। उपर्युक्त कृतियों का उल्लेख करते समय स्मरण आया कि प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का जो जीवन चरित्र पूज्य माताजी ने संस्कृत में लिखा है उसका भी कुछ अंश प्रस्तुत करूँ अत: "ऋषभदेव चरितम्'' का नाम एक साहित्यिक कृति के रूप में उल्लिखित किया है। इस कृति में भगवान् ऋषभदेव के जीवन का उत्थान किस पर्याय से शुरू हुआ है और वे भगवान् की श्रेणी तक कैसे एवं कब पहुँचे, इन समस्त विषयों का वर्णन महापुराण ग्रन्थ के आधार से दिया है। राजा महाबल से लेकर तीर्थंकर ऋषभदेव तक उनके दशभवों का वर्णन देकर भोगभूमि और देवगति के सुखों का भी वर्णन किया है। युग की आवश्यकता को देखते हुए वर्तमान में पूज्य माताजी ने भगवान् ऋषभदेव एवं जैन धर्म के सिद्धान्तों को देश - विदेश में प्रसारित करने का जो बीड़ा उठाया है उसी के अन्तर्गत विद्वत्समाज की आवश्यकता की पूर्ति हेतु इस "ऋषभदेवचरित' का लेखन 11 दिसम्बर 1977 को प्रारंभ किया है। षट्खण्डागम टीका एवं अन्य लेखनकार्यों के साथ - साथ इसका भी कार्य मध्यम गति से चला और कभी-कभी तो बिल्कुल बन्द भी रहा तथापि यह समापन की श्रृंखला में है। लगभग 150 पृष्ठों में माताजी द्वारा लिखित इस कृति का हिन्दी अनुवाद मेरे द्वारा किया जा रहा है, जो शीघ्र ही विद्वत्समाज के समक्ष प्रस्तुत होगा। इसका प्रारंभीकरण शार्दूलविक्रीडित छन्द के इन भावों से हुआ है - सिध्दा ये कृतकृत्यतामुपगतास्त्रैलोक्यमूर्ध्नि स्थिताः । तीर्येशा: ऋषभादिवीरचरमास्त्रैकालिका ये जिनाः ॥ तान् सर्वान् हृदि संनिधाय चरितं चाप्यादिनाथस्य हि। भक्त्या श्रीऋषभस्य केचिद्गुणा: कीर्त्यन्त एवाधुना।। 1।। अर्थात् सिद्धिशिला पर विराजमान अनन्त सिद्धपरमात्मा तथा ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थंकरों को हृदय से धारण करके लेखिका ने तीर्थंकर ऋषभदेव का शुभचरित्र लिखने का संकल्प उपर्युक्त श्लोक में दर्शाया है जो उनकी ईश्वरभक्ति एवं आस्तिक्यगुण का परिचायक है। उपसंहार - अपने अभीक्ष्णज्ञानोपयोग में संलग्न पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी को जहां जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी होने का श्रेय प्राप्त है वहीं इनकी अनमोल साहित्य सेवा का मूल्यांकन करते हुए फैजाबाद (उ.प्र.) के डा. राममनोहर लोहिया विश्वविद्यालय ने इन्हें 5 फरवरी 1995 को एक विशेष दीक्षान्त समारोह में "डी. लिट्' की मानद उपाधि से अलंकृत कर अपने विश्वविद्यालय को गौरवान्वित अनुभव किया। इनके जीवन की विशेषता में निम्न पंक्तियाँ बिल्कुल सार्थक ठहरती हैं - अर्हत् वचन, अप्रैल 2000
SR No.526546
Book TitleArhat Vachan 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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