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नाम के दो सुयोग्य मुनिराजों को उनका अंशात्मक ज्ञान प्रदान किया जिसके फलस्वरूप उन्होंने 'षट्खंडागम' नामक सिद्धान्तशास्त्र का निर्माण किया। उल्लेखानुसार कतिपय अन्य आचार्यों ने भी उस पर टीकाएँ लिखीं। पुन: उनके सत्रों पर आज से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व (सन् 816 में हुए) श्रीवीरसेनाचार्य के द्वारा "धवला' नामक टीका (प्राकृत एवं संस्कृत मिश्रित) लिखी गई।
उनके पश्चात् षट्खण्डागम सूत्रों पर किसी भी आरातीय आचार्य अथवा विद्वान ने लेखनी चलाने का उपक्रम नहीं किया था, वह उद्यम इस सदी की ऐतिहासिक नारी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने कर दिखाया है। 8 अक्टूबर सन् 1995 को शरदपूर्णिमा के पावन दिवस पर उन्होंने इस षट्खण्डागम सूत्रग्रन्थ का मंगलाचरण लिखकर एक सरल संस्कृत टीका लिखने का प्रारंभीकरण किया और मात्र 135 दिन में प्रथम खण्ड की एक पुस्तक में निहित 177 सूत्रों की संस्कृत टीका (फुलस्केप कागज के) 163 पृष्ठों में लिखकर पूर्ण कर दी। जो मेरे द्वारा की गई हिन्दी टीका समेत 5 अक्टूबर 1998 को ग्रन्थरूप में प्रकाशित हो चुकी है।56
इस टीका का नाम पूज्य माताजी ने "सिद्धान्तचिन्तामणि' यह सार्थक ही रखा है। पिछले तीन वर्षों में इन्हीं षट्खण्डागम के दो खण्डों की 7 पुस्तकों की टीका पूर्ण कर चुकी हैं और वर्तमान में आठवीं पुस्तक (तृतीय खण्ड) का लेखन चल रहा है, वह भी पूर्णप्राय होने वाला है। इनकी संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है -
षटखण्डागम के प्रथम खण्ड में छह पुस्तकें हैं जिनकी सूत्र संख्या 2375 है। द्वितीय खण्ड में सातवीं पुस्तक है उसकी सूत्र संख्या 1594 है। तृतीय खण्ड में आठवीं पुस्तक है उसकी सूत्र संख्या 324 है।
इस प्रकार कुल चार हजार दो सौ तिरानवे (4293) सूत्रों की संस्कृत टीका हो चुकी है इनकी हिन्दी टीका का कार्य चालू है जो यथा समय प्रकाशित होकर ग्रन्थरूप में पाठकों के हाथों तक पहुँचेगे। लगभग प्रन्द्रह सौ पृष्ठों में आठ पुस्तकों की संस्कृत टीका लिखी जा चुकी है।
इन्होंने अपने टीकाग्रन्थ के मंगलाचरण में भी सर्वप्रथम "सिद्धान्' शब्द का प्रयोग किया है जो इनकी कार्यसिद्धि का प्रबल हेतु प्रतीत होता है। वह अनुष्टुप् छन्द यहाँ देखें
सिद्धान् सिद्ध्यर्थमानम्य, सर्वांस्त्रैलोक्यमूर्ध्वगान्।।
इष्टः सर्वक्रियान्तेऽसौ, शान्तीशो हृदि धार्यते॥.1057 प्रथम पुस्तक की टीका के समापन में माताजी ने प्रथम और अंतिम तीर्थंकर का स्मरण करते हुए लिखा है कि -
जीयात् ऋषभदेवस्य, शासनं जिनशासनम्। ___ अन्तिमवीरनाथस्या - प्यहिंसाशासनं चिरम्।। 1 158 इसी प्रकार ग्रन्थ की अंतिम प्रशस्ति में माताजी ने अपनी गुरूपरंपरा का किंचित परिचय प्रदान किया है जो गुरूभक्ति के साथ ही इनके टीकाकाल की प्रमाणता का भी परिचायक है।
बीसवीं सदी में जब इन्होंने प्रथम कुमारी कन्या के रूप में आर्यिका दीक्षा धारण कर "ज्ञानमती" नाम प्राप्त किया तब तक "ज्ञानमती" नाम से कोई भी आर्यिका - क्षुल्लिका नहीं थीं। किन्तु उसके बाद कुछ अन्य संघों में भी "ज्ञानमती" नाम की एक - दो आर्यिकाओं 26
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000