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सूक्ष्मता से किया है। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने संभवत: इसीलिए नियमसार ग्रन्थ को अपने कार्यक्षेत्र का विशेष अंग बनाया है कि कुन्दकुन्द स्वामी के प्रति लोगों की जो भ्रान्त धारणा है कि वे मात्र आध्यात्मिक थे और उन्होंने अध्यात्मग्रन्थ ही लिखे हैं वह इस नियमसार ग्रन्थ के स्वाध्याय से निकल जानी चाहिए।
नियमसार की इस टीका में आचार्य श्री जयसेन स्वामी की समयसार, प्रवचनसार आदि की तात्पर्यवृत्ति टीका पद्धति की पूरी छाप दिखती है। यह अत्यंत सरल और प्रभावक तो है ही, साथ ही अनेक ग्रन्थों के प्रमाण इसकी प्रमाणिकता को द्विगुणित करते हैं। पण्डित मक्खनलाल जी ने कहा - आप श्रुतकेवली हैं -
सन 1978 के एक प्रशिक्षण शिविर में जैन समाज के उच्चकोटि के लगभग 100 विद्वान हस्तिनापुर पधारे थे तब पूज्य माताजी के द्वारा लिखी जा रही इस टीका को देखकर उन लोगों ने महान आश्चर्य व्यक्त किया और मुरैना के पंडित मक्खनलाल जी शास्त्री तो हर्ष से उछल पड़े और बोले कि "माताजी"! आप तो इस पंचमकाल की श्रतकेवली हैं, क्योंकि आज तक जो कार्य हम विद्वान भी नहीं कर पाये, वह आपने कर दिखाया है।"
इसी प्रकार पं. फूलचन्द जैन सिद्धान्तशास्त्री - बनारस ने सन् 1986 में माताजी की अस्वस्थता के समय इस ग्रंथ का पूरा स्वाध्याय पूज्य माताजी के सानिध्य में किया तो वे भी कहने लगे कि "माताजी ने पूर्णरूप से आर्ष परम्परा का अनुसरण करते हुए
[ का लेखन किया है अत: इसमें शंका की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है।"
अनेक विद्वान एवं स्वाध्यायियों ने ग्रंथ का स्वाध्याय करके अपने अच्छे - अच्छे विचार प्रगट किये हैं जिन्हें यहाँ देना संभव नहीं हो पा रहा है।
वर्तमान में इस ग्रंथ की टीका पर पण्डित श्री शिवचरणलाल जैन - मैनपुरी एक हत्काय शोधप्रबन्ध लिख रहे है जो शीघ्र ही पाठकों के समक्ष प्रस्तत होगा। कल मिलाकर नियमसार ग्रन्थ की "स्याद्वादचन्द्रिका'' टीका इस बीसवीं सदी की एक अनोखी उपलब्धि है, जिसके विषय में टीकाकी स्वयं लिखती है कि -
"अयं ग्रन्थो नियमकुमुदं विकासयितुं चन्द्रोदय: तस्य चन्द्रोदयस्य (ग्रन्थस्य) टीका चन्द्रिका।" अथवा द्वितीय व्युत्पत्ति इस प्रकार भी है -
"यतिकैरवाणि प्रफुल्लीकर्तुं राकानिशीथिनीनाथत्वात् यतिकैरवचन्द्रोदयोऽस्ति। अस्मिन् पदे पदे व्यवहारनिश्चयनययोंर्व्यवहारनिश्चयक्रिययोर्व्यवहारनिश्चयमार्गयोश्च परस्परमित्रत्वात् अस्य विषय: स्याद्वादगीकृतो वर्ततेस्य टीका चन्द्रोदयस्य चन्द्रिका इव विभासतेऽतो स्याद्वादचन्द्रिका नाम्ना सार्थक्यं लभते''51
अर्थात सारांश यह है कि माताजी ने स्वरचित टीका का नाम "स्याद्वादचन्द्रिका' बड़ी सूझ - बूझ के साथ रखा है। टीका के एक - एक प्रकरण हृदयग्राही हैं जो ग्रंथ के स्वाध्याय से ही ज्ञात हो सकते हैं। लगभग छह सौ पृष्ठों में प्रकाशित यह "नियमसार प्राभृत' ग्रन्थ इस युग को एक अपूर्व देन है।
इस वृहत्कार्य के पश्चात् भी पूज्य माताजी ने साहित्यिक कार्यों से विराम नहीं लिया प्रत्युत् समयोचित ग्रन्थों का सृजन भी करती रहीं और यदा - कदा संस्कृत स्तुति, भक्ति आदि का लेखन भी चलता रहा अत: संस्कृत काव्य श्रृंखला में पुन: संख्या वृद्धि हुई। दशलक्षण भक्ति (12 श्लोक), मंगलचतुर्विंशतिका (शार्दूलविक्रीडित के 25 श्लोक),
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अर्हत् वचन, अप्रैल 2000