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संपादकीय
अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
सामयिक सन्दर्भ
अनेक झंझावातों के बीच निर्बाध रूप से चल रही अर्हत् वचन की विकास यात्रा के 46 वें पड़ाव पर हम अपने पाठकों का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। तीर्थंकर भगवान महावीर की जन्मजयंती के परम पावन पुनीत अवसर (19.4.2000) पर आप सभी पाठकों को हार्दिक बधाई!
29 जून 1780 को जेम्स हिक्की द्वारा "बंगाल गजट" साप्ताहिक के प्रकाशन से प्रारंभ हुई भारतीय पत्रकारिता की विकास यात्रा में जैन पत्र/पत्रिकाओं का विशिष्ट योगदान रहा है। प्राप्त सूचनानुसार हिन्दी भाषा का प्रथम पत्र 30 मई 1826 को श्री युगल किशोर शुक्ल के संपादकत्व में "उदन्त मार्तण्ड' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसके लगभग 54 वर्षों के बाद 'जैन पत्रिका' का प्रयाग से 1880 में प्रकाशन हुआ किन्तु इसके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। "जीयालाल प्रकाश' और 'जैन' शीर्षक 2 पत्र 1884 में प्रकाशित हुये। इसी वर्ष हिन्दी एवं मराठी में द्विभाषी 'जैन बोधक' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो आज भी शोलापुर से सौ. शरयू दफ्तरी के कुशल संपादकत्व में प्रकाशित हो रहा है। वर्ष 2000 में इस पत्र के गौरवपूर्ण प्रकाशन का 115 वाँ वर्ष चल रहा है। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा का मुख पत्र 'जैनगजट' जहाँ यशस्वी तथा निर्भीक संपादक एवं मूर्धन्य विद्वान प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन के संपादकत्व में 104 वें वर्ष में गतिमान है वहीं कापड़िया परिवार के अहर्निश श्रम एवं सतत् प्रयासों से 'जैनमित्र' ने प्रकाशन का 100 वां वर्ष पूर्ण कर 101 वें वर्ष में प्रवेश पा लिया है। सम्प्रति भाई श्री शैलेष - डाह्या भाई कापड़िया के सुयोग्य संपादकत्व में "जैन मित्र' ने समय पर प्रकाशित होने की एक विशिष्ट पहचान बनाई है। शोध पत्रिकाओं के क्षेत्र में भी 'जैन हितैषी', 'जैन दर्शन', 'जैन सिद्धांत भास्कर', 'The Jaina Antiquary', 'अनेकांत', 'जैन संदेश' एवं 'जैन पथ प्रदर्शक' के शोधांकों आदि ने जैन साहित्य और संस्कृति की अप्रतिम सेवा की है।
मैंने ऊपर की पंक्तियों में जैन पत्रकारिता के इतिहास की संक्षिप्त चर्चा की। वस्ततः मझे यह लिखते हये गर्व की अनभति हो रही है कि जैन पत्रकारिता का इतिहास अत्यंत गौरवपूर्ण है। पं. नाथूराम 'प्रेमी', पं. जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर', डा. हीरालाल जैन, डा. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, डा. नेमिचन्द्र जैन शास्त्री ज्योतिषाचार्य, डा. ज्योतिप्रसाद जैन, डा. कस्तूरचंद कासलीवाल जैसे मूर्धन्य मनीषी विद्वान जैन पत्रकारिता के स्तंभ रहे हैं। इन्होंने अपनी लेखनी से जैन साहित्य, संस्कृति एवं समाज की अतुलनीय सेवा की है। इतिहास एवं पुरातत्व पर जमी धूल की परतों को हटाकर सत्य को अनावृत तो किया ही सुषुप्त सामाजिक चेतना को झकझोरते एवं सड़ी गली परंपराओं तथा रूढ़ियों को ध्वस्त करते हुये प्रगति के नये आयामों के द्वार भी खोले।
जैन पत्रकारिता के 100 साल के इतिहास में अनेक उतार - चढ़ाव आये हैं। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा तथा दिगम्बर जैन परिषद की विचारधाराओं में टकराव, तेरापंथ - बीसपंथ, चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज द्वारा संस्कृति संरक्षण हेतु लिये गये कठोर निर्णयों की जैन पत्रों में चर्चा रही और इन पर खुलकर बहस भी हुई लेकिन वर्तमान में जैन संघ के लिये संक्रांति का काल
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000