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________________ चल रहा है। यदि एक ओर युवा वर्ग में दीक्षा लेकर मुनि, आर्यिका बनने की प्रवृत्ति बढ़ रही है तो दूसरी ओर मुनिसंघों में बढ़ते शिथिलाचार की यत्र-तत्र-सर्वत्र चर्चा हो रही है। जैन विद्याओं के अध्ययन एवं अनुसंधान कार्य में लगे समर्पित मनीषी साधकों के सम्मुख भी कई बार उलझन भरी स्थिति आ जाती है। राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही नहीं जैन समाचार पत्र-पत्रिकायें भी कई बार तो वास्तविक किन्तु कई बार अतिरंजित समाचार भी प्रकाशित कर देते हैं। सम्प्रति आलोचना प्रधान लेखन एक फैशन बनता जा रहा है हर लेखक शिथिलाचार एवं आगम विरूद्ध चर्या के विरोध में लिखने के साथ चतुर्विध संघ को अपनी राय देने लगा है ऐसे व्यक्ति जिन्हें न तो सामाजिक जीवन का विशेष अनुभव है और न सामाजिक पुनर्रचना अथवा संस्कृति संरक्षण में उनका कोई उल्लेखनीय योगदान है वे भी 'रायचंद' बनकर अपनी राय देने लगे हैं। विद्या वयोवृद्ध विद्वानों, पत्रकारों, समाजसेवियों जिन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष समाज या साहित्य की सेवा में समर्पित कर दिये, जिन्हें आगम की व्यवस्थाओं तथा समाज की प्रकृति का सूक्ष्म ज्ञान है वे जब श्रमण संघ के व्यापक हित को दृष्टिगत करते हये शिथिलाचार पर कुछ लिखते हैं तो समाज को उस पर तत्काल और पूरा ध्यान देना चाहिये साथ ही निर्णय लेकर उसका क्रियान्वयन भी सुनिश्चित करना चाहिये, किन्तु हर किसी के द्वारा इस विषय पर लेख लिखने से समाज का अहित ही होता है। जैनेत्तर समाज में तो हम हँसी के पात्र बनते ही हैं हमारे समाज की युवा पीढ़ी की श्रद्धा भी डगमगा जाती है। गत एक शताब्दी की यात्रा में जैन पत्रकारिता अव्यावसायिक एवं स्वान्त: सुखाय बनी रही। अवैतनिक सम्पादक, कार्यालयीन सुविधाओं के अभाव, घटिया कागज सी-पिटी मुद्रण व्यवस्थाओं के बावजूद उच्च आदर्श कायम करना जैन पत्रकारिता की बड़ी उल्लेखनीय उपलब्धि है। किन्तु आज परिस्थितियाँ एवं चुनौती गम्भीर है। तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ द्वारा प्रकाशित "संपर्क" डायरेक्ट्री की सूचनानुसार जैन समाज द्वारा वर्तमान में 412 पत्र - पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है जिनकी आवृत्तियाँ दैनिक से लेकर वार्षिक तक है। ये पत्र-पत्रिकायें हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल आदि भाषाओं में प्रकाशित हैं। ये सब मिलकर यदि रचनात्मक लेखन की ओर प्रवृत्त हों तो समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकते हैं। जातीय संगठनों की पत्रिकाओं को अपनी जाति विशेष, साध विशेष द्वारा प्रायोजित, संपोषित पत्रिकाओं को उस साधु अथवा उससे संबद्ध संघ तथा किसी संस्था विशेष की पत्रिका को उस संस्था की गतिविधियों को तो प्रमुखता देनी ही होगी किन्तु वह जैन समाज की समग्र छवि को उन्नत करने वाले राष्ट्र एवं समाज निर्माण में जैन बंधुओं द्वारा प्रदत्त योगदान अथवा जैन ट्रस्टों, संस्थाओं द्वारा चलाई जा रही जनकल्याणकारी गतिविधियों, प्राचीन एवं अर्वाचीन जैन आचार्यों, मुनियों, आर्यिकाओं त्यागीव्रती पुरुषों द्वारा किये जा रहे जनकल्याणकारी कार्यों को भी प्रमुखता से प्रकाशित करें तो समाज का अधिक हित होगा। जैन साहित्य में निहित जीवन पद्धति की प्रासंगिकता, जैन सिद्धांतों की उपादेयता, जैन पाण्डुलिपियों, जैन साहित्य एवं इतिहास के अनावृत पक्षों को उजागर करने से जहाँ नई पीढ़ी के ज्ञान में वृद्धि होगी वहीं इतिहास का भी संरक्षण होगा। समग्र जैन समाज की एकता एवं संपूर्ण जैन समाज के हित के कार्यों में पारस्परिक सहयोग एवं समन्वय विकसित करना हम सब का कर्तव्य तो है ही, जिम्मेदारी भी है। यदि समाज का हर घटक दूसरे का विरोध करने में शक्ति लगाने के बजाय अर्हत् वचन, अप्रैल 2000
SR No.526546
Book TitleArhat Vachan 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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