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________________ महिमा स्तुति के प्रथम छन्द में ही निहित है - विहित विमल - सम्यक्खड्गधाराव्रतः प्राक् । भव इह न हि कांतासक्तचेता निकामः ॥ इह भरतधरायामंतिमः केवली तम् । त्रिभुवननुतजम्बूस्वामिनं स्तौमि भक्त्या ॥ 1 ॥ 8 अर्थात् जम्बूस्वामी के पूर्वभव के कथानक का भी इसमें संकेत है कि पहले भव में भी आपने असिधाराव्रत का पालन किया था इसीलिए इस भव में भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर आप इस भरत क्षेत्र के अंतिम अनुबद्ध केवली प्रसिद्ध हुए हैं। इसी प्रकार श्रीमहावीर स्तुति, चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की, आचार्य श्री शिवसागर महाराज की और युग की प्रथम गणिनी आर्यिका ब्राह्मी माता की स्तुतियाँ भी क्रमश: सांगत्यराग भुजंगप्रयातं छंद, बसंततिलका एवं अनुष्टुप् छंद में 41 श्लोकों में रची है जो उन उन के गुणों की परिचायक हैं तथा ज्ञानमती माताजी की संस्कृत साहित्य के प्रति अविस्मरणीय देन है। ' स्तोत्र साहित्य की श्रृंखला में सन् 1965 में आर्यिकाजी ने उपर्युक्त 6 स्तोत्रों में एक सौ ग्यारह (111) श्लोकों की रचना करके मानों 108 कर्मास्रव रोकने एवं रत्नत्रय की पूर्ण प्राप्ति का ही निवेदन भगवान् बाहुबली से किया है। इनके अतिरिक्त वहां बाहुबली का हिन्दी पद्यात्मक चारित्र भी 111 पद्यों में लिखा, जो स्टूडियो से रेकार्डिंग होकर आकाशवाणी से प्रसारित भी हो चुका है। 10 कर्नाटक में जाते ही आपने कुछ पुस्तकों के माध्यम से वहाँ की प्रादेशिक कन्नड़ भाषा सीख ली और तुरंत बाहुबली भगवान की तथा अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की स्तुति कन्नड़ में बनाई और एक कन्नड़ की सुन्दर बारहभावना लिखी जो उधर अत्यधिक प्रचलित हुई है। उससे पूर्व उधर कन्नड़ की बारह भावना शायद कोई थी ही नहीं, इसीलिए यह बारह भावना सबके आकर्षण का केन्द्र बन गई। ऐसी कुछ फुटकर रचनाऐं और भी हुई किन्तु वे पुरानी कापियों में ही छिपकर रह गईं, प्रकाशित न हो पाने से अब उनकी उपलब्धि ही नहीं है, केवल पूज्य माताजी से मैंने सुना ही है। जन्मदिन की सार्थकता संस्कृत साहित्य रचना से - संसार के सामान्य प्राणियों की भांति जन्म लेना और आयु के क्षणों को व्यतीत कर प्रयाण कर जाना कोई विशेष बात नहीं है। पूज्य ज्ञानमती उन सामान्य आत्माओं में से न होकर प्रारंभ से ही विलक्षण प्रतिभा की धनी हैं, तभी तो 7-8 वर्ष की उम्र से ही सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध आन्दोलन कर अपने माता पिता को ही उनसे दूर नहीं किया प्रत्युत गाँव में जिनेन्द्र भक्ति का शंखनाद कर दिया। उसका प्रभाव आज भी टिकैतनगर तथा आस-पास के गाँवों में दृष्टिगत होता है। - दूसरी बात प्राचीन बालसतियों के कथानक पढ़कर उसे अपने ही जीवन में साकार करना इनके ही बस की बात थी अन्यथा इस भौतिकवादी युग में ऐसे कठोर त्याग की बातें सुनना भी सुकुमारिकाएं पसन्द नहीं करती हैं। 47 वर्षों से निरंतर गर्मी, सर्दी, बरसात आदि सहन करते हुए मात्र एक श्वेत साड़ी में रहना, जीवन भर नंगे पैर चलना, चौबीस घंटे में एक बार रूखा सूखा भोजन करपात्र में लेना, प्रत्येक 3 से 4 माह के भीतर सिर के केशों को उखाड़ कर केशलोंच करना, चटाई, पाटे अथवा घास में सो कर शीत अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 13
SR No.526546
Book TitleArhat Vachan 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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