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आलंकारिक सौन्दर्य भरा है स्तुतियों में -
सन् 1963 में आपने आर्यिका ज्ञानमती माताजी के रूप में अपने आर्यिकासंघ के साथ सम्मेदशिखर यात्रा के लिए आचार्य श्री शिवसागरजी के संघ से पृथक विहार किया पुन: कलकत्ता और हैदराबाद चातुर्मास करके सन् 1965 में कर्नाटक प्रान्त के श्रवणबेलगोला तीर्थ पर पहुँची। संघ में उस समय आपके अतिरिक्त आर्यिका जिनमतीजी, आर्यिका आदिमतीजी, आर्यिका पद्मावतीजी, क्षुल्लिका श्रेयांसमतीजी और क्षुल्लिका अभयमतीजी थीं।
इनमें से कुछ माताओं की अस्वस्थता के कारण आपका श्रवणबेलगोला में एक वर्ष तक (चातुर्मास सहित) प्रवास रहा अत: भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में ध्यान करने का अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ ध्यान में तेरहद्वीप रचना एवं जम्बूद्वीप की उपलब्धि के साथ - साथ आपकी काव्यप्रतिभा भी विशेष रूप से ऐसी प्रस्फुटित हुई कि वह अविरल प्रवाह रूप से चलती आ रही है। वहाँ सर्वप्रथम 'श्री बाहुबलिस्तोत्रम्'4 नाम से भगवान बाहुबली की स्तुति बसन्ततिलका के इक्यावन (51) छन्दों में रची जिसमें अलंकारों की बहुलता ने रत्नजटित आभूषणों से सुसज्जित सुन्दर कन्या की भाँति लालित्य प्रकट किया है। इस स्तोत्र का शुभारंभ आपने इस प्रकार किया है -
सिद्धिप्रदं मुनिगणेन्द्रशतेन्द्रवंधे। कल्पद्रुमं शुभकरं धृतिकीर्तिसम॥
पापापहं भवभृतां भववार्धिपोत - मानम्य पादयुगलं पुरूदेवसूनोः ।। 1। स्तोत्र रचयित्री का यह अपना मत है कि कार्य के प्रारंभ में सिद्ध या सिद्धि शब्द के प्रयोग से वह सिद्धिप्रदायक तथा निर्विघ्न कार्यपूर्णता का परिचायक होता है। इसीलिए उनकी संस्कृत और हिन्दी की लगभग समस्त साहित्यिक कृतियों में सिद्ध शब्द से ही रचना की शुरूआत हुई है।
इस बाहुबलि स्तोत्र में बाहुबलि भगवान के गुणवर्णन के साथ - साथ उनके शरीर का वर्ण, ऊँचाई, सुन्दरता तथा उनकी ध्यानस्थ अवस्था का बड़ा सुन्दर वर्णन है। श्रवणबेलगोला में विराजमान अतिशयकारी 57 फुट उत्तुंग बाहुबली प्रतिमा के समक्ष बैठकर ही यह स्तोत्र लिखा गया है इसीलिए उनकी छवि भी इसमें वर्णित है - मूर्तिः प्रभो। निरूपमा सुयशोलताभिर्युक्ता सुबाहुबलिनो जिनपस्य तेऽत्र।
तिष्ठेच्चिरं जयतु जैनमतश्च नित्यं,
चामुंडराजसितकीर्तिलतापि तन्यात्।। 50॥ इसी के हिन्दी पद्यानुवाद में लेखिका संस्कृत का भाव प्रगट करती हैं कि -
प्रभो। आपकी मूर्ती अनुपम सुयशलताओं से वेष्टित। , हे बाहूबलि। हे जिनपति। तव मूर्ती तुंग सतावन फुट।
तिष्ठे भूपर चिर कालावधि जैनधर्म जयशील रहे।
चामुंडराय की उज्ज्वल कीर्तिबेली भी विस्तार लहे। सन् 1965 के इसी प्रवास काल में माताजी ने वहां मालिनी छन्द के 8 श्लोकों में श्रीजम्बूस्वामी की संस्कृतस्तुति लिखी है जो इस युग के अंतिम केवली बनकर मथुरा चौरासी से मोक्ष गये हैं। उन जम्बूस्वामी की रोमांचक कथा शास्त्रों में बहुप्रचलित है कि वे चार सुन्दरी कन्याओं के साथ विवाह करके प्रथम सुहागरात में भी कामभोग में लिप्त न होकर अखंड ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहे और प्रात: जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। उनकी
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000