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परीषह सहना आदि दिगम्बर जैन साध्वी की चर्या का उत्कृष्टता के साथ पालन करना एक कुमारी कन्या की दृढ़ इच्छाशक्ति का ही प्रतीक है।
इन्होंने शरदपूर्णिमा के दिन शारीरिक जन्म को ही धारण नहीं किया बल्कि सन् 1952 में जब गृहत्याग कर ब्रह्मचर्य दीक्षा ग्रहण की तब उस दिन भी शरदपूर्णिमा ही थी और माँ मोहिनी ने उस समय कहा था कि बेटी! आज तूने जीवन के 18 वर्ष पूर्ण कर 19 वें वर्ष में प्रवेश करते समय जो यह ''भीष्मप्रतिज्ञा'' स्वीकार की है उसके लिए मेरी शमकामनाएँ सदैव तेरे साथ हैं। इस प्रकार शरदपर्णिमा तिथि इनकी संयम बन गई और ज्ञान की चाँदनी से आलोकित होकर ये जन - जन को ज्ञान वितरित करने वाली महासती ब्राह्मी माता के समान प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई।
अपने जन्मदिवस पर कभी कोई ख्याति, पूजा की इच्छा न रखते हुए भगवान् जिनेन्द्र के श्रीचरणों में कोई न कोई अपना भक्ति साहित्य का पुष्प समर्पित करने लगीं। यह मौन झलक इनके द्वारा रचित स्तोत्रों की श्लोकगणना में मिलती है, जैसे सन 1966 के सोलापुर चातुर्मास में इन्होंने शरदपूर्णिमा के दिन जन्म के 32 वर्ष पूर्ण कर 33 वें वर्ष में प्रवेश किया था अत: वहाँ उस दिन एक "चन्द्रप्रभस्तुति" के 32 छन्द भुजंगप्रयात, शिखरिणी, पृथ्वी, द्रुतविलम्बित छन्द में बनाकर 33 वें "शार्दूलविक्रीडित छन्द'' में भाव व्यक्त किये हैं -
मुक्ति श्रीललनापति: शुभशरत्पूर्णकचंद्रो जिनः। मोहैकाहिविष प्रभूर्च्छितजनान् पुष्यन्सुधावर्षणैः ।। श्रीचन्द्रप्रभ एष चेत्खलु, मया स्तूयेत भक्त्या मयि।
पूर्णज्ञानमतीव तर्हि परमानंदात्मकं प्रस्फुरेत्।। 33111 अर्थात् शरदऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान गुणों से परिपूर्ण हे चन्द्रप्रभु भगवान् ! मुझमें भी पूर्णज्ञान का विकास कीजिए।
इस स्तुति में रचयित्री की 32 वर्ष पूर्व की रोमांचक गाथा छिपी है उसे प्रसंगोपात्त यहाँ स्पष्ट करना उचित ही होगा -
सन् 1952 में आचार्य श्री देशभूषण महाराज का चातुर्मास बाराबंकी शहर में हो रहा था। वहाँ सरावगी मोहल्ले में एक दिगम्बर जैन पंचायती बड़ा मंदिर है जहाँ एक वेदी में भगवान् चन्द्रप्रभ की लगभग 2- फुट की श्वेतपाषाण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। पूज्य ज्ञानमती माताजी के ऊपर क. मैना की अवस्था में जब ब्रह्मचर्य व्रत लेते समय समाज और परिवार के घोर विरोध आए तो ये भगवान के मंदिर में जाकर चन्द्रप्रभ भगवान की शरण में चतुराहार त्याग करके बैठ गईं और कहने लगीं कि हे प्रभो! मेरे गृहत्याग करने के मनोरथ सिद्धि तक अन्नजल का त्याग है तथा अब घर जाकर विवाह बंधन में फंसना मुझे कदापि स्वीकार नहीं है।
सदी की यह प्रथम घटना होने के कारण ही शायद इन्हें विरोध का सामना करना पड़ा था जब जनता का वातावरण देखकर आचार्यश्री ने भी कह दिया था कि इस लड़की को उठाकर घर ले जाओ, मैं इसे व्रत नहीं दूंगा।
___ ज्ञानमती माताजी बताती हैं कि उस समय मेरे दिल पर बहुत चोट पहुँची कि अब तो गुरु का सहारा भी छूट गया है फिर भी भगवान् चन्द्रप्रभु के भरोसे अपनी नैया डाल दी और मुझे लगा कि ये भगवान मुझे मेरी रक्षा करने का आश्वासन दे रहे हैं
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000