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परिचय प्राप्त हो सकता है, जो पूरे देश में "धरती का स्वर्ग' माना जाता है।
संस्कृत साहित्य की रचना के अन्तर्गत इन्होंने सन् 1972 के चातुर्मास में एक 'चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रम्" 28 नाम से उपजाति छन्द के 25 श्लोकों में चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों की स्तुति लिखी, अनुष्टुप् के 25 छन्दों में एक 'श्रीतीर्थकरस्तुति' 29 रची। इसमें संक्षेप में चौबीस जिनवरों की वन्दना निहित है। दिल्ली में उस समय उनके क्षुल्लिका दीक्षा अवस्था के गुरू भारतगौरव आचार्य श्री देशभूषण महाराज भी विराजमान थे। लगभग 17 वर्षों के पश्चात गुरू के दर्शन की खुशी में ही मानो इन्होंने 10 श्लोकों की एक स्तुति गुरूचरणों में समर्पित की थी। 30
आचार्यश्री ने इनकी अलौकिक प्रतिभा तथा अनेक कृतियों का सृजन देखकर भावविभोर होकर आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा - ज्ञानमती! तुम इस युग की वह महान वीरांगना कन्या हो जिसका नाम इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर लिखा जाएगा।
इसी सन् 1972 के चातुर्मास में इन्होंने करणानुयोग से सम्बन्धित ग्रन्थ "त्रिलोकभास्कर'' 31 लिखा पुन: 1973 में अनुष्टुप छन्द के 41 श्लोकों में एक 'गणधरवलयस्तुति:" 32 बनाई
और 'कातन्त्ररूपमाला' 33 नाम की संस्कृत जैन व्याकरण, भावसंग्रह, भावत्रिभंगी, आस्रवत्रिभंगी नामक संस्कृत ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद कर जनसाधारण को उनके अध्ययन का लाभ प्राप्त कराया 34 तथा एक मौलिक ग्रन्थ "न्यायसार'" 35 लिखा जो न्यायग्रन्थों के ज्ञान प्राप्त कराने हेतु कुंजी के समान है। इनके साथ ही आचार्य श्री पूज्यपाद रचित संस्कृत व्याकरण "जैनेन्द्रप्रक्रिया" का हिन्दी अनुवाद भी प्रारंभ किया था जो लगभग आधा होने के बाद अन्य कार्य व्यस्तता से छूट गया था वह अब तक भी अधूरा ही है। इनमें से कातंत्रव्याकरण ग्रन्थ का प्रकाशन होने के बाद समस्त साधु संघों में उसका खूब अध्ययन / अध्यापन चल रहा है।
पूज्य माताजी ने चूँकि अब तक बालक, युवा, प्रौढ़, वृद्ध, विद्वान, भक्त आदि सभी की रूचि और आवश्यकता को देखते हुए उपन्यास, साहित्य, सिद्धान्त, नाटक, पूजा विधान, अध्यात्म आदि के लगभग दो सौ ग्रन्थ लिखे हैं। उन सबकी चर्चा यहाँ न करके मैं उनके द्वारा रचित मात्र संस्कृत साहित्य के विषय में ही प्रकाश डालूँगी जो प्रसंगोपात्त
स्तुति साहित्य रचना की श्रृंखला में सन् 1974 से 1977 के मध्य इन्होंने स्रग्धरा छन्द में "श्रीमहावीरस्तवनम्" (6 श्लोक), बसन्ततिलका छन्द में सुदर्शन में "मेरूभक्ति" (5 श्लोक), अनुष्टुप छन्द में "निरंजनस्तुति" (51 श्लोक), "कल्याणकल्पतरू स्तोत्रम्" (212 श्लोक), "वन्दना'' (9 श्लोक), "श्री त्रिंशच्चतुर्विंशतिनामस्तवनं" (130 श्लोक) आदि रचनाएं की हैं। 36 इनमें त्रिंशतचतुर्विंशतिमान स्तवन में सहस्रनामस्तोत्र की तरह से 10 श्लोकों में प्रथम पीठिका है पुन: अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध दश अधिकार हैं जिनके 1-1 अधिकार में एक- एक क्षेत्र सम्बन्धी त्रैकालिक चौबीस के बहत्तर - बहत्तर तीर्थंकरों के नाम हैं और अंत में आठ (8) श्लोक की अष्टप्रार्थना में पंचकल्याणकों से युक्त तीर्थंकर पद प्राप्ति का उत्कृष्ट भाव प्रगट किया है तथा तीन श्लोकों की प्रशस्ति में स्तोत्ररचना का काल वीर निर्वाण संवत् पच्चीस सौ तीन (सन् 1977) का माघ शुक्ला चतुर्दशी तिथि लिखी है जो हस्तिनापुर तीर्थ के प्राचीन मंदिर में लिखी गई कृति है।
इसी चातुर्मास में इन्होंने तीसचौबीसी के सात सौ बीस (720) तीर्थंकरों के नाममंत्र भी बनाए जो अलग - अलग तीस पैराग्राफ में हैं। तीसचौबीसी का व्रत करने वालों के लिए उपर्युक्त स्तोत्र और मंत्र बहुत ही उपयोगी रहते हैं। इसी प्रकार पाँच महाविदेहक्षेत्रों में सदैव
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000
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