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से यह अष्टसहस्री ग्रन्थ तीन भागों में प्रकाशित हो चुका है। इसकी हिन्दी टीका का नाम है - स्याद्वादचिन्तामणि टीका। ग्रन्थ की महनता और उसके अनुवाद की सरलता देखकर मुझे तो यह प्रतीत हुआ कि अपनी स्वतंत्र कृति की रचना में अपने ज्ञान का उपयोग करना तो सरल है किन्तु दूसरों की कृति के कठिनतम रहस्य को समझकर उसका अनुवाद करना अत्यन्त दुरूह कार्य है। यदि यह कार्य कुछ बुद्धिजीवियों के द्वारा संभव न होता तो संभवत: संस्कृत साहित्य के विकास में भीषण रूकावट उत्पन्न हो सकती थी। इस दुरूह कार्य को अपने अथक परिश्रम से ज्ञानमती माताजी ने सरल रूप में उपलब्ध कराकर वास्तव में संस्कृत साहित्य के विस्तारीकरण में अपूर्व योगदान प्रदान किया है।
न्यायदर्शन के जिज्ञासुओं को अष्टसहस्री के तीनों भागों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। आचार्यश्री विद्यानन्दि देव ने उसमें कहा भी है -
श्रोताव्याष्टसहस्री, श्रुतै: किमन्यैः सहसंख्यानैः।
विज्ञायते ययैव, स्वसमयपरसमयसद्भावः । अर्थात् एक अष्टसहस्री ग्रन्थ को ही सुनना चाहिए, अन्य हजारों ग्रन्थों को सुनने से क्या लाभ है? क्योंकि उस अष्टसहस्री के स्वाध्याय से स्वसमय और परसमय के सद्भाव की जानकारी प्राप्त होती है।
इस अनुवाद की पूर्णता पर माताजी की असीम प्रसन्नता तो स्वाभाविक ही है। उसी प्रसन्नता के फलस्वरूप इन्होंने अनुष्टुप, मन्दाक्रान्ता, आर्या और उपजाति इन चार छन्दों का प्रयोग करते हुए चौबीस श्लोकों में एक "अष्टसहनीवंदना''23 संस्कृत में लिखी, जिसमें ग्रन्थ का प्राचीन इतिहास दर्शाया है कि आज से लगभग अट्ठारह सौ वर्ष पूर्व हुए आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने 114 कारिकाओं में "देवागम स्तोत्र' अपरनाम "आप्तमीमांसा" की रचना की, उन्हीं कारिकाओं पर आठ हजार श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका श्रीविद्यानन्दिदेव ने रचकर ग्रन्थ का नाम "अष्टसहनी" रखा है।
इसी श्रृंखला में अपने 37 वें वर्ष के प्रवेश में सन् 1970 में इन्होंने 24 श्लोकों में एक "उपसर्गविजयीपार्श्वनाथ स्तुति:" 24 तथा एक 13 श्लोकप्रमाण "श्रीपायजिनस्तुति:" 25 रची है जो निज पर आक्रामक कर्मों के उपसर्ग दूर करने की भावना को दर्शाने वाली
हैं।
सन् 1971 के अजमेर (राज.) चातुर्मास में "सुप्रभातस्तोत्र" (७ श्लोकों में) 'मंगल स्तुति' 26 (5 श्लोकों में), 'जम्बूद्रीपभक्ति' 27 (20 श्लोकों में) रची है और सन् 1972 में राजस्थान से विहार करती हुई पूज्य माताजी अपने आर्यिकासंघ के साथ भारत की राजधानी दिल्ली में आ गई तब इनके संघ में इनकी गृहस्थावस्था की माँ मोहिनी जी "आर्यिका श्री रत्नमती माताजी" के रूप में सम्मिलित थीं क्योंकि सन् 1971 अजमेर के चातुर्मास में इन्होंने पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से मगसिर कृ. 3 को आचार्यश्री धर्मसागर महाराज के करकमलों से जब दीक्षा धारण की तो आचार्य श्री ने इनका "रत्नमती" यह सार्थक नाम रखा था। सन् 1972 से सन् 1992 तक 20 वर्ष के काल में पूज्य ज्ञानमती माताजी का प्रवास मुख्यरूप से दिल्ली, हस्तिनापुर एवं पश्चिमी उत्तरप्रदेश में रहा। जिसमें जम्बूद्वीप रचना निर्माण की प्रेरणा तथा विशाल साहित्य का सृजन इनका प्रमुख लक्ष्य रहा। यहाँ विषयवृद्धि के कारण उनका वर्णन शक्य नहीं है। हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप रचना स्थल पर पहुँचकर वहाँ की चतुर्मुखी गतिविधियों को देखने से ही इनका असली
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000