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संयमसागरजी, मुनि श्री अभिनन्दनसागरजी, मुनि श्री संभवसागरजी मुनि श्री वर्धमानसागरजी आदि सभी मुनिगण एवं आर्यिका श्री जिनमतीजी, आ. आदिमतीजी, आ. पद्मावतीजी, आ. अभयमतीजी, आ. श्रेष्ठमतीजी, आ. जयमतीजी आदि समस्त आर्यिका माताऐं एवं ब्रह्मचारी मोतीचंदजी सहित संघ के सभी ब्रह्माचारी - ब्रह्मचारिणी पूर्ण निष्ठा एवं रूचिपूर्वक भाग लेते थे। इससे पूर्व मुनि श्री श्रुतसागरजी मुनि श्री अजितसागरजी, मुनि श्री श्रेयांससागरजी, आर्यिका श्रेयांसमतीजी, आर्यिका विशुद्धमतीजी आदि लगभग समस्त मुनि आर्यिकाओं ने इनसे कुछ ग्रंथों का अध्ययन किया जिसे उसी कक्षा में बैठने वाले पं. पन्नालालजी सोनी - ब्यावर, पं. श्रीलालजी शास्त्री - श्रीमहावीरजी, पं. खूबचन्दजी शास्त्री - इन्दौर, पं. इन्द्रलालजी शास्त्री - जयपुर, पं. गुलाबचंदजी दर्शनाचार्य जयपुर आदि उच्चकोटि के विद्वान देखकर आश्चर्यचकित हो कहते थे कि हमारे महाविद्यालय आदि में तो एक एक विषय को मात्र 45-45 मिनट पढ़ाने वाले विद्वान अलग अलग रहते हैं लेकिन ये माताजी अनेक ग्रन्थ जैसे जैनेन्द्रप्रक्रिया ( संस्कृत व्याकरण), राजवार्तिक, गद्यचिंतामणि, अष्टसहस्री, गोम्मटसारजीवकांड, कर्मकांड, प्रमेयरत्नमाला, आप्तपरीक्षा आदि क्लिष्टतम ग्रन्थों को अकेली पढ़ाती हैं। जबकि उन दिनों ये संग्रहणी रोग से ग्रस्त थीं और आहार में मीठा, नमक, तेल, दही आदि रसों का त्याग करके रूखा सूखा निःस्वाद भोजन प्राय: केवल मट्ठा और रोटी ग्रहण करती थीं ।
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इनकी आत्मशक्ति, ब्रह्मचर्य का प्रभाव और पूर्वजन्म के संस्कार ही इस ज्ञान प्रतिभा में निमित्त मानने होंगे इस जन्म में किसी से उपर्युक्त ग्रन्थों का अध्ययन किये बिना दूसरों को पढ़ाकर निष्णात कर देना भला किसके लिए शक्य हो सकता है ? किन्तु 'इन्होंने तो केवल पढ़ा- पढ़ाकर ही अपने ज्ञान का परिमार्जन किया है। जैन साहित्य जगत् का इतिहास ऐसी अलौकिक साध्वी के उपकारों को युगों-युगों तक भूल नहीं सकता है।
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मैंने उपर्युक्त सन् 1969 की कृतियों में जिस "वीरजिनस्तुति" का उल्लेख किया है, कुछ वर्ष पूर्व मैंने उसकी संस्कृत और हिन्दी टीका लिखकर सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका के " चरणानुयोग" स्तंभ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित कराई थी जो भविष्य में लघुकाय ग्रन्थ के रूप में प्रकाशनाधीन है।
चातुर्मास की अविस्मरणीय देन
संस्कृत साहित्य की क्लिष्टता में जैनागम का न्यायग्रन्थ " अष्टसहस्री" सबसे कठिन ग्रन्थ माना जाता है। जिसे उसके रचयिता श्रीविद्यानन्दि आचार्य ने स्वयं "कष्टसहस्री" संज्ञा से सम्बोधित किया है। 'न्यायतीर्थ' उपाधि की परीक्षा देने वाले विद्यार्थी उसे न्यायदर्शन के विद्वानों की सहायता से बड़ी कठिनतापूर्वक पढ़ते थे। पूज्य ज्ञानमती माताजी के शिष्य ब्र. मोतीचंदजी ने भी न्यायतीर्थ परीक्षा का फार्म कलकत्ता से भरा था अतः माताजी उन्हें अष्टसहस्री का अध्ययन कराती थीं तो उनके निमित्त से सभी साधु-साध्वियों को भी उसका ज्ञान प्राप्त होता था।
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अर्हत् वचन, अप्रैल 2000
अध्ययन के उस माध्यम से पूज्य माताजी ने अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद सन् 1969 के श्रावणमास से करना शुरू कर दिया और सन् 1970 में टोंक (राज.) के चातुर्मास के पश्चात् पौषशुक्ला द्वादशी को लगभग डेढ़ वर्ष में सारा अनुवाद पूर्ण भी कर दिया। जिसे देखकर न्यायदर्शन के उच्चकोटि के विद्वान दांतों तले अंगुली दबाने लगे और तब से ज्ञानमती माताजी की दिव्यज्ञानप्रतिभा से लोग विशेष परिचित होने लगे ।
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप - हस्तिनापुर की "वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला'
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