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वर्ष- 12, अंक-2, अप्रैल 2000, 53-55 अहेत् वचन विदिशा का कल्पवृक्ष अंकित स्तम्भ शीर्ष कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
- गुलाबचन्द जैन*
अवसर्पिणी के प्रारम्भिक काल में जब मानव सन्तोषी था तथा उसकी आवश्यकताएँ भी अल्प थीं. सीमित थीं तब उसे कल्पवक्षों के सहारे कल्पना मात्र से ही सभी जीवनोप सामग्री सहज ही प्राप्त हो जाती थीं। खाद्य, पेय, वस्त्र, आभूषण आदि के लिये उसे कोई विशेष श्रम नहीं करना पड़ता था। जैन आगम में गुणों के अनुरूप कल्पवृक्षों का दस विभिन्न नामों से उल्लेख किया गया है। ये नाम हैं - 1. गृहांग, 2. भाजनांग, 3. भोजनांग, 4. पानांग, 5. वस्त्रांग 6. भूषणांग, 7. माल्यांग, 8. दीपांग, 9. ज्योतिरांग, 10. वाद्यांग
कल्पवृक्ष के उपरोक्त नामों के अनुरूप उनसे गृह, वर्तन, खाद्य, पेय, वस्त्र, आभूषण, पुष्प, दीप, प्रकाश एवं वाद्य यंत्रादि सभी जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति सहज एवं अल्प श्रम से ही हो जाती थीं।
समय का चक्र सदैव प्रवाहमान रहता है। काल परिवर्तन के साथ तीसरे सुषमा - दुषमा काल के आरम्भ होते ही कल्पवृक्षों का अभाव होने लगा। भोग भूमि समाप्त होकर कर्म भूमि का प्रारम्भ हुआ। मनुष्यों की रूचि, स्वास्थ्य व बुद्धि हीन होने लगी। अब जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं को जुटाने का प्रश्न सम्मुख उपस्थित था। ऐसे समय में बुद्धिमान महामानवों ने मानव की कठिनाइयों को समझते हुए उन्हें युक्तिपूर्वक कर्म करने की प्रेरणा दी। इन विद्वानों को कुलकर या मनु कहा जाता था। चौदह कुलकरों में अंतिम कुलकर श्री नाभिराय थे जिन्हें प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ के पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इन्होंने लोगों को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प - इन षट् कर्मों की शिक्षा देकर, इनके माध्यम से जीवन को निर्विघ्न, सहज रूप से जीने का मार्ग प्रशस्त किया था।
जैन धर्म प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की पहचान के लिये विभिन्न प्रतीक या लांछन निश्चित हैं। यथा आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ का प्रतीक वृषभ या अंतिम तीर्थंकर महावीर का प्रतीक सिंह है। इसी परम्परा में दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ का प्रतीक 'कल्पवृक्ष' है। ये प्रतीक तीर्थंकर प्रतिमाओं के पादपीठ के मध्य अंकित किये जाते हैं। इन्हीं प्रतीकों के माध्यम से यह निश्चित किया जा सकता है कि यह प्रतिमा किस तीर्थंकर की है? जिनालयों में विराजमान मूलनायक प्रतिमा के लांछन के अनुरूप लांछन युक्त स्तम्भ भी जिनालयों के समक्ष स्थापित करने की प्रथा प्राचीन काल में प्रचलित रही है। मथुरा स्थित कंकाली टीले के उत्खनन में तीर्थंकरों के प्रतीक चिन्ह युक्त कुछ स्तम्भ प्राप्त भी हुए हैं।
मौर्यकाल में विदिशा एक विशाल एवं समृद्ध नगर था। मथुरा अवन्ति आदि सम्पन्न नगरों में इसकी गणना की जाती थी। कोशाम्बी से उज्जयिनी तथा हस्तिनापुर मथुरा होकर दक्षिण की ओर जाने वाले राजमार्गों के मध्य विदिशा की स्थिति थी। उस काल में विदिशा के समृद्ध एवं सम्पन्न नागरिकों ने यहाँ अनेक विशाल, भव्य एवं कलापूर्ण मंदिरों, मूर्तियों, स्तूपों एवं भवनों का निर्माण किया था जिनके भग्नावशेष उत्खनन में आज भी यहाँ प्राप्त होते रहते हैं।
उत्खनन की श्रृंखला में लगभग एक शताब्दी पूर्व महान पुरातत्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम
* राजकमल स्टोर्स, सावरकर पथ, विदिशा (म.प्र.)