________________
समाचारों को स्थान देते है। मैं पत्रकार बन्धुओं से अनुरोध करूँगा कि वे हमें अपनी - अपनी पत्रिकायें अवश्य भेजे। जिससे हम उनके विचारों से अवगत हो सकें।
डा. विमल जैन सहसम्पादिका - जैन महिलादर्श ने कहा कि जैन पत्र-पत्रिकाओं को लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से उन्हें प्रशस्तिगान से बचना चाहिये। आज अधिकांश पत्रिकायें अपने - अपने पक्ष के साधु के गुणगान में ही लगी रहती है। कतिपय अन्य पत्र-पत्रिकायें केवल साधु संस्था की आलोचना में ही व्यस्त रहती है। इससे भावी पीढी की रही-सही श्रद्धा भी खत्म हो जाती है। पत्रकारों को इन दोनों स्थितियों से बचकर समाचारों, प्रशंसा एवं आलोचना में संतुलन रखना चाहिये।
पत्रकार सम्मेलन का एक दृश्य सन्मतिवाणी के संपादक पं. जयसेन जैन ने अपने उद्बोधन में कहा कि कुछ पत्र संतों से बंधे है और वे केवल उनकी ही बात करते हैं। हमारा निवेदन है कि पत्रकार कैची नई काम करें इससे ही समाज में एकता का सत्रपात होगा। हमड मित्र के संपादक श्री सरजमल बोबरा ने कहा कि जातीय संगठनों के पत्रों को अपनी-अपनी समाज की प्रतिभाओं के संरक्षण एवं विकास का काम हाथ में लेना चाहिए। स्वतंत्रता सेनानी श्री सुरेशचन्द जैन संपादक - अनेकान्तपथ ने कहा कि पत्रकारों को केवल चर्चा नहीं समर्पण करना चाहिये। उन्होंने महासमिति के समाज में एकता विषयक विचार को आगे बढाने के लिए स्वयं को समर्पित करने का प्रस्ताव किया। श्री विजय जैन लहाडिया (दर्शन ज्ञान चारित्र), श्री नरेन्द्र जैन (अध्यात्म पर्व पत्रिका) श्री रमेश कासलीवाल (वीर निकलंक) ने भी अपने विचार रखे।
_महासमिति मध्यांचल के अध्यक्ष श्री हुकमचन्द जैन ने कहा कि चेतना के लिए विचार आवश्यक है एवं पत्र विचार देने तथा चेतना जगाने का काम करते है। हमें समाज की ज्वलंत समस्याओं जनगणना, बेरोजगारी, अल्पसख्यक के रूप में मान्यता आदि पर ध्यान देना चाहिये। इसके लिए जरूरी है कि समाज अनुत्पादक व्ययों पर नियंत्रण कर उसे उत्पादक कार्यों में लगाये जब हम 35 करोड थे तब हमारे बीच कोई साधु, नहीं था। आज दिगम्बर परम्परा में लगभग 800 साधु है। फिर भी जैनों की संख्या 50 लाख है आखिर क्यों? इस पर विचार होना चाहिये।
सम्मेलन के संयोजक डा. अनुपम जैन ने कहा कि समाज में प्रकाशित होने वाले पत्रों में पर्याप्त विविधता है। समाचार प्रधान साप्ताहिक पत्रों, शोध प्रधान शोध पत्रिकाओं एवं सामाजिक चिंतन प्रधान मासिकों में एकरूपता नहीं हो सकती। अहिन्दी भाषा पत्रिकाओं को क्षेत्रीय समाचारों को प्रमुखता देनी ही होगी तो जातीय संगठनों के अपने अलग दायित्व है। जरूरत इस बात की है वे परस्पर
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000
89