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________________ का व्यापार चलता है। ये दोनों मित्र द्रव्य हैं इन दोनों का संबंध अलग- अलग करना किसी के लिए संभव नहीं है। ये दोनों द्रव्य आकाश में आश्रय को पाकर अनंत काल से धर्म द्रव्य की सहायता से गति करते हुए अधर्म द्रव्य के आश्रय से विश्राम करते हैं। यह व्यापार हमेशा परंपरा से चला आ रहा है। जीव और अजीव पर्याय रूप में परिभ्रमण करने वालों में से है ऐसा देखने पर भी तदरूप रूपायी है। अर्थात यह संसार यह लोक छह द्रव्यों का समुदाय ही है इनका परस्पर प्रभाव अवश्यंभावी है। ऐसा ही एक दार्शनिक ने अपने तत्व चिंतन में स्वीकार किया है। नार्वे के दार्शनिक अर्नेनीस ने पर्यावरण का संबंध समस्त संसार व इंसान के बीच घनिष्टता से उन्होंने कहा कि - "श्रीमद्भगवद्गीता में प्रकृति के अंग आठ बताये गये हैं। पहले पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश पांच बाहरी एवं मन, बुद्धि, अहंकार तीन आंतरिक। ये बाहरी आन्तरिक घटक आपस में खुब गहराई से जुड़े हैं बाहरी प्रकृति की हलचलें इंसान की आंतरिक प्रकृति को हिलाये बिना नहीं रहती।" 3 अत: यह आवश्यक है कि पारिस्थितिक पद्धति के किसी वर्ग में एवं सृष्टि संगठन संतुलन के लिए आवश्यक किसी भी तत्व में आवश्यकता से अधिक दखल व दोहन नहीं होना चाहिए। मनुष्य किसी तत्व को नष्ट कर ही नहीं सकता लेकिन इसके प्रयास से तत्व का स्वरूप बदल सकता है। "उत्पत्तीव विणासो दव्वस्स णत्थि अस्थि सम्भावो। विगमुपादधुवत्तं करेति तस्सेव पज्जाया॥ द्रव्य का उत्पाद या विनाश नहीं है सद्भाव है उसी की पर्यायें विनाश, उत्पाद और ध्रुवता करती हैं। गुणपर्यायस्वरूप जो द्रव्य है उसका उत्पाद, व्यय नहीं होता परन्तु उसी द्रव्य में जो गुण सहभावी रूप है वे तो अविनाशी हैं और जो पर्यायरूप क्रमवत है वे विनाशी हैं अत: द्रव्यायिकनय से द्रव्य ध्रौव्य स्वरूप है और पयायायकनय स उत्पाद व्ययरूप हैं। तत्व का स्वरूप बदल सकता है. लेकिन द्रव्य का बदला हुआ स्वरूप खतरनाक भी हो सकता है और लाभदायक भी। एवं पर्यावरण के प्रत्येक अंग को महत्वपूर्ण स्थान देना, उसका यथोचित सम्मान होना चाहिए। जिस प्रकार मानवीय सुन्दर पर्यावरण के लिए नैतिक मूल्य, आचार संहिता, मर्यादा आवश्यक संबंध, रिश्ता स्थापित कर उनका सम्मान किया जाता है उसी प्रकार पर्यावरण के प्रत्येक तत्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल का भी यथोचित सम्मान होना चाहिए। जीव - उपयोगो लक्षणं। ज्ञान दर्शनादि असाधारण चित्त स्वभाव और उसके जो परिणाम आदि हैं, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ऐसे भाव प्राण से हमेशा जीने वाला और पंचेन्द्रिय मन-वचन-काय, आयु और श्वासोच्छवास इस प्रकार द्रव्य प्राणों से जीने वाले जीव हैं। पुद्गल - स्पर्श रस गंध वर्णवृत्त: पुद्गला: अर्हत् वचन, अप्रैल 2000
SR No.526546
Book TitleArhat Vachan 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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