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अर्हत् वचन
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर,
वर्ष - 12, अंक- 2, अप्रैल 2000, 57-62
जैन साहित्य और पर्यावरण
। जिनेन्द्र कुमार जैन*
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ऐतिहासिक अनुसंधान एवं इतिहास रचना के उद्देश्य और अर्थ समय एवं समाज की स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। प्रत्येक युग का समाज अनुसंधानकर्ता से प्रश्न करता है जिसका उत्तर अनुसंधानकर्ता देता है। समसामयिक आवश्यकता भी ऐतिहासिक अनुसंधान की अपरिहार्यता है, वर्तमानकालिक जीवन में अभिरूचि ही अतीत के अनुसंधान को प्रेरित करती है। इतिहास के क्षेत्र की सीमा राज्य व राजा से समाज और मनुष्य केन्द्रित तक विस्तृत हो गयी है।
आज जबकि संपूर्ण विश्व पर्यावरण की समस्या से ग्रसित है, पर्यावरण इतिहास का अध्ययन एवं शोध हो रहा है। नवपाषाण काल से मनुष्य ने प्राकृतिक पद्धतियों में दखल देना शुरू किया और ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक मस्तिष्क का विकास होता गया, प्राकृतिक पद्धति में दखल का सिलसिला उत्तरोत्तर बढ़ता गया । मनुष्य का इतिहास प्रकृति का इतिहास है एवं मनुष्य के भविष्य का निर्धारण भी प्रकृति एवं पर्यावरण पर निर्भर करता है अतः मनुष्य का व्यवहार (जैविक एवं सामाजिक) पर्यावरण के अनुकूल होना चाहिए ।
प्राचीन भारतीय इतिहास के वैदिक, जैन, बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि धार्मिक मान्यताओं, सिद्धांतों एवं परम्परा के माध्यम से हर व्यक्ति पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता प्रदान करता था।
वैज्ञानिक शोध द्वारा यह प्रमाणित हुआ है कि पारिस्थितिक पद्धति में सभी जीव वर्ग, पौधे और जानवर एवं अन्य पदार्थ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। किसी भी वर्ग के मामले में दखल होने से दूसरे वर्गों पर दीर्घकालिक स्थायी प्रतिक्रिया होगी ।
समवाओ पंचण्हंः समउत्ति जिणुत्तमेहि पण्णत्तं । सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अओओ खं ॥
पाँच अस्तिकाय का समभाव पूर्वक निरूपण अथवा सम्यक बोध वह समय है। ऐसा जिनवरों ने कहा है। वह पंचास्तिकाय समूह रूप जितना ही लोक है उसके आगे अनंत आकाश है, वह अलोक है।
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जीवा पुग्गलकाया आयासं अत्थिकाइया सेसा ।
अभया अत्तमया कारणभूदा हि लोगस्य ॥
"जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश पांच अस्तिकाय हैं। ये किसी के भी बनाये हुए नहीं हैं, स्वभाव से स्वयंसिद्ध हैं, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप अपने अस्तित्व के लिये हुए परिणामी हैं और लोक इनसे ही बना हुआ है। विशेष छह द्रव्यों में काल द्रव्य के बिना 5 द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। "2 जीवादि पदार्थ जहां भी होंगे वह लोक है। कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है जो ये पांच अस्तिकाय हैं, यही द्रव्य लोक के निमित्त कारण हैं अर्थात इनके परस्पर सहयोग से लोक बन सकता है। स्वाभाविक है किसी भी द्रव्य में दखल से असंतुलन हो सकता है।
जैनमतानुसार जीव और अजीव इन दोनों की मित्रता से यह जगत और जगत
* शोध छात्र, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, डॉ. हरिसिंह गौर वि.वि., सागर । निवास : ग्राम- मोकलमऊ, पोस्ट- नैनधरा, तहसील बंडा, जिला सागर - 470335 (म. प्र. ) ।