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________________ । अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल 2000, 9 - 30 संस्कृत साहित्य के विकास में गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का योगदान - आर्यिका चन्दनामती* संस्कृत भाषा का उद्गम दिव्यध्वनि से हुआ है - जैन धर्म के अनुसार तीर्थंकर महापुरुषों की दिव्यध्वनि सात सौ अठारह भाषाओं में परिणत हुई मानी गई है अर्थात् केवलज्ञान के प्रगट होने पर तीर्थंकर की दिव्यध्वनि तो ऊँकारमय खिरती है किन्तु सुनने वाले भव्यात्माओं के कानों में जाकर वह उन सबकी भाषा में परिवर्तित होकर सात सौ अठारह भेदरूप हो जाती है। इनमें से अठारह महाभाषाएँ मानी गई हैं और सात सौ लघु भाषाएँ हैं। उन महाभाषाओं के अन्तर्गत ही संस्कृत और प्राकृत को सर्व प्राचीन एवं प्रमुख भाषा के रूप में स्वीकृत किया जाता है। संस्कृत जहाँ एक परिष्कृत, लालित्यपूर्ण भाषा है वहीं उसे साहित्यकारों ने 'देवनागरी' भाषा कहकर सम्मान प्रदान किया है। समय-समय पर अनेक साहित्यकारों ने संस्कृत भाषा . में गद्य साहित्य, पद्य साहित्य एवं गद्य - पद्य मिश्रित चम्पू साहित्य लिखकर प्राचीन महापुरुषों और सतियों के चारित्र से लोगों को परिचित कराया है। साहित्य रचना की पृष्ठभूमि - इसी श्रृंखला में बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध काल एक नई क्रान्ति के साथ प्रारम्भ होकर अनेक साहित्यिक उपलब्धियों के साथ समापन की ओर अग्रसर है। जैन समाज सदैव उत्कृष्ट त्याग, ज्ञान और वैराग्य में प्रसिद्ध रहा है। यहाँ उच्च कोटि के मनीषी लेखक के रूप में आचार्य श्री गुणधर, कुन्दकुन्द, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, उमास्वामी, समंतभद्र, यतिवृषभ, पूज्यपाद, अकलंकदेव, वीरसेन, जिनसेन, गणभद्र स्वामी आदि दिगम्बराचार्यों ने सिद्धान्त. न्याय, अध्यात्म, व्याकरण, पुराण आदि ग्रंथ प्राकृत और संस्कृत भाषा में लिखकर जिज्ञासुओं को प्रदान किया है किन्तु न जाने क्या कारण रहा कि अनेक विदुषी गणिनी आर्यिका पद को प्राप्त करने के बाद भी दिगम्बर जैन साध्वियों के द्वारा लिखित कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है। लगभग ढाई सहस्राब्दियों का इतिहास तो इस बात का साक्षी है ही कि साध्वियों ने ग्रन्थों का लेखन नहीं किया है अन्यथा देश के किसी न किसी संग्रहालय या पुस्तकालय में उनके कुछ अवशेष तो अवश्य प्राप्त होते। मूलाचार आदि चरणानुयोग ग्रन्थों में जैन आर्यिकाओं की समस्त चर्या जैन मुनियों के समान ही वर्णित है अत: उन्हें सैद्धान्तिक सूत्र ग्रन्थों को भी पढ़ने का अधिकार प्रदान किया है। महापुराण ग्रन्थ में आचार्य श्री जिनसेन स्वामी ने भगवान ऋषभदेव के समवसरण की एक आर्यिका सुलोचना माता के लिये बताया है कि वे ग्यारह अंग रूप श्रुत में पारंगत थीं। यथा - "एकादशांगभूज्जाता सार्यिकापि सुलोचना'1 जैन शासन में तीर्थंकर भगवन्तों की दिव्यध्वनि ग्यारह अंग - चौदह पूर्व रूप मानी गई है। यह सारा ज्ञान भगवान महावीर तक तो अविच्छिन्न रूप से रहा है, पुन: क्रम परम्परा से ईसा पूर्व लगभग द्वितीय शताब्दी में इसका कुछ अंश श्री गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ और उसके पश्चात अंग - पूर्वो का अंशात्मक ज्ञान ही अन्य संतों को मिला जो उनके निबद्ध वर्तमान श्रुत में उपलब्ध होता है। * संघस्थ - गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी। सम्पर्क - दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर - 250404 (मेरठ)
SR No.526546
Book TitleArhat Vachan 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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