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शताब्दी का उत्तरार्ध नारी प्रगति का रहा -
मैंने ऊपर वर्तमान शताब्दी के उत्तरार्ध का जो उल्लेख किया है उस ओर ही अपने विषय को ले चलती हैं कि जैन साध्वी की लेखन प्रतिभा में निखार आना सन् 1954 से प्रारम्भ हुआ और इसका प्रथम श्रेय प्राप्त किया शताब्दी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने। ईसवी सन् 1934 में 22 अक्टूबर को वि. सं. 1991 की आश्विन शुक्ला पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) के शुभ दिन रात्रि में 9 बजकर 15 मिनट पर उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिले में 'टिकैतनगर' कस्बे में श्रेष्ठी श्री धनकुमार जैन के सुपुत्र श्री छोटेलालजी की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी ने प्रथम कन्यारत्न को जन्म दिया था। वही कन्या आगे चलकर शास्त्रीय इतिहास को साकार करने में महात्मा गांधी के समान प्रथम आत्मस्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रसिद्ध हो गई और तब सन् 1952 में वि.सं. 2009 को शरदपूर्णिमा के दिन से ही नया स्वर्णिम इतिहास शुरु हुआ अर्थात् 3 अक्टूबर सन् 1952 में इस कन्या 'मैना' ने आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज से सप्तम प्रतिमा व आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर घर का त्याग कर दिया। क्षुल्लिका दीक्षा -
परिवार के तीव्र मोह तथा सामाजिक संघर्षों पर विजय प्राप्त करके ब्रह्मचारिणी मैना यद्यपि उसी दिन से एक उत्कृष्ट साध्वी के समान चर्या पालने लगी थी तथापि उनके दीक्षित जीवन का प्रारम्भ हुआ मार्च सन् 1953 से, जब वि.सं. 2009 की चैत्र कृष्णा एकम तिथि, रविवार को श्रीमहावीरजी अतिशय क्षेत्र पर आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ने इन्हें क्षुल्लिका दीक्षा देकर 'वीरमती' नाम प्रदान किया था। पूर्वजन्म के संस्कारवश इन्हें प्रारम्भ से जहाँ ज्ञानार्जन की तीव्र पिपासा थी, वहीं संस्कृत ज्ञान प्राप्ति की अपूर्व अभिलाषा थी।
सन् 1954 में ये एक क्षुल्लिका श्री विशालमती माताजी के साथ दक्षिण भारत गई। वहाँ चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज से उदबोधन प्राप्त कर पुन: गुरु के पास आकर सन् 1954 का चातुर्मास जयपुर में किया। गुरु की कृपा प्रसाद से इन्होंने वहाँ पर मात्र दो माह में 'कातंत्ररूपमाला' नाम की जैन संस्कृत व्याकरण पढ़ी और वही इनके जीवन में साहित्य सृजन का मूल आधार बन गई। उसके बाद आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की सल्लेखना देखने के उद्देश्य से ये पुन: उन्हीं क्षुल्लिका जी के साथ दक्षिण प्रान्त में गईं और सन 1955 का चातुर्मास 'म्हसवड' नामक शहर में किया। बस, यही चातुर्मास उनके संस्कृत ज्ञान के प्रयोगात्मक काल का प्रारम्भीकरण था, जब उन्होंने आचार्य श्री जिनसेन स्वामी द्वारा रचित 'सहस्रनाम स्तोत्र' के आधार से भगवान के एक हजार आठ नाम निकालकर नमः के साथ उनमें चतुर्थी विभक्ति लगा लगाकर भगवान को नमस्कार करते हुए पूरे एक हजार आठ "सहस्रनाम मंत्र" बना दिये। उन मंत्रों को देखकर क्षुल्लिका विशालमती जी बड़ी प्रसन्न हुई और उसी चातुर्मास में उन्होंने इन मंत्रों की एक छोटी सी पुस्तक छपवा दी। प्रभु के श्रीचरणों में अपने ज्ञान का समर्पण इनके जीवन का वरदान बन गया, फिर तो दिन दूनी - रात चौगुनी वृद्धि के साथ इनके संस्कृत ज्ञान का विकास होने लगा। आर्यिका दीक्षा -
इसके पश्चात् इन्होंने 27 अप्रैल 1956 विक्रम संवत् 2012 में वैशाख कृष्णा द्वितीया
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000