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एवं सुन्दरतम स्थान हैं जिनका आध्यात्मिक महत्व सर्वविदित है। मानसरोवर के पास ही एक सरोवर राकसताल (राक्षस तालाब या लंगत्सो) है। इन दो सरोवरों के उत्तर में कैलाश पर्वतमाला तथा गुरला शिखर है। इस क्षेत्र से उत्तर भारत की चार महा नदियाँ करनाली, सतलज, ब्रह्मपुत्र तथा सिंध निकलती है।
अक्टूबर से अप्रैल में जब शीत ऋतु रहती है दोनों पर्वतमालाओं के साथ ही सरोवर भी बर्फ से ढंक व जम जाते हैं। भारत सरकार द्वारा हर वर्ष जून से सितम्बर माह के मध्य यहाँ की यात्रा आयोजित की जाती है। इस यात्रा से सम्बन्धित जानकारी के लिये मिनिस्ट्री ऑफ एक्सटरनल अफेयर्स, अण्डर सेक्रेटरी (चाइना), साउथ ब्लाक, गेट नं.4, नईदिल्ली में आवेदन करना होता है। यह दिल्ली से 480 कि.मी. दूर है, इसकी लगभग 3 कि.मी. तक की चढाई अत्यन्त कठिन है। अष्टापद सिद्धक्षेत्र :
'बाल - महाबाल मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय,
श्री अष्टापद मुक्ति मंझार, तें वंदौ नित सुरत संभार।' 'अष्टापद आदिश्वर स्वामी' एवं 'नमों ऋषभ कैलाश पहार' सूक्तियों के द्वारा पूज्यनीय अष्टापद ऋषभदेव की निर्वाण भूमि के अतिरिक्त भरत आदि भाइयों, भगवान अजितनाथ के पितामह त्रिदशंजय, व्याल, महाव्याल, अच्छेद्य, अभेद्य, नागकुमारल हरिवाहन, भागीरथ आदि असंख्य मुनियों की सिद्ध भूमि रही है।
मान्यता है कि भगवान ऋषभदेव के दर्शनों के लिये भरत चक्रवर्ती अपने 1200 पुत्रों सहित आये थे तथा भगवान ऋषभदेव की स्मृति में उन्होंने 72 जिनालय भी बनवाये, जिनमें रत्नजड़ित प्रतिमाएँ विराजमान कराईं। ये प्रतिमाएँ व जिनालय सहस्रों वर्षों तक वहाँ विद्यमान रहे। सगर चक्रवर्ती के आदेश से उनके साठ हजार पुत्रों ने उन मन्दिरों की रक्षा के लिये उस पर्वत के चारों ओर परिखा खोद कर गंगा को वहाँ बहाया। बाली मुनि यहीं तपस्या कर रहे थे। रावण ने क्रोधित होकर उस पर्वत को ही उलट देना चाहा तब बाली मुनि ने भरत चक्रवर्ती द्वारा बनाये गये जिनालयों की रक्षार्थ उस पर्वत को अपने पैर के अंगूठे से दबा दिया जिससे रावण उस पर्वत के नीचे दबकर रोने लगा। इन घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि भरत द्वारा निर्मित ये मन्दिर और मूर्तियाँ रावण के समय तक अवश्य विद्यमान थीं। कैलाश पर्वत की आकृति :
कैलाश पर्वत की आकृति ऐसे लिंगाकार की है जो षोडसदल कमल के मध्य खड़ा हो। इन सोलह दल वाले शिखरों के सामने दो शिखर झुककर लंबे हो गये हैं। इस भाग से कैलाश का जल गौरीकुण्ड में गिरता है। कैलाश इन पर्वतों में सबसे ऊँचा है जिसका रंग कसौटी के ठोस पत्थर जैसा है किन्तु बर्फ से ढंके रहने के कारण वह रजतवर्ण दिखाई पड़ता है। दूसरे शिखर कच्चे लाल मटमैले पत्थर के हैं। कैलाश शिखर के चारों
ओर कोनों में ऐसी मंदिराकृतियाँ स्वत: बनी हुई हैं, जैसे बहुत से मन्दिरों के शिखरों के चारों ओर बनी होती हैं। तिब्बत की ओर से यह पर्वत ढलान वाला है। तिब्बत के लोगों में कैलाश पर्वत के प्रति अपार श्रद्धा है। अनेक तिब्बती तो इसकी 32 मील की परिक्रमा दण्डवत प्रतिपात द्वारा लगाते हैं।
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000