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स्वाभाविक है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं अपभ्रंश भाषा के विख्यात विद्वान प्रो. संभूनाथ पाण्डे ने पं. हजारीप्रसाद द्विवेदीजी का संस्मरण सुनाते हुए कहा कि पं. जी हमेशा कहा करते थे कि संस्कृत भाषा से मैं संस्कार प्राप्त करता हूँ किन्तु प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से मैं ओज, शक्ति तथा जीवन प्राप्त करता हूँ। उन्होंने कहा कि जिसे प्राकृत और अपभ्रंश भाषा का ज्ञान न हो वह भारतीय संस्कृति को भी नहीं समझ सकता। प्राकत भाषा मात्र भाषा ही नहीं अपितु वह प्राणधारा है जिसमें संपूर्ण भारतीय संस्कृति समाहित है। भगवान महावीर और बुद्ध ने इन जन भाषाओं की महत्ता समझकर के संपूर्ण जनमानस को प्रभावित किया।
संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में तुलनात्मक धर्म - दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. राधेश्याम घर द्विवेदी ने कहा कि संस्कृत भाषा के पूर्ण विकास के लिए प्राकृत और पाली का विकास आवश्यक है। भारतीय तथा प्रादेशिक सरकारों को इसका समचित विकास करने का प्रयास करना चाहिए। इन्होंने आगे कहा कि किसी भाषा या संस्कृति विशेष को महत्व दिये बिना सभी भाषाओं और संस्कृतियों का समान रूप से विकास करना चाहिए अन्यथा हम संपूर्ण भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकते।
___ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में उपाचार्य डॉ. बलराज पाण्डेजी ने कहा कि प्राकृत और अपभ्रंश भाषायें भारतीय ज्ञान - विज्ञान और संस्कृति की सेतु भाषायें हैं। इनके समुचित विकास के लिए सभी को समान रूप से प्रयास करना चाहिए। काशी हिन्दू वि.वि. के ही डॉ. कमलेश कुमार जैन ने कहा कि प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के प्रति जो अपेक्षात्मक दृष्टि सरकार की ओर से रहती है वह चिन्ताजनक है। अन्य भाषाओं की तरह प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के विकास के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास होना आवश्यक है।
मुख्य अतिथि पद से भारत कला भवन के पूर्व निदेशक प्रो. रमेशचन्द्र शर्मा ने कहा कि प्राकृत भाषा भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है और इसका अनादर भारतीय संस्कृति का अनादर है। यह भाषा मात्र जैन समुदाय तक ही सीमित नहीं है अपितु इसका बहत विशाल क्षेत्र है। सम्राट अशोक के तथा भारत के अन्य प्राचीनतम शिलालेख प्राकृत भाषा में ही उपलब्ध हैं वस्तुत: यह भाषा भारतीय समाज को प्रतिबिंबित करती है। इसलिए यदि सामान्य जनता तक पहुँचना है तो प्राकृत भाषा का अध्ययन आवश्यक है। आज यदि इसकी उपेक्षा करेंगे तो भविष्य हमें कभी माफ नहीं करेगा।
धन्यवाद ज्ञापन करते हुए जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.) के शोध छात्र अनेकान्त जैन ने कहा कि प्राकृत भाषा को जीवित रखने के लिए सर्वप्रथम हमें उसे चर्चा में जीवित रखना होगा। विद्वानों तथा जनसामान्य के मध्य उसे चर्चा का विषय बनाने के लिए भविष्य में अनेक योजनाएँ बनानी होगी तभी इस भाषा को हम इक्कीसवीं सदी में जीवित रख पायेगें और भावी पीढ़ी को यह अनमोल विरासत सौंप पायेगें।
संगोष्ठी के प्रारंभ में कु. इन्द जैन ने प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में मंगलाचरण प्रस्तुत किया। डॉ. कमलेश कुमार जैन ने प्राकृत भाषा में मंगलाचरण प्रस्तुत किया। समागत् विद्वानों और अतिथियों का स्वागत श्रीमती डॉ. मुन्नी पुष्पा जैन ने किया। जैन सरस्वती श्रुतदेवी के चित्र के समक्ष प्रो. आर.सी. शर्मा तथा प्रो. भोलाशंकर व्यास ने दीप प्रज्जवलन किया तथा प्रो. लक्ष्मीनारायण तिवारी ने श्रुत देवी पर माल्यार्पण किया।
संगोष्ठी में प्रसिद्ध वैदिक विद्वान डॉ. हृदय रंजन शर्मा, डॉ. गंगाधर, डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा, प्रसिद्ध गांधीवादी श्री शरद कुमार साधक, डॉ. विजयकुमार, सरयूपारी ब्राह्मण परिषद के महामंत्री श्री नरेन्द्र राम त्रिपाठी, श्री सुनील जैन, अतुल कुमार, महेश कुमार त्रिपाठी, सुरेन्द्र मिश्र, सत्येन्द्र मोहन जैन, गिरधारीलाल, विश्वनाथ अग्रवाल, श्री रतनलाल साहू आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किये।
- डा. फूलचन्द जैन 'प्रेमी', वाराणसी
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000