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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९ ) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
५४
सम्पादकः
विजयशीलचन्द्रसूरि
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
२०१०
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अनुसन्धान ५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषाङ्क भाग-२
आद्य सम्पादक: डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्कः
C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
प्रकाशक:
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थानः (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
प्रतिः २५०
मूल्य: Rs. 100-00
मुद्रक:
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
'संशोधन'नो एक मतलब थाय 'अभिप्राय'. कोई प्रचलित/स्वीकृत धारणा परत्वे कोई शोधकनो मत ते अभिप्राय, ते संशोधन. आ अभिप्रायनी पृष्ठभूमां 'मान्यता' पण होय, अथवा 'समजण' पण होई शके. 'मान्यता'नी पाछळ 'आग्रह' वा 'ममत' होवानी सम्भावना, घणीवार, होय छे, जे संशोधकने ज नहि, संशोधनने पण हानि पहोंचाडनारुं तत्त्व छे.
__संशोधक, पोतानी शोधक दृष्टिना बळे, कोई तथ्य शोधे-उजागर करे, तो ते, ते तथ्यने प्रमाणो साथे रजू करे, अने साथे ज पोतानो अभिप्राय पण दर्शावे के 'मने आम लागे छे; मारी दृष्टिए आम जणाय छे'. परन्तु ते वखते अने ते बाबते,तेनी प्रस्तुतिमां 'आग्रह' के 'ममत' न ज होय. पूरा अभिनिवेश साथे पोतानो अभिप्राय आपी दीधा पछी पण, तेनुं आखरी वाक्य तो आq होय : ‘मने आम साचु लागे छे; बीजा जाणकारोनी दृष्टिए अने/अथवा विशेष प्रमाणो जडी आवे तो, आ वात अन्यथा पण होई शके छे.' वास्तवमां आ प्रकारनो अनाग्रह ज संशोधनमां तेम ज तेनी तथ्यतामां बळ पूरे छे.
जैन ग्रन्थकारोनी एक पद्धति/परिपाटी, आ सन्दर्भमां, याद आवे छे. एक शब्द के वाक्य के प्रतिपादन- अर्थघटन, एक आचार्ये अमुक रीते कर्यु होय, अने ते अंगे बीजा आचार्य द्वारा थतुं अर्थघटन भिन्न होय, तो ते आचार्य पोतानुं मन्तव्य नोंधीने लखे के 'तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्ति' - अर्थात्, अमने आवं समजाय छे, छतां आ विषयमा साचुं शुं ते तो ज्ञानीओ ज कही शके.' अनाग्रहनी आ स्थिति केवी समजभरेली लागे छे !
खरेखर तो, आग्रह अने ममत ए संशोधनविद्यानां प्रतिकूल तत्त्वो छे. पोतानी शोध, पोतानी समजण, पोतानी मान्यता दरेकने गमती ज होय छे. तेने खोटी ठरावनार के ठराववानो यत्न करनार पर वरसी/तूटी पडवानुं पण दरेकने मन थतुं ज होय. तेवी मल्लिनाथी करवामां कोई बाध/वांधो पण नथी; बल्के तेम करवाथी ज, कदीक, तथ्य सुधी पहोंचवामां मदद मळे छे. परन्तु, ते बधुं करवा
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जतां 'मताग्रहनुं झनून तो चित्त पर सवार थतुं नथी ने ? विरोधी मत दर्शावनार प्रत्ये द्वेष-दुर्भाव-अरुचि - तिरस्कार तो जागतां नथी ने ?' ए वातनुं खास ध्यान राखवुं घटे. वाद-विवाद तन्दुरस्त होवो घटे, नादुरस्त नहीं. वाद संवादमां परिणमे, विखवादमां नहि, ए लक्ष्य अवश्य होवुं घटे.
- शी.
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आवरणचित्र - परिचय
वि.सं. १२८४मां आलिखित, 'सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन' व्याकरणनी, ताडपत्रीय पोथीगत बे चित्रो. चित्र १ श्रीसिद्धहेमव्याकरणनी पोथीने गजराज उपर स्थापीने काढवामां आवेल शोभायात्रा - वरघोडाने दर्शावे छे. तो चित्र २ (टाइटल ४) उपाश्रयमां आचार्यगुरु द्वारा अ पाठशालामां अध्यापक द्वारा थतुं सिद्धहेम० नुं अध्यापन दर्शावे छे.
आ चित्रो धरावती पोथी पाटण - श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिरमां विद्यमान छे. जो के १६-१७ वर्ष अगाऊ, आ पोथीचित्रोवाळां पानां कापीने तेमांथी ते चित्रोनी उठांतरी थई गयेली छे, अने ते बन्ने पानांना कटका ते पोथीमां पड्या छे ते सं. २०५१मां ज्ञानमन्दिरना व.क.नी उपस्थितिमां जोवा मळेलुं. ए ज वर्षे, आ चित्रो, एक प्रख्यात जैन संस्थानी प्रदर्शनीमां जोवा मळेलां; तेमज ते संस्थाना सचित्र परिचयपत्र (ब्रोशर) मां ते चित्रो मुद्रित पण थयेलां जोवा मळेलां. ते पछी पाटण - ज्ञानमन्दिरना व.क.ने जाण करीने स्व. मुनिश्रीजम्बूविजयजी-मारफते ते चित्रो पुनः मूळस्थाने प्रस्थापित थाय ते माटे प्रयत्न कर्यो हतो. परन्तु तेनुं कांई परिणाम आव्युं होय म जाणवा मळ्युं नथी. एक ऐतिहासिक दस्तावेजनो तथा पुरातन पोथीनो नाश थवानी स्थिति आ रीते सर्जाय ते केटलुं दुःखद छे ! ए संस्थाना अधिकारीओने सन्मति जागे अने ते चित्रो, जो अद्यावधि मूळ जग्याए पुन: प्रस्थापित न थयां होय तो पुनः प्रस्थापित थाय तेवी आशा सेवीए.
आ बन्ने चित्रो, पूर्वे, एकाधिक स्थाने प्रकाशित छे ज. ना आधारे ज अत्रे पुनः मुद्रित करवामां आवे छे.
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अनुक्रमणिका
'कुमारसम्भव' - बालावबोध (अपूर्ण)
लेखरत्नाकरपद्धतिः
श्रीहेमचन्द्राचार्यनी अगमवाणी
श्रीहेमचन्द्राचार्य विरचित प्रमाणमीमांसाना परिप्रेक्ष्यमां
मतिज्ञानना उत्पत्तिक्रमनी विचारणा
श्रीहेमचन्द्राचार्य तथा योगशास्त्र : प्रवचन हेमचन्द्राचार्य माटे प्रवर्तेली भ्रमणाओ अने तेनुं निरसन
सं. हरिवल्लभ भायाणी
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि :
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
डॉ. पीटर्सन
श्री विजयचिन्तामणि पार्श्वनाथजिन स्तोत्र राजा कुमारपालनी अमारि-घोषणानी गवाही आपता बे प्राचीन अभिलेखो
केटलीक ऐतिहासिक
अप्रगट कृतिओ
१
आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरि (प्रथम) विरचित
श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम्
७
१०
१५
३९
विजयशीलचन्द्रसूरि ६२
सं. उपा. भुवनचन्द्र
७९
१०१
सं. मुनिसुजसचन्द्रसुयशचन्द्रविजयौ १०४
कवि देवचन्द्रजीनी एक अप्रगट रचना "रत्नाकर पच्चीसीभास" सं. मुनिसुजसचन्द्र-सुयशचन्द्रविजयौ ११८ श्रीरूपचन्द्रमुनिकृता साध्वाचारषट्त्रिंशिका ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १२२
म. विनयसागर १२९
म. विनयसागर १३१
श्रावक द्वादश-व्रत-चतुष्पदिका
खारवेलनो हाथीगुफा – अभिलेख
(जैन धर्मनो उल्लेख करतो प्राचीनतम अभिलेख ) डॉ. हसमुख व्यास १३३
मिजिनस्तुतिः
सं. श्रीजगच्चन्द्रसूरिशिष्य
मुनि शीलचन्द्रविजय १४०
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" सकलकुशलवल्ली चैत्यवन्दन टीका" सं. साध्वी ललितयशा श्री १४८
Are Pandava Brothers Jaina or Non-Jaina?
An unprecedented explanation
by Acarya Hemacandra
Padmanābh S. Jaini १५०
A note on Hemacandra's Abhidhānacintamani
and Sanskrit karmavāți माहिती : नवां प्रकाशनो
Prof. Dr. Nalini Balbir १६७
२००
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एक कल्पनाकथानी कथा
एक एवी कथा प्रबन्धादि द्वारा प्रसिद्ध छे के राजा कुमारपालनी परदुःखभञ्जननी तथा पृथ्वीने ऋणमुक्त करवानी भावनाने पूर्ण करवा माटे श्रीहेमचन्द्राचार्ये पोताना गुरु श्रीदेवचन्द्रसूरिने आमन्त्रणपूर्वक पाटण बोलाव्या अने आ प्रयोजन सिद्ध करवा माटे सुवर्णसिद्धिनी मागणी करी. त्यारे गुरु, 'तमे आ माटे अयोग्य छो' एम कही, ठपको आपी, चाल्या गया.
पृथक्करण करतां आ वात दन्तकथा होवानुं जणाय छे. केम के कुमारपालने राजा तरीके स्वस्थ थतां थतां सं. १२०९ नुं वर्ष आवी गयुं हतुं. त्यारे जो गुरु जीवंत होय तो लगभग शतायु ज होय. केम के तेओ ११४० पहेलां तो आचार्य थई चुकेला. शतायु गुरुने विहार करी बोलाववानी वात असम्भवित ज दीसे छे.
बीजुं, ‘जैन परम्परानो इतिहास' नोंधे छे ते प्रमाणे तो, गुरु सं. ११६७ मां प्रायः कालधर्म पाम्या छे. तो त्यारे तो कुमारपालनो परिभ्रमणकाल हतो.
आम, परदुःखभञ्जन अने ते माटे गुरु पासे सुवर्णसिद्धिनी मागणीनी समग्र घटना, ए काल्पनिक कथामात्र जणाय छे.
- शी.
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फेब्रुआरी २०११
'कुमारसम्भव' - बालावबोध (अपूर्ण)
सं. हरिवल्लभ भायाणी
[नोंध : सद्गत भायाणीसाहेबे स्वहस्ते वर्षो अगाऊ लखी राखेल आ अधूरी कृति जेवी छे तेवी ज अत्रे आपवामां आवे छे..
'कुमारसम्भव' महाकाव्य ए महाकवि कालिदासनी उत्तम रचना छे. तेना प्रारम्भना थोडाक श्लोको, ते पर संस्कृत टीका, ते टीकाना आधारे अतिसंक्षिप्त बालावबोध, आटलुं आ सम्पादनमां प्राप्त छे.
__ कोईक भण्डारनी कोईक २ पानांनी अपूर्ण एवी हस्तप्रतिनी भायाणीजीए करेली आ नकल छे. शरुआत 'अहँ नमः' थी थाय छे, तेथी जैन मुनिए आ प्रति लखी होवानुं निश्चित थाय छे. पोताना धर्म अने मतनी साथे सम्मत न होय तेवा ग्रन्थकारोना तेवा प्रकारना ग्रन्थो उपर कलम चलाववानी उदारता तेमज हिम्मत जैन मुनिओ सिवाय अन्यत्र जोवा मळती नथी.
आ बालावबोधमां ध्यान आपवायोग्य एक-बे शब्दप्रयोगो'किरि' - किल ए अर्थमां वपरायो जणाय छे.
'रहितः' - 'रह्यो' एवा अर्थमां प्रयोजायो छे. जैन संस्कृतनो आ विशिष्ट प्रयोग गणाय.
__ आ सम्पादन द्वारा ह. भायाणी वती हेमचन्द्राचार्यने स्मरणांजलि आपवानो योग मळे छे, साथे साथे आ मिषे भायाणी साहेबने पण स्मरण करवानी तक सांपडे छे, ते वाते द्विगुण-बेवडो आनन्द छे. - शी.]
अहँ नमः अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ।
पूर्वापरौ तोयनिधी विगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ॥१॥ इह प्रेक्षापूर्वकारिणां महाकवीनां काव्यारम्भे यथैवाभीष्टदेवतासंस्तवनमभ्युदयनिदानं तथैवोत्कृष्टवस्तुसंकीर्तनमपीति हृदि धृत्वा श्रीकालिदासकविराह ।
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२ ईणं काव्यारंभि, प्रेक्षा-पूर्व-कारीया अछइँ जि प्राज्ञ महाकवि तीह किहइँ जीण परि अभीष्ट-देवता-तणउँ संस्तवनु अभ्युदय किहइँ निदानु कारणभूतु, तिम उत्कृष्ट-वस्तु-संकीर्तनू नामोच्चारू अभ्युदय किहइँ निदानु इसउँ इसउँ धरीउ श्रीकालिदासु कवि बोलच्छइ.
उत्तरस्यां दिशि कौबेर्यां ककुभि हिमालयो नाम नगाधिराजोऽस्ति पर्वताधिराजो विद्यते ॥
नगाधिराजु कांइ भणीयइ । न गच्छन्तीति नगा । अधिको राजा अधिराजा । नगानां पर्वतानां मध्येऽधिराजो नगाधिराजः ।।
नग भणीयइ पर्वत, तीहँ माहि अधिराजु स्वामीउ जु । पर्वतानां स्थावररूपतयैव प्रसिद्धत्वात् । एतां भ्रान्ति निरस्यन्नाह ॥
किरि तोयि पर्वत सहजि छइँ स्थावर-रूपिहि जि प्रसिद्धि ॥ तउ ए इसी भ्रांति फेडतउ हूतउ कवि बोल छ ।
किं-विशिष्टो नगाधिराजः । देवतात्मा देव । देव एव देवता । स्वार्थे देवात्तल् । तल् प्रत्ययः । तकारमात्रः । स्त्रियामादा आ प्रत्ययः । समानः सव० दीर्घः । देवतात्मास्ति तं । देवता आत्मा स्वरूपं यस्य स देवतात्मा । देवस्वरूप इत्यर्थः । यत एव देवतात्मा अत एव अस्य हरेण सह स्वाजन्यम् ।
जउ देवतात्मा तउ महेश्वरि सउँ स्वाजन्यु अनइदेवानां मध्ये लब्धयज्ञफलभागत्वात् । देव-माहि लब्ध = लाधउ यज्ञ-फल-विभागु ।
यदुक्तं । इहापि च वक्ष्यति । प्रजापतिः कल्पितयज्ञभागं शैलाधिपत्यं स्वयमन्वतिष्ठन् ।
प्रजापति ब्रह्मां देव-माहि यज्ञ-भागु कल्पिउ, अनइ पर्वत-माहि आधिपत्यु दीधउं ।
पुनः किंविशिष्टो नगाधिराजः । स्थितः ऊर्ध्वं रहितः । किं कृत्वा । तोयनिधी समुद्रौ विगाह्य अभि [१ क]-व्याप्य । न तु जलनिय्ये (?) । बहवः सन्ति । को तोयनिधी? । भणीइ ।
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फेब्रुआरी २०११
पूर्वापरौ । पूर्वश्च अपरश्च पूर्वापरौ ।
पूर्व भणीयइ पूर्व-सागर । अपर समुद्र । अपर भणीइ पश्चिम दिशि तणउ समुद्र । ति बेउ विगाही व्यापीउ रहियु अछइ.
कवि-कालिदासेन उत्प्रेक्षते क इव? पृथिव्या मानदण्ड इव । प्रमाणयष्टिरिव ।
जाणीयइ किरि पृथ्वी मविवा-तणउ दंड छइ । भणइ हो एहउ दंडु किम घटइ । भणइ
यावन्मयं तावत्प्रमाणो दण्डः क्रियते । यदा गृहादि अनुमीयते तदा हस्तप्रमाणय (?) लंबया मीयते । तदा हिमवत्सदृशेन दण्डेनेत्यर्थः । न तु (?नु) अहो हिमस्यालयः हिमालयः । तस्य ग्रन्थादौ किं वर्णनम् । नैवं । हि निश्चितं मा लक्ष्मीः तस्या आलये(यो) हिमालयः ।।
हि निश्चई मा भणीयइ लक्ष्मी तहि तणउ आलयु आवासु जु ॥छ।। यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दोग्धरि दोह-दक्षे ।
भास्वन्ति रत्नानि महौषधीश्च पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम् ॥२॥ इदानीं षोडशभिः श्लोकैः माहिमाव(च?)लवर्णनमेव प्रतुष्टुषुराह ।
हवं एहि सोलिहि श्लोकिहि हिमाचल-तणउं वर्णनु स्तवतु हूंतउ कवि बोलच्छइ ।
सर्वशैलाः सर्वे मेरुमन्दरादयः पर्वताः यं हिमालयं वत्सं परिकल्प्य तर्णकं रचयित्वा धरित्री पृथ्वी रत्नानि दुदुहुः । वच(व?)इ(?) अधुक्षत ।
सविहु शैलि सविहउ पर्वति जु हिमाचलु वत्सु वाछडउ कल्प्पी(प्यी?)उ धरित्री पृथ्वी रत्न दूधी ।
न केवलं रत्नानि दुदुहुः । अनइ महौषधीश्च । महत्यश्च ओषधयश्च महौषधयस्ता महौषधीः ।
इसउँ नही ज केवलां रत्न दूधी । अनइ महांत अछइ जि शिल्यविशल्या-अमृतसंजीवनी-व्रणसंरोहिणी-इत्यादिक-ऊषधी दूधी ।
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
कदा दुदुहिरे । मेरौ पर्वते दोग्धरि स्थिते सति । कहीअं दूधी । मेरुपर्वति दुहणाहरि हूंतइ ।
यतः किंविशिष्टे मेरौ । दोहदक्षे । दोहदक्षः दोहे दक्षत्रस्तस्मिन् दोहदक्षे।
दोहवा तणी ज क्रिया तेह तणइ विषइ दक्षु जु । किंविशिष्टां धरित्रीम् । पृथूपदिष्टां । पृथुना वैण्येन राज्ञा उपदिष्टा पृथूपदिष्टा तां पृथू० ॥ [१ख]
पृथु भणीयइ वैण्यु राजा । तीण उपदिशी-कही । ततश्च तन्निदेशेन ऋषि-सुरासुर-पितृनागयक्षराक्षसगन्धर्वपर्वततरुभिः ।
तहि तणा निदेश-तउ ऋषि-सुरासुरि पितृ-नागि यक्ष-राक्षसि गंधर्वपर्वति तरु-वृक्षि दूधी ।
शैलैश्च श्रूयते दुग्धा पुनर्देवी वसुन्धरा । उ(औषधीर्वै मूर्तिमती रत्नानि विविधानि च ॥१॥ वत्सस्तु हिमवानासीद्दोग्धा मेरुर्महागिरिः ॥
किंविशिष्टानि रत्नानि । भास्वन्ति । उषधयः किंविशिष्टाः । भास्वन्त्यः । भासो विद्यन्ते येषां तानि भास्वन्ति । भासो विद्यन्ते यासां ताः भास्वत्यः । भास्वन्ति च भास्वत्यश्च भास्वन्ति । नपुंसकैकशेषः ।
नपुंसकलिंग-तणउँ एकशेषु रहिउँ । 'भास्वत्य' लोपाणउँ ॥२॥ अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य हिमं न सौभाग्यविलोपि जातं । एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः ॥३॥
हिमं तुषारं यस्य पर्वतस्य सौभाग्यविलोपि न जातम् । रामणीयकविच्छेदकारि न सम्पन्नम् ।।
___हिमु जेह पर्वत किहइ सौभाग्य-विलोपीउँ न हउँ । रामणीयकविच्छेद-कारि न संपन हउँ ॥
किंविशिष्टस्य यस्य । अनन्तरत्नप्रभवस्य । अनन्तानि च तानि रत्नानि अनन्तरत्नानि । अनन्तरत्नानां प्रभवः अनन्तरत्नप्रभवस्तस्य अनं० ।
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अनंत असंख्यात अछइ जि रत्न तीहँ तणउ प्रभवु उत्पत्ति-हेतु जु।
"जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद्ररत्नमभिधीयते' । हि यस्मात्कारणात् । एको दोषः गुणसन्निपाते गुणसमूहे निमज्जति ब्रुडति विलयं याति । क इव । अङ्क इव लाञ्छनमिव । यथा अङ्को लाञ्छनं इन्दोश्चन्द्रमसः किरणेषु निमज्जति ब्रुडति ।
यम अंकु लांछनु इंदु चंद्रमा-तणे किरणि बूडइ । नूनं न दृष्टं कविनाप्यनेन 'दारिद्ममेकं गुणराशिहारि । एकुत्र द्वितीय (दारिद्र?) गुण तणउ राशि हरइं ।
हि यस्मात् कारणात् एको दोषः गुणसन्निपाते गुणसमूहे निमज्जति ब्रुडति । यः कवि इति बभाण ।
यीएं कवि इसउं भणिउं । एकु दोषु गुण-संनिपाति बूडइ । दोषु एकु, गुण घणा । घणे गुणि दोषु अछतउं न जाणीयै ॥३॥
यश्चाप्सरोविभ्रममण्डनानां सम्पादयित्रीं शिखरैर्बिभर्ति । बलाहकच्छेदविभक्तरागामकालसन्ध्यामिव धातुमत्तां ॥
यः पर्वतो हिमाचलः शिखरैः शृ[२क]ङ्गैर्धातुमत्तां बिभर्ति । सिन्दूरादीन् धातून् धारयति । धातवोऽत्र सिन्दूरादयो रक्तास्ते विद्यन्ते यस्य असौ धातुमान् । तद्भावो धातुमत्ता । तां धातुमत्तां ।
जु पर्वतु शिखरि श्रृंगि करीउ धातुमत्ता धरइ । सिंदूरादिक धातु धरइ।
[किंविशिष्टां धातुमत्तां ।] सम्पादयित्री उत्पादयित्रीं । संपजावणहारि ऊपजावणहारि ज धातुमत्ता ।
केषाम् । अप्सरोविभ्रममण्डनानाम् । अप्सरसां देवाङ्गनानां विभ्रमा विलासास्तदर्थं मण्डनानि भूषणानि अप्सरोविभ्रममण्डनानि । तेषां अप्सरोविभ्रममण्डनानाम् ।
अप्सरा भणीयइ देवांगना । तीहं तणा जि विभ्रम विलास तदर्थे मंडन ज धातुमत्ता ।
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अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
पुन: किंविशिष्टां धातुमत्ताम् । बलाहकच्छेदविभक्तरागाम् । बलाहका मेघास्तेषां छेदाः खण्डानि तेषु विभक्तोऽर्पितो रागो लौहित्यं यया सा बलाहकच्छेद विभक्तरागा । तां बलाहकच्छेदविभक्तरागां मेघखण्डन्यस्तलौहित्याम् ।
६
बलाहक भणीयइ मेघ । तीह तणा जि छेद खंड तेहि विभक्त अर्पि रागु लौहित्यु अछइ ।
उत्प्रेक्षते । अकालसन्ध्यामिव असमयसन्ध्यामिव । जाणीयइ किरि अकालि अप्रस्तावि संध्या अछइ ।
सन्ध्यावेलायां किल लोहिता मेघा भवन्ति । मध्याह्नेऽपि रक्तजलदावलोकनादित्थमूह (हः) ।
किरि तोयि संध्या-वेलां आरक्तमेघ हउइं । मध्याह्न । राता मेघ देखीउ देवांगना इसु ऊहु करइ । ज । सिंध्या हु । ए मंडन करउ ।
अकालग्रहणेन सदैव मेघानां रागार्पणं प्रतीयते । एषा उत्प्रेक्षा न उपमा। सत् किलोपमानं दीयते । न च अकाले क्वचित् सन्ध्या संभवति । उत्प्रेक्षायामुप्रमा(?)क्षमेव तथावभासो हेतुः ॥४॥
आमेखलं संचरतां घनानां छायामधः सानुगतां निषेव्य । उद्वेजिता वृष्टिभिराश्रियन्ते शृङ्गाणि यस्यातपवन्ति सिद्धाः ॥ ५ ॥ सिद्धा देवविशेषा यस्य पर्वतस्य शृङ्गाणि शिखराणि आश्रि(श्रन) यन्ते
आसेवन्ते ।
सिद्ध किसा कहीयइ ।
4 'अवाप्ताष्ट र्यः सिद्धः सद्भिरुदाहृतः' । किं कृत्वा । आमेखलं नितम्ब-पर्यन्ते संचरतां पर्यटतां जीमूतानां मेघानां अधः सानुगतां उपत्यकापतितां छायां निषेव्य सेवित्वा ।
आमेखलु नितम्ब-पर्यंते सांचरता अछइँ जि जीमूत मेघ तींह तणी अध हेठलि सानु शिखरि गत स्थित छाया सेवीउ ।
कथंभूताः सिद्धा वृष्टिभिः उद्वेजिताः पीडिताः सन्तः शीतनिवृत्तये शृङ्गाणि रषिकां ।
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फेब्रुआरी २०११
लेखरत्नाकरपद्धतिः
सं. विजयशीलचन्द्रसूरिः कोईक ग्रन्थभण्डारनी एक पत्रनी प्रति परथी थयेल आ सम्पादन छे. ते प्रतिनो परिचय तेमां आ प्रमाणे जोवा मळे छ : “पत्रलेखरत्नाकर पद्धति हेमचन्द्रसूरिकृत्, पत्र १ (लेखिनीकल्प) नं. २७९३".
हेमचन्द्रसूरिनुं नाम वांचीए एटले स्हेजे कलिकालसर्वज्ञनी कृति होवानी सम्भावना जागे. परन्तु कृति वांचता ज समजाई जाय के आ हेमचन्द्रसूरि कोईक बीजा ज होई शके.
कृतिनो पाठ अत्यन्त अशुद्ध छे. प्रतिपादन शिथिल अने त्रूटक जेवू छे. कोई सामान्य लेखकनी कृति होय तेवो वहेम पडे छे. तेवा लेखके माहात्म्य वधारवा 'हेमचन्द्र' शब्द जोडी दीधो होय तो ते पण बनवाजोग छे. हेमचन्द्राचार्यना समयमां थयेल एक अन्य हेमचन्द्रसूरि हता, पण तेमनी पण भाषा तथा रचना आवी तो न ज सम्भवे.
'लेखपद्धतिः' नामे ग्रन्थ, वर्षो पूर्वे, गायकवाड्झ ऑरिएन्टल सिरिजबरोडाथी प्रकाशित छे. तेमां गुप्तयुगथी लईने १७-१८ मा शतक सुधीना गाळामां विविध राजसत्ताओना शासनमां – काळमां पत्रलेखो केवी रीते लखाता, तेना घणा नमूना प्रगट थया छे, गद्यात्मक तेमज पद्यात्मक. संस्कृतमां तेमज भाषामां. एटले आ लेखपद्धतिनी कोई विशेषता छे माटे प्रकट करवामां आवे छे एवं नथी. फक्त आनी साथे हेमचन्द्रसूरि एवं नाम जोडायुं छे, तेथी थता भ्रमनुं निराकरण करवाना आशयथी ज अत्रे आपेल छे.
प्रति अनुमानतः १७मा शतकमां लखायेली जणाय छे. १३ मा श्लोकमां 'प्रीतिपोत्कार' (प्रीतिथी पोकार) तथा 'शिलाम' (सलाम) ए बे शब्दो आवे छे ते मुस्लिम असर होवा प्रत्ये आपणुं खास ध्यान खेंचे छे.
२३ पद्योनो 'लेखरत्नाकर' छे, अने अन्ते लखायेला २ श्लोक ते 'लेखिनीकल्प' होय तेम जणाय छे.
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अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
श्रीहेमचन्द्रसूरिरचितः लेखरत्नाकरः ॥ श्रीशारदां हृदि ध्यात्वा हेमचन्द्रेण सूरिणा । लेखरत्नाकरो नाम संक्षेपेण विधीयते ॥
पञ्च सप्त नवमांशान् वृद्ध तुल्य लघून् प्रति । आदौ त्यक्त्वा लिखेल्लेखं पार्श्वे तस्य दशांशकम् ॥२॥ श्रीकारं प्रथमं दद्याद् ग्रामं शाखापुरं विना । नामादि च गुरोर्मन्त्रि- देवभूपादिकारणम् ॥३॥ राज्ञोऽमात्यसुतस्त्रीणां पूज्यानां च विशेषतः । बहुलक्ष्मीतपोविद्या – महत्त्वादिविराजिनाम् ॥४॥ स्थानं नाम च वृद्धानां तुल्यानां प्रथमं लिखेत् । विपरीतं लघूनां चा ऽभीष्टनाम न खण्डयेत् ॥५॥ स्वस्थाने पञ्चमीं दद्यात् परस्थाने च सप्तमीम् । आत्मनः प्रथमां दद्याद् द्वितीयामपरस्य च ॥६॥ कुर्याद्विपटमालापा’-वधि ( ? ) स्वस्तिसमन्वितम् । हस्तेन नार्पयेल्लेखं बद्ध्वा सूत्रेण नो पुनः ॥७॥ षड् गुरोः स्वामिनः पञ्च चत्वारो द्विषतां मता: । त्रयः सख्युर्द्वी भार्यायाः श्रीकारः पुत्रशिष्ययोः ॥८॥ पुत्रमित्रसुहत्तौत- स्वामिसद्गुरुदैवतैः ।
एकाद्येकोत्तरं विन्द्यात् श्रीकाराः सप्त सूरिभिः ||९|| महत्पूज्यचिरंजीवि-परमं देशकारिणः ।
सेव्यः सविनयः पूर्वं नाम्नामेतानि योजयेत् ॥१०॥ ( ? ) अग्रैकादशीयोग्येन चरणान् वचन: पुन: (?) ।
स्थानात् ग्रामपुरं दुर्ग: नगरं स्थानपत्तनम् ॥११॥ वन्दना द्वादशावर्त्त-वचना विनियोजयेत् ।
केवलं कुशलं प्रस्ता (?) गाढालिङ्गनतः पुनः ॥१२॥
१. त्याज्यं प्रतौ पाठां. टि. । ३. पुत्रभृत्यसुहृद्वैरि० प्रतौ पाठां टि. ॥
२. ० मालायां षधि० प्रतौ पाठां० टि. ।
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सस्नेहं साञ्जसं योग्यं प्रीतिपोत्कार एव च । अभिवन्दे शिलामं च नमोऽस्तु नियोजयेत् ॥१३॥ नारायणायुर्दीर्घायु-ब्रह्मायुर्धर्मलाभकः । धर्मवृद्धिस्तथाऽखण्ड-प्रतापादि नियोजयेत् ॥१४॥ अक्षयाऽजरामरताऽविधवाऽथ सुतवत्यपि । शुभराज्यं च भरित-पूरितं कुशलोदयं ॥१५॥ शिवायुरेवमादीना-माशीर्वादपुरःसरम् ।। येषां यस्ते न देया (?) प्रयुज्यन्ते ततः क्रिया ॥१६।। लेखयोग्या प्रकाश्यन्ते क्रिया पश्चात् प्रयुज्यते । निर्मंत्रय त्यक्त्वा मंत्रेय ते च कथयत्यति ॥१७॥ (?) लेखरत्नाकरादस्माद् भावरत्नानि उद्धरेत् । गृहीत्वा रचयेल्लेख-हारानवद्यवजितान् ॥१८॥ एकपट्टे स्वस्तिहीने रजोहीने द्विगुण्ठिते । त्रिभिः कारंखकैर्लेखैः नास्ति सिद्धिं (द्धिः) करार्पिते ॥१९॥ गुरोर्वचनमाश्रित्य धीमतां स्मृतिहेतवे । अज्ञानबोधनार्थाय वक्ष्येऽहं लेखपद्धतिम् ॥२०॥ चतुःसागरपर्यन्ते समस्ते क्षितिमण्डले । नास्ति देशो विना राजा लेखकं च विना नृपम् ॥२१॥ प्रज्ञाहीनाश्च ये मूढा अदक्षा लेखकर्मणि । तेषामेवोपदेशार्थं पञ्चाशद्विधयः कृताः ॥२२॥ व्यापारा बहवश्चार्था राजमूले व्यवस्थिताः । लेखकैस्तु विचार्यन्ते स्वामिचित्तानुवृत्ति(वर्ति)भिः ॥२३॥
इति लेख रत्नाकर पद्धतिः ॥ लेखनी सर्वकार्येषु व्यापारेषु सदामुखी । नवपर्वसमायुक्ता अधिकस्याधिकं फलम् ॥१॥ सन्मुखी हरते प्राणा-नधोमुखी धनक्षयः ।
वामा च हरते आयुः दक्षिणा सुखसम्पदः ॥२॥ ४. ०मादाय प्रतौ पाठां. टि. । ५. मतिमाश्रित्य धीमताम् प्रतौ पाठां. टि. । ६. भूप प्रतौ पाठां. टि. ।
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
श्रीहेमचन्दाचार्यनी अगमवाणी
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि "त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' ए हेमचन्द्राचार्यनो रचेलो, ३६००० श्लोक प्रमाण महाकाव्यग्रन्थ छे. दश पर्वोमां पथरायेल आ महाकाव्यमां जैनोना २४ तीर्थङ्कर तथा १२ चक्रवर्ती राजा समेत ६३ शलाकापुरुषोनां कथाचरित्रोनुं वर्णन छे. ते ग्रन्थना १०मा पर्वना अन्त भागमां तेमणे, हवे पछीनो समय केवो हशे तेनी आगाही कहो के भविष्यकथन, आपेल छे. वर्तमान परिस्थिति साथे तेमनी ते भविष्यवाणी महदंशे मेळ खाती होवाथी ते श्लोको अनुवाद साथे अत्रे आपेल छे. श्लोकोने १-१६ क्रमाङ्क वाचकोनी सुगमता खातर ज आप्या छे. मूळ क्रमाङ्क जुदा छे.
आ आगाहीओनी सच्चाई विषे विचारीए तो - लोकमां कजियाकंकासनी वृद्धि अने मर्यादालोप (श्लोक १) आजे व्यापकपणे अनुभवाय छे. भारतवर्षनी आर्य प्रजामां, विशेषे गुजरात-मारवाडनी प्रजामां जे सहज अहिंसा तथा दयादानना संस्कारो हता ते, विधर्मीओना नठोर सहवास थकी नामशेष थवामां छे (श्लोक २). गामडां पडी भांग्यां छे, अने शहेरोमां थती गीचताने लीधे चारेकोर भूतावळ नाचती होय तेवू लागवा मांड्युं ज छे. गृहस्थो, खेडूतो, कणबीवर्ग पोताना खेती आदि व्यवसाय छोडीने नोकरी शोधवा फरे छे ज. अने शासकोनी क्रूरताथी प्रजा क्यां अजाण छे (श्लोक ३)? ।
आपणा समाजमां मत्स्य न्याय आजे प्रवर्ते छे ज. दा.त. पोलिसकर्मी ज्यारे हप्ता उघरावे छे त्यारे तेना शिरे छेक सर्वोच्च व्यक्ति सुधी हिस्सो पहोंचाडवानी जवाबदारी होय छे. आ मत्स्य न्याय नथी तो शुं छे ? आवं तो बधा ज क्षेत्रमा जडशे (श्लोक ४). अस्पृश्यतानिवारणना मनुष्यहितकारी आन्दोलनथी लईने आधुनिक अनामतपद्धतिना राजकारणनी वास्तविकतानुं निरीक्षण करीए तो, अने बे विश्वयुद्धो, भारतना भागला, इराक पर आक्रमण वगेरे बनावोना सन्दर्भ याद राखीए तो, श्लोक ५ मांनी वात समजाई जशे.
___श्लोक ६नी दरेक वातनो अनुभव आपणे निरन्तर करीए ज छीए. श्लोक ७मां आपणा साम्प्रत स्वार्थी समाजनुं मार्मिक चित्रण थयुं छे. तो ८मा
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श्लोकमां गुरु-शिष्यना सम्बन्धो तथा परम्परामां आजे आवी गयेली विरसता प्रत्ये संकेत थयो छे. जरा वधु व्यापकताथी जोईए तो शाळा-कॉलेजयुनिवर्सिटीओमां विद्यार्थीओने प्राध्यापको प्रत्ये आदर क्यां बच्यो छे ? तो प्राध्यापकवर्ग पण तेमने भणावे छे खरो ? आ स्थितिमां गुरुकुलवास क्यां टके (श्लोक ९)? धरती खोदी काढी, पहाडो तोड्या, वनो काप्यां, आथी जन्तुओने रहेवानां स्थानो नष्ट थयां. हवे ते जन्तुओ आपणी वसतिमां न आवे, न उभराय तो क्यां जाय ?
आ काळमां देवो केम आवता नथी ? आपणने आटली तकलीफो छे, धर्मने घणी जरूर पण छे, तो देवो फरज समजीने पण के दयाभावथी पण केम न आवे? खरेखर देवो हशे ज नहि ! - आ प्रकारनी विकल्पजाळ दरेक व्यक्तिना चित्तमां प्रगटती होय छे. आचार्ये एक ज वाक्यमां तेनो जवाब आपी दीधो छे (श्लोक १०). पिता-माताने छेह देवो, घरडांघरने हवाले करवां इत्यादि घटमाळनी तेमज सासु-वहू वच्चे जोवा मळता विसंवादनी वात पण तेमणे आ ज श्लोकमां करी छे.
११मो श्लोक जरा आकरो लागे. परन्तु आजनी स्त्रीमां, युवतीमां जे छाकटापणुं, अंगोनुं प्रदर्शन करतां वस्त्रोनी फेशन, स्थल-समयनी तथा नानामोटानी मर्यादा तूटे ते रीते करवामां आवतां चेनचाळा के नखरां - आ बधुं जोईए छीए त्यारे आचार्य, दर्शन केटलुं दूरगामी हतुं ते समजाई शके छे.
१२मा श्लोकनो सम्बन्ध जैन धर्म साथे खास छे. आजे श्रावकश्राविका क्यां रह्यां छे ? वाणिया छे, भक्तजनो छे, धर्मी लोको पण हशे; परन्तु जैन धर्मना तमाम व्रतनियमोनुं ग्रहण तथा पालन करनारा जनो क्यां छे ? तो दान-शील-भावनी शास्त्रवर्णित स्थिति पण भाग्ये ज जोवा मळे. दान सोदाबाजी जेवां लागे-घणीवार, तो तप तो वेचाऊ चीज जेवू बनावी देवायुं छे ! शील प्रत्ये भारोभार दुर्लक्ष्य छे. संघोमां संघजमण थाय तेमां पण भक्षाभक्ष्यविवेक, जयणापालन वगेरे नथी सचवाता. फलतः संयमीओ ते रसोई ग्रहण न करे, तो कोईनुं रूंवाडं य न फरके ! एमने न लेवं होय तो आपणे शुं करीए? अथवा खोटुं बोलीने आपे. आ स्थितिनुं मार्मिक बयान १२ मो श्लोक आपी जाय छे.
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१३ मा श्लोकमांनी ४ - ५ वातोनो स्वानुभव सहुने छे. १४-१५मा श्लोकोमां कहेवायेली वातो पण आजे अनुभवसिद्ध छे.
१२
आश्चर्य एटलुं ज थाय छे के २० मा शतकमां पेदा थनारी परिस्थितिनुं आटलुं बधुं वास्तवदर्शी अने सचोट वर्णन १२ मा सैकामां एमणे केवी रीते कर्तुं हशे ? शुं आवी भविष्यदर्शी दृष्टिने लीधे ज तेओ 'कलिकालसर्वज्ञ' कहेवाया हशे ? अस्तु.
अतः परं दुःषमायां कषायैर्लुप्तधर्मधीः । भावी लोकोऽपमर्यादोऽत्युदक क्षेत्रभूरिव ॥ १ ॥
हवे पछीना दुःखमय समयमां, लोको, कषायोनी बहुलताने लीधे, धर्मबुद्धि भ्रष्ट थशे; हद करतां वधु पाणीनो भरावो थतां जेम धरती पोतानी मरजाद छोडे तेम लोको पण मर्यादाभ्रष्ट थई जशे .
यथा यथा यास्यति च कालो लोकस्तथा तथा । कुतीर्थिमोहितमति-र्भाव्यहिंसादिवर्जितः ॥२॥
जेम जेम समय वीततो जशे, तेम तेम लोकोनी मति, विधर्मीओना सहवासने कारणे मूढ थशे अने लोको अहिंसा जेवां तत्त्वोथी भ्रष्ट थशे. ग्रामः श्मशानवत् प्रेतलोकवन्नगराणि च । कुटुम्बिनश्चेटसमाः यमदण्डसमा नृपाः ॥३॥
पछी गामडां श्मशान जेवां बनशे, नगरो प्रेतलोक जेवां भासशे. घरमालिको-खेडूतो नोकर बनशे, अने राजाओ ( शासको) जमराजा जेवा (क्रूर, जीवलेण) बनी जशे.
लुब्धा नृपतयो भृत्यान् ग्रहीष्यन्ति धनं निजान् । तद्भृत्याश्च जनमिति मात्स्यो न्यायः प्रवर्त्यते ॥४॥
लोभी राजाओ (शासको) पोताना नोकरोनुं धन पडावी लेशे; तो ते नोकरो प्रजाजनने लूंटी लेशे; आम मत्स्यगलागल न्याय प्रवर्तशे.
येऽन्त्यास्ते भाविनो मध्ये ये मध्यास्तेऽन्तिमाः क्रमात् । देशाश्च दोलायिष्यन्ते नावोऽसितपटा इव ॥५॥
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जेमनुं स्थान छेवाडे होय ते वच्चे आवी विराजशे, अने वच्चे स्थान धरावनाराओ छेवाडे धकेलाई जशे. देशो अस्थिर थई जशे वहाणनी जेम.
सढ विनानां
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चौर्या चौरा: पीडयिष्यन्त्युर्वी भूपाः करेण तु । श्रेयो भूतग्रहप्राया लञ्चालुब्धा नियोगिनः ॥६॥ चोरलूंटारा चोरी करीने प्रजाने पीडशे अने राजाओ (शासको) करवेरा नाखीने पीडशे. शेरीओ जाणे भूत वळग्यां होय तेवी जशे; अधिकारीओ लांचिया थशे.
सूमसाम थई
भावी विरोधी स्वजने जनः स्वार्थैकतत्परः । परार्थविमुखः सत्यदयादाक्षिण्यवर्जितः ॥७॥
१३
लोको अत्यन्त स्वार्थी अने स्वजनो साथे पण विरोधवाळा थशे; परोपकारथी विमुख तेमज सत्य, दया, दाक्षिण्य जेवा गुणो विनाना हशे . गुरून्नाराधयिष्यन्ति शिष्याः शिष्येषु तेऽपि हि । श्रुतज्ञानोपदेशं न प्रदास्यन्ति कथञ्चन ॥८॥
शिष्यो गुरुनो आदर नहि करे; सामे पक्षे गुरुओ पण शिष्योने ज्ञाननो उपदेश नहि आपे.
एवं गुरुकुलवासः क्रमादपगमिष्यति ।
मन्दा धीर्भाविनी धर्मे बहुसत्त्वाकुला च भूः ॥९॥
आम थतां, धीमे धीमे (शिष्योनो) गुरुकुलवास समाप्त थशे. धर्मने विषे लोकनी बुद्धि-सद्भाव मन्द पडी जशे. पृथ्वी अनेक जन्तुगणथी छलकाशे.
न साक्षाद् भाविनो देवाः विमंस्यन्ते सुताः पितॄन् । सर्पीभूताः स्नुषाः श्वश्र्वः कालरात्रिसमाः पुनः ॥१०॥ देवो प्रत्यक्ष दर्शन नहि आपे. सन्तानो वडीलोने अवगणशे. पुत्रवधूओ नागण जेवी, तो सासुओ कालरात्रिसमान - क्रूर बनशे
दृग्विकारै: स्मितैर्जल्पै - विलासैरपरैरपि । वेश्यामनुकरिष्यन्ति त्यक्तलज्जाः कुलस्त्रियः ॥११॥
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
खानदान परिवारनी स्त्रीओ पण, आंखना उलाळा, हांसी, प्रलापो, अने बीजा चेनचाळा करती हशे अने तेने लीधे ते निर्लज्ज जेवी लागशे.
श्रावकश्राविकाहानि-श्चतुर्धा धर्मसंक्षयः ।
साधूनामथ साध्वीनां पर्वस्वप्यनिमन्त्रणम् ॥१२॥
श्रावक अने श्राविकानी खोट पडशे - नहि मळे. (अथवा तो, श्रावक-श्राविकावर्गने नुकसान थशे.) दान आदि चार प्रकारनो धर्म क्षीण थशे. साधु-साध्वीओने पर्वदिनोमां पण कोई नहि बोलावे. (पोताना त्यां प्रसंग होय अने संघजमण के जमण आदि होय तेवे वखते पण साधु-साध्वीने कोई वहोरवा बोलावशे नहि).
कूटतुला कूटमानं शाठ्यं धर्मेऽपि भावि च ।
सन्तो दुःस्थीभविष्यन्ति सुस्थाः स्थास्यन्ति दुर्जनाः ॥१३॥
खोटां तोल-मापना ज व्यवहारो चालशे. धर्ममां पण शठता – लुच्चाई अने ठगाई चालशे. सज्जनो दुःखी थशे अने दुर्जनो लहेर पामशे.
मणिमन्त्रौषधीतन्त्रविज्ञानानां धनायुषाम् । फलपुष्परसानां च रूपस्य वपुरुन्नतेः ॥१४॥ धर्माणां शुभभावानां चान्येषां पञ्चमे हरे ।
हानिर्भविष्यति ततोऽप्यरे षष्ठेऽधिकं खलु ॥१५॥ मणि, मन्त्र, औषध, तन्त्रविज्ञान, धन, आयुष्य, फल अने पुष्पना रस, शरीर- रूप, देहनी ऊंचाई, अने बीजा पण धर्मो तथा शुभभावो - आ बधांयनी, आ पंचम काळमां – दुःखमय समयमां, हानि थशे. जो के पछीना - छठ्ठा काळमां तो तेथी पण अधिक हानि थशे.
क्रमादेवं क्षीयमाणपुण्ये काले प्रसर्पति ।
धर्मे धी विनी यस्य सफलं तस्य जीवितम् ॥१६॥
आम, धीमे धीमे पुण्यनो हास थतो जशे. एवा समयमां जेनुं मन धर्ममां परायण हशे तेनुं जीवतर सफल बनशे.
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फेब्रुआरी २०११ श्रीहेमचन्दाचार्य विरचित प्रमाणमीमांसाना परिप्रेक्ष्यमां मतिज्ञानना उत्पत्तिक्रमनी विचारणा
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य विरचित प्रमाण-मीमांसा जैनदर्शन सम्मत प्रमाणव्यवस्थानी चर्चा करता ग्रन्थोमां महत्त्व- स्थान धरावे छे. आ ग्रन्थनो बहु ओछो अंश उपलब्ध होवा छतां, एना गम्भीर प्रतिपादन तेमज मौलिक विचारणाओने लीधे भारतवर्षना दार्शनिक क्षेत्रे अनुं प्रदान बहुमूल्य गणाय छे. आम तो कलिकालसर्वज्ञना ग्रन्थोमां मुख्यत्वे प्राचीन परम्पराओनो सर्वग्राही व्यवस्थित संग्रह करवानुं वलण जणाय छे. परन्तु प्राचीन परम्पराने योग्य परिष्कार करीने ज तेओ स्वीकारे छे ते तेओनी लाक्षणिकता छे. प्र.मी.गत मतिज्ञान अटले के इन्द्रिय अने मनथी जन्य प्रत्यक्षतुं निरूपण ओ दृष्टिले बहु ध्यानार्ह छे. आ निरूपण आगमिक परम्परा अनुसार ज होवा छतां ओने वधु तर्कसंगत बनाववा अमां केटलाक परिष्कार करवामां आव्या छे. आ निरूपणने केन्द्रमा राखी आपणे क्रमशः नीचेना मुद्दाओ तपासीशुं :
१. मतिज्ञानोत्पत्तिनुं आगमिक वर्णन (आगमिक परम्परा) २. मतिज्ञानोत्पत्तिनुं प्र.मी.गत वर्णन (तार्किक परम्परा) ३. ओ बन्ने वच्चे मुख्य भिन्नता ४. भिन्नतानां सम्भवित कारणो ५. उपलब्ध थती बे परम्परा वच्चेनी चर्चा ६. बे परम्पराओनो सम्भवित समन्वय
७. प्र.मी.ना निरूपणनी केटलाक जैन ग्रन्थो साथे तुलना मतिज्ञानोत्पत्तिनुं आगमिक वर्णन
आगमिक परम्पराने सम्मत मतिज्ञानना उत्पत्तिक्रमनुं विशद वर्णन वि.भाष्यमां' मळे छे. तदनुसार श्रोत्र, घ्राण, रसन अने स्पर्शन - आ चार प्राप्यकारी १. गाथा १७८-३५४ २. जे इन्द्रिय विषय साथे संयुक्त थया पछी ज बोध करवा समर्थ बने छे ते इन्द्रिय
प्राप्यकारी कहेवाय छे. चक्षु अने मन अप्राप्यकारी छे.
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
इन्द्रियोनो सौ प्रथम पोतपोताना विषयभूत पुद्गलस्कन्धो साथे संयोग थाय छे.
आ संयोग साथे ज ज्ञान उत्पन्न थाय छे. पण अनी मात्रा अटली बधी अल्प होय छे के ओ ज्ञान प्रमाताने खुदने जणातुं नथी. पछी क्रमशः वधु ने वधु पुद्गलस्कन्धो साथे सम्बन्ध जोडातो जाय तेम मात्रा वधतां वधतां अन्तर्मुहूर्तकाळे, 'आ शब्द छे, आ घटपदवाच्य छे' अवा तमाम विशेषोथी रहित फक्त महासामान्यने विषय बनावनारो, 'कंइक छे' ओवो आकार ते ज्ञानमां रचाय छे. आ आकार जे समये रचायो ते समयथी प्रमाताने ज्ञाननो ख्याल आववा मांडे छे; तेथी आवी विशिष्ट व्यक्त ज्ञानमात्राने पूर्वनी असंख्य अव्यक्त ज्ञानमात्राओथी अलग पाडवा 'अर्थावग्रह'ना नामे ओळखवामां आवे छे. अने ते पहेलांनी तमाम अव्यक्त ज्ञानमात्राओ संयुक्तरूपे 'व्यञ्जनावग्रह' नामे ओळखाय छे. बन्ने स्थाने 'अवग्रह'नो अर्थ 'अत्यन्त अल्पज्ञान' थाय छे. 'व्यञ्जन' अने 'अर्थ' शब्दो, तात्पर्य आपणे आगळ समजीशुं.
चक्षु अने मनने बोध माटे पोताना विषयभूत पदार्थ साथे संयोगनी अपेक्षा नहीं होवाथी', तज्जन्य प्रत्यक्षमां सीधो ज 'कंइक छे' अवो आकार रचाय छे. माटे ओ बे स्थळे अर्थावग्रहथी ज ज्ञानोत्पत्तिनी प्रक्रिया आरम्भाय छे.
अर्थावग्रहमां 'कंइक छे' अवो बोध थाय अटले तरत ज 'शुं हशे? श्रोत्रग्राह्य छे माटे शब्द होवो जोईओ, घ्राणग्राह्य नथी माटे गन्ध न होई शके' आवी अन्तर्मुहूर्त सुधी चालनारी विचारणा आरम्भाय छे. दरेक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षनी उत्पत्ति-प्रक्रियामा अर्थावग्रहथी मन पण साथे जोडातुं होवाथी आ विचारणा शक्य बने छे. आ विचारणा अन्वयधर्मोना अस्तित्वनी अने व्यतिरेकधर्मोना अभावनी सिद्धि द्वारा वस्तुना निश्चय तरफ दोरी जती होवाथी 'संशय' नहीं, पण 'ईहा' कहेवाय छे.
आ विचारणाने अन्ते वाचकशब्दना उल्लेख सहित जे विशेषनो१. व्यञ्जनावग्रहना विशेष स्वरूप माटे जुओ जै.त.-परि. ६ २. चक्षु अने मनना अप्राप्यकारित्वनी सिद्धि माटे जुओ तत्त्वार्थ०-१.१९, जै.त.-परि. ७ ३. "श्रोत्रादीन्द्रियव्यापारकालेऽपि मनोव्यापारस्य व्यञ्जनावग्रहोत्तरमेवाऽभ्युपगमात् ।"
-जै.त.-परि.७ ४. वस्तुमा रहेनारा धर्मो अन्वयधर्मो अने नहीं रहेनारा धर्मो व्यतिरेकधर्मो गणाय छे. ५. अपायमां केटला विशेषो प्रकार बने ? ते माटे जुओ ज्ञानबिन्दु-परि. ४६
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शब्दत्व व.नो निश्चय थाय छे ते 'अपाय' कहेवाय छे. 'आ शब्द छे' व. आकारनो आ निश्चय अन्तर्मुहूर्त सुधी टके छे.
त्यारबाद त्रण विकल्प सम्भवे छे : १. अपायनी विषयभूत वस्तु जो त्यारे उपेक्षणीय होय तो त्यां ज आ प्रक्रिया थंभी जाय अने नवी वस्तु माटे प्रक्रिया आरम्भाय. २. जेनो निश्चय थयो होय तेना ज विशेषो विशे आगळ विचारणा चाले. दा.त. 'आ शब्द स्त्रीनो हशे के पुरुषनो ?' आ संजोगोमां अपाय से आगळना अपायनी अपेक्षाओ अर्थावग्रह गणाय छे, के जेने नैश्चयिक अर्थावग्रहथी अलग पाडवा 'व्यावहारिक अर्थावग्रह' कहेवामां आवे छे. निश्चय → विचारणा → निश्चयनी आ परम्परा क्यां सुधी लंबाय ते व्यक्तिनी जिज्ञासा पर आधार राखे छे. ३. घणीवार, खास करीने इष्ट वस्तुमां, 'आ शब्द छे, आ शब्द छे' ओवा प्रकारनो निश्चय वारंवार थया करे छे. आ धारावाहिकज्ञानपरम्परा 'अविच्युति धारणा' तरीके ओळखाय छे. आ त्रणे विकल्पो कोई पण अपाय पछी सम्भवी शके छे.
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अविच्युति धारणा, प्रमातानुं ध्यान अन्य वस्तुमां खेंचाय अने नवी ज्ञानोत्पत्तिनी प्रक्रिया आरम्भाता नष्ट थाय तो पण, आत्मामां पोतानी छाप छोडती जाय छे. आ छाप ‘संस्कार' अथवा 'वासना' नामनी धारणा गणाय छे, के जे स्मृतिना आवारक कर्मना क्षयोपशमरूप अथवा स्मृतिज्ञानोत्पादक शक्तिरूप छे. कालान्तरे कोई उद्बोधक सांपडे तो संस्कार उद्बुद्ध थतां आपणने पूर्वे अनुभवेला पदार्थनी जे याद आवे ते 'स्मृति धारणा' कहेवाय छे. मतिज्ञानना भेदोनी गणतरी वखते 'निश्चयनुं अवधारण अ धारणा' ओवी व्याख्या बनावी त्रणे धारणाओने ओक ज भेदमां समावी देवामां आवे छे. अने माटे धारणानुं कुल काळमान असंख्य वर्षोनुं गणाय छे.
ज्ञानोत्पत्तिनी आ प्रक्रियाना बधा ज तबक्का क्रमशः आ रीते ज थाय छे. अतिपरिचित वस्तुमां सीधो अपाय थयो होवानुं आपणने जणाय अने बधा तबक्कानो स्पष्ट ख्याल न पण आवे; परन्तु त्यां पण आ समग्र प्रक्रिया शीघ्रपणे अवश्य थई ज होय छे. आ क्रममां कशुं आगळ-पाछळ थवानो सम्भव नथी ते पण स्पष्ट जोई शकाय छे. हा, वधु ध्यानार्ह वस्तुविषयक ज्ञाननी नवी प्रक्रिया आरम्भाय तो जूनी वच्चेथी अटकी जाय तेम बने. पण १. 'अपाय' कहेवाय के 'अवाय' ? ते माटे जुओ त. वा. - १.१५.१३
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आत्मा ओक क्षण माटे पण ज्ञानविहोणो सम्भवतो नथी, माटे आ प्रक्रियानो कोईने कोई तबक्को आत्मामां हरहमेश प्रवर्तमान होय छे.' मतिज्ञानोत्पत्तिनुं प्र.मी.गत वर्णन
सौ प्रथम द्रव्यात्मक के भावात्मक इन्द्रियोनो३ पोताना विषय साथे, अप्राप्यकारी इन्द्रियोमा 'अनतिदूर-अव्यवहित देशमां विषय- होवू, ओना प्रत्ये ध्यान जर्बु' व. रूप वैज्ञानिक अने प्राप्यकारी इन्द्रियोमा संयोगात्मक वास्तविक सम्बन्ध-'अक्षार्थयोग' स्थपाय छे. आ सम्बन्धने लीधे अर्थ अने ज्ञानमां विषय-विषयिपणानी योग्यता जन्मे छे, के जे ज्ञानोत्पत्तिनी प्रक्रियाने शरू करे छे. आ प्रक्रिया आगळ वधतां ज्ञानमां ओक तबक्के 'कंइक छे' ओवो भास थाय छे. आटली मात्रावाळु ज्ञान वस्तुना सामान्याकारने ज विषय बनावे छे, विशेषोने नहीं; तेथी 'दर्शन'५ तरीके ओळखाय छे.
आ दर्शन ज ज्ञानमात्रानी क्रमशः वृद्धिथी अन्तर्मुहूर्तकाळे 'आ शब्द छे' अवा अवग्रहरूपेष परिणमे छे. अवग्रह अन्तर्मुहूर्तकालीन होय छे. अहींथी अर्थनो सम्यक् के असम्यक् निश्चय थवानी शरुआत थती होवाथी ज्ञान 'प्रमाण' के 'अप्रमाण' तरीके गणावानुं चालु थाय छे.
अवग्रह पछी 'आ अवाज शंखनो हशे के नगारानो ?' आवा प्रकारनो संशय पेदा थाय छे अने तेने लीधे 'अवाज ओकधारो आवे छे, माटे शंखनो होय, नगारानो नहीं' आवी विचारणा प्रवर्ते छे. संशय अर्थनिर्णयात्मक नहीं होवाथी प्रमाणना भेदोमां अनी गणतरी नथी थती.
थयेली विचारणा-ईहाने अन्ते 'आ शंखनो अवाज छे' आवो निश्चय१. मतिज्ञान माटे जरूरी क्षयोपशम-प्रक्रिया माटे जुओ ज्ञानबिन्दु - परि. ८-१३ २. प्र.मी. (सटीक) - १.१.२६-२९ ३. द्रव्येन्द्रिय अने भावेन्द्रियना स्वरूप माटे जुओ तत्त्वार्थ - २.१७-२० ४. 'कंइक छे' ओ प्रतीतिमां फक्त वस्तुगत सत्त्व ज भासित थाय छे, माटे अने महासामान्यनी ___ ग्राहक मानवामां आवे छे. ५. कोई व्यक्तिने घणा वखत पछी मळीए तो आपणे बोलीए छीए-"में एने जोयो(=दर्शन
थयु), पण ओळख्यो नहीं (=ओ व्यक्ति रूपे ज्ञान न थयु.)" आमां दर्शन शब्द जे
सामान्य प्रतीति सूचवे छे, तेवो ज भाव अहीं होई शके. ६. दर्शन अने अवग्रहमां तफावत माटे जुओ त.वा. - १.१५.१३ ७. ईहा अने ऊहमां तफावत माटे जुओ प्र.मी. १.१.२७ टीका
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अपाय थाय छे. आ निश्चय अमुक काळ सुधी टकी पछी नष्ट थई जाय छे. पण नष्ट थतां पूर्वे आत्मामां स्वसमानविषयक' संस्कार मूकी जाय छे. आ संस्काररूपे ज निश्चय आत्मामां टकी रहेतो होवाथी ते धारणा कहेवाय छे. स्मृतिमां हेतुभूत आ संस्कार प्रत्यक्षप्रमाणना भेदरूप होवाथी, ज्ञानोत्पादक होवाथी अने ज्ञानमय आत्माना धर्मरूप होवाथी एने ज्ञानात्मक ज मानवो जोईओ.
आ समग्र प्रक्रियाना अलग-अलग तबक्का समजाववा पूरता ज देखाड्या छे. वास्तवमां तो क्रमशः वधती मात्रावाळु ओक ज ज्ञान होय छे. जेम के अवग्रह पोते ज ईहारूपे परिणमे छे अम समजवानुं छे, नहीं के अवग्रह ईहा जन्मावीने नाश पामी जाय छे.२ अक्षार्थयोग>दर्शन→अवग्रह→ईहा→अपाय→ धारणा - ओ ज क्रम बधे सम्भवे छे. वि.भाष्य अने प्र.मी.ना निरूपण वच्चे मुख्य भिन्नता
जैनदर्शनमां मतिज्ञानोत्पत्तिनी प्रक्रियानी बे मुख्य परम्परा जोवा मळे छे - १. आगमिक २. तार्किक. वि.भाष्य- निरूपण आगमिक परम्पराने अनुसारे छे, ज्यारे प्र.मी. आगमिक परम्परानुं परिष्कृत स्वरूप धरावती तार्किक परम्पराने अनुसरे छे. माटे ओ बे ग्रन्थ वच्चेना तफावतने आपणे बे परम्परा वच्चेना तफावत तरीके जोई शकीओ. आ भिन्नता मुख्यत्वे नीचे मुजब छे : आगमिक परम्परा
तार्किक परम्परा १. चक्षु अने मनमां सीधो अर्थावग्रह १. चक्षु अने मनमां पण अर्थावग्रह
थाय छे. अर्थावग्रह पहेलाना पहेलां विषय साथेनो सम्बन्ध व्यञ्जनावग्रहनी जरूरियात बाकीनी जरूरी छे.४
चार इन्द्रियने ज छे.३ २. व्यञ्जनावग्रह पछी सीधो अर्था- २.अक्षार्थयोग(-व्यञ्जनावग्रहस्थानीय)→ वग्रह थाय छे.५
दर्शन→अवग्रह-आवो क्रम छे.६ १. जे वस्तुनो अनुभव थाय तेनो ज संस्कार पडे छे. माटे ओ अनुभवनो समानविषयक
होय छे. २. ईहा अवग्रहजन्य के इन्द्रियजन्य ? ओवी त.वा. १.१५.१३नी चर्चा अत्रे जोवा जेवी छे. ३. वि.भाष्य - गाथा २०४
४. प्र.मी. - १.१.२६ टीका ५. वि.भाष्य - गाथा २५९ ६. “अक्षार्थयोगे सति दर्शनम् - अनुल्लिखितविशेषस्य वस्तुनः प्रतिपत्तिः, तदनन्तरम्..
अर्थग्रहणम्' - प्र.मी. - १.१.२६ टीका
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३. अर्थावग्रह अकसामयिक अने ३. अवग्रह अन्तर्मुहूर्तकालीन अने
अव्यक्तसामान्यनो ग्राहक होय छे.१ प्राथमिक विशेषोनो ग्राहक होय छे.२ ४. अर्थावग्रह पछी तरत ज ईहा ४. ईहा संशयपूर्वक ज होय छे. माटे शरु थाय छे.३
अवग्रह → संशय → ईहा -
आवो क्रम छे.४ ५. अविच्युति, वासना अने स्मृति- ५. धारणा अमात्र वासनारूप ज
ओम त्रण धारणा छे.५ ६. व्यञ्जनावग्रह प्रमाणरूप छे. ६. अक्षार्थयोग (अने दर्शन पण)
प्रमाणकोटिनी बहार छे. ७. व्यञ्जनावग्रह, नैश्चयिक अर्थावग्रह ७. अवग्रह अक ज प्रकारनो होय
अने व्यावहारिक अर्थावग्रह-अम छे.१०
त्रण जातना अवग्रह होय छे.९ भिन्नतानां सम्भवित कारणो :
आगमिक परम्पराथी अलग निरूपण शा माटे करवामां आव्यु ? तेनां कारणो कोई तार्किक ग्रन्थमां लगभग मळतां नथी, पण होवां तो जोईओ ज. अने अनुं कारण ओ छे के अवग्रह पूर्वे दर्शन होय छे - ओ दिगम्बर मतनुं
१. वि.भाष्य - गाथा २७०-२७२ २. "अवग्रहादयस्तु त्रय आन्तमॊहूर्तिकाः" - प्र.मी. - १.१.२९ टीका, “अवग्रहगृहीतस्य __ शब्दादेरर्थस्य..." - प्र.मी. - १.१.२७ टीका ३. "इय सामण्णग्गहणाणंतरमीहा" - वि.भाष्य - गाथा २८९ ४. प्र.मी. - १.१.२७ ५. वि.भाष्य - गाथा २९१ ६. "स्मृतिहेतुर्धारणा... संस्कार इति यावत् ।" - प्र.मी. - १.१.२९ टीका ७. वि.भाष्य-गाथा १७८, १९३. आमां व्यञ्जनावग्रहने 'अवग्रह'नामना मतिज्ञानना भेदमां
समावायो छे. ८. “निर्णयः ... अविकल्पकत्वरहितं ज्ञानम् ।" - प्र.मी. - १.१.२ टीका, “निर्णयो न
पुनरविकल्पकं दर्शनमात्रम् । “- प्र.मी. - १.१.२६ टीका ९. वि.भाष्य - गाथा १९३, २८५ १०. "अर्थस्य - द्रव्यपर्यायात्मनोऽर्थक्रियाक्षमस्य ग्रहणम्... अवग्रहः ।"-प्र.मी.-१.१.२६ टीका
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वि.भाष्य जेवा प्रतिष्ठाप्राप्त ग्रन्थमां कडक शब्दोमां निरसन होवा छतां, तमाम श्वेताम्बर तार्किक ग्रन्थो से ज मतने ओक अवाजे स्वीकारे' - अ कंइ वगर कारणे तो न ज होय. आ कारणो कदाच नीचे मुजब होई शके:
१३. आपणुं ध्यान बीजे होय तो वस्तु आंख सामे होवा छतां आपणने अनो बोध नथी थतो. अ ज रीते कोईक वार आंख सामेनी वस्तु माटे पण ‘मने नथी जडतुं' ओम आपणे बोलतां होईओ छीओ. आ वात सूचवे छे के आंख सामे वस्तु आवी ओटले सीधो अनो 'कंइक छे' ओवो बोध - अर्थावग्रह थई ज जाय ঔ जरूरी नथी. पण बोध माटे आंख अने वस्तु वच्चे चोक्कस प्रकारो सम्बन्ध स्थपावो आवश्यक छे. नहीं तो सम्बन्ध स्थपाया वगर ज जो बोध थई जतो होय तो, आंख खुल्ली होय त्यारे सतत चाक्षुषज्ञान थतुं रहे अने आपणे बीजी कोई इन्द्रियथी बोध ज न करी शकीओ. आ सम्बन्ध भले नाक अने गन्धद्रव्यनी वच्चे स्थपाता सम्बन्धनी जेम संयोगरूप न होय अने तेथी तेने ‘व्यञ्जनावग्रह' न कहीओ; पण अथी कंइ आ सम्बन्धनी चोक्कस भूमिकाने उवेखी शकाय नहीं, अने चाक्षुष प्रत्यक्षमां सीधी अर्थावग्रहथी ज शरूआत थाय छे अम कही शकाय नहीं. भले आ सम्बन्ध ज्ञानात्मक न होय; पण जो व्यञ्जनावग्रहने उपचारथी ज्ञानरूप मानी अनो श्रोत्रादिज्ञाननी उत्पत्ति - प्रक्रियामां समावेश थई शकतो होय, तो चाक्षुषनी प्रक्रियामां आ सम्बन्धने गणतरीमां न लेवानुं कोई कारण नथी. मानस प्रत्यक्षमां पण ओ रीते विचारी शकाय.
२. आगमिक व्यवस्थामां सौथी मोटी मूंझवण दर्शनना मुद्दे रहे छे. ओक तरफ छद्मस्थने पहेलां अन्तर्मुहूर्त सुधी दर्शन-निराकारोपयोग होय अने
१. गाथा २७४ -२७९
२. “अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः"
२१
प्र.मी.
"1
पातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाज्जातमाद्य० '
-
१.१.२६, “विषयविषयिसन्नि
प्र.न. १.७. सन्मतितर्कटीकामां
पण ओम ज छे.
३. पृ. १९-२० पर दर्शावेली भिन्नताओनो आ क्रमाङ्क छे.
४. अर्थावग्रहनुं उपादानकारण व्यञ्जनावग्रह छे माटे व्यञ्जनावग्रह ज्ञानरूप छे ओम स्वीकारवामां आवे छे. जो के ओक पक्ष से संयोग साथे प्रकटती अल्प ज्ञानमात्राने व्यञ्जनावग्रह गणे छे, पण ओ पक्षे चक्षुरिन्द्रियमां पण अर्थावग्रहथी पूर्वे अल्प ज्ञानमात्रा मानवी जरूरी छे. आ अल्पज्ञानमात्रानो काळ प्राप्यकारी इन्द्रिय करतां ओछो होय ओम बने.
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त्यारबाद अन्तर्मुहूर्त ज्ञान-साकारोपयोग होय आवो आगमिक परम्परामां दृढ नियम छे?; तो बीजी तरफ उपर जणाव्युं तेम मतिज्ञानोत्पत्तिनी व्यञ्जनावग्रहथी धारणा सुधीनी आगमिक व्यवस्थामां दर्शनने तो क्यांय स्थान ज नथी ! आ संजोगोमां आना त्रणेक उकेल सूचवाया छे; पण ओ तर्कनी कसोटीओ पार उतरे तेम नथी. १. 'मतिज्ञाननी उत्पत्तिनी शरुआत व्यञ्जनावग्रहथी थाय छे, माटे दर्शनने व्यञ्जनावग्रह, पण पूर्वचरण समजवू जोईओ.' आ उकेल तो स्पष्टतः अयुक्त छे, कारण के इन्द्रिय-अर्थना संयोग साथे जन्मती अत्यल्प ज्ञानमात्रा पण जो व्यञ्जनावग्रहनी कोटिमां गणाती होय; तो दर्शननो व्यपदेश पामी शके ओवी अनाथी पण अल्प ज्ञानमात्रा कई रीते सम्भवे ?२ २. 'अर्थावग्रहमां अव्यक्त सामान्यनुं ग्रहण होवाथी अने दर्शन महासामान्य, ग्राहक छे ओवी प्रसिद्धि होवाथी दर्शन अ अर्थावग्रहनुं नामान्तर ज छे,' उकेलमां बे तकलीफ छ : ओक तो आ रीते दर्शन व्यञ्जनावग्रह अने ईहानी वच्चे गोठवातुं होवाथी ज्ञानोपयोगनी अन्तर्गत अने समजवू पडे, जे नियमविरुद्ध छे. अने बीजूं, अर्थावग्रह अकसामयिक होय छे अने दर्शनने अन्तर्मुहूर्तकालीन कहेवामां आव्युं छे. ३. 'ईहा सुधीनी अन्तर्मुहूर्तकालीन प्रक्रिया दर्शन छे; कारण के कोई पण ज्ञान आकार वगरनुं सम्भवतुं नथी. अने आ ज्ञानप्रक्रियामां वस्तुनो आकार तो अपाय वखते ज रचाय छे. अने तेथी ज साकार ओवा अपायधारणा ज्ञान छे.' आवा विभागनी अयुक्तता सन्मतिटीकामां आ रीते जणाववामां आवी छ : 'अवग्रह-ईहा जो दर्शन छे तो अमनी मतिज्ञानना भेद तरीके गणतरी शा माटे ? अमने ज्ञानावरणीयना क्षयोपशमथी जन्य मानवा के दर्शनावरणीयना?' आम, आगमिक प्रक्रियामां दर्शनोपयोग बाबते मूंझवण रहे छे.
आ {झवण टाळवा ताकिकोजे 'ईहा सुधीनी प्रक्रिया दर्शन' ओ बहुमान्य अभिप्रायने पकडी आगमिक ईहा सुधीना समग्र तबक्काने 'दर्शन' १. "दर्शनपूर्वं ज्ञानमिति छद्मस्थोपयोगदशायां प्रसिद्धम् ।"
- ज्ञानबिन्दुगत सन्मति.-२.२२नी टीका २. "व्यञ्जनावग्रहप्राक्काले दर्शनपरिकल्पनस्य चाऽत्यन्तानुचितत्वात् । तथा सति तस्येन्द्रियार्थ___सन्निकर्षादपि निकृष्टत्वेनाऽनुपयोगप्रसङ्गाच्च ।" - ज्ञानबिन्दु ३. वि. भाष्य - ५३६ गाथा ४. सन्मति - २.२३-२४ टीका.
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नाम आपी ओ तबक्का पछी ज अवग्रहनी प्ररूपणा करी. आमां जो के वि.भाष्य जेवा महान ग्रन्थना निरूपणथी जुदुं पडवानुं थतुं हतुं; पण दर्शननी ज्ञान पूर्वे आवश्यकता, दर्शन, आन्तमॊहूर्तिकत्व, अवग्रह-ईहानी मतिज्ञानना भेद तरीके गणतरी व. घणी आगमिक प्ररूपणाओ संगत थई जती हती.१ व्यञ्जनावग्रहस्थानीय अक्षार्थयोग वखते प्रगटती अत्यल्प ज्ञानमात्राने तो तार्किको गणतरीमा ज लेतां न होवाथी, ओ ज्ञान-दर्शन उभयकोटिमांथी बहार रहे ते इष्ट गण्यु. अन्ते जे क्रम गोठवायो ते आ हतो : अक्षार्थयोग → दर्शन → अवग्रह.
३. छद्मस्थनो उपयोगमात्र असंख्य समयनो होय छे.२ तो अर्थावग्रह ओक समयनो कई रीते होय ?३ अने सामान्यना ग्रहण माटे जो अक समयने पर्याप्त मानीओ तो सामान्यना ज ग्राहक दर्शन, आन्तमॊहूर्तिकत्व शा माटे कहेवाय छे ? - बनी शके के आवी मूंझवण टाळवा तार्किकोओ अवग्रहने आन्तमॊहूर्तिक गण्यो होय. जो के दर्शन पछी अवग्रहने कल्पीओ अटले आपोआप अमां सामान्यविशेष- ग्रहण अने ते माटे जरूरी अन्तर्मुहूर्तकालमान आवी ज जाय; माटे दर्शन पछी अवग्रह कल्पवानां जे कारणो छे, ते ज अवग्रहनी भिन्न प्ररूपणानां कारणो छे..
४. 'कंइक छे' अवा बोध पछी तरत 'अहीं शंखना धर्मो छे, नगाराना नथी.' आवी विचारणा शरू न थाय; पण ते माटे अनी पहेला 'आ शुं हशे? आ हशे के आ ?' आवा संशयात्मक प्रश्नो ऊभा थवा जरूरी छे - ते समजी शकाय अq छे. आगमिक आचार्यो संशयनुं निरूपण नथी करता ते संशयना अप्रामाण्य के तेना ईहाना अन्तर्गतत्वने लीधे होई शके.
१. जो के व्यञ्जनावग्रहनो अन्त्य समय अ ज अर्थावग्रह छ – ओ ओक शास्त्रीय प्ररूपणानी
असंगति हजु ऊभी रहे छे. २. 'च्यवमानो न जानाति'ओ शास्त्रीय प्ररूपणाने "च्यवन ओक समयमां थनारी घटना छ,
अने छद्मस्थ जीव असंख्य समयमां ज बोध करी शके छे, माटे च्यवनने न जाणी शके'
ओवी रीते समजाववामां आवे छे. जे आ नियमने प्रमाणित करी आपे छे. ३. वास्तवमां 'अर्थावग्रह ओक समयनो होय' ओ वातनुं तात्पर्य शुं छे ? ते जाणवा माटे
जुओ पृ. २७
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५. आनां कारणो तो सद्भाग्ये प्र.मी.मां ज आपणने सांपडे छे :१ १. अपाय, लांबा काळ सुधी टकवू ओ ज अविच्युति होय तो शा माटे अने अपायथी अलग गणवी जोइ ?२ २. परोक्षप्रमाणान्तर्गत स्मृतिनो प्रत्यक्षप्रमाणना भेद तरीके पुनः उल्लेख कई रीते करी शकाय ? आमांथी बीजी बाबत विशे विचारीओ तो, प्राचीन काळे ५ ज्ञानना निरूपणमां ज आलुं जैन प्रमाणशास्त्र समाई जतुं हतुं. माटे अमां मतिज्ञानना निरूपण वखते स्मृतिने सांकळी लेवानुं जरूरी हतुं. परन्तु तार्किकयुगमा प्रमाणना प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद पड्या अने प्रत्यक्षप्रमाणान्तर्गत ५ ज्ञानमां तमाम प्रमाणभेदो समाई जतां होवा छतां, परोक्षप्रमाणना भेद तरीके ५ ज्ञानथी अलग स्मृति, प्रत्यभिज्ञान व.नुं निरूपण चालु थयुं, त्यारे स्मृतिने प्रत्यक्षप्रमाणमांथी नाबूद करवानुं जरूरी बन्यु. तेम ज प्र.मी.मां करवामां आव्युं छे.
६. आगमिक प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्था फक्त अने फक्त भावनात्मक हती. मतलब के ज्ञान विषयग्रहणनी रीते साचुं छे के खोटुं ओ जोवाने बदले प्रमाता व्यक्ति सम्यग्दृष्टि छे के मिथ्यादृष्टि - अना पर प्रमाणव्यवस्था अवलंबती हती. अमां सम्यग्दृष्टिनुं ज्ञानमात्र, पछी ओ संशय होय तो पण, प्रमाण ज गणातुं हतुं. माटे व्यञ्जनावग्रहने पण प्रमाण ज गणवामां आवे तेमां नवाई नथी.३ आगमिक व्यवस्था मुजब अप्रमाण तो मिथ्यादृष्टिर्नु ज ज्ञान हतुं; जे विषयग्रहणनी दृष्टिले साचं पण होई शके. जो के आनी पाछळ पण ओक चोक्कस तर्कदृष्टि तो काम करती ज हती, पण अने ज्ञानना स्वरूप साथे सीधी लेवादेवा नहोती.
__ तार्किकयुगमां 'जेनाथी वस्तुनो यथार्थ निश्चय थाय ते प्रमाण' आवा तात्पर्यवाळी प्रमाणव्याख्याओ बंधाई. आमां प्रमाणव्यवस्था विषयग्रहण पर निर्भर हती. माटे तेमां वस्तुनिश्चयथी रहित व्यञ्जनावग्रह के तत्स्थानीय अक्षार्थयोगने प्रमाण गणवानी गुंजाईश ज नहोती. १. प्र.मी. – १.१.२९ टीका २. आ कारणनी अयथार्थतानी चर्चा माटे जुओ पृ. ३६ ३. जो के तार्किकयुगमां पण आगमिक आचार्यो 'व्यञ्जनावग्रह अप्रमाण होय तो तज्जन्य ___ अर्थावग्रहादि तमाम ज्ञानो अप्रमाण बनशे' अवा तर्कना आधारे व्यञ्जनावग्रहने प्रमाण
गणावता हता. ४. आ तर्कदृष्टि माटे जुओ वि.भाष्य गाथा ११५
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दर्शन पण बधे 'कंइक छे' अवो समान बोध करावतुं हतुं. माटे अमां सम्यक् के असम्यक् ओवा भेद पाडवा सम्भवित न होवाथी दर्शनने पण प्रमाणकोटिनी बहार मूकवामां आव्युं. आम ताकिक अने आगमिक प्रमाणव्यवस्थामां भेद पड्यो.१
७. व्यञ्जनावग्रह शब्द प्राप्यकारी इन्द्रियना पोताना विषय साथेना प्रारम्भिक संयोगमां रूढ हतो. तार्किको छओ इन्द्रियमा प्रारम्भिक सम्बन्धनी अपेक्षा राखता हता. माटे तेओओ ओ प्रारम्भिक सम्बन्ध (प्राप्यकारीमां संयोग, अप्राप्यकारीमां वैज्ञानिक) माटे अक्षार्थयोग, विषयविषयिसन्निपात व. शब्दो वापरवा पड्या. अने तेथी बे अवग्रहने जुदा पाडवा 'व्यञ्जन' अने 'अर्थ' विशेषणनी२ जरूर न रही.
आगमिक व्यवस्था मुजबना अव्यक्त सामान्यना ग्राहक अर्थावग्रहमां बहु-बहुविधादि अमुक भेदोनी संगति नहोती थती. बीजी तरफ 'सामान्यथी अवगृहीत अर्थना (= अर्थावग्रहना विषयभूत अर्थना) विशेषनिर्णय माटे थती विचारणा' अर्बु लक्षण धरावती ईहा अपाय पछी पण थई शके ते माटे अपायने अर्थावग्रह बनाववो जरूरी हतो. तेथी अपायने 'व्यावहारिक अर्थावग्रह' नाम आपी, तेमां बबादि भेदोनी संगति करी, अर्थावग्रहमां भेदोनी संगति अने अपाय पछीनी ईहा ओ बन्ने प्रश्नोनो हल लाववामां आव्यो. आम करवामां प्रथम अर्थावग्रहने आपोआप 'नैश्चयिक' विशेषण लागी गयु. ताकिक व्यवस्थाना प्राथमिक विशेषोना ग्राहक अवग्रहमां तो तमाम भेदो सीधेसीधा घटी शके तेम होवाथी तेमज ईहानी व्याख्या पण 'निर्णीत अर्थना विशेष विशेषोना निर्णय माटे थनारी विचारणा' ओवी करवामां आवी होवाथी; ताकिकोओ अपायने अर्थावग्रह तरीके कल्पवो जरूरी न हतो. माटे तेमां अवग्रह अक ज प्रकारनो रह्यो.
१. आ बाबतनी वधु स्पष्टता माटे जुओ प्र.मी.गत दर्शनशब्द परनी पं. सुखलालजीनी
टिप्पणी. २. आ विशेषणोना तात्पर्य माटे जुओ पृ. २८ टि. १ ३. वि.भाष्य - गाथा २८३-२८८
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अनुसन्धान- ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
उपलब्ध थती बे परम्परा वच्चेनी चर्चा :
अवग्रहमां प्राथमिक विशेषोनुं ग्रहण होय अ पक्ष बहु प्राचीन काळथी अस्तित्व धरावे छे. वि. भाष्यमां जे विस्तारथी आ मतने सम्बन्धित चर्चा छे १ ते जोतां श्रीजिनभद्रगणिना समय सुधीमां आ मते बहु ऊंडां मूळियां नांखी दीधां होवानुं जणाय छे. आ पक्षना टेकेदारो पासे महत्त्वनो आधार होय तो अ नन्दीसूत्रगत अवग्रहादिविषयक पाठनो हतो. आ पाठ परथी अवग्रहमां अव्यक्तसामान्यनुं नहीं; पण प्राथमिक विशेषोनुं ग्रहण होय अवुं सीधेसीधुं फलित थतुं हतुं. नोंधपात्र वात अ पण छे के दिगम्बर परम्परा जे अवग्रह पूर्वे दर्शननुं अस्तित्व पहेलेथी स्वीकारती आवी हती, ते पण आ पाठना आधारे साबित करी शकाय तेम हतुं. ३
नन्दीसूत्रमां श्रावणप्रत्यक्षनी उत्पत्ति वर्णवतो पाठ आम छे : "से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सद्दं सुणेज्जा, तेणं सद्देत्ति उग्गहिए, न उण जाणइ के वेस सद्देत्ति... ।" आमां " तेणं सद्देत्ति उग्गहिए" अ वाक्यनो तार्किकोओ " तेण (= प्रमाता व्यक्तिओ) शब्द ओवो अवग्रह कर्यो" आवो अर्थ करी, अवग्रहमां शब्दत्व जेवा प्राथमिक विशेषोना ग्रहणने पण नकारनारी आगमिक परम्परा सामे वांधो ऊठाव्यो.
आनी सामे श्रीजिनभद्रगणिओ आपेलो जवाब आ मुजब छे : ४ " शब्द ओवो अवग्रह कर्यो' अवुं नन्दीसूत्रना पाठ परथी भले जणातुं होय; पण अनुं तात्पर्य वास्तवमां जूदुं ज होवुं जोईओ. कारण के १. 'आ शब्द छे' अ ज्ञान वाचक शब्दना उल्लेखपूर्वकनुं छे. अने वाचक शब्दनो उल्लेख अन्तमुहूर्त सिवाय सम्भवे नहीं. तो अकसामयिक अर्थावग्रहमां आ बोध घटे ज कई रीते ? २. 'आ शब्द छे' ओवा बोध माटे रूपादिनो व्यवच्छेद आवश्यक छे अने आ व्यवच्छेद ईहा वगर थाय नहीं. व्यञ्जनावग्रह अने अर्थावग्रह वच्चे काळव्यवधान
१. - ४. वि. भाष्य गाथा २५२ - २८८
२. “विषयविषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति, तदनन्तरमर्थस्य ग्रहणमवग्रहः '
१.१५, त.वा.
१.१५.१
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सर्वार्थसिद्धि
३. 'अव्वत्तं सद्दं सुणेज्जा" अ वाक्य दर्शननुं अस्तित्व सूचवे छे ओम मानी शकातुं हतुं.
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जन होय तो आ ईहानो काळ क्यांथी लाववो ? ३. 'आ शब्द छे' अ साकार ज्ञान छे अने अर्थावग्रह निराकार होय छे. ४. अर्थावग्रहमां पण विशेषोनुं ग्रहण मानो अने अपायमां तो विशेषोनुं ग्रहण होय ज छे - तो ओ बन्ने वच्चे भेदरेखा कई रीते दोरवी ? विशेषोनी न्यूनाधिकताने आधारे पण बन्नेने जुदा पाडवा शक्य न बने; कारण के छद्मस्थना कोई पण ज्ञानगत विशेषो कोईकनी अपेक्षाओ थोडा अने कोईकनी अपेक्षाओ वधारे होय छे. ५. जो अर्थावग्रहमां विशेषोनुं ग्रहण मानो तो आ विशेषो केटला ? अनो नियामक कोई न होवाथी 'आ शंखशब्द छे' ओवो बोध पण अमां थई जवानी आपत्ति आवशे."
२७
वि.भाष्यमां अपायेलां उपरनां कारणोनो तार्किको द्वारा प्रतिवाद करवामां आव्यो होय ओम जणातुं नथी. छतांय तार्किको वि. भाष्यनी रचना पहेलां अने पछी ओक सरखी रीते आगमिक प्ररूपणाथी भिन्न निरूपण करता रह्या छे ओ सूचवे छे के आ कारणो अवश्य विचारणीय छे. माटे वस्तुस्थितिने केन्द्रमां राखी विचारतां जे जणायुं ते अहीं क्रमशः नोंधवामां आवे छे :
११. तार्किको अवग्रहने अक समयनो मानता ज न होय तो तेओनी सामे आ दलीलनो अर्थ नथी. तो पण धारो के मानी लईओ के अवग्रह अक समयनो ज मानवो जोईओ; पण खुद आगमिक आचार्यो अने ओक समयनो स्वीकारी शके खरा ? ना, शक्य ज नथी. कारण के ज्ञानमात्र स्वसंविदित छे' अवुं जैन परम्परा दृढपणे माने छे. अने एकसामयिक घटनाने छद्मस्थ जीव संवेदी न शके अ पण तेने मान्य छे. हवे, अर्थावग्रह ओक समयनो ज होय तो अनुं संवेदन कई रीते शक्य बने ?
वास्तवमां अर्थावग्रहने ओक समयनो कहेवा छतां अनुं स्वसंवेदन स्वीकारनारा आगमिकोनुं कथयितव्य आ छे : इन्द्रिय- अर्थना संयोग साथे ज प्रगटेली अत्यल्प ज्ञानमात्रा ज वृद्धि द्वारा अन्तर्मुहूर्तकाळे 'कंइक छे' ओवो बोध
१. पृ. २६ पर दर्शावेलां कारणोनो आ क्रमांक छे.
२. " न हि काचित् ज्ञानमात्रा साऽस्ति, या न स्वसंविदिता नाम ।" • प्र.मी. - १.१.३ टीका ३. ज्ञान विषयनी जेम पोताने पण जाणे एने स्वसंवेदन कहेवामां आवे छे.
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
करवा जेटली परिपक्व बने छे. आ परिपक्वता पण कंई ते ज क्षणे प्रगटी ओवू नथी; पण घणी क्षणोथी धीमे धीमे थती आवे छे ओम मानवू पडे. अग्निथी भात रंधाय अq ज अहीं समजवानुं छे. आमां परिपाकनी प्रक्रियानो काळ व्यञ्जनावग्रह छे अने परिपक्वतानो काळ ओ अर्थावग्रह छे. आमां आपणे अंक दृष्टिले जोईओ तो चरम परिपक्वता ज अर्थावग्रह गणाय; अने अर्थावग्रहने ओक समयनो कहेवो पडे. परन्तु आपणे जो न्यूनाधिक परिपक्वतावाळी तमाम क्षणोने ध्यानमां लई); अने वास्तवमा एम ज करवू जोईओ, नहीं तो सहेज पण ओछो रंधायेलो भात रंधाया वगरनो गणाय; तो परिपक्वता-अर्थावग्रह- 'कंइक छे' अवो बोध अन्तर्मुहूर्तकालीन ठरे छे. तार्किकोओ कदाच आ वस्तुस्थितिने नजर समक्ष राखी छे.
रही वात 'आ शब्द छे' एवा बोधमां वाचक शब्दना उल्लेखनी. 'कंइक छे' एवो बोध शब्दोल्लेख वगर सम्भवे, तो 'शब्द छे' एवा बोधमां शब्दोल्लेखनी अनिवार्यता शा माटे ? आपणने क्यारेक 'शब्द छे' अवो शब्दात्मक उल्लेख थया वगर सीधो 'कागडो बोले छे' अवो शब्दोल्लेखवाळो बोध नथी थतो ? आ वस्तु ज सूचवे छे के तेनी पूर्वे 'शब्द छे' ओवो बोध शब्दोल्लेख वगर थयो हतो. अq समाधान पण अहीं न सूचवी शकाय के आपणने ज्यारे 'कागडो बोले छे' अवा शब्दोल्लेखवाळो बोध ध्यानमां आव्यो, त्यारे तेनी पहेलां थवो जरूरी ओवो 'शब्द छे' अवो बोध शब्दोल्लेख साथे ज थयो हतो, पण शीघ्रताने लीधे आपणने खबर न पडी; कारण के शब्दोल्लेख ओ जल्दी ध्यानबहार जाय ओवी वस्तु नथी. ट्रॅकमां, वाचक शब्दना उल्लेखने लीधे ज 'आ शब्द छे' अवा बोधना अर्थावग्रहकालीन अस्तित्वनो निषेध न करी शकाय.
१. आ व्यक्तता-परिपक्वतानी साथे ज पुद्गलो 'अर्थ' रूपे गृहीत थाय छे; मतलब के तेमनी
ज्ञानना विषय तरीके स्थापना थाय छे. आ व्यक्तता आवतां पहेलां पुद्गलो पुद्गल तरीके ज गृहीत थाय छे, कोइ चोक्कस अर्थ रूपे नहीं, तेथी ओ धीमे धीमे प्रगटता जतां पुद्गलो 'व्यञ्जन' तरीके ओळखाय छे. जेनी व्यञ्जना - प्रगटीकरण थाय ते व्यञ्जन ओवो अत्रे भाव छे. आ अर्थ अने व्यञ्जननो अल्प बोध अनुक्रमे अर्थावग्रह अने व्यञ्जनावग्रह तरीके ओळखाय छे. अर्थनी विशद व्याख्या माटे जुओ तत्त्वार्थ - १.१७ टीकाओ.
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२. 'कंइक छे' अवो बोध सत्ता-महासामान्यना ग्रहणरूप गणायो छे. आ बोध माटे असत्त्वनो व्यवच्छेद जरूरी नथी ? जो आ व्यवच्छेद करनारी विचारणाने ईहानो अलग दरज्जो न अपातो होय; तो 'आ शब्द छे' अवा बोध माटे जरूरी रूपादिना व्यवच्छेदने करनारी विचारणाने पण ईहानो अलग दरज्जो न अपातो होय अq न बने ?
३. आपणे अनुभवथी जोइओ तो आपणा माटे अपायथी ज व्यवहारिक व्यक्तता आववानी चालु थाय छे. कारण के 'कागडो बोले छे' ओवा बोध पहेलां चालेली विचारणा के ते पहेलां थयेटु सामान्य-ग्रहण क्यां आपणने खबर ज पडे छे ? अटले ते वखते थयेलुं 'शब्द छे' अर्बु शब्दत्वरूप सामान्यनुं ग्रहण अव्यक्त जेवू ज रहेतुं होवाथी, 'अवग्रहमां अव्यक्त सामान्यनुं ग्रहण थाय छे.१ ओवा शास्त्रीय नियम साथे तार्किक प्ररूपणामां कोई विसंवादिता
नथी.
खरेखर तो अवग्रह निराकारोपयोगरूप होय ओम कहेवामां आगमिकोने ज मुश्केली ऊभी थाय तेम छे. कारण के निराकारोपयोग अटले दर्शन ओवी सर्वत्र प्रसिद्धि छे अने अवग्रह तो मतिज्ञानरूप साकारोपयोगनो भेद छे.
४-५. सौथी प्राथमिक विशेषोनो ग्राहक अवग्रह - अर्बु नियमन पण करी शकाय छे अने द्वितीय कक्षाना विशेषोना ग्राहक अपायथी तेने ओ रीते अलग पण पाडी शकाय छे.
__ आ ओक अवग्रहना स्वरूपविषयक भिन्नता सिवाय ताकिक परम्परागत अन्य कोई भिन्नता विशे आगमिकोओ चर्चा के प्रतिवाद कर्या होवानुं जणातुं नथी ते नोंधपात्र छे. अवग्रह पूर्वे दर्शनना अस्तित्व- पण, व्यञ्जनावग्रह अने अर्थावग्रह वच्चे काळव्यवधान न होय ओ ओकमात्र शास्त्रीय नियमना आधारे निरसन करवामां आव्युं छे. आगमिक - तार्किक परम्परानो सम्भवित समन्वय
बन्ने परम्परानां निरूपणने साथे जोईओ तो -
१. "अर्थावग्रहेऽव्यक्तशब्दश्रवणस्यैव सूत्रे निर्देशाद्" - जै.त. - परि. ८
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वि. भाष्य
व्यञ्जनावग्रह (अन्त०)
अर्थावग्रह (१ समय) 'कशुंक छे.'
| ईहा ( अन्त.) 'शुं हशे ?'
अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
इन्द्रिय-अर्थ-सम्बन्ध ↓
अपाय/व्याव. अर्था. (अन्त०) 'शब्द छे. '
ईहा (अन्त.) 'कयो शब्द हशे ?'
द्वितीय अपाय/व्याव. अर्था० 'शंखशब्द छे.'
प्र.मी.
अक्षार्थयोग (अन्त.) १
| दर्शन ( अन्त.)
'कशुंक छे. '
अवग्रह (अन्त.) 'शब्द छे'
हा (अन्त.) 'कयो शब्द हशे ?'
अपाय (अन्त.) 'शंखशब्द छे. '
उपरना कोष्टकथी ज जणाय छे के बन्ने निरूपणगत भिन्नता परिभाषा अने तबक्काओनी वहेंचणी परत्वे ज छे; वस्तुस्थिति तो बन्नेने सरखी ज स्वीकार्य छे. मुख्यताओ बे मुद्दामां बधी भिन्नता समाई जाय छे : १. अवग्रह पूर्वे दर्शननुं होवुं के न होवुं. २. अवग्रहमां अव्यक्त सामान्य के प्राथमिक विशेषोनुं ग्रहण मानवुं. आ मतभेदना समाधान माटे प्रयास करीओ तो
अपायनुं ओक मुख्य कार्य वाचकशब्दना उल्लेखनुं छे २, माटे आपणने थनारो शब्दोल्लेखवाळो निश्चयमात्र अपाय गणाय छे. आ शब्दोल्लेखवाळो बोध
१. अक्षार्थयोगनुं काळमान प्र.मी. मां नथी जणाव्युं; पण 'कंइक छे' ओवो बोध थवामां अन्तर्मुहूर्त जेटलो समय पसार थई जाय ओम समजीने अनुं अन्तर्मुहूर्त काळमान लखवामां आव्युं छे. आ अन्तर्मुहूर्तने व्यञ्जनावग्रहथी अटला माटे ओछ्रं कल्प्युं छे के 'कंइक छे' ओवो बोध अस्पष्टपणे अर्थावग्रहथी पूर्वे शरू थई जतो होवो जोईओ अवुं समजाय छे.
२. “अपायधृती वचनपर्यायग्राहकत्वेन... ज्ञानमिष्टम् ।" वि. भाष्य-गाथा ५३६ टीका
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अकसरखो नथी होतो ते अनुभवसिद्ध छे. आपणने घणीवार त्रीजा पगथियानो 'कागडो बोले छे.' अवो ज सीधो अपाय - शब्दोल्लेखवाळो बोध थाय छे. तो घणीवार 'शब्द छे - अवाज आवे छे' अवो अपाय पण थाय छे, जे बीजा पगथियानो बोध छे. 'कंइक छे' ओवो प्रथम पगथियानो बोध पण शब्दोल्लेख साथे, विशेषो न नक्की थई शके तो, अपायमां भासित थई शके छे. आथी नक्की थाय छे के शब्दोल्लेखवाळो प्रथम बोध - अपाय आटला ज विशेषोना उल्लेखवाळो होय अq नियमन शक्य नथी. अने जो जे शक्य न होय तो अपायथी ओक पगथिया जेटलो नीचलो बोध - अर्थावग्रह आटलो ज बोध करे ओ नियमन पण शक्य नथी बनतुं. ढूंकमां 'कंइक छे' अवो पण अवग्रह थई शके छे अने 'शब्द छे' अवो पण अवग्रह थई शके छे. ओ ज रीते प्रथम अपाय 'शब्द छे' ओवो पण थई शके छे (-अवग्रह 'कंइक छे' अवो होय तो) अने 'कागडो बोले छे' ओवो पण थई शके छे (-अवग्रह 'शब्द छे' अवो होय तो). अवग्रह अने अपाय बन्ने 'कंइक छे' ओवा पण कोईकवार होय छे.
हवे आपणे ध्यान आपीशुं तो जणाशे के महदंशे आपणे अवग्रहमां ज बीजा पगथिया सुधी पहोंची जता होईओ छीओ; अने ते पण अटले नक्की थाय छे के 'गुलाब महेके छे' (-कंइक छे → गन्ध छे → गुलाबनी गन्ध छे), 'घडो छे' (- कंईक छे → रूप छे → घटरूप छे) अवो त्रीजा पगथियानो ज शब्दोल्लेखसहितनो बोध आपणने प्रथमथी जणाय छे. तार्किकोओ आ महदंशे थनारी प्रक्रिया अनुसार ज निरूपण करवानुं उचित धार्यु होवू जोइओ. अने ओटले तेओओ पहेला पगथियानो बोध दर्शनमां, बीजा पगथियानो बोध अवग्रहमां अने त्रीजा पगथियानो बोध अपायमां गोठव्यो होई शके. पण तेनो अल्पांशे थनारी 'अवग्रहमा पहेला पगथियानो बोध अने अपायमां बीजा पगथियानो बोध ओवी' प्रक्रिया के तदनुसार आगमिको द्वारा करवामां आवता निरूपण साथे कोई विरोध नथी.
अत्रे विषयान्तर थतुं होवा छतां ओक वात नोंधवी रही : मतिज्ञानना बबादि भेदो कई रीते घटे ? ओम पूछवामां आवे तो आगमिको कहेशे के व्यञ्जनावग्रह अने अर्थावग्रहमां उपचारथी' अने ईहाथी मांडीने वास्तविकताओ
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आ भेदो घटे छे. हवे आपणे आगमिक व्यवस्था तपासीओ तो जणाशे के अमां प्रथम ईहा 'आ शब्द छे के अशब्द' ओवी ज होय छे. प्रथम अपाय-धारणा पण 'शब्द छे' अवां नक्की ज होय छे. तो अमां पण आ भेदो कई रीते घटवाना? आ भेदो स्वरूपभेद शक्य होय तो ज घटे, अने आगमिक व्यवस्था मुजब तो प्रथम ईहादिमां ते शक्य नथी. अमां तो वधुमां वधु द्वितीय ईहाथी ज आ भेदो वस्तुतः घटी शके. अने व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह, प्रथम ईहाअपाय-धारणा आ बधामा उपचारथी अथवा तर्कथी' ज घटाववा पडे. ताकिक व्यवस्था तो प्रथम अपाय ज 'शंखशब्द छे' अq स्वीकारती होवाथी, अमां प्रथम ईहाथी ज आ भेदो वास्तविक रीते घटी शके छे अने ओ रीते आगमिकोओ आपेलो अने फकरानी शरुआतमां लखेलो उत्तर पण संगत थाय
प्र.मी.ना निरूपणनी केटलाक जैन ग्रन्थोनां निरूपण साथे तुलना
प्र.मी. गत मतिज्ञानोत्पत्तिना निरूपणमां आगमिक प्ररूपणाथी भिन्न बाबतो विशे अन्य ग्रन्थो शुं कहे छे ते जोई :
१. अवग्रह पूर्वे चक्षु अने मन माटे पण अक्षार्थयोग (-इन्द्रियना विषय साथेना सम्बन्ध)नी अपेक्षा राखवी.
प्र.न., सर्वार्थसिद्धि, त.वा. जेवा मोटा भागना तार्किकयुगना ग्रन्थोमां बधी इन्द्रियो माटे विषयविषयिसन्निपातनुं निरूपण छे. लघीयस्त्रयमां५ आना माटे वापरेलो 'अक्षार्थयोग' शब्द ज प्र.मी.मां मळे छे ते ध्यानार्ह छे. ज्ञानबिन्दुमां उपाध्यायजीओ पण प्रश्न उठाव्यो छे के जो प्राप्यकारी इन्द्रियमां व्यञ्जनावग्रह
१-२. वि.भाष्य-गाथा ३१० टीका, अत्रे कारणमां वैशिष्ट्य न होय तो कार्यमां पण न आवे
तेवो तर्क आपवामां आव्यो छे. ३. जै.त.जेवा केटलाक तार्किक ग्रन्थो आ बाबतमां लगभग आगमिक निरूपणने ज अनुसरे __ छे. अथी अहीं 'मोटाभागना' अम लखवामां आव्युं छे. आगळ पण तमाम तार्किको
विशेनी वातमां जै.त. जेवा ग्रन्थोने न गणवा. ४. जुओ पृ. २१-टि. २, पृ. २६-टि. २ ५. अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽर्थाकारविकल्पधीः (लघीयस्त्रय - ५-)
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करणांश' बनतो होय तो चाक्षुष अने मानस प्रत्यक्षमां करणांश कोण ? २ तेओओ आना जवाब तरीके लब्धीन्द्रियनी स्वविषयने ग्रहण करवा तरफनी उन्मुखताने रजू करी छे. आ उन्मुखताने आपणे चक्षु- मनना स्वविषय साथेना वैज्ञानिक सम्बन्धरुप समजी शकीओ. अने ओ रीते ज्ञानबिन्दुगत निरूपण पण प्र.मी. साथै संवादी छे.
२. अक्षार्थयोग अने अवग्रह वच्चे दर्शन थाय छे.
तमाम तार्किको आवुं ज निरूपण करे छे.३ वि. भाष्यनी रचना पूर्वे पण दर्शनने बदले ‘आलोचन' शब्द वापरीने कोई अवुं ज निरूपण करतुं हशे ओम तेमां करेली आ मतनी समालोचना परथी जाणी शकाय छे. ३. अवग्रह आन्तर्मौहूर्तिक होय छे.
३३
अन्य कोई तार्किक ग्रन्थमां साक्षात् शब्दोमां आवुं निरूपण नथी मळतं; कारण के अवग्रहादिना काळमानने दर्शावती वि. भाष्यनी "उग्गह इक्कं समयं..." अ गाथा (३३३) अटली प्रसिद्ध अने मान्य हती के अवग्रहने अमां देखाडेला ओक समयना काळमानने स्थाने आन्तर्मौहूर्तिक कहेवानुं जल्दी सम्भवित नहोतुं. पण अवग्रहमां सामान्यने बदले विशेषोनुं ग्रहण माननारा तार्किको अने अन्तर्मुहूर्तकालीन समजता ज होय अ जाणी शकाय तेवुं छे.
४. ईहा संशयपूर्वक ज होय छे.
आ वात बधा तार्किक ग्रन्थोने संमत छे. ५ विचारवा जेवी वात अ छे के संशयनो ज्ञानोत्पत्तिना क्रममां समावेश केम नथी ? प्र.मी. नी जेम प्र.न.
१.
कारण असाधारण होय अने पोते कोइकने जन्मावी सेना द्वारा पोताना निर्धारित कार्यने पूरुं करतुं होय ते कारण 'करण' कहेवाय छे। अने आ करणथी जन्य तेमज कार्यनी उत्पादक वस्तु 'व्यापार' कहेवाय छे. व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह - ईहारूप व्यापार द्वारा अपायरूप फळ पेदा करतो होवाथी से करण गणाय छे.
२. “ननु व्यञ्जनावग्रहः .. नाऽप्राप्यकारिणोश्चक्षुर्मनसोरिति कः करणांशो वाच्यः ? - ज्ञानबिन्दु परि. ३८
३. जुओ पृ. २१-टि. २, पृ. २६-टि. २
४. गाथा २७४ - २७९
५.
“संशयपूर्वकत्वादीहायाः " - प्र.न. - २.११, “सति हि संशये ईहायाः प्रवृत्तिः" त.वा.
१.१५.१३
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टीकामां पण आना कारण तरीके संशयना अप्रामाण्यने रजू करायुं छे. तात्पर्य अम समजाय छे के मतिज्ञानरूप अक सळंग ज्ञानोपयोग भले प्रमाणरूप होय; पण अने तबक्काओमां विभाजित करो तो कोइक तबक्को स्वतन्त्र रीते अप्रमाण पण होय. अने अटले मतिज्ञानरूप प्रमाणना भेद तरीके अनी गणतरी पण न थाय.
त.वा.कार तो अवग्रह-ईहाने अप्रमाण मानवा छतां ओनो ज्ञानोत्पत्तिना क्रममा समावेश करे छे. माटे संशयना असमावेशनुं कारण तेओओ जूहूँ जणाव्यु छे२ : ईहा संशयपूर्वक ज होय छे, माटे ईहाना समावेशथी ज ओनो समावेश पण थई जाय छे. अने तेथी संशयनो अलगथी समावेश जरूरी नथी.
५. अक्षार्थयोग अने दर्शन अप्रमाण छे, अने अवग्रहथी शरु थती तमाम ज्ञानप्रक्रिया प्रमाण छे.
प्र.न.मां पण मतिज्ञानना भेदो अवग्रहथी ज देखाडाया छे,३ विषयविषयिसन्निपात अने दर्शन देखाड्या छे खरा; पण ते अवग्रहना उत्पादनी प्रक्रिया माटे, मतिज्ञानना भेद तरीके नहीं. माटे प्र.न.कारने पण प्र.मी.मां दर्शावेली प्रमाणव्यवस्था मान्य होय तेम जणाय छे.
त.वा.मां अवग्रह अने ईहाने पण अप्रमाण गणावाया छे. वास्तविक ज्ञान ज प्रमाण कहेवाय, अने अवग्रह पछी तो संशय पेदा थाय ज छे, माटे अवग्रह निश्चय न करावी आपतो होवाथी अप्रमाण छे. ओ ज रीते ईहा पण निर्णयात्मक न होवाथी अप्रमाण छे - आवां कारणो त्यां रजू करायां छे, जे गेरवाजबी लागे छे. कारण के घणा अपायो पछी संशय जागे छे, तो अपायोने पण अप्रमाण गणवा ? नहीं ज, कारण के तार्किकमते स्वविषयमां सम्यक् निर्णय कराववो अ ज प्रामाण्य छे. अने आवं प्रामाण्य जेम अपायमां घटे छे, तेम सामान्यना ग्राहक अवग्रहमां पण घटे छे. विशेष विशेषोनो संशय कंई तेनी पूर्वेना सामान्य के प्राथमिक विशेषोना ग्राहक ज्ञानने अप्रमाण बनावी १. "संशयस्याऽप्रमाणत्वादवग्रहादिषु पाठो न कृतः" - प्र.न.-२.११ बालबोधिनी. २. "अर्थगृहीतेः सूत्रे संशयो नोक्तः" - त.वा.-१.१५.१३ ३. प्र. न. - २.७-११ ४. त. वा. - १.१५.६
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शके नहीं. अ ज रीते ईहा पण स्वविषयमां अन्वयधर्मोनां अस्तित्व अने व्यतिरेकधर्मोना अभावमां निर्णयरूप होवाथी' प्रमाण ज छे.
६. अवग्रहमां प्राथमिक विशेषोनुं ग्रहण होय छे.
पूर्वे जोयुं तेम तार्किको तो ओवुं ज माने छे. आ मुद्दे खास तो तत्त्वार्थभाष्य परनी श्रीसिद्धसेनगणिनी टीका ध्यानार्ह छे. ओमां एक बाजु १.१५नी टीकामां तार्किक परम्परा मुजब, तो बीजी बाजु १.१६-१७नी टीकामां आगमिक परम्परा मुजब अवग्रहादिनुं निरूपण छे ! आ वस्तु ओम तो आपणने मूंझवे तेवी छे, पण जराक ध्यान आपीओ तो श्रीसिद्धसेनगणिने खुदने शुं मान्य हशे ते नक्की करवुं अघरुं नथी. आपणे जो तेमनी विचारधाराने चीवटथी तपासीशुं तो आपणने तेओ आगमिक परम्पराना जबरदस्त समर्थक ज जणाशे. सीधी रीते केवलज्ञान- दर्शननो युगपद् उपयोग प्ररूपता तत्त्वार्थभाष्यनो पण तेओओ जे रीते युगपवादनी झाटकणी काढवापूर्वक आगमिक क्रमवादपरक ज अर्थ कर्यो छे २ ओ जोतां तेओनी आगमिक प्ररूपणाओमां दृढ श्रद्धा सहेजे जणाशे. एटले आपणे मानवुं जोईओ के अवग्रहादिना स्वरूपनो सरळ ख्याल आपवा माटे ज १.१५नी टीकामां तार्किक परम्परा मुजब निरूपण कर्तुं छे; पण वास्तवमां तेओने सम्मत तो आगमिक व्यवस्था ज छे, के जे तेओओ १.१६-१७नी टीकामां देखाडी छे. उपाध्यायजीओ तत्त्वार्थभाष्य-विवरणमां १.१५ना व्याख्यानमां, श्रीसिद्धसेनगणिना आ सूत्रना व्याख्यानमां आ तफावत देखाड्यो छे ते नोंधवा योग्य छे. ३
७. धारणा अकमात्र वासना / संस्काररूप छे.
१. “न चाऽनिर्णयरूपत्वादप्रमाणत्वमस्याः शङ्कनीयं; स्वविषयनिर्णयरूपत्वात् ।”
३५
दिगम्बर परम्परा पण धारणाने वासनारूप ज माने छे. ४ प्र.मी. अने प्र.न. आ बे लगभग समकालीन प्रमाणशास्त्रोमां जे
44
प्र.मी. १.१.२७ टीका
२. तत्त्वार्थ - १.३१ भाष्य - टीका
३.
इत्याकारेति टीकाकृत: । सा च व्यावहारिकावग्रहजन्या द्रष्टव्या । नैश्चयिकावग्रहजन्या तु... विशेषावश्यकप्रसिद्धा समुन्नेया । "
४. “स एवाऽय' मित्यविस्मरणं यतो भवति सा धारणा । "
-
त. वा. - १.१५.४
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नोंधपात्र तफावत छे तेमां ओक धारणाना स्वरूप विशे छे. प्र.न.मां अपायनी लांबा काळ सुधीनी विद्यमानताने ज धारणा गणी छे, ' के जे अविच्युति नामनो धारणानो प्रकार छे. ज्यारे प्र. मी. कार अविच्युतिने स्थाने वासनाने धारणा गणे छे. आम प्र.मी. अने प्र.न. बन्ने त्रण धारणाने निरूपती आगमिक परम्पराथी जूदा पडवा छतां परस्पर भिन्नता धरावे छे. वासनाने प्रत्यक्षज्ञानरूप सिद्ध करवी ঔ अघरुं होवाथी प्र.न.कार ने प्रत्यक्षना भेद तरीके न गणता होय ओ बनवाजोग छे.
३६
अविच्युति अपायमां ज समाई जाय छे - २ ओवा प्र.मी.कारना कथननी सामे उपा. श्रीयशोविजयजीओ तत्त्वार्थभाष्य-विवरणमां ३ स्पष्टता करी छे के अपायनुं लांबा काळ सुधी टकवुं अ ज अविच्युति ओम कहेवाय छे खरुं; परन्तु वास्तवमां ‘आ घट छे, आ घट छे' आवी धारावाहिक ज्ञानपरम्परा अविच्युति छे. जेम दीपकलिका नवी नवी उत्पन्न थती होवा छतां सदृशताने लीधे ओक ज ज्योतनो भ्रम थाय छे; तेम नवा नवा निश्चय थता होवा छतां तेओनो आकार अत्यन्त समान होवाथी आपणने ओक ज निश्चय लांबा काळ सुधी टक्यो ओम लागे छे. माटे अविच्युतिनो अपायमां अन्तर्भाव करी शकाय नहीं.
आ उपरान्त अविच्युतिने अपायथी अलग गणवानुं कारण उपाध्यायजीओ जैनतर्कभाषामां४ अ जणाव्युं छे के तृणस्पर्श जेवा विषयोनी स्मृति आपणने नथी थती, अने अपाय तो त्यां पण थयेलो होय ज छे. आ वस्तु जणावे छे के स्मृति माटे अपाय सिवाय पण कोईक हेतु होवो जोईओ. अने आ हेतु ओटले ज अविच्युति. अपाय बधे सरखो होवा छतां स्मृतिमां पडनारा स्पष्ट, स्पष्टतर व. भेदो पण एमनी कारणभूत अविच्युतिनुं स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करे छे.
संस्कारने वि.भाष्य-टीकामां स्मृतिज्ञानावरणीयना क्षयोपशमरूप के
१. प्र. न. - २.१०
२. ‘“साऽवाय एवाऽन्तर्भूतेति न पृथगुक्ता ।" - प्र.मी. - १.१.२९ टीका
३. १.१५ना अन्तभागमां.
४. जै. त. - परि. १५, १६
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आत्मगत शक्तिरूप जणावी तेमां ज्ञानत्वनो उपचार मान्यो छे.१ ज्यारे प्र.मी., श्लोकवार्तिक व. मां संस्कार स्वयं अज्ञानरूप होय तो अनाथी स्मृत्यात्मक ज्ञान पेदा न थाय ओम जणावी अने सीधो ज ज्ञानरूप मानवामां आव्यो छे. लागे छे के - अकवार वस्तुनो बोध थाय अटले तेना आवारक कर्मनो क्षयोपशम थयो होवाने लीधे ते बोध अमुक समय सुधी सुषुप्त अवस्थामां आत्मामां पडी रहे छे. बोधनी आ सुषुप्त अवस्था ज संस्कार छे ओम मानी तेओ आवी प्ररूपणा करता हशे.
आम प्र.मी.गत मतिज्ञानोत्पत्तिक्रमनुं निरूपण आगमिक परम्पराने अनुसरतुं होवा छतां, अने वधु तर्कग्राह्य बनाववानो प्रयत्न करवामां आव्यो छे ते आ निरूपणनी लाक्षणिकता छे. अने आ लाक्षणिकता ज कलिकालसर्वज्ञनी आगवी ओळख छे.
सन्दर्भसूचि प्र.मी. - प्रमाणमीमांसा (सटीक), सूत्र १.१.२६-२९. कर्ता - श्रीहेमचन्द्राचार्य, सं. -
पं. सुखलालजी संघवी, प्र.- सरस्वती पुस्तक भण्डार, अमदावाद, १९८९ वि.भाष्य - विशेषावश्यकभाष्य (सटीक), गाथा १७८-३५४, कर्ता - श्रीजिनभद्रगणि,
टी.- मलधारी हेमचन्द्रसूरिजी, सं. - राजेन्द्रविजयजी, प्र. - बाई समरथ
जैन श्वे. मू. ज्ञानोद्धार ट्रस्ट - अमदावाद, वीरसं. २४८९ प्र.न. - प्रमाणनयतत्त्वालोक (बालबोधिनीटीका साथे), सूत्र २.७-१२, कर्ता -
वादिदेवसूरिजी, टी. - रामगोपालाचार्य, सं. - पं. वज्रसेनविजयजी, प्र.
भद्रङ्कर प्रकाशन - अमदावाद, वि.सं. २०५७ ज्ञानबिन्दु - परिच्छेद ३५-३८, ४६, ४७, कर्ता - उपा. श्रीयशोविजयजी, सं. - पं.
सुखलालजी संघवी, प्र. सिंघी जैन ग्रन्थमाला - अमदावाद, कलकत्ता, १. "वासनाऽपि स्मृतिविज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमरूपा तद्विज्ञानजननशक्तिरूपा चेष्यते । सा च यद्यपि स्वयं ज्ञानरूपा न भवति, तथापि.... उपचारतो ज्ञानरूपाऽभ्युपगम्यते ।"
- वि.भाष्य १८९ टीका २. “अस्य ह्यज्ञानरूपत्वे ज्ञानरूपस्मृतिजनकत्वं न स्याद् - प्र.मी. - १.१.२९ टीका; "अज्ञानात्मकतायां तु संस्कारस्येह तस्य वा । ज्ञानोपादानता न स्याद्..."
श्लोकवार्तिक - १.१५.२२
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जै.त. - जैनतर्कभाषा, परिच्छेद - ६-१७, कर्ता - उपा. श्रीयशोविजयजी, सं. - पं.
सुखलालजी संघवी, प्र. - सिंघी जैन ग्रन्थमाला - अमदावाद, कलकत्ता,
१९३८ सन्मतिटीका - ५५३, ६१८ पृष्ठ, कर्ता - श्रीअभयदेवसूरिजी, सं. - पं. सुखलालजी
संघवी, बेचरदास दोशी, प्र. RINSEN Book Co., Kyoto, 1984 लघीयस्त्रय (सटीक), कारिका ५-६, कर्ता - भट्ट अकलङ्कदेव, सं. - महेन्द्रकुमार
जैन, प्र. - सिंघी जैन ग्रन्थमाला, १९३९ (अकलङ्कग्रन्थत्रयम् अन्तर्गत) तत्त्वार्थ - तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (स्वोपज्ञभाष्य साथे), सूत्र १.१५-१९, कर्ता - श्रीउमास्वाति
वाचक तत्त्वार्थटीका - कर्ता - श्रीसिद्धसेनगणि, सं. - हीरालाल रसिकदास कापडीया, प्र.
- देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, १९२६ तत्त्वार्थभाष्यविवरण - कर्ता - श्रीयशोविजयजी उपा., सं. - आ श्रीविजयोदयसूरिजी,
प्र. - श्रुतज्ञान प्रसारक सभा - अमदावाद, १९९५ त. वा. - तत्त्वार्थवार्तिक (सटीक), कर्ता - भट्ट अकलङ्कदेव, सं. - महेन्द्रकुमार जैन,
प्र.-भारतीय ज्ञानपीठ - दिल्ही, १९९९ श्लोकवार्तिक - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (सटीक), कर्ता - विद्यानन्दिस्वामि, सं. -
मनोहरलाल न्यायशास्त्री, प्र. - सरस्वती पुस्तक भण्डार, अमदावाद, २००२ सर्वार्थसिद्धि - कर्ता - श्रीपूज्यपादस्वामी नन्दीसूत्र - कर्ता - श्रीदेववाचक
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अंग्रेज विद्वान डॉ. पीटर पीटर्सन- प्रवचन : पूना, डेक्कन कॉलेज विषय : श्रीहेमचन्द्राचार्य तथा योगशास्त्र
भूमिका
[नोंध : डॉ. पीटरसन ए संस्कृतज्ञ तथा भारतीय संस्कृतिना अंग्रेज विद्वानो पैकी अग्रणी विद्वान हता. अंग्रेज सरकारना ते उच्चाधिकारी हता. तेमणे समग्र भारतना प्रमुख ग्रन्थभण्डारोनुं बारीक अवलोकन करेलु, अने ते विषेनी तेमनी नोंधो डॉ. पीटर्सनना रिपोर्ट एवा नामे खूब जाणीती अने आदरपात्र बनेली. ए रिपोर्टो आजे तो अप्राप्य छे.
आवा आ विद्वाने हेमचन्द्राचार्य तथा तेमना ग्रन्थ योगशास्त्र विषे ओक अभ्यासपूर्ण प्रवचन इंग्लिशमां आजथी अन्दाजे १०४ वर्षो अगाऊ आपेलुं. तेनो गुजराती तरजुमो भावनगरथी प्रकाशित थता 'जैन धर्मप्रकाश' नामे मासिकना २४मा पुस्तकमां ८मा अंकमां अटले के संवत् १९६४ना कार्तकमासना अंकमां प्रगट थयेलो, ते 'अनुसन्धान'ना वाचको माटे अहीं प्रगट करवामां आवे छे.
आ प्रवचननी भाषा, जोडणी, रजूआत - बधुं जेमनुं तेम राख्युं छे. केटलाक मुद्दा एवा छे के जेमां डॉ. पीटरसननी रजूआत खोटी अथवा गैरसमज भरेली छे. परन्तु ते कांई कोई खास इरादापूर्वक करवामां नथी आवी, पण विषय परत्वेना अज्ञान थकी के विषयनी खोटी समजमांथी ऊभी थयेली छे, ते सुज्ञ वाचक सुपेरे समजी शकशे. दा.त. आलिग पुरोहितनो जैन साधु उपर आक्षेप तथा तेनो हेमाचार्ये आपेल जवाब. आ संवाद बराबर रजू थयो नथी. परन्तु अभ्यासी वाचको तेनी स्पष्टता माटे 'प्रबन्धचिन्तामणि' वगेरेमां मूळ सन्दर्भ सुधी जई शके छे. ते ज प्रमाणे 'सोळ जणाए व्याख्यान श्रवण करवू' एवं विधान हेमचन्द्राचार्यना नामे करेल छे, ते पण योगशास्त्रना जे ते श्लोकमां 'अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः शृण्वानो धर्ममन्वहम्' एवा पाठने बदले 'अष्टभिर्द्विगुणैर्युक्तः' एवो पाठ तेमणे वांची लीधो होय तेने कारणे तेवू विधान कल्पी लीधुं जणाय छे. आवी बीजी पण केटलीक बाबतो हशे ज.
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
परन्तु एक वात चोक्कस के पीटर्सन हेमचन्द्राचार्य, योगशास्त्रने के जैन धर्मने ऊतारी पाडवाना आशयथी एक पण वाक्य बोल्या जणाता नथी. बल्के तेमना समग्र वक्तव्यमां एकंदरे आ सर्व प्रत्ये अहोभाव ज नीतरतो अनुभवाय छे. अने तो ज 'जैन धर्म प्रकाश'मां तेने स्थान मळ्युं होय.
जैन धर्म अने तेनी परम्पराथी सदंतर अनभिज्ञ एवो एक विदेशी विद्वान, जैन धर्म, हेमाचार्य, योगशास्त्र इत्यादि परत्वे केवा खयालो बांधी शके छे, तेनो अणसार आ प्रवचन द्वारा सांपडशे. आजथी सो वर्ष पूर्वे, आवा विद्वानोए जैन धर्म विषे जाणकारी जगतमां फेलाववा माटे करेला आवा उत्तम प्रयासोनुं समसामयिक मूल्य ओछु नथी. अस्तु.
-शी.]
जैन लोकोना प्रसिद्ध धर्मगुरु हेमाचार्यजीना सम्बन्धमां तथा तेणे रचेला योगशास्त्र नामना पुस्तकना सम्बन्धमां अलफीन्स्टन कोलेजना संस्कृतना शिक्षागुरु डा. पीटरसने पूनामां डेकन कोलेजना विद्यार्थीओ हजुर थोडा वखत पर जे रसीलुं व्याख्यान आप्यु हतुं, ते नीचे प्रमाणेनुं छे.
डेकन कॉलेजना विद्यार्थीओ ! तमारी जातना तथा तमारी भूमिना ओक महान लेखक तथा धर्मगुरुना सम्बन्धमा आजे तमारी हजुर केटलुक विवेचन करवानुं हुं धारुं छं. ते कंइ ओक मराठो ब्राह्मण हतो नहि; तेम वळी जूना विचारनो ओक हिन्दु पण ते कंइ हतो नहि. ते तो ओक ओवा धर्मनो हतो के जेने तमे तथा तमारा बापदादाओ तमारा स्थापित धर्मथी विरुद्ध गयेला जैनमतना नामथी ओळखतां आव्या छो. अम छतां स्वतन्त्र विचारना केळवायेला हिन्दुओर्नु स्वदेशाभिमान मात्र दक्षिण अथवा गुजरातथी अटकतुं नथी. पण आखा देशने तेओ पोतानो गणे छे. अने विद्वानो कोईपण धर्ममतने खोटा गणी तेनी तरफ अभावथी जोता नथी, पण ते सघळा बराबर तपासे छे. ने ते सर्वेमां तेमने कंइक ने कंइक सारुं ने नवं ज मालूम पडी आवे छे.
हं जे महापुरुष विशे तमारी पासे व्याख्यान करवा मांगुं छु, ते महापुरुषे पोतानी लांबी अने मोटी मोटी मुश्केलीभरेली जिंदगी नठारां काम करवामां नहि पण सारा काम करवामां ज गाळी हती. अमणे
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कीधेलां सुकृत माटे आ देशनी प्रजाओ तेनो मोटो उपकार मानवो घटे छे. जगतमां दरेक देशनी खरी दोलत ओ तेना महापुरुषो छे. ने दरेक देशना लोको पोताना ओ महापुरुष तरफ पूज्यभावथी जुए मे स्वाभाविक छे. मारी जिंदगीनां घणांक वर्ष आ भूमिमां गळायेलां होवाथी हुं पण आ भूमि तरफ प्रीतिभाव राखनारो छु, ने आ भूमिनो ओक रहीश छं. तेवा ओक रहीश तरीके आ व्याख्यान हुं तमने आपवा नीकळ्यो छु, ने तेवा भावथी ज तमे आ व्याख्यान श्रवण करजो.
विक्रमना वर्ष ११४५ कार्तिक महिनानी पूर्णिमाने दिवसे ख्रिस्ती वर्ष १०८८-८९मां, धंधुका शहेर जे अमदावाद जिल्लामां आवेलुं छे, त्यां अक अर्बु बाळक जन्म्युं हतुं के जे उमरे पहोंचतां जैन लोकोनो ओक नामीचो धर्मगुरु थनार हतो. तथा बे मोटा राजाओनो धर्मसम्बन्धी सलाहकार थनार हतो. तमे सौ हिन्दुस्तानना इतिहास करतां इंग्लेन्डनो इतिहास वधारे जाणो छो. तेथी तमने जणावq ठीक पडशे के इंग्लेन्डमां नोर्मन वंशनो पहेलो राजा वीलीयम धी कोंकरर जे वर्षमां मरण पाम्यो ते वर्षथी अक अन्तरे आ महापुरुषनो जन्म थयो हतो. आ बाळकना मातापिता साधारण वणिकज्ञातिना हता. बापर्नु नाम चाचीग तथा मातानुं नाम पाहीनी हतुं.
हमणां जेम हिन्दु स्त्रीओ दररोज भक्तिभावथी देवालयोना दर्शनार्थे जाय छे, तेवी ज रीते ते वखते पण हिन्दु स्त्रीओ जती. पाहीनी पण अम देरे जती ने देशमा मुकाम करता जता आवता साधुओनो सुबोध हमेशां श्रवण करती. विशेषे करीने देवचन्द्र नामना ओक साधुना बोधनी पाहीनीने ममता हती. तेने तेणीओ ओक दिने जणाव्यु के तेने ओक अq विचित्र स्वप्न आगली रात्रिओ
आव्युं हतुं के तेणीने पेटे चिन्तामणिरत्ननो जन्म थशे. देवचन्द्रे ए स्वप्ननो तेणीने अवो खुलासो आप्यो के तेणीने पेटे अक पुत्ररत्न अवतरशे ने ओ पुत्र जैनधर्मनुं कौस्तुभरत्न थइ पडशे. मुजब पाहीनीने पुरे दहाडे पुत्र ज प्रसव्यो ने तेने 'चंगदेव' अq नाम आपवामां आव्युं.
___ पाहीनी पोताने आवेलु उपलुं स्वप्न बिलकुल भूली गई हती. ने उपला साधु देवचन्द्रे ते स्वप्ननो आपेल खुलासो पण भूली गई हती. ओ वातने पांच वर्ष वीती गयां. ओक दहाडो ओ पोताना पांच वर्षना थयेला छोकराने
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अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
लईने हंमेशनी रीत प्रमाणे साधुनो बोध सांभळवा देरे गई अने चंगदेव तेनी पासेथी ऊठीने सर्वे लोकोनी अजायबी वच्चे गुरुनी खाली बेठके जइने बेठो. पेला साधु देवचन्द्र, जे देशाटन करतां करतां अ समये धंधुका आवी पहोंच्या हता, ते आ बनावनो भेद बराबर समज्या. छोकरानी माने तेणे ओळखी काढी. ने पांच वर्ष पर तेणीने जे स्वप्न आवेलुं ने तेनो तेणे जे खुलासो तेणीने कहेलो ते देवचन्द्रे तेने याद देवडाव्यो. पाहीनीने कह्युं के तेणीओ पोताना अ पुत्रने धर्मने अर्पण करी देवो. पाहीनीओ तेम करवानी हा पाडी. ने चाचीगे पहेलां जो के पोताना पुत्रने आपी देवानी ना पाडी पण पछी तेने समजाववामां आव्युं त्यारे तेणे पण ते कबुल कीधुं. ओम छतां पैसा लईने पोताना व्हाला पुत्रनुं वेचाण करी आपवानी तो घसीने तेणे ना पाडी. ओ वखतथी चंगदेव धर्मने कारणे पोताना मातापिताथी छूटो पड्यो ने डाह्या ने भला देवचन्द्रनी जोडे रही देशाटन करतो रह्यो .
४२
धंधुकाथी नीकळेला देवचन्द्रने चंगदेव खम्भातना अखातमां थइने खम्भात गया. त्यां महा सुद १४ ने रविवारने दिवसे चंगदेवने जैन साधु बनवानी सर्वे धर्मक्रिया कराववामां आवी. अने तेने सोमचन्द्र अवुं नाम आपवामां आव्युं.
देवचन्द्रे आवा ओक नाना छोकराने पोतानो चेलो बनाव्यो ते कोइने नवाई जेवुं लागशे. पण खरी रीते जोतां तेमां कंइ नवाइ जेवुं नथी. अवुं धोरण आ देशमां तथा बीजा देशोमां असलथी चाली आव्युं छे अने चाल्युं आवे छे. जो के जैन धर्मशास्त्रमां अम ठरावेलुं छे खरुं के " जे माणसने साधुओनो हंमेशा बोध सांभळी ओवो विपाकनिर्णय थाय के आ जगत सघळं मायारूप छे ने जे मुक्ति मेळववानी तेनी इच्छा छे ते मुक्ति आ जगतमां रहेवाथी कदी मळी शकवानी नथी, तेवा ज पुरुषने साधु बनवा देवो." ते मुजब मोटी उमरे पहोंचेला माणसने ज साधु बनावी शकाय ने आवा ओक बाळकने साधु न बनावी शकाय. अ धोरण सारुं छे खरं. पण बीजा सघळा धर्मोमां जोइशुं तो ओ ज रीते नवा आचार्योने पसंद करवामां आवे छे. ज्यां आचार्योने लग्नादिकनो प्रतिबन्ध होय त्यां पोतानी जगा लेनारो आचार्य बनाववा माटे आम कर्या सिवाय छूटको थतो ज नथी. धर्मिष्ठ स्त्रीओ पोताना दीकराओने धर्मने अर्पण
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करी दे छे ओवा दाखला साधारण छे, ने आपणे जाणीओ छीओ के केटलीक स्त्रीओ तो पैसा लईने पोताना छोकराने वेचे छे पण खरी.
४३
चंगदेव साधुपद पामीने सोमचन्द्र नामथी ओळखावा मांड्यो. ते पछी वच्चे जे बार वर्ष वीती गयां ते दरमियान ते क्यां क्यां फर्यो ने तेणे शुं शुं कीधुं ते विषे भरोसो राखवा लायक कंइ हकीकत मळी शकती नथी. पण जे जुदा जुदा नामांकित पुरुषोने, धर्मना पोताना ऊंचा ज्ञानथी तेमनी शंका दूर करी, जैनमतमां तेओ लाव्या; तेमां सौथी नामांकित पुरुष कुमारपाळ राजाओ खम्भातमां ज्यां सोमचन्द्रने साधु बनवानी क्रिया करवामां आवी हती त्यां अक देरुं बंधाव्युं हतुं ते बनाव तो खुल्ली रीते ऐतिहासिक छे. ओम छतां अ वच्चेनां बार वर्ष केवी रीते वीती गयां हशे ते समजवुं कांइ मुश्केल पडे ओम पण नथी. जैन साधुओनी रीति प्रमाणे वर्षना आठ मास सुधी पोताना गुरु देवचन्द्र साथे ते देशाटन करी रह्या हता. देवचन्द्रनी सर्वे प्रकारनी सेवा करता हता. ने तेमनी पासेथी सुशिक्षण लीधा करता हता. वर्षाऋतुना चार मासमां कोइ भाविक जैनने आशरे जइने तेओ रहेता हता. ने अ सघळा वखत दरमियान सोमचन्द्रनुं धर्मध्यान तो वधतुं ज गयुं ने आगळ तेणे जैनधर्मने जे विस्तारमां फेलाव्यो छे ते जोतां जणाय छे के पोताना धर्मना ज्ञाननी इमारत केवा पाका पाया पर रच्यो जतो हतो.
मनो शिष्यपणानो काळ पूरो थतां विक्रम संवत १९६६मां ख्रिस्ती वर्ष १११० मां तेमने सूरिपद ओटले के आचार्यपदनो संस्कार करवामां आव्यो. ने ओ बीजी वखत तेमणे पाठुं नाम बदल्युं ने हेमचन्द्र नाम धारण कीधुं. अ हेमचन्द्र नामथी ज ते तेनी बाकीनी जिंदगी सुधी ओळखाया हता. मनुष्यनी जिंदगीमां जुदा जुदा मोटा फेरफार थतां मनुष्ये पोतानुं नाम फेरवी बीजुं नवुं ज नाम धारण करवुं ओ रीति सर्वमान्य छे. ने तेमां कांइ नवाइ जेवुं पण नथी. हेमचन्द्र आचार्यपद पाम्या ते पहेलानां तेमज ते पछीनां थोडांक वर्षनो कंइ इतिहास आपणने मळी शकतो नथी. छेल्ला आपणे तेने सर्व जैन कामोना वडा आचार्य तरीके कबुल रखायेला अणहीलवाड पाटणमां आवी वसेला जोइसे छीओ. अ समये पाटणनी गादी पर जयसिंह सिद्धराज हतो. ने तेनी हकुमत आबुथी गिरनार सुधी ने पश्चिमे आवेला समुद्रथी माळवानी सरहद सुधी
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अनुसन्धान - ५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
जामी रही हती. अ राजानी राजद्वारी जिंदगी विषे हुं बोलवा मांगतो नथी. विद्वानोने आश्रय आपनार तथा धर्मनुं रहस्य मेळववा माटे उत्साह धरावनार राजा तरीके ज हुं अहीं तेने ओळखावा मागुं छं.
४४
जैन लोको ओम कहेता नथी के जयसिंह सिद्धराजने तेओ पोताना जैन धर्ममां लावी शक्या हता. ते पोताना बापदादाथी उतरी आवेली रीत मुजब कदी शिवनी पूजा कर्या वगर रहेतो नहि. ओम देशना सघळा भागोमांथी जुदा जुदा धर्ममतना धर्माचार्योने हमेशां पोतानी राजधानीमां तेडावानो तेने मोटो उत्साह पेदा थयो हतो. ते सघळाओने ओवी रीते पोताना दरबारमां अकठा करतो ने तेओ धर्मसम्बन्धी जे वादविवाद चलावे ते सांभळी तेमां विनोद पामतो.
हेमचन्द्रनी विख्याति सांभळी तेने पण सिद्धराजे पोताना दरबारमां तेडाव्या. सिद्धराजने धर्मसम्बन्धी जे शंकाओ थती ते विषे ते हमेशां बीजा आचार्योनी पेठे हेमचन्द्रने पण पूछतो. ने बीजा आचार्यो ज्यारे सिद्धराजनुं मन सन्तोष पामे ओवो खुलासो आपी शकता नहिं; त्यारे हेमचन्द्र जुदां जुदां दृष्टान्तो आपी ओवो खुलासो आपतां के सिद्धराजनुं मन रंजन थतुं. ओवी रीते हेमचन्द्र असरकारक दृष्टान्तो आपी सिद्धराजनी शंकाओनुं निवारण करता, ओने लगती छूटी छवाइ केटलीक जाणवाजोग हकीकत सारे नसीबे हजु सुधी सचवाई रही छे.
अमांनी ओक वात आ प्रमाणेनी जाणवा जोग छे. अकवार सिद्धराजना मनमां ओवी शंका उत्पन्न थइ के 'जगतमां मनुष्यनुं स्थान केवुं छे ने मनुष्यनो उद्देश शुं छे ने ते शी रीते प्राप्त करी शकाय ?' जुदाजुदा घणा धर्माचार्यो पासे तेणे अ विषे खुलासो मांग्यो, पण कोइ तने से खुलासो सन्तोषकारक रीते आपी शक्युं नहि. दरेक आचार्य तेनो खुलासा करवा जतां पोताना पन्थनी स्तुति करता, बीजा धर्मोने वखोडता. छेवटे निराश थइने सिद्धराजे हेमचन्द्रने पोतानी शंका विषे खुलासो पूछ्यो ने हेमचन्द्रे नीचे प्रमाणेनुं दृष्टान्त आपी सिद्धराजनी शंकानुं निवारण कर्यु. अ दृष्टान्त आ प्रमाणे छे.
'अक समे ओक गाममां अक व्यापारी वसतो हतो. जेणे पोतानी स्त्रीने तजी दीधी हती ने ओक वेश्या साथे पोतानी जिंदगी वृथा गाळतो हतो. आ स्त्री पोताना पतिनुं मन पोतानी तरफ खेंचवानो हरेक प्रकारे कोशिष करती
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रही. पण तेमां तेणीनुं कांइ वळ्युं नहि. आखरे जादुनी मददथी पोताना धणीने वश करवानो तेणीओ मनसुबो कीधो. तेवा विचारथी अक जादुगर पासे तेणी गई ने जादुगरे तेणीनुं सांभळी लइने कह्युं के "हुं अवुं करी आपीश के जेथी तारो वर तारी पासे दोरडाथी बंधायेलो रहेशे." जादुगरना कहेवा प्रमाणेनुं वनस्पतिनुं मूळियुं घसी तेनो रस तेणीओ पोताना धणीना खोराकमां नांख्यो ने तेनी असरथी तेनो धणी अक बळद थइ गयो. ते जोइ तेणी बहु गभराइ गइ. ने सर्वे ओळखीता लोको ओम करवा माटे तेणीने ठपको देवा लाग्या. हवे पोताना धणीने पाछो मनुष्यदेहमां शी रीते लाववो ते बिचारीने बिलकुल सूज्युं नहि.
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'पोताना से बळद थइ गयेला कमभाग्य पतिने ते चराववा लइ गई हती. तेवामां त्यां तेने ए वातनो विचार आवतां ते बिचारी इसके इसके रडवा लागी. तेवामां अकाओक शिव अने पार्वतीने पोताना विमानमां बेसीने आकाशमां फरतां तेणीओ जोया ने शिव अने पार्वतीनी वच्चे थती वातचीत ध्यान द सांभळी.
पार्वती शिवने ओम पूछती हती के " आ गोवाऴण अहीं बेठी बेठी शा सारु डूसके डूसके रडे छे ?" शिवे पार्वतीने ओनो जवाब देतां आ स्त्रीनो धणी तेणीओ आपेली वनस्पतिथी बळद केम थइ गयो ने तेणीओ ओ वनस्पति शा कारणथी ने शी मतलबसर आपी ते कह्युं. ते कह्या पछी शिवे पार्वतीने वळी कह्युं के “आ बेवकूफ स्त्री जे झाड नीचे बेसी आम रुदन कर्या करे छे, ते ज झाडनी छाया नीचेनी जमीन पर अक स्थळे ओवी वनस्पति ऊगी छे के जे वनस्पति से स्त्री पोताना आ बळद थइ गयेला पतिने खवडावे तो अ तेनो धणी बळदना देहमांथी मुक्त थइ पाछो मनुष्यनो देह धारण करे. ' आटली वात थइने शिव तथा पार्वतीनुं विमान त्यांथी जतुं रह्यं.
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आ स्त्री ते परथी उठी अने कइ अमुक वनस्पतिथी से लाभ प्राप्त थाय ते माटे खोटी विमासण न करतां, झाडनी छाया नीचे जे सघळं वनस्पति आदिक ऊग्युं हतुं ते कापी लइने ते सघळो चारो बळद थइ गयेला पोताना पतिने खावा माटे नांख्यो. ने खरे ज ते खातां वार से स्त्रीनो पति बळद मटी पाछो माणस थयो. पण कइ अमुक वनस्पति खावामां आववाथी बळद देह
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मटीने मनुष्यनी देह पाछो ते पाम्यो, अ स्त्रीना जाणवामां कदापि पण आववा पाम्युं नहि. ने ते जाणवानी तेणीओ दरकार पण करी नहि. '
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हेमचन्द्रे आ वार्ता दृष्टान्तरूपे सिद्धराजने कहीने समजाव्युं के “एवी ज रीते हे राजा ! आ सघळा धर्मपन्थो के जेमां तमे गूंचवाया करो छो तेने झाड तळे ऊगेली वनस्पति समान समजो सर्वे धर्मपन्थोनो तमे सत्कार करो ने ते दरेकमां जे कंइ सारुं होय ते तमे ग्रहण करो. तेम कर्याथी ज तमे मुक्तिने पामशो.” सिद्धराजने हेमचन्द्रनो आ बोध बहु व्याजबी लाग्यो. ने ते दिवसथी ते सर्वे धर्मपन्थोना आचार्योनो सत्कार करवामां सम्पूर्ण समानपणुं जाळववा लाग्यो.
हेमचन्द्र तथा सिद्धराजने लगती बीजी केटलीक वातो ओवी ज जाणवा जेवी छे. सिद्धराजना दरबारमाना ब्राह्मणो सिद्धराजने हेमचन्द्र तरफ विशेष ममता बतावतो जोइ केटलीकवार बहु गभराता ने रखेने सिद्धराज जैनमत स्वीकारे ओवी तेमने बीक रहेती. ते परथी वारे घडीओ तेओ नवी नवी युक्ति राजा ने हेमचन्द्र वच्चे भिन्नभाव पडाववा माटे वापरवानुं चूकता नहि.
अकवार ब्राह्मणोओ राजा पासे जइने ओवी फरियाद करी के "ओक जैन साधुओ चतुर्मुखी देवालयमां नेमिचरित्रनी कथा करतां पोताना जैन श्रोताओने खुशी करवा सारुं केवळ बेहाइथी ओम कह्युं के 'पाण्डवो तो जैन धर्मी हता. " ओम जणावी ब्राह्मणो बोल्या के " आप राजाजी ब्राह्मणोनुं प्रतिपालन करवावाळा छो ने शिवना भक्तिमान पूजारी छो. ते महाभारतना अतिपवित्र पुस्तकमांना पाण्डवोने आ जैन साधु आ तमारी ज नगरीमां जैन होवानो गपाटो फेलावे ते शुं तमे सांखी शकशी ?" राजाओ अकदम हेमचन्द्रने तेडाव्या ने हेमचन्द्र पासे अ वातनो खुलासो मांग्यो. हेमचन्द्रे उपला जैन साधुओ से वात कही ओम कबुल तो कर्युं. पण महाभारतना जुदाजुदा श्लोको टांकी बतावी राजाने कह्युं के “महाभारतमां तो सो भीष्म, त्रणसो पाण्डव, ओक हजार द्रोण ने संख्याबंध कर्ण होवानुं जणाव्युं छे. तो अ सघळामांथी अकाद पाण्डव जैन होय अ शुं बनवा जोग नथी ?" राजाने हेमचन्द्रनो आ खुलासो बराबर लाग्यो ने ब्राह्मणोनी फरियाद तेणे तरत काढी नांखी. हेमचन्द्र आवी रीते पोतानी उच्च प्रकारनी तर्कशक्तिथी ब्राह्मणोने घणीवार हंफाववामां फावी जता हता.
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अकवार पुरोहित आलिगे जैनधर्मने हलकुं लगाडवा माटे अम जणाव्यु के "जैन साधुओ मोटा ठाठमाठथी रहे छे ने पोतानी कथा सांभळवाने स्त्रीओने आववा दे छे. ने तेने परिणामे स्त्रीओथी अळगा रहेवानुं तेमणे लीधेलु व्रत भंग थवानो हमेशां सम्भव रहे छे." हेमचन्द्रे तेनो ओवो प्रत्युत्तर आप्यो के "सिंह जीवहत्या करीने मांसनुं भक्षण करे छे ने कबूतर मात्र अनाज खाइने जीवे छे तेटला माटे कबूतर शुं सिंह करतां विशेष पवित्र प्राणी कहेवाशे के? कदी ज नहि. तेम अेक माणस पोताना म्होंमां शुं नांखे छे ने शुं नहि ते अगत्यनुं नथी. माणसना मोंमां जे चीज जाय तेथी ते कंइ अपवित्र थतो नथी. खरी वात ओ छे के माणसना म्होंमांथी जे कंइ बहार नीकळे छे तेथी माणस अपवित्र थाय छे."*
पचास वर्षनी लांबी मुदत सुधी राज्य भोगव्या पछी सिद्धराजनो देह ई.स. ११४३मां पड्यो ने देवताओओ तेने पुत्र न आपेलो होवाथी तेनी गादी, तेणे जेने धिक्कारेला अवा पोताना भत्रीजाना पुत्र कुमारपाळना हाथमां गइ. कुमारपाळे गादी पर आव्या पछी पोतानी हकुमतनां पहेलो दश वर्ष तो पोताना राज्यनी उत्तर सरहद पर लडाई चलाववामां गाळ्यां. पण अगियारमे वर्षे आबु पर्वतनी तळेटीओ आवेला ओक विशाळ मेदानमां मोटुं युद्ध लडी दुश्मनोनो भारे पराजय कों ने जाथुकने माटे सघळु शान्त करी पोतानी नगरीमां पाछो
★ श्रीहेमचन्द्राचार्ये जे जवाब आप्यो हतो तेनुं तात्पर्य आ नथी. तेमना कहेवानो
मतलब तो ओ हतो के मनुष्यना चारित्र्यघडतरमां आहार करतां मानसिक वृत्तिओ ज मोटो भाग भजवे छे. आलिगे मूकेलो आक्षेप पण जुदा प्रकारनो हतो. जुओ प्रबन्धचिन्तामणिमां (पृ. ८२) नोंधायेलो मूळ संवाद : आलिग - विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो येऽन्येऽम्बुपत्राशिनः,
तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः । आहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवाः,
तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो ! दम्भः समालोक्यताम् ॥ हेमचन्द्राचार्य - सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी,
संवत्सरेण रतमेति किलैकवारम् । पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि, कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः ?॥
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फर्यो. आ राजा कुमारपाळने शैवमतमाथी जैनमतमां लाववामां हेमचन्द्र फतेह पाम्या हता. जे विषे तो कशो पण शक नथी.
आ तमारी कॉलेजना आ दीवानखानामां ज पुस्तकोना संग्रहमां ओक पुस्तक पडेलुं छे के जेमां कुमारपाळ राजाओ कये वर्षे ने कये दिवसे जैनमत स्वीकार्यो ते सघळु आपवामां आवेलुं छे. ख्रिस्ती लोकोना ‘पीलग्रीम्स प्रोग्रेस' नामना पुस्तकनी पेठे अलङ्कारमा कुमारपाळ राजा जैनमतमां दाखल थया तेनी विगत आपवामां आवी छे. ने तेनुं नाम 'मोहपराजय' ओ प्रमाणेनुं छे. हेमचन्द्रने लगता इतिहास पर अजवाळु नाखनारां पुस्तकोमां आ पुस्तक जूनामां जूनुं छे. ओ पुस्तकनो कर्ता यशोपाळ, कुमारपाळ राजानी पछी पाटणनी गादी पर बेसनार अजयपाळ राजानो प्रधान हतो. आ मोहपराजय नाटकमां कुमारपाळ राजाने धर्मराजा तथा विरति देवीनी पुत्री कृपासुन्दरी साथे लग्न करतो वर्णवामां आव्यो छे. ने महावीरनी पोतानी हाजरीमा हेमचन्द्र आ जोडाना लग्न करावे छे. जैनमतनी जीतने लगता ओ बनावनी तिथि संवत १२१६ना मागसर सुद२नी आपवामां आवी छे. अटले कुमारपाळ राजाओ ख्रिस्ती वर्ष ११६०मां जैनमत स्वीकार्यो हतो अम जणाय छे. ओ तिथि खोटी होय ओम मानवाने कंइ कारण नथी. केमके आ पुस्तक, जेमां सघळी विगत आपवामां आवी छे ते ई.स. ११७३ ने ई.स. ११७६नी वचमां अटले के ए बनाव पछी सोळ वर्षनी अंदर लखायेलुं होवू जोइओ ओम लागे छे.
कुमारपाळ राजा जैनमतमां दाखल थया तेने लगती वात विषे अत्रे नोंध लेवानी जरूर आपणने अटला माटे पडी छे के जैनमत पर कुमारपाळ राजानी छेवटनी श्रद्धा बेसाडवा माटे हेमचन्द्रे योगशास्त्र नामनुं पुस्तक जे लख्यु हतुं, ओ पुस्तक विषे आगळ हुं तमारी हजुर केटलुक विवेचन करवानुं धारूं छु. आ योगशास्त्रनुं हस्तलिखित पुस्तक जे खम्भातमां जैन देवालयमां कोइना वांच्या वगर पडी रहेलुं छे, ते संवत १२५१मां (ख्रिस्ती वर्ष ११९५मां) ओटले हेमचन्द्र देवलोक पाम्या पछी वीश वर्षनी अंदर लखायेलुं छे.
आ योगशास्त्र विषे विवेचन करवानुं शरु कर्या पहेला हेमचन्द्रनी जिंदगीने लगती बीजी जाणवाजोग बाबतो अत्रे ज जणावी दइशं. कुमारपाळ राजाना दरबारमा हेमचन्द्रे पोतानो पग वधारी लीधेलो जोइ तथा राजानो बापीको
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धर्म तेणे राजा पासे तजावेलो जोइ दरबारमांना ब्राह्मणो हेमचन्द्रनी सामुं बहु ज कोपायमान थइ गया हता. तेथी हेमचन्द्रने नुकसान करवानी कोइपण तक ओ खाली जवा देता नहि. ते माटेनी तक पण तेओने मळ्या वगर रही नहि.
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कुमारपाळ राजाओ जैन धर्मनो स्वीकार कर्या पछी ओवो हुकम पोताना आखा राज्यमां काढ्यो हतो के रैयतमांना कोइ पण माणसे कदी जीवहिंसा करवी नहि. तेणे पोते पण दरबार तरफना सघळा यज्ञादि अटकावी बलिदान आपवानुं बंध पाडी दीधुं. जैनमतनुं प्राबल्य ओम वधतुं जोइने ते तोडवा माटे कण्टकेश्वरी तथा बीजी देवीओना पूजारी ब्राह्मणोओ राजा हजुर जइ ओवी अरज गुजारी के “अणहीलवाड पाटणमां परम्पराथी चाल्या आवेला प्रचार प्रमाणे अमुक दहाडे ने पछी त्रण दहाडा सुधी देवीओने बलिदान आपवानुं चालु राख्या वगर चाले ओम नथी. सातमने दहाडे सातसो बकरां तथा सात पाडानुं बलिदान आपवुं पडशे. आठमने दहाडे आठसो बकरां तथा आठ पाडानुं बलिदान आपवुं पडशे. नोमने दिवसे नवसो बकरां तथा नव पाडानुं बलिदान आपवुं पडशे. राजाओ सघळं बलिदान आपवानी वेळासर गोठवण करवी. " ब्राह्मणोनी आ अरजनो शुं जवाब आपवो ते विषे राजाओ हेमचन्द्रनो अभिप्राय पूछ्यो ने हेमचन्द्रे ते विषे पोताना मनमां विचार चलावी, राजाने छानुमानुं कांइ समजाव्युं. राजाओ ते परथी ब्राह्मणोने ओवो जवाब दीधो के "तमे कहो छो ते प्रमाणे करवामां आवशे. "
ओ प्रमाणे राजाओ देवीओने बलिदान आपवानी कबुलात आपी खरी, पण पोतानी से कबुलात पाळवामां तेणे नवी ज रीत वापरी. सघळां बकरां तेमज पाडाओने रात्रे देवीओनां देवालयना वाडामां तेणे लावी राख्यां ने पछी देवालयोमांथी एक एक ब्राह्मणोने बहार काढ्या. ने वाडाना सघळा दरवाजाओने ताळां मरावी, त्यां पोताना रजपूत सिपाइओनी चोकी राखी, कोइ अंदर न जाय ओम फरमाव्युं.
बीजे दहाड़े सवारना पहोरमां राजा त्यां आवी पहोंच्यो. ने देवालयोना वाडाना दरवाजा खोली नांखवानुं कह्युं. राजा ब्राह्मणोने साथे लइ अंदर गया. तो सर्वे जनावरो शान्त रीते घास खातां हतां. ते पछी ओकेओक बकरां तथा पाडा राजाओ गणी जोयां तो मालुम पडयुं के तेमांथी ओक पण ओलुं थयुं
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नथी. ने जेटलां जनावरो रात्रिओ बांध्यां हतां, तेटलां ने तेटलां ज सवारे पण रह्या हता. ते गणी रह्या पछी राजाओ ब्राह्मणो तरफ फरीने का "अरे ब्राह्मणो! आ जनावरो में गईकाले रात्रे देवीओने अर्पण कर्यां हतां. जो देवीओने ते जनावरोनुं भक्षण करवानुं पसंद पड्युं होत तो देवीओ भक्षण कर्या सिवाय रही होत नहि. पण हमणां तमे जोयुं तेम ओक जनावर आमांथी ओर्छ थयुं नथी. ते परथी म्हारो ओवो निश्चय थयो छे के जनावरोना मांसनुं भक्षण करवा तरफ देवीओने कंइ प्रीति नथी पण तमने ते गमे छे. माटे हवेथी बलिदाननी कोइ पण दहाडे तमे वात करशो नहि. ने याद राखो के म्हारा आखा राज्यमां कोइ पण स्थळे हुं जीवहिंसा थवा देनार नथी." ब्राह्मणो आ सांभळी बहु गुंचवाइ गया ने तेओथी कंइ बोलायुं नहि. अम छतां देवीओ तरफनी पोतानी भक्ति बताववा माटे पोते बचावेलां आ सघळां जनावरोनी जेटली किंमत थाय तेटलुं नाणुं राजाओ देवीने अर्पण कर्यु.
पोतानी जिंदगीनां पाछलां वर्षोमां कुमारपाळ राजा तथा हेमचन्द्र जैन लोकोनां गुजरातमांना सघळा मोटा मोटा धामोनी यात्रा करवा गया हता. शेजेजय तथा गिरनार पर्वत पर आवेलां जैन देवालयोमां पण तेओ दर्शने गया हता. गिरनार पर आवेला देवालयमां राजाने सगवडथी जवानुं बनी आवे ते माटे राजाना प्रधान वाग्भट्टे पोताना खर्चे ए पहाड परनो रस्तो नवो बनावी दीधो हतो. जात्राओ जवा नीकळेला राजा ज्यारे रस्तामां धंधुका आगळ आवी पहोंच्या त्यारे पोताना गुरु अने मित्र हेमचन्द्रनी मे जन्मभूमि होवाने लीधे तेना मानमां त्यां पोताना खर्चे एक खास देवालय बांधवानो हुकम आपी दीधो. वळी पोताना ओ प्रवास दरम्यान राजा ज्यारे खम्भात आवी पहोंच्या त्यारे ओ खम्भात शहेरमांथी राजानी तिजोरीमा भराती आमदानी ओ शहेरमां आवेला पार्श्वनाथना देवालयने अर्पण करी दीधी. पण पाछळथी बीजा राजाओओ कुमारपाळ राजानुं ओ वचन पाळ्युं नहोतुं ओम लागे छे.
छेवटे ई.स. ११७३मां नवा वर्षमा हेमचन्द्रने अम लाग्युं के तेनी आयुषनी दोरी हवे पूरी थवा हती. ते वेळा तेनी उमर चोराशी वर्षनी थइ हती. पोताना मित्र राजा कुमारपाळने पोताना आ नजदीक आवता जतां अन्तकाळना समय विषे हेमचन्द्रे खबर करवा साथे वळी राजाने पण चेतवणी
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आपी के तेनो अन्तसमय पण घणो दूर नथी. पोतानुं मृत्यु थया पछी छ मास वीत्या पछी तेनो पण देह पडशे. ने तेने कांइ छोकरा छैयां न होवाथी तेणे पोतानी जीवतक्रिया पोताना हाथे ज करी देवी. हेमचन्द्रनुं मृत्यु थतां राजाओ सघळो दरबारी शोक तेना मानमां पाळ्यो. ने पोताना आयुषनो रहेल अवशेष भाग शोकमां व्यतीत कर्यो. हेमचन्द्रे जे दिवसे तेनुं मृत्यु थवानुं भविष्य भाख्यं हतुं ते ज दिवसे कुमारपाळ राजानो देह पड्यो.
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कुमारपाळ राजाना अमलमां अ रीते जोके जैनोनुं प्राबल्य वध्युं खरुं, पण कुमारपाळ राजानी पछी तेनी गादी पर जे राजा बेठो तेना अमलमां ब्राह्मणोओ एकदम जैनोनुं जोर तोडी नांख्युं. ने दरबारमां ब्राह्मणोनुं जोर वधी गयुं. हेमचन्द्रना शिष्योने मारी नांखवामां आव्या ने हेमचन्द्रनी दीर्घबुद्धिथी गुजरातमां जैनोनुं अक मोटुं राज्य स्थापवानो वखत जे नजदीक आवतो जणायो हतो ते सघळं स्वप्नवत् थइ गयुं.
अत्यार सुधीमां हुं जे कंइ कही गयो धुं ते हेमचन्द्रनी जिंदगी विषे हर्तुं ने हवे हेमचन्द्रे बनावेला 'योगशास्त्र' नामना नामीचा पुस्तक विषे बोलवा मांगुं छं. हेमचन्द्रे बनावेला आ योगशास्त्र नामना पुस्तकने बे भागमां वहेंची नाखवामां आव्युं छे. ने तेनां सघळां मळीने बार प्रकरण छे. पहेला विभागमां चार प्रकरण छे ने ते ओटलां लांबा छे के तेमां ज पुस्तकनो पोणो भाग आवी जाय छे. ओवी ज रीते पहेला विभागनी बाबतो पर टीका हेमचन्द्रे पोते क छे, ते टीका पण बीजा विभागमांना प्रकरणो परनी टीका करतां बहु लांबी छे. अ पहेला चार प्रकरणोनुं ओक जुदुं पुस्तक बनाववानो हेमचन्द्रनो विचार हशे ओम लागे छे. ने अत्रे हुं जे विवेचन करवा धारुं छं ते ओ पहेला चार प्रकरणो सम्बन्धे ज छे. आस्थावाळा दरेक जैने शुं करवुं ने शुं नहि तेने लगतो बोध सादी अने समजी शकाय तेवी भाषामां से पहेला चार प्रकरणमां आपवामां आव्यो छे. पण तेमां अवं प्रौढपणुं समायेलुं छे के ओ पुस्तक वांचतां सर्वे कोइने असर था विना रहे नहि. हजी पण अ पुस्तक जैन देवालयोमां आस्थाथी वांचवामां आवे छे. अ पुस्तक कुमारपाळ राजाने माटे ज तैयार करवामां आव्युं हतुं ঔ वात अ पुस्तकमांना मूळ लखाणने छेडे अने टीकाने छेडे ते सम्बन्धे जे श्लोक लखवामां आव्यो छे ते परथी जणाइ आवे छे.
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टीकाने छेडे हेमचन्द्रे आ प्रमाणे लख्युं छे "नामांकित चौलुक्य राजानी ईच्छा परथी ज म्हारा योगशास्त्र पुस्तकनी आ टीका में रची छे. त्रण जगतमां हवामां, पृथ्वीमां तथा आकाशमां ज्यां सुधी जैनमत चालु रहे त्यां सुधी आ टीका चालु रहो. वळी आ पुस्तक तैयार करवानो मने जे बदलो मळवानो होय ते बदलो समजु लोकोने जैनमत तरफ दोरववाने ज मळो.'
आस्थावाळा हिन्दुओनी रीति प्रमाणे शरुआतमां ईश्वरनी स्तुति करतां हेमचन्द्र आवी रीते शरु करे छे के मनुष्यजातने जोइने - पापी मनुष्यने जोइने आ ईश्वरनी आंखमां जाणे आंसु आवी जाय छे. ईश्वरनी स्तुतिना आ श्लोकनी पछीना श्लोकमां जैनमतनी प्रशंसानां वचनो कहेवामां आवे छे ने जणाव्युं छे के जगतमा जे बाबतनी मुख्य इच्छा मनुष्यमात्रे करवानी छे ते बाबत ते मनुष्यना आत्मानी मुक्ति छे. ने मुक्ति धर्म वडे ज प्राप्त करी शकाय छे. अेक मनुष्य धर्म वगरनुं जीवन गाळे तेना करतां तो ते मनुष्यना देहमां जन्मवाने बदले खेतरमांना ढोरनो अवतार लीधो होय ते वधारे सारो.
हवे खरो धर्म शुं ? ओ वात पर हेमचन्द्र उतरे छे. ते कहे छे के धर्म त्रण प्रकारनो छे : ज्ञान, भक्ति तथा सद्वृत्ति. धर्मनी आ व्याख्या तो हेमचन्द्रनी अगाउ थइ गयेला बीजा आचार्यो पण करी गया छे. पण हेमचन्द्रमां ने बीजा आचार्योमां से सम्बन्धे फेर ओ छे के बीजा आचार्योओ ज्यारे ज्ञान अने भक्ति विषे विशेष विवेचन चलाव्युं छे. त्यारे हेमचन्द्र तेम न करतां ज्ञान ने भक्तिने थोडामां पतावी दइ, कुदावी, सद्वृत्ति पर ज उतरी पड्या छे. सवृत्ति अटले शुं ने सद्वृत्तिवाळा शी रीते थइ शकाय ? ओ विषे तेणे लंबाणथी विवेचन चलाव्युं छे ने ओ विवेचनमा जे उत्तर ओ प्रश्नोनां तेणे आप्यां छे ते उत्तर ओ सम्बन्धे जेवा उत्तर याहुदीओना पेगंबरोओ तथा रोमन कवि दोरेसे आप्यां छे तेने आबेहूब मळतां छे. जो कुमारपाळ राजा सवृत्तिथी (ने तेम करवाथी ज ते मुक्ति पामी शकशे ?) जिंदगी पाळवा इच्छतो होय तो ओ उत्तरमा जणाव्या प्रमाणेनी आज्ञा मुजब तेणे वर्तवू जोइओ. ओ आज्ञा आ प्रमाणेनी छे. तेणे हिंसा करवी नहि. तेणे असत्य बोलवू नहि. तेणे चोरी करवी नहि. तेणे व्यभिचार करवो नहि तथा लोभ करवो नहि. आ पांच आज्ञा जे पाळे तेने अq पद जरुर प्राप्त थशे के जे पद कदी जतुं रहेशे
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नहि. पहेली आज्ञामां जे हिंसा न करवा विषे कहेलुं छे तेमां मनुष्य तथा पशुप्राणी उपरान्त जेमां जीव नहि ओवी चीजोनो (?) पण समावेश थइ जाय छे. जेवी रीते कोइ मनुष्य तथा पशुनी हिंसा करवी ओ खोटुं छे. तेवी ज रीते ओक फूलनी हिंसा करवी अ पण खोटुं छे. सत्य बोलवुं ओ वळी प्रीति उपजे तेवुं बोलवुं. जे सत्य बोलवाथी सांभळनारने हानि थाय ते सत्य कंइ सत्य कहेवाय ज नहि. व्यभिचार न करवो ते मन, वचन अथवा काया कोईपण तरेहथी करवो नहि. पांचमी आज्ञानो अर्थ ओम लागे छे के अतिशय वांच्छना राखवी नहि. दरेक सारा माणसे आ जिंदगी पर बहु भाव पण राखवो नहि. सुख मळे तेथी हर्ष पण पामवो नहि ने दुःख पडे तेनो बळापो पण राखवो नहि. टूंकमां कहीओ तो मनुष्यदेहना मळेला आ अवतारनो कोइ तरेहथी दुरुपयोग करवो नहि.
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पहेला प्रकरणमां जणावेली बाबतो विषे पछीनां त्रण प्रकरणमां मात्र विस्तार ज करवामां आव्यो छे. ओम छतां कोण जाणे शुं कारणे अ सघळं विवेचन चलाववा पहेलां ओक भक्तिमान जैने पोतानी जिंदगीमां शी रीते वर्तवुं तेनुं ज बधुं वर्णन हेमचन्द्रे आप्युं छे. ओ सघळं वर्णन तेणे ओक लांबा वाक्यमां ज आपी दीधुं छे. जे हुं तो कटके कटके ज आपीश. दरेक भक्तिमान जैन पैसो प्राप्त करवो ते प्रामाणिकपणे प्राप्त करवो. सारा माणसोनां कामोनी तेणे प्रशंसा करवी. ज्यारे ते लग्न करवा इच्छतो होय त्यारे तेणे तपासवुं के ते स्त्री पोतानी ज पदवीनी होय तथा पोताना ज जेवा स्वभावनी होय, पण पोताना गोत्रनी न होय. तेणे पापथी ब्हीता रहेवुं. ज्यां ते रहेतो होय त्यां चालता रिवाजने तेणे अनुसरवुं. तेणे कोइ माणसनुं भूडुं बोलवु नहि. ओने लगतुं हेमचन्द्रना आ बोधवचनना जेवुं ज वचन याहुदी धर्मपुस्तकोमां पण जोवामां आवे छे. दरेक जैने पोतानुं रहेठाण संभाळथी पसंद करवुं रहेठाणनुं स्थळ जेम बहु आगळ पडती जगाओ न होवुं जोइओ, तेम बहु गुप्त जगाओ पण न होवुं जोइओ. अने पडोस सारी होवी जोइओ विशेषे करीने से संभाळवुं के घरमां आववानो तेमज घरमांथी बहार जवानो मार्ग ओक ज होवो जोइओ. आ बोधवचनना सम्बन्धमां अक जाणवा जेवुं ओ छे के हुं ज्यारे पाटणमां गयो त्यारे जोयुं तो सर्वे घरोनी बांधणी अ ज प्रमाणेनी हती. मने ओम लागे छे के घरमां जनार-आवनार पर बराबर अंकुश रहे तेटला माटे ज ओवो नियम
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बांधवामां आव्यो हशे. दरेक जैने सारा माणसो साथे संगत करवी तेणे पोताना मातापिताने मान आपq. आ बोधवचनमां ने याहुदी लोकोना धर्मपुस्तकनी चोथी आज्ञामां फेर मात्र अटलो ज छे के याहुदीओनी आज्ञामां पिताने पहेलां मूकवामां आव्या छे. दरेक जैने वळी जे शहेरमां अथवा मुलकमां तेना पर जुलम गुजरे अथवा मोटी विपत्ति आवी पडे त्यांथी नीकळी जवं. हेमचन्द्रे कहेलो आ जोरजुलम धर्मसम्बन्धी जोरजुलम होय तथा विपत्ति ते कंइ मरकी के एवं कंइ होय अम लागे छे. दरेक जैने कदी निषेध करेलां स्थळोजे जर्बु नहि. आ स्थळे पराया धर्ममां देवालयो विषे ईशारो करेलो होय ओम लागे छे. ब्राह्मणोओ आ उपरथी शैवधर्म पाळनाराओ माटे तथा जैनोनी टकोर करवा माटे आनी सामुं ओवी मनाईनी आज्ञा करी दीधी छे के ओक जंगली हाथीना सपाटामांथी बचवाने कारणे पण कोइओ जैन देरासरमां पेसवं नहि. दरेक जैन वळी पोतानी आवक तथा खर्च सरखा राखवा तथा पोताना गजा प्रमाणे खर्च करवो. के जे बोध आखा जगतमां सघळा माणसोओ ध्यानमा राखवानो छे. दररोज तेमणे देवालयमा दर्शनार्थे जवू अने ओछामां ओछा सोळ माणसोनी संगतमा रही कथा सांभळवी. सोळ माणसोमां बेसवानी फरज हेमचन्द्र शा सारु नाखी हशे ते कोइ रीते समजी शकातुं नथी.* स्त्रीओओ अकला कथा सांभळवा बेसबुं नहि, पण ओछामां ओछी त्रण स्त्रीओओ साथे बेसवु. ए प्रतिबन्धD कारण सहज समजी शकाय छे. दरेक जैने जम्यो होय ते पची जाय तेटलो वखत वीताववो, ते पहेलां बीजीवार कंइ खावू नहि. ने पछी ठरावेला नियमित वखते जमवू. ते पण पोताना शरीरने अनुकूळ पडे ते ज खावं. कोइ पण चीज हद उपरान्त खावी नहि. तेणे सुखचेन, दोलत तथा सद्वृत्तिने पामवानो फक्त ओवी रीते यत्न करवो के जेथी त्रणेमांथी कोइ पण बाबतमां खामी आवी जाय नहि. तेणे अतिथि तेमज साधुनो सत्कार करवो. तेणे कोइपण वस्तु पर बहु लोलुपता राखवी नहि. सर्वे प्रकारना सद्गुणो तरफ तेणे प्रीति राखवी. देशकाळने अनुसरतां न होय ओवा चाल तेणे तजी देवा. पोते कइ कइ बाबतमां बळवन्त तथा नबळो छे तथा बीजाओगें जोर तथा ★ अत्रे आठ बुद्धिना गुणो साथे व्याख्यान सांभळवा विधान छे. "अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः,
शृण्वानो धर्ममन्वहम् ।" – (योग. १-५१). बनी शके के डो. पीटरसनने 'अष्टभिर्द्विगुणैः' वांचवामां आव्युं होय अने तेथी तेओ उपरोक्त विधान करवा प्रेराया होय.
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नबळाइ शेमा छे ते विषे तेणे हमेशां वाकेफगार रहेQ. जे सारा माणसो होय तथा जेओ ज्ञानी होय तेमने हरेक प्रकारे रक्षण आपवामां चूकवू नहि. तेणे हमेशां नरमाशथी वर्तवं. दया राखवी. समयसूचकताथी रहेQ. पोताना माटे बीजाओ जे उपकार को होय ते माटे सदा ओशींगण रहे. बीजाओने मदद जोइती होय ते वेळा मदद आपवामां सदा तत्पर रहेवू. तथा हरेक रीते मनने अर्बु राखवू के जेथी आत्माना छ शत्रुओ तेना शरीरमां घर करवा पामे नहि. तेमज तेणे पोतानी सर्व इन्द्रियोने पण वश राखवी. जे जैन ओ सघळु करे छे ते ज जैन दिन परदिन सवत्तिमां बह मजबूत थतो जाय छे. ने परिणामे ओवा अविचळ पदने पामे छे के जे पद शाश्वत तेना हाथमां ज रहे छे.
हेमचन्द्रे पोताना आ योगशास्त्र ग्रन्थमां मनुष्ये पाळवाने जणावेली पांच आज्ञाओ विषे बहु लंबाणथी विवेचन चलाव्युं छे. अमांनी बे आज्ञा विषे तेणे कीधेला विवेचन तरफ हुं तमारी पहेली नजर खेंचुं छ. सर्वे जीवजीवात तरफ दया बताववानी आज्ञामां हेमचन्द्रे बहु बहु वातो जणावी छे. तेमज सर्वे मनुष्योओ मन, वाचा तथा काया ओ सर्वे प्रकारे शुद्ध रहेवं ते सम्बन्धे पण तेणे बहु आग्रह को छे. जैनमतनुं विशेष प्राबल्य गुजरातमां छे. ने त्यां प्राणीमात्रना सम्बन्धमां जैनो उपरान्त शैव तथा वैष्णव मतनां लोकोमां पण बहु दयानी लागणी घर करी रही छे. ने तेनो अनुभव केटलीकवार बहु गम्भीर प्रकारनो गुजरातमां शिकार करवा जनार युरोपियनोने मळवाना दाखला हमणां पण बने छे. आ विचार युरोपियन शिकारीओ भाग्ये ज जाणतां हशे के कोइपण पशुपक्षीनो शिकार थतो अटकाववा सम्बन्धे गुजरातनां लोकोना विचार केवा मजबूत छे. ने कोइपण पशु-पक्षीनो शिकार थतो अटकाववाने तेओ केवा पोताना जान आपवाने पण तत्पर थाय छे.
ओ बाबत सम्बन्धे हेमचन्द्रे आम कां छे : "बीजाओगें सुख जोइने पोते सुखी थनार ने बीजाओ, दुःख जोइने पोते दुःखी थनारा समजु माणसो हमेशां बीजाना सम्बन्धमा अq दरेक काम करवाथी अटकशे के जे पोताना सम्बन्धमा थवाथी पोताने दुःख थाय. ओक जीवनुं रक्षण करवा माटे राजा पोतानुं राज्य खोवाय तेनी पण दरकार करशे नहि. ओक पण जीवनी जाणी जोईने हत्या थाय तो ते हत्यानु पाप धोवा माटे आखी पृथ्वीनुं दान आपवानुं
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बनी शके, (जो के ते बनी शकशे ज नहि) तो पण तेवं मोटुं दान आपवाथी पण ते हत्यानुं पाप धोवाई शकनार नथी. निर्दोष हरणो जंगलमा स्वतन्त्र रीते भटकतां फरतां होय ने घास, पाणी ने हवाथी पोतानुं पेट भरी तेटलेथी सन्तोष पामी पोतानी जिंदगी गाळता होय; ते बिचारां हरणोनो शिकार करी तेमनो जीव लेवाने जेओ ताकता होय तेवा मनुष्योमां तथा कुतरामां शो फेर छे ? जो घासनो ओक नानो सरखो कांटो तमारा शरीरमां भोंकाय तो तमने तेथी बहु दुःख थाय छे. छतां मोटां मोटां तीणां भालां लइने आ निर्दोष प्राणीओना शरीरमां घोंचवा माटे तमे उमंगथी दोडादोड करी मूको छो ओ केवू दुष्ट छे ! फक्त बे घडीनी मोज मेळववा माटे सहेजमां तेनी व्हाली आखी जिंदगी लूटी लेवानी तमे रमत रमो छो. मोतनी कंइ पण वात तमारा सांभळवामां आवे छे त्यारे तेटलुं सांभळता वार तमने थरथरी आव्या वगर रहेती नथी. छतां केवळ स्वच्छन्द पणे तमे आ बिचारा प्राणीओने झट मारी नाखो छो ओ केवू ?"
मन, वाचा तथा काया ओ त्रणे प्रकारे स्वच्छ रहेवानी बाबत सम्बन्धे पण हेमचन्द्रे बहु लंबाणथी लख्युं छे, पण ते सघळु अq छे के जे माराथी अत्रे आपी शकाय नहि. पृथ्वी परना सघळा देशोना साधुओनी पेठे हेमचन्द्र पण कहे छे के आ जगतनो व्यवहार पुरुषवर्गथी ओकलो चलावी शकवानी गोठवण जगतकर्ताओ करी होत तो ते बहु सुखदायी थइ पडत. मनुष्यमात्रनो आ जगतमां जन्म थवानुं कारण स्त्रीजात छे. ने दुनियामां जन्मवाथी आपणने अनेक प्रकारना दुःखना भोक्ता थर्बु पडे छे. तेथी बराबर रीते कहीओ तो स्त्रीजात दुनियामां सर्वे प्रकारना दुःख, मूळ कारण छे.* पोतानो आ सिद्धान्त खरो करी आपवाने हेमचन्द्रे अ विषे लंबाणथी विवेचन करी बहु ऊंचा प्रकारनी पोतानी तर्कशक्ति बतावी आपी छे. अमां कशो पण शक नथी. परस्त्रीनी मोहजाळमां राजाओ कदी पण न फसावा सम्बन्धे तथा तेथी थता नुकशाननुं वर्णन ओवा योग्य शब्दोमां हेमचन्द्रे कर्यु छे के ते सम्बन्धे बाइबलमां करवामां आवेला वर्णन करतां जे वर्णन कोइपण रीते ऊतरतुं नथी. ★ हेमचन्द्राचार्ये स्त्रीने 'सर्वदुःखो, कारण' तरीके देखाडी छे ते 'मनुष्यने ओ ज जन्म
आपे छे' कारणथी नहि. पण स्त्री मोह उत्पन्न थवानुं प्रबळ निमित्त छे अने मोह ज जीवने संसारमा भ्रमण करावे छे ओम समजावीने स्त्रीने दुःखनी खाण कही छे.
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हेमचन्द्र बोध करे छे के "माणसोओ अपवित्र कामो करवाथी अळगा रहेवुं अटलुं बस नथी; तेओओ पोताना मनमां कदी अपवित्र विचारोने पण आपवा देवा न जोइओ. तेवा विचार तेना मनमां आववा न पामे ते माटे तेणे सदा पवित्रपणानी ज इच्छा मनमां राख्या करवी. वळी माणसे हमेशां याद राखवुं के आ दुनियामां कोइपण वस्तु अचळित नथी. जे सवारे हतुं ते बपोरे होतुं नथी ने जे बपोरे हतुं ते रात्रिओ होतुं नथी. तेवुं ज सघळं आ दुनियानी सघळी चीजोमां समजी लेवुं. आ आपणुं शरीर पण अवुं क्षणभङ्गुर छे. पवनना ओक मोटा झपाटाना बळथी जेम ओक वादळं तणाइ जाय छे तेवुं वादळासमान आ आपणुं शरीर छे. दोलत से दरियाना मोजा समान छे. तेने घसडाइ जतां वार लागती नथी. माणसनी जुवानी सुतरना अक तांतणा समान छे जे सहेजमां तूटी जतां वार लागती नथी. आ सघळं जगत मात्र अक स्वप्न समान छे. ने अहींया आपणे जे एकठा मळ्या छीओ ते परिणामे छूटा पाडवा माटे छे. जे माणस आ सघळं विचारी जगतना क्षणभङ्गुरपणानी वात पोताना मन आगळ हमेशां राख्या करे छे, तेने वांछनारूपी सर्पना डंशनी जरा पण असर थती नथी.
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"मनुष्योओ आ जगतथी अथवा जगतमांनी कोइपण चीजथी खोटा मोह पामी जवुं नहि. कारण के आ आखुं जगत क्षणभङ्गुर छे. ने जगतनी सघळी मोहिनी मात्र बे घडीनी छे. मनुष्योओ बराबर याद राखवुं के पोताना आत्माना कल्याण माटे कोइना भरोसा पर रही तथा मददनी राह जोइ ते बेसशे तो तेमां तेनो शुक्रवार कदी वळवानो नथी. माणसो इन्द्र के विष्णुनी मददथी जे कंइ आशा राखशे ते हमेशां निष्फळ जशे से इन्द्र तथा विष्णुनो पण मोतमांथी छूटको थतो नथी. आपणे ज्यारे मरी जइसे छीओ त्यारे आपणो जीव कंइ आपणा सगावहालांथी पकडी राखी शकातो नथी. मा, बाप, बेनो, भाइओ, स्त्री-छोकरां विगेरे सौ लाचार थइने ऊभां रहे छे. ने फक्त आपणा जीवने एकलाने यमराजा हजुर जवुं पडे छे. ने जे पाप-पुण्यनां कामो आपणे जिंदगीमां कर्यां होय तेने आधारे ज फक्त आपणने शिक्षा के सरपाव मळे छे. आपणे ओवा बेवकूफ छीओ के ज्यारे आपणां सगावहालां तेमणे करेलां पाप-पुण्य प्रमाणे मोडां के वहेलां मरण पामे छे, त्यारे ते माटे आपणे शोक करीओ छीओ
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ने आपणने पोताने माटे तो कंइ आंसु लावतां ज नथी. अने आपणे समजतां ज नथी के आपणने पण अमने एम ज ओक दहाडो मोतनुं बीछानुं सेववुं पडवानुं छे. ओक बळता जंगलमां हरण जेम नासभाग करवाथी कदी बची शकतुं नथी. तेवी रीते मनुष्योने आ जगतमां मोतथी छूटवानो कंइ रस्तो ज नथी.”
हेमचन्द्रे जणावेला आ विचारना जेवा ज विचार बीजा देशना धर्मगुरुओ पण प्रसंगोपात्त जाहेर कर्या सिवाय रह्या नथी. ख्रिस्ती धर्मपुस्तक बाइबलमां पण कह्युं छे के “ओ मनुष्य ! तुं खोटा भरोसा पर बेसी रहेतो नहि. परमेश्वरने तुं छेतरी शकीश ओवो ख्याल तारा मनमां राखतो नहि. जेवां बीज रोपशे तेवां फळ तने मळशे से तुं हमेशां याद राखजे."
हेमचन्द्रे वळी कह्युं छे के "माणस जे कंइ पैसा पेदा करशे ते सघळां पोतानी पाछळ मूकी जवा पडशे. ते कोइ बीजा वापरशे ने तेने पोताने तो फक्त पोतानां नठारां के सारां कामो साथे लइने ज जवुं पडशे. तेनां सारां के नठारां कामो ज तेने शिक्षाना कारणरूप अथवा मुक्तिना साधनरूप थइ पडशे."
हेमचन्द्र आ सघळं जणाव्या पछी पुनर्जन्मना मत विषे बोले छे. अ पुनर्जन्मनो मत जेम अशियाना बीजा केटलाक धर्ममां पण कबूल रखायेलो छे. तेवी ज रीते जैनमतमां पण पुनर्जन्मना मतने सर्व प्रकारे मानवामां आव्यो छे. आ पुनर्जन्मना मतने ख्रिस्ती लोको मानता नथी ने युरोपमां से पुनर्जन्मना मत तरफ हजी लोकोनी लागणी नथी.
हेमचन्द्रे वळी दरेक माणसने पोतानुं कर्तव्य करवानी बाबतमां जे बोध करेलो छे ते पण ओवो उत्तम छे के तेनां जेटलां वखाण करीओ तेलां ओछां छे. ते कहे छे के "जे मनुष्य पोतानी इन्द्रियो वश राखतां शीख्यो ते आ जगतरूपी समुद्र तरी गयो अम समजवु. दश प्रकारे माणसोओ पोतानी इन्द्रियो वश राखवानी ने प्रामाणिकताथी जे माणस पोतानी जिंदगी गाळशे; ते माणसनी आ जिंदगीने अन्ते जरूर मुक्ति थया सिवाय रहेशे नहि. ने तेने दुनियामां पाछो जन्म लेवो रहेशे नहि. जगतमां कर्तव्य अ वस्तु सर्वथी मोटी छे. जे माणस पोतानुं कर्तव्य बराबर करे छे ते हमेशां परिणामे सुखी थया सिवाय रहेतो नथी. आ दुनियारूपी समुद्रना अगाध पाणीमांथी
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फेब्रुआरी २०११ डूबतां बचq होय तो कर्तव्यरुपी नौका फक्त तमने बचावी शकशे. दरियो पृथ्वी पर फरी वळतो नथी ने वादळाओ वरसाद आपे छे ते सघळु ते दरेक पोतपोतानुं कर्तव्य बजाववाथी कदी पाछळ पडतां नथी तेने लीधे ज छे. पृथ्वी अमने अम अध्धर ऊभी रही शके छे, ने उपरथी के तळेथी कोइपण स्थळेथी तेने टेको न होवा छतां पण ते पडवा पामती नथी ते पण तेना कर्तव्यने लीधे छे. सूर्य तथा चन्द्र बन्ने मनुष्यमात्रना लाभार्थे आकाशमां दररोज ऊगे छे ते पण तेना कर्तव्यने लीधे ज छे. कर्तव्य ओ ज माणसना ओक साचा मित्र समान छे, ने लाचारने अेक आश्रयदाता समान छे. जे पोतानुं कर्तव्य करवामां साचो छे तेने कदी नुकशान थवा पामतुं नथी. कर्तव्य ए ज माणसने नरकमां पडतां बचावी ले छे ने स्वर्गमां तेडी जाय छे.
डेकन कॉलेजना विद्यार्थीओ ! हुं म्हाएं भाषण हवे आटलेथी पूरुं करूं छु. हुं पोते सारी रीते समजुं छु के म्हाएं आ भाषण घणीक बाबतमां अपूर्ण छे. विशेषे करीने हेमचन्द्रे नवा नवा पुस्तको लखी आ देशनी विद्यामां जे वधारो को छे ते सम्बन्धे बोलवानो म्हारो बहु विचार हतो, पण तेम करवू हमणां माराथी बनी शके ओम नथी. वळी संस्कृतभाषाना अभ्यासीओ ते सघर्छ पोतानी मेळे जाणी शके ओम छे. हेमचन्द्रने तेना पोताना ज बोलमां तमारी हजुर रजू करवानुं मने वधारे ठीक लाग्युं छे. अने हुं आशा राखं छं के हेमचन्द्र विषे में जे केटलीक वातो तमने जणावी छे ते परथी तमारी खात्री थई हशे के हेमचन्द्र ओक मोटा आचार्य हता. दुनिया पर अथवा दुनियामांनी कांइपण चीज पर तेने रतिभार पण मोह हतो नहि. ने दुनिया मांहेलो सर्व मोह क्षणभङ्गर छे ओम जाणता हता. वळी ते अेक साची वात नक्की समज्या हता के मनुष्य तथा ईश्वर विषे बीजी घणीक वात आपणे जाणतां नहि होइओ ओ जुदी वात छे; पण आटलुं तो नक्की ज छे के माणसनुं कर्तव्य ओ माणसने खरे रस्ते दोरवामां अंक प्रकाशित दीवा समान छे. आपणी उपरना आकाशमां शुं छे ते आपणे जाणी शकतां न होइओ तथा मनुष्यजातनुं भविष्य शुं छे ते आपणने जडी शक्युं न होय; तथापि कर्तव्यरूपी दीवो आपणा भविष्यनां दरेक पगलां पर अजवाळु नाखशे ओ वातनुं ज्ञान जे तेणे आप्युं छे ते कंइ थोडं लाभकारक नथी. जगतना मनुष्यो जुदा जुदा गमे
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ते धर्म पाळे ने जगतकर्ताने गमे तेटलां जुदां जुदां नामे पूजे, पण जे जगतकर्ता सर्वेनो सरखो ज छे. हेमचन्द्रे पोताना सम्बन्धमां बनेला ओक बनावमां ओ वात केवी रीते बतावी आपी हती ते अत्रे टांकी हुँ म्हारं बोलवा, पूरुं करीश.
कुमारपाळ राजाओ जैनमतनो खुल्ली रीते स्वीकार को ते पहेला ते गिरनारनी जात्राओ हेमचन्द्रने साथे लइने अकवार गयो हतो. हवे राज्यमांनी प्रजानो बहु मोटो भाग शैवमतनो होवाथी तेमने खुश राखवा सारु डाह्या कुमारपाळे जे जात्रा करी ते साथे पोताना बाप-दादाथी उतरी आवेला चाल प्रमाणे सोमनाथना पवित्र तीर्थनी जात्रा करी, त्यांना महादेवना दर्शन करवा जवानो पण निश्चय को. हेमचन्द्रने दरेक रीते छंदवाने ताकी रहेला दरबारमांना ब्राह्मणोओ राजाने अगाडीथी भंभेरी मेल्यो हतो के राजा जो हेमचन्द्रने पाटण (वेरावळ)मां आववायूँ कहेशे तो हेमचन्द्र त्यां कदी आवनार नथी अने वळी ते कदाच पाटणमां आवे तो ते कदी महादेवना लिङ्गने नमन करनार नथी. ब्राह्मणोनी आवी भंभेरणी परथी राजाओ हेमचन्द्रनुं पारखं जोवानो ठराव करी पाटणमां आव्या पछी हेमचन्द्रने कह्यु के "चालो सोमनाथमां आपणे महादेवनी पूजा करीओ." हेमचन्द्रे जरा पण गुंचवाया वगर तेम करवानी हा कहीने सोमनाथना देवालयमां जइ महादेवना लिङ्गने साष्टाङ्ग नमस्कार* करी आ प्रमाणे बोल्या :
"ओ महापवित्र प्रभु ! तुं ज्यां छे, तुं जे जे स्वरूपे देखाय छे, ने तुं गमे ते प्रकारनो छे, ने तुं गमे ते नामे पूजातो होय; पण तुं जो ओवो होय के जेनामां पापनो लेशभार पण अंश नथी तो तने हुं पूजुं छं."
योगशास्त्रनुं पोतानुं पुस्तक पूरुं करतां हेमचन्द्र आ प्रमाणे लखे छे: "जेने कोइओ शीखव्यु नथी, छतां जेणे पोताना विचारथी ने पोताना ओक बोलथी आ जगतने रच्युं छे; जे अंधारामां संताइ रहेलो छे, छतां पवित्र माणसोने तेनां दर्शन थाय छे; ने जे धर्म पुस्तकोनी मारफते मनुष्योने बोध करे छे; जे * जैनसम्प्रदायमां अष्टाङ्ग नमस्कार होता ज नथी. तेओमां पञ्चाङ्गप्रणिपातनी ज पद्धति छे.
श्रीहेमचन्द्राचार्ये पण महादेवने साष्टाङ्ग नमस्कार नहोता कर्या, पण यौगिकमुद्राथी तेमनी अर्चा करी हती. "०शिवपुराणोक्तदीक्षाविधिनाऽऽह्वाननावगुण्ठनमुद्रामन्त्रन्यासविसर्जनोपचारादिभिः पञ्चोपचारविधिभिः शिवमभ्यर्च्य०" (-प्रबन्धचिन्तामणि - पृ. ८५)
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आघे छे तेम वळी जे पासे पण छे; सघळा माणसो जेने विषे जाणे छे, पण कया मार्गेथी तेनी पासे जq ते जडी शकतुं नथी; जगतमांनी सघळी शान्ति जेने लीधे छे; ने जेनो भेद साधुपुरुषो पण जाणी शकता नथी, ते महान प्रभुनो जयजयकार थाओ. पछी माणसो तेने शिव, विष्णु, ब्रह्मा के इन्द्र, सूर्य के चन्द्र अथवा बुद्ध के सिद्धना गमे ते नामथी ओळखे ते सघळु सरखं ज छे. सर्वे मनोविकारोथी, क्रोधथी अने तेमांथी बनता सर्वे प्रपंचोथी ते महाप्रभु मुक्त छे. वळी प्राणीमात्र तरफ ते दयानी लागणीथी जुओ छे. माणसो ओम समजे छे के तेओ शिवने पूजे छे अथवा विष्णुने पूजे छे अथवा गणपतिने पूजे छे; पण जेवी रीते सर्व नदीओ वहेती वहेती अेक समुद्रमां खाली थाय छे तेवी रीते ओ सघळी पूजा ते महाप्रभुने ज थाय छे. प्रभु ओक माणस हजुर विष्णुने रूपे, बीजा माणस हजुर शिवने रूपे, त्रीजा माणस हजुर गणेशने रूपे दर्शन आपे छे. ते जेम अेक माणस अेक जणनो बाप छे, छतां ते पोते बीजा माणसनो दीकरो थाय छे ने त्रीजा माणसनो भाइ थाय छे तेना जेवू छे. जुदा जुदा माणसोने सम्बन्धे ते जुदे जुदे नामे ओळखाय छे, छतां ते तो ओकनो ओक ज छे. तेवी ज रीते आ जगतनो पेदा करनार महाप्रभु पण जुदे जुदे नामे ओळखावा छतां खरेखर ओक नो एक ज छे."
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हेमचन्द्राचार्य माटे प्रवर्तेली भ्रमणाओ अने तेनुं निरसन
विजयशीलचन्द्रसूरि
श्रीहेमचन्द्राचार्य विषे घणुं घणुं लखायुं छे. समयना विविध तबक्के लखायुं छे, तेम विविध भाषामां पण लखायुं छे. ए एक एवं व्यक्तित्व छे के जेमना विषे सतत कांइ ने कांइ जाणवानुं गमे. अने जेम जेम एमना जीवननां पानां उथलावतां रहीए, एमना समयना इतिहासने फेरवतां रहीए, एमणे रचेला ग्रन्थोने तेमज ते उपर निर्माएला साहित्यने अवलोकतां रहीए, तेम तेम कांइक नवुं ज ज्ञातव्य प्राप्त थतुं रहे छे. फलतः तेमना प्रत्येनुं आकर्षण, घटवाने बदले, वधतुं ज रहे छे.
तेमना जीवननी वातो लगभग जाणीती छे, एटले ते विषे अहीं कांइ लखवानुं नथी. परन्तु तेमना विषे केटलीक भ्रान्तिओ तेमज भ्रान्तिजनक वातो थती आवी छे, ते अंगे विचारणा करवानो अहीं उपक्रम छे.
घणीवार एवो अनुभव थाय छे के इतिहास, महान व्यक्तिओने अन्याय करतो होय छे. आ विधानने हेमचन्द्राचार्यना सन्दर्भमां तपासीए तो, तेमणे तेमना जीवनकाल दरमियान शैवो अने ब्राह्मणो वगेरे, जैनोने नास्तिक माननाराओ साथे, ओछो संघर्ष नथी करवो पड्यो. अकबर-बीरबलनी कथाओमां जेम बीरबलने अन्योनी अदेखाईना भोग बनवुं पडतुं, पण ते पोतानी चतुराईथी मार्ग काढीने सौने भोंठा पाडतो, लगभग तेवी ज स्थिति, पण ते काल्पनिक नहि, परन्तु वास्तविक, हेमचन्द्राचार्यनी जोवा मळे छे. पोतानी प्रचण्ड बौद्धिक क्षमता, सत्त्व अने वीतरागी निःस्पृहताथी छलकाती उदारताने बळे तेओ दरेक प्रसङ्गे पोतानी सर्वोपरिता स्थापी शकता अने तेथी बीजा - ईर्ष्यालु जनोए चाट पडवुं पडतुं, ए अलग वात; परन्तु तेमणे सतत संघर्षरत तो रहेवुं ज पडतुं, एम तेमना जीवन-प्रसङ्गो जोतां जाणी शकाय छे.
अने आ स्थिति फक्त तेमनी विद्यमानतामां ज सर्जाती एवं नथी. तेमना मृत्यु बाद पण तेमने अन्याय करे तेवी अनेक घटनाओ बनी छे. अहीं वी
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घटनाओ- अवलोकन करवू छे. अलबत्त, आ अवलोकननी पाछळ कोइर्नु खण्डन करवानी के विरोध-विवाद सर्जवानी दृष्टि नथी; मात्र इतिहासबोधनी ज दृष्टि छे.
(१) हेमखाड
__ हेमचन्द्राचार्यनो देहान्त पाटणमां सं. १२२९ मां थयो हतो. तेमना देहनो जे स्थळे अन्तिम संस्कार थयो, ते स्थाने चितानी भस्म वडे राजा कुमारपाले तिलक कर्यु, ते जोइने हजारो लोकोए तेनुं अनुकरण करतां त्यां खाडो पडी गयो, जे 'हेमखड्ड' - हेमखाडना नामे प्रख्यात थयो. (प्रबन्धचिन्तामणि, सिंघी ग्रन्थमाला, पृ. ९५)
__ आजे पण पाटणमां ए स्थानने त्यांनी जनता हेमखाडना नामे ज ओळखे छे. दुर्भाग्ये कहो के इतिहासना प्रबल परिवर्तनने लीधे कहो, मूलतः जैन धर्मनुं अने जैनोना अधिकार हेठळनु ए स्थान आजे मुस्लिमोना कबजामां छे. तेमना कबजाने पण सैकाओ थया होय तो ना नहि. आजे त्यां तेमनी दरगाहो-कबरो-मस्जिद वगेरे प्रकारनां स्थानो जोवा मळे छे.
थोडां वर्षो अगाऊ पाटणना एक पत्रकारे पोताना समाचारपत्रमा आ स्थान विषे ऊहापोह जगाडवानो प्रयास करेलो, परन्तु कट्टर कोमवादी परिबळोए तेने तत्काळ अटकावी दईने ते पत्रना ते अंकोनी तमाम नकलोनो विनाश करेलो, अने ते पत्रकारने चूप करी देवामां आवेलो.
आ आखी वात मने स्व. कविवर मकरन्द दवेए कहेली. ते वृत्तपत्रनी नकल पण वंचावेली. अने पछी भारे हैये मने कहेलुं के "मुनि ! कोई रीते हेमचन्द्राचार्य जेवी विभूतिनी आ भूमि आ लोको पासेथी पाछी मेळवो, अने त्यां कांइ साधनास्थान करावो. ए भूमि निःशङ्क ऊर्जामय भूमि छे."
आ एमर्नु अरण्यरुदन हतुं एम ए ने हुँ बन्ने जाणता हता. छतां एक उच्चकक्षाना साधक अने कवि-साहित्यकार, दर्दभर्या सादे आवी वात करे त्यारे ते अपील कर्या विना कम रहे ? वधुमां, तेमणे मने एक पुस्तक पण
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आप्यं, जेमा आचार्य विषे आपणी लागणी दूभाय तेवू लखाण थयुं छे. ए लखाण अहीं अक्षरशः टांकतुं छे.
पुस्तकनी विगत : "हझरत मखदूम हिसामुद्दीन मुल्तानी र.अ. व दुनिया दीनकी रोशनीमें". - शुजाउद्दीन फारूकी, महम्मदी वाडा, पाटण. (प्रकाशन वर्ष के लेखक - सम्पादकनां नाम इत्यादि विगत अलभ्य छे.) ८९ पृष्ठनुं पुस्तक छे. टाइटल ३ पर 'अहकर, शुजाउद्दीन फारुकी एम छापेलुं छे. आ पुस्तक खास करीने मुस्लिम संत 'मखदूम शाह'ने केन्द्रमां राखीने बनेलुं छे. तेमनी दरगाह/रोजानी तसवीरो पण अंदर छे. आमां ते सन्तना चमत्कारोनी वात करतां हेमचन्द्राचार्य विषे जे लखाणो छे ते अहीं उद्धृत करवामां आवे छे:
"और कहा जाता है के, ह. हिसामुद्दीन (क.सि.) की खानकाह (मस्जिद) के करीब एक पोशाल-जैनोंका अपासर-था । उसमे हेमचन्द्राचार्य नामका एक बडा जती - जैन साधु रहेता था । उस जती के चारसो चेले थे । वो चेले हररोझ खोराक मांगने जाया करते थे ।
एक रोझ उसके चेले अपनी झोलीमें जिलेबी भर कर लाये । मस्जिद की दीवार के नीचे खडे रेहकर झोली खोल कर देखा के झोलीमें कई तरहकी मिठाइयां हैं । इत्तिफाकन ह. जमालुद्दीन (क.सि.)ने मस्जिद के पेशाबखानेमें इस्तिजा करके ढेला पेशाबखानेकी दिवाल पर रक्खा था । दीवाल के नीचे वो चेले झोली खोल कर खडे थे, तो वो ढेला पवन की वजह गिर कर उस झोलीमें गिरा । सब चेलोंने झोलीको दूर फेंक दी और चिखते हुए अपने गुरुजी के पास गए ।
__ गुरुजीने उन चेलों को हुकम दिया के, इन लोगों को बांध कर ले आओ । कुछ चेले आए ओर मस्जिद के दरवाजे पर खडे रहे । वो हयरत ओर वेहशतमें पड़ गए । ओर बोलने की बात करने की भी ताकत न रही।
दोबारा और दुसरे चेले आए । वो भी इस तरह खडे रहे गये । जती हेमचन्द्राचार्यने गुस्से होकर बहोत चेले को वहां भेजा । वो सब भी मुहतय्यर हो कर रेह गये । बोलने ओर बात करने की भी ताकत न रही।
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आखिर हेमचन्द्राचार्य खुद एक पथ्थर की बनी हुई चोकी, जिसको कठेहरा लगा हुआ था, और कठेहरेमें हीरे वगेरा जवाहर लगे हुए थे, इस चौकी पर बैठकर अध्धर हवामें उड कर आया । हझरतकी हुझुरमैं आ कर कहने लगा- ‘अय झिन्दह, यहांसे चले जाओ' । ह. जमालुद्दीन (क. सि.) ने चाहा कि एक तमाचा-चमाट उस मुझीको लगा दें। लेकीन यकायक वो जती चोकी पर बैठे उपर आसमान की तरफ उडा । जती के सब चेले बहोत खुश हुए, ओर खुशीमें तालीया बजा कर केहने लगे, हमारा गुरु तो गया, कहांसे तमाचा मारोगे ? |
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हझरत जो बैठे हुए थे, अपने दोनों जुते पकड कर उपर फेंके, वो चोकी जती के साथ उलट गयी, गिरी और झमीन में गर्क हो गी । ह. मखदूम (क.सि.) के आस्ताने के करीब, सुबेदार जाफरखान की कबर के नजदीक काली स्याह पथ्थर की चोकीका निशान अब भी हय ।
उस जती हेमचन्द्राचार्य के तमाम चेले अपने सरों पर खाक डाल कर, अपने राजा कुमारपाल के पास फरियाद करने गये । राजा एक बडा लश्कर लेकर आया और मस्जीद को घेर लीया । सब आदमी और उनके घोडों के पांव, लकडी और पथ्थर के मानिंद, खुश्क हो गये ।
जब हझरत दुबारा इस्तिजाके लीये आए, राजा की तरफ निगाह करके उसको अपने पास बुलाया के केह "ला इलाहा इल लल्लाह, मुहम्मदुर्रसुलुल्लाह'" । उस राजानाने कलमा पढा । दुसरे कुछ लोग जो राजा के साथ थे, जिनकी किस्मत में इस्लाम था, उन्होंने भी कलमा पढा । ओर मुशर्रफ बइस्लाम हुए। दुसरों को कहा जाव, जहां खुदा तुम्हें ले जाए । बाकी सब चले गए । (ये अहवाल कलमी फारसी बयाझ का तरजुमा है ।'' (पृ. ८-९)
आ लखाणमां जणाता देखीता विसंवादो जोईए :
१. आचार्यने ४०० शिष्यो हता ज नहि. २. जैन मुनि अधरस्ते आहार भरेली झोळी उघाडे के जुए ज नहि. ३. मस्जिदनी रांगे जैन मुनि कदी ऊभा न रहे. ४. पत्थर के तेवो कोई पदार्थ पडे तो साधु झोळी फेंके नहि; पण
१. पुस्तक उर्दू भाषामां पण गुजराती लिपिमां छे. ते लखाण अहीं नागरीमां ऊतारेल छे.
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गुरु पासे लई जई रजू करे - आ मर्यादा छे. ५. आचार्य क्रोधान्ध थाय अने हझरतने बांधी लाववानो हुकम शिष्योने करे ए वात ज हास्यास्पद छे; आ कांई एवी आफत नहोती के जेने माटे आटलो मोटो उश्केराट लाववो पडे ! अने आचार्य पासे तो राजा हतो ज; तेने कहे ते बनी शके; पण आ तो साधुए कायदो हाथमां लीधानी रजूआत छे, जे केवळ मूर्खतानुं प्रदर्शन ज करे छे. ६. आचार्य रत्नजडित पत्थर-चोकी पर त्यां आवे, पछी ऊडी जाय, आ बेहूदी वात केम मानवी ? ए तो बांधवा माटे आव्या'ता एम पुस्तकनुं कथन छे, तो ते ऊडी शुं काम जाय ? तमाचानी बीकथी ? नयँ हास्यास्पद ! ७. हझरते जूता वडे मार्या ने चोकी साथे आचार्य जमीनमा गरक थई गया (पछी पाछा काढ्या के नीकळ्यानी तो वात छे नहि !) तो पछी आचार्यना शेष जीवननीमृत्युनी-बधी वातो खोटी ज गणवी ? ८. कुमारपालनी पासे कलमा पढाव्या वगेरे वात पोताना मजहबने ऊंचो देखाडवानी बालिश चेष्टाथी विशेष शुं होई शके ? सार ए के, उपरनी रजूआतमांनी एक पण बाबत गळे ऊतरे तेम नथी; अने धर्मना प्रचार माटे कट्टरपंथी तथा झनूनी लोको शुं करी शके छे, केवा प्रचार अने चमत्कार उपजावी शके छे, ते समजवा माटे आ मजेदार दाखलो बनी रहे तेम छे. आगळ जोईए. आ ज चोपडीमा आगळ लख्युं छे :
__ "इसी मस्जिदे आदीना के करीब, एक जैन मुनी हेमचन्द्राचार्य जतीकी पोशाल और पाठशाला थी । एक रोझका वाकेआ है के, हझरत मखदूम रे.अ. के कुछ शागिर्द बाहर गये हुए थे, इसी अस्नामे हेमचन्द्राचार्य जती के भी कुछ शागिर्द-चेले बाहर से, झोलियों में मिठाइ लेकर पाठशाला तरफ आ रहे थे ।
छोटी मस्जिद-जहां हझरत का मकाम था - जिसके पिशाबखाने की दिवार पर रखा हुवा ढेला जती के चेले की झोलीमे पवनकी वजह से गिरा। जब जती के चेले मिठाइ तकसीम करते थे, ओर ये मिठाइ खत्म न होती थी । आखिर जती हेमचन्द्रचार्य ने ये समज लीया के, उस फकीर - ह. मखहूम हिसामुद्दीन रे.अ. की हरकत है। उसने ह. मखदूम रे.अ. को बुलावाया
और कहा, 'अगर कोइ करामत-ताकत रखते हो तो बताओ' । आप रे.अ. ने फरमाया 'मेरे पास कुछ भी नही, तु अपना करतब बता ।' हेमचन्द्राचार्य
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फेब्रुआरी २०११ जती, एक काले पत्थर की सिला पर बैठा, और ये केहता हुआ उडा के 'मंय जन्नत के मेवे लाकर बताता हुँ' । और नझरोसे गायब हो गया ।
आप रे.अ.ने अपने पीरो-मुरशदकी पाउकी लकडे की खडाम को इशारा कीया, वो खडाम उडी, ओर उस जती को सरमें मारती हुई पत्थर समेत नीचे ले आई । वो जती वहीं झेरे झमीन गारत हो गया ।
(ये बात जैनो के पुस्तकोमें मौजुद है, ओर मेरे वालिदेबुझुर्गवार, बालासिनोर स्टेटमें तेहसीलदार थे जब एक जती थे जो जादुइ विद्या और करतबोका आमिल था, उसने मेरे वालिदे बुझुर्गवार को बताई थी ।)
शायद, हेमचन्द्राचार्य जतीने, नरसंगा वीरको ताबे कीया हुआ था, जिसकी ताकातसे वो उडा था । उस नरसंगा वीर को भी आप रे.अ.के मकबरे में दाखिल होने की जगा पर, काले पत्थर के नीचे गारत कीया हुआ है।" (पृ. १३-१४).
बन्ने प्रसङ्ग वांच्या पछी समजी शकाय तेम छे के एक ज प्रसङ्ग छे, तेने बे रीते कथारूपे व्यक्त करवामां आवेल छे. पहेलामां आचार्य रे.अ. पासे गया छे, तो बीजामां तेमने पोतानी पासे बोलाव्या छे. पहेलामा कुमारपालनी वात छे, बीजामां नरसंगा वीरनी वात छे. लेखक पोते पण घटनाक्रम तथा पात्रो विषे स्पष्ट नथी. मजहबमां चालती दन्तकथा प्रमाणे ते चालतां जणाय छे. आ बीजा लखाणमांनी विसंगतिओ जोईए :
१. मस्जीदनी पासे ज हेमाचार्यनो उपाश्रय होवा- लेखक जणावे छे. ते वात ज प्रमाणित करे छे के पोताना जुल्मी आक्रमणकाळ दरम्यान, मुस्लिम वर्गे पोशालनी नजीकनी जग्या पर कबजो लई त्यां पोतानां स्थानो बनाव्यां हशे. सम्भव छे के ते स्थान 'हेमखाड' होय. २. मीठाई खतम ज न थवी, पत्थरने चलाववो, ऊडवू, जूता वडे मारीने नीचे लाववा - आ बधुं ज 'इन्द्रजाल' (मायाजाळ) छे. ते बधुं एक मदारी, जादूगर के नजरबंदीना खेलवाळो पण करी बतावी शके तेम छे. जो आचार्यने उडतां आवडतुं होय, तो जूताने पाछा हझरत पर मोकलतां, मीठाईनो अन्त आणतां आवडतुं ज होत. आचार्य योगी-योगसाधक जरूर हता; जादूगर नहि. योगसाधनाना प्रतापे अमुक चमत्कारिक लागतां काम ते करी शकता, परन्तु तेमां इन्द्रजाल, जादू, नजरबन्दी
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न हतां. पोतानी बडाई माटे मजहबी मानसे अहीं आचार्यने, हझरत जेवा ज चीतरी दीधा छे, जे इतिहासनी तथा जैन परम्परानी दृष्टिए तद्दन जूठ छे. ३. आचार्य जमीनमां दटायानी वात आमां पण छे. मजहब के धर्मना प्रचार साथे ज्यारे कट्टर कोमवाद भळे छे, त्यारे माणसने तथ्य-अतथ्यनो विवेक नथी रहेतो अने प्रमाणभान चूकीने गमे तेवो प्रलाप करी बेसे छे. ४. ऊपर जणाव्युं तेम आचार्य योगी हता; तेमने नरसंगा वीरनी साधना करवानी कोई जरूरत न हती. तेमणे तेवी साधना कर्यानुं कोई सूचन के प्रमाण पण इतिहासमांथी क्यांय मळतुं नथी. हा, आ लखाण परथी एवं जरूर कल्पी शकाय के हझरते ते नरसंगा वीरने साधीने बांध्यो होय, अने तेना माध्यमथी चमत्कारिक परचा पूरता होय.
५. अने छेल्ले एक महत्त्वनी वात : हझरत मखदूमशाह हिजरी सन ६३४ मां जन्म्या हता, अने हि. ७३६ मां मरण पाम्या हता, तेवी हकीकत आ पुस्तकना पहेला पाने नोंधाई छे. जो के 'शमीम' शेख 'पाटणना मुस्लिम शासन समयना सन्तो, स्मारको अने संस्कृति' नामे लेखमां हि. सन् ६३९ एटले ई.स. १२४१ मां मखदूम शाहनो जन्म थया- नोंधे छे. (Glorious History and Culture of Anhilwad Patan - ग्रन्थ, पाटण, ई. २००९, पृ. ६४५).
आ प्रमाणे ई.स. १२४१ एटले वि.सं. १२९७ थाय. हेमचन्द्राचार्यना स्वर्गगमननुं वर्ष वि.सं. १२२९ छे. हसरत मखदूम शाहनो जन्म ज १२९७ मां थयो छे. तो ते बन्ने पाटणमा एकसाथे होय अने मळे ए वात ज केटली मिथ्या ठरे छे ! तो जे लोको कदापि मळ्या ज न होय तेमने विषे पण आवी कथाओ उपजावी काढवी, तेने धर्मझनूनी मानस न कहेवाय तो शुं कही शकाय ?
मूळ वात 'हेमखाड'नी छे, जे आजे मुस्लिमोना ताबामां छे, अने तेने एक पवित्र साधनाभूमिलेखे पाछी हस्तगत करीने तेने विकसाववानी अपील तथा आग्रह मकरन्द दवे जेवा उच्च कक्षाना साधक-कवि करे त्यारे आ विभूति तथा तेमनी भूमिनो महिमा केवो हशे तेनो अन्दाज बांधी शकाय छे. में ज्यारे कडं के, ए तो मुस्लिमोना कबजामां छे, ने पाछी मागवा जतां कोमवादी यातनाओ ऊभी थशे, ए करतां हवे जेम छे तेम भले चालवा दईए. त्यारे तेमणे खास भारपूर्वक पुनः कां के "मुनि ! एवं न विचारो, पण कांईक करो ज."
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तो हेमाचार्यनी पावन भूमि 'हेमखाड'नी आ छे कथा. आ लखवा पाछळ कोईनी ये लागणी दूभववानो आशय नथी, परन्तु आ परिस्थिति थकी अमारी – जैनोनी धर्मलागणी खूब ज दूभाय छे ते चोक्कस छे, अने तेने वाचा आपवा माटेज आटलुं सन्तुलित - संयमित शब्दोमां अहीं नोंध्युं छे.
हेम-प्रतिमालेखो
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हेमचन्द्राचार्यना हस्ते प्रतिष्ठाओ तो थई ज हशे तेनी तवारीख ओछी ज मळे छे. सं. १२२८नी प्रतिष्ठाना उल्लेख जरूर मळे छे, परन्तु मुहूर्तफेरना कारणे बहु थोडा ज वखतमां ते मन्दिरो अने मूर्तिओनो नाश थयानी जाणकारी पण इतिहास आपे छे. फलतः तेमणे प्रतिष्ठा करी होय तेवी प्रतिमा अने परना लेखो जवल्ले ज मळे छे. जे मळे छे, ते पण हेमचन्द्राचार्यना ज सम्बन्धित होय ते विषे द्विधा प्रवर्ते छे. कारण के - हेमचन्द्राचार्यना समयमां तेमना समान नामवाळा अन्य पण बे आचार्य हता. एक, मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरि. तेमनो स्वर्गवास पण पाटणमां ज थयो छे. बे, वडगच्छना श्रीविजयसिंहसूरिना शिष्य अने श्रीसोमप्रभसूरिना गुरुभाई श्रीहेमचन्द्रसूरि. एटले जे ते प्रतिमा परनुं नाम कया हेमचन्द्रसूरिनुं छे ते नक्की थवुं कठिन छे.
बीजी वात, ‘जैन परम्परानो इतिहास' ग्रन्थमां (भाग २, पृ. ३५३, ई. २००१) त्रिपुटी महाराजे नोंध्युं छे "आ ज रीते (जिनदत्तसूरिना बनावटी लेखोनी रीते), कोई यतिए क. स. हेमचन्द्रसूरिना नामना बनावटी प्रतिमालेखो कोतराव्या छे. अमे आवा प्रतिमा लेखो अजारीमां जोया हता अने त्यांना श्री संघने साफ जणाव्युं हतुं के आ लेखो बनावटी छे."
अत्यारे बे प्रतिमालेखो मारी समक्ष छे. एक लेख, विख्यात तीर्थोना इतिहासकार मुनि श्रीजयन्तविजयजीना अप्रगट साहित्यमां सचवायेलो आ प्रमाणे छे :
(१) "सं. १२२० ज्येष्ट शुदि ५ र.... श्रेयसे श्रीशालकेन श्रीपार्श्वप्रतिमा कारिता प्रभुश्री हेमचन्द्रसूरिभि: ॥"
आमां ‘प्रतिष्ठाता' शब्द नथी, गाम के स्थळनुं नाम पण नथी, ते मुद्दा ध्यानार्ह छे. आ लेख, वर्षो पूर्वे, जयन्तविजयजीए थरादना महावीरस्वामी जिनालयमां विद्यमान पार्श्वनाथनी एकलबिम्बात्मक प्रतिमा परथी उतार्यो छे, तेम
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तेमनी नोंध बोले छे. आ लेखनी नकल मुनिश्री सुयशचन्द्रविजयजी तरफथी प्राप्त थई छे.
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(२) “संवत् १२२३ वर्षे माघ वदी ८ वीरासुतेन देपलाकेन भ्रातृय.... माडुकस्य श्रेयसे चतुर्विंशतिपट्टः कारितः प्रतिष्ठितश्च श्रीहेमचन्द्रसूरिभिः ।।''१ आमां पण स्थळनाम नथी, ते जोई शकाय छे.
आ लेखो “हेमचन्द्राचार्य' साथे जोडायेला होय एवं मानवानुं मन एटला माटे नथी वधतुं के आचार्य पाटण छोडीने थरादनी दिशामां खास करीने १२२० ना गाळामां गया होय तेनां कोई प्रमाण मळतां नथी. बल्के ते समय तेमना जीवननां महान् कार्यो माटेनो श्रेष्ठ समय होईने तेमणे पाटण छोड्यं होय ए बनवाजोग नथी लागतुं. बीजुं, ओमना जेवा आचार्य प्रतिष्ठा करावे ने प्रतिमा पर गामनुं के भगवाननुं नाम पण न लखावे, अने पोताने माटे 'प्रभु' एवं विशेषण लखावे, पोतानो परिचय आपतुं गच्छनाम इत्यादि न लखावे आ बधुं कोई रीते गळे ऊतरतुं नथी. त्रिपुटी महाराजनी वात वधु वजनदार लागे छे. वस्तुतः आचार्ये प्रेरेलां के तेमना द्वारा प्रतिष्ठित देरासरोनो तथा बिम्बोनो विनाश ज करवामां आवेलो होई तेमना द्वारा प्रतिष्ठित बिम्बो मळवां बहु मुश्केल छे. आटली नोंध ळकवानो आशय एटलोज के हेमचन्द्रसूरिना नामोल्लेख धरावती वस्तु मळी आवे तो हरखाई जईने तेनो सम्बन्ध कलिकालसर्वज्ञ साथे जोडवानी उतावळ करवा जेवुं नथी.
—
१. ई. १९९७मां प्रकाशित 'अनुसन्धान- ८ 'मां पृ. ८१ पर आपेल 'टूंक नोंध'मां आ प्रतिमालेख आपेल छे. तेनी साथेनी नोंधमां आ प्रतिमाने हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रतिष्ठ गणावेल छे. ते नोंधमां “ १२२३मां हेमचन्द्रसूरि एक ज हता, बीजा नहि, ते इतिहास सिद्ध छे. ' एवं पण लखेल छे.
"
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आजे लागे छे के ए विधानो अधकचरां ज हतां. योग्य जाणकारीनो अभाव ए ज आनुं निदान गणाय.
मलधारी हेमचन्द्रसूरि हेमचन्द्राचार्यना पूर्वसमकालीन हता, अने सिद्धराजना राज्यकाळ दरम्यान ज काळधर्म पाम्या हता, एटले १२२३ मां तेओ होय ते असम्भवित छे. अन्य हेमचन्द्रसूरि ते वखते आचार्य हता के केम ते जाणवानुं कोई साधन नथी. आम छतां, आ प्रतिमालेख क.स. हेमाचार्यनो निर्देश करे छे ते वात मानवानुं मन थाय तेम नथी. कारणमां त्रिपुटी महाराजे नोंध्युं छे तेम आवा लेखो बनावटी पण लखाता हता; तो आ लेख पण तेवो होय तो ? अस्तु.
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(३) हेमश्रीः हेमचन्द्राचार्यनी बहेन
हेमचन्द्राचार्यनी माताए, तेमनी आचार्यपदवीना प्रसङ्गे दीक्षा लीधी हती, अने आशरे ४५ वर्ष दीक्षा पाळीने सं. १२११ मां देहत्याग को हतो, तेवो इतिहास उपलब्ध छे. पण हेमचन्द्राचार्यने अन्य कोई भाई के बहेन होवा विषे कोई ज नोंध मळती नथी. परन्तु 'खरतरगच्छ पट्टावली'मां एक नोंध एवी मळे छे, जे हेमाचार्यने एक बहेन होवानुं अने ते दीक्षित-साध्वी होवानुं निर्देशे छे.
आ नोंध, जोके, आचार्य प्रत्येनी अरुचिप्रेरित नोंध छे. अन्य गच्छोनुं कट्टरपणे सतत खण्डन करवामां सैकाओथी राच्या करता खरतरगच्छनी तीखी नजरमांथी हेमाचार्य बची जाय ए नितान्त अशक्य छे. आ रही ए नोंध :
"ततः शङ्कितो मनसि हेमाचार्यो न छोटयति । तदा हेमाचार्यभगिनी हेमश्रीमहत्तराऽस्ति । तयोक्तं - छोटयन्तु । तैरुक्तं - इदं लिखितमस्ति 'यः छोटयिष्यति तस्य जिनदत्तसूरीणामाज्ञाऽस्ति' तेन बिभेमि । महत्तरयोक्तं - को जिनदत्तः ? न कोऽपि भवदीयसमो गच्छाधिपः । अहं छोटयामि । कुमारपालेन दत्तम् । तया छोटितमात्रे तत्कालं नेत्रद्वयं पतितम् । अन्धा जाता । पुस्तकं भाण्डागारे मुक्तं । रात्रौ वह्निर्लग्नः । सर्वं पुस्तकं प्रज्वलितम् । तत् पुस्तकमाकाशमार्गेण बौद्धानां समीपे गतम्" । (सं. १६९० सुधीनी सत्तरमी सदीनी खरतरगच्छ पट्टावली । थोडा फेरफार साथे महो. क्षमाकल्याणनी खरतरगच्छ पट्टावली ।). (जैन परम्परानो इतिहास-२, पृ. ३५२, इ. २००१)
सन्दर्भ एवो समजाय छे के आ. जिनेश्वरसूरिए के खरतरगच्छना कोईए कोई पोथी आपी/मोकली हशे. ए खोले तेने हानि-एम का हशे. आचार्यना सामर्थ्यनी परीक्षा लेवानी मुराद हशे. आचार्य डा. तो तेमनी बहेने खोली. तरत ते अन्ध थई गई. वधुमां ग्रन्थागार बळी गयो अने पेली पोथी बौद्धो पासे चाली गई.
आ नोंधमां मोटी विचित्रता ए छे के जैनाचार्य थईने जैन ग्रन्थभण्डारने खाक करी मूकवामां निमित्त बने छ; अने पेली पोथी पाछी पोताना हस्तक
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लेवाने बदले बौद्धो पासे मोकली देवामां आवे छे ! मों-माथां वगरनी आ वात विचारकना गळे शी रीते ऊतरे ? हवे उपरोक्त नोंध उपर त्रिपुटी महाराजे लखेली नोंध जोईए :
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“खरतरगच्छनी गद्य पट्टावलीओमां आ . जिनदत्त अने आ. जिनेश्वरबीजाने ऊंचा बताववा माटे अने कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि तेमज गूर्जरेश्वर कुमारपालने नीचा बताववा माटे आवी वातो जोडी काढवामां आवी छे. परन्तु आ. जिनेश्वर बीजानो समय वि.सं. १२७८ थी १३३१ छे. ज्यारे हेमचन्द्रसूरि अने गूर्जरेश्वर कुमारपालनो समय ११९९ थी १२२९ छे. साध्वी हेमश्रीनुं नाम पण कल्पित छे. आथी नक्की छे के पट्टावलीकारोए घणी घटनाओ गच्छरागथी ऊभी करी छे." (जैन परम्परानो इतिहास - २, पृ. ३५२)
'हेमखाड' विषे ऊपर लखेल वातो अने आ वात बन्ने वच्चे कट्टरता अने पक्ष/मतना रागने लीधे केटलुं बधुं साम्य जणाई आवे छे !
(8)
गिरनारयात्रा अने दशारमण्डप
आपणे त्यां प्राचीन प्रबन्धो द्वारा एक वात प्रचलित छे के हेमचन्द्राचार्य अने कुमारपाल राजा गिरनार तीर्थे गया, त्यारे तेओ बन्ने जणा पहाड ऊपर चड्या नहि. एटला माटे के बे महापुरुषो एक साथे ऊपर चडे तो पहाड हालमडोलम थाय, भूकम्प थाय; एटले बे जणा साथे न चडी शके. प्रसिद्ध पुरुषनी महत्ता अने माहात्म्य वधारवा माटे केवी अतिउक्ति थती होय छे तेनो आ उत्तम नमूनो छे. आ प्रसङ्ग खरेखर आ प्रमाणे छे :
“राजा कुमारपाल, चतुरङ्ग सैन्य अने चतुर्विध संघ साथे, गुरु हेमचन्द्रनी निश्रामां तीर्थयात्राए नीकळ्या. थोडा ज वखतमां रैवतपर्वतनी नीचे गिरिनगर (गिरिनार) पासे आवीने तेणे पडाव नाख्यो. त्यां राजाए भुवनना अलङ्करणसरीखो ‘दशारमण्डप' दीठो, तेमज अखाडावाळो उग्रसेनराजानो महेल पण जोयो. ते चकित थयो, अने गुरुने पूछ्युं के आ बधुं शुं हशे ? जवाबमां आचार्ये जणाव्यं के द्वारावती - द्वारिकामां समुद्रविजय आदि दश दशारो वसता हता. तेमां दशमा दशारनुं नाम वसुदेव हतुं, तेना पुत्र ते कृष्णवासुदेव. वळी,
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समुद्रविजयना पुत्र अरिष्टनेमि हता, अने तेमना विवाह माटे, गिरिनगरमां आ महेलना स्वामी उग्रसेनराजानी पुत्री राजीमती पसंद करवामां आवी हती. ते दशारोनो आ मण्डप छे, अने उग्रसेननुं आ भवन छे."
राजाए पूछ्युं : "तो आ देखाय छे ते मण्डप वगेरे त्यार वखतनुं ज हजीये छे ?" गुरुए कह्युः "ना, आ ते वखतनुं नथी, पण थोडा समय पूर्वेनुं छे. आर्य नागहस्तीसूरिना शिष्य पादलिप्तसूरि थया, तेमनो शिष्यतुल्य नागार्जुन नामे हतो, तेणे नेमिनाथ प्रत्येना अनुरागथी आ बधु नेमिचरित सरज्यु छे, ते आ छे."
___आ सांभळतां राजाने विशेष उल्लास थयो अने ते गिरनार पर्वत पर चडवा उत्सुक थतां हेमचन्द्राचार्ये तेने कह्यु :
नरवर ! विसमा पज्जा अओ तुमं चिट्ठ चडउ सेसजणो । लहहिसि पुन्नं संबो व्व भावओ इह ठिओ वि तुमं ॥
राजन् ! पाज (पगथियां) विषम छे एटले तमे चडवानुं न राखो. बधां भले चडतां. तमे अहींथी भावना भावजो, पुण्य थशे..
आथी गुरुनी सलाह अनुसार राजा न चड्या; गुरु तो चड्या ज हता.
आ आखी वात, हेमाचार्यना समकालीन श्रीसोमप्रभाचार्ये, आंखे दीठा हेवालनी जेम, 'कुमारपालप्रतिबोध'मां आलेखी छे.
आमांथी फलित थता केटलाक मुद्दा पुरातात्त्विक दृष्टिए घणा महत्त्वना छे. जेमके
(१) उग्रसेननुं रहेठाण गिरिनगर (गिरनार)मां (नीचे) हतुं. प्रसिद्ध कथानुसार द्वारिकाथी जान लईने कृष्ण तथा नेमिकुमार उग्रसेनने त्यां आवेला. तो तेनो अर्थ के जान गिरिनगर आवी होय, अने द्वारिका तेनाथी, आजे छे तेटली दूर नहि होय. थोडा समय अगाऊ सेटेलाइट-फोटो द्वारा मळेली जाणकारी वृत्तपत्रोमां वांचवा मळेली, ते मुजब वंथली अने तेनी नजीकनो प्रदेश द्वारकाप्रदेश हतो. आ खलं होय तो ऊपरनी वातनो मेळ मळे खरो.
(२) आजे जे बौद्ध गुफामण्डपो तरीके ख्यात छे, ते ज सम्भवतः क्यारेक दशामण्डप तरीके प्रख्यात हशे एवं अनुमान थाय छे. अथवा तो ते मण्डप वगेरे नष्ट पण थया होय.
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(३) कुमारपाल ने गुरु साथे चडे तो गिरनार डोली ऊठे तेवी कथा मात्र कल्पनाकथा ज होवानुं नक्की थाय छे.
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उपरोक्त आखो प्रसङ्ग ‘कुमारपालप्रतिबोध' ग्रन्थमां उपलब्ध छे, अने तेने आधारे ज अत्रे नोंधेल छे. आ ग्रन्थ आचार्यना जीवन माटे सहुथी वधु प्रमाणिक अने अधिकृत साधन गणाय छे.
(4)
हेमचन्द्राचार्य अने क. मा. मुनशी
आ संसारमां नैष्ठिक ब्रह्मचर्य जेवी पण एक चीज विद्यमान छे. लाखो-करोड़ो साधकोमां कोई एकाद - बे व्यक्तिने ज आ चीज सांपडती होय छे. नखमांय विकार न संभवे, अने साव सहज - आयासविहीन निर्विकार स्थिति जेनामां जन्मजात होय, तेवी व्यक्ति ज आ चीज पामवाने भाग्यशाळी बने छे. आमां प्राक्तन पुण्य अने संस्कार, कुलनी खानदानी, योग्य गुरु द्वारा समुचित घडतर, सहज सत्त्वशीलता, पोतानी उभराती ऊर्जाने सद्गुरुना मार्गदर्शनपूर्वक ऊर्ध्वगामी बनाववा माटेनी जागृति अने पुरुषार्थ - आ बधां वानां मळे तो कोइ व्यक्तिमां नैष्ठिक ब्रह्मचर्य प्रगटे, अने ए चीज ए व्यक्तिने व्यक्ति मिटावी विभूति तरीके प्रस्थापी आपे. बाणभट्टे भले लख्युं होय के " किमस्ति कश्चिदसावियति लोके यस्य निर्विकारं यौवनमतिक्रान्तम् ?' अर्थात्, जगतमां विकारविहोणो जण हजी पेदा नथी थयो. परन्तु हेमाचार्य जेवी विभूतिने आ नियम लागु पडतो नथी, एम एमना जीवनने समग्रताथी जाण्या पछी, अन्ध भक्ति विना अने अनैतिहासिक बन्या विना जरूर कही शकाय. अलबत्त, स्वच्छन्द विचार अने अभिप्राय धरावनार कल्पनासेवी माणस तो गमे तेने माटे गमे ते लखी शके - बोली शके. मोटा भागे तो तेवी कल्पनामां ते कल्पना करनार आन्तरिक चारित्र्यनुं तथा वलणोनुं प्रतिबिम्ब पडतुं होय छे.
वात आपणा प्रसिद्ध नवलकथाकार कनैयालाल मुनशीनी करवी छे. तेमणे सोलंकीयुगने वर्णवती नवलकथाओ लखी, तेमां काक अने मंजरी नामे बे पात्र काल्पनिक नीपजाव्यां छे. तेमां काक आगळ मुंजाल, उदयन वगेरे तमाम राजपुरुषोने झांखा पडता आलेख्या छे; काकने 'समुद्रमिव दुर्घर्ष अने
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फेब्रुआरी २०११ कालाग्निमिव दुःसह' वर्णव्यो छे. तो मंजरीने अत्यन्त तेजस्विनी, पवित्र अने भलभलाने आकर्षे तेवी छतां सहुनां गर्व गाळी नाखनारी वर्णवी छे.
सामान्य रीते आ कथाश्रेणिमां जैनोने ऊतारी पाडवानी एक पण तक मुनशीए छोडी नथी. परन्तु हेमचन्द्राचार्यने मंजरीना सौन्दर्य प्रत्ये आकर्षाता, विह्वळ बनता अने अनुचित प्रार्थना करता कल्पीने तो तेमनी कल्पनाशक्तिए स्वच्छन्दतानां शिखर सर कर्यां छे. जैनद्वेष अने आत्मरति आ प्रसङ्गमां तेनी पराकाष्ठाए पहोंचे छे. सुज्ञ वाचकने काक-मंजरीमां मुनशी-दम्पतीनी काल्पनिक छबी अवश्य अनुभवाय.
आनो विरोध पण घणो थयेलो - थतो रह्यो छे. मुनशी पीढ राजपुरुष-मुत्सद्दी होई तेमणे ते विरोधने गांठ्यो नथी, ए तेमनी दृढता काबिलेदाद छे. साहित्यकारनी अभिव्यक्तिनी स्वतन्त्रतानो सिद्धान्त तेमने बचावे पण छे, बळ पण पूरुं पाडे छे.
विचित्रता ए छे के आ विरोधने ‘साम्प्रदायिक मानसने लागेलो धक्को' गणाववामां आवेलो. एम पण कहेवायुं के 'हेमचन्द्राचार्यने महान सिद्ध करवा होय तो एमना जीवनमां एक मंजरी आणवी ज जोईए. अर्थात् आचार्यने चारित्र्य, पगथियुं चूकवा माटे तत्पर बताव्या ते पण तेमनी महानता सिद्ध करवाने ज ! केवी वाहियात दलील !
थोडा दहाडा अगाऊ ज डॉ. मधुसूदन ढांकी साथे वात चाली त्यारे तेमणे कहेलुं के हेमचन्द्राचार्यनी प्रतिभानु खण्डन करवामां मुनशीए पूरा जैनद्वेषनुं प्रदर्शन कयुं छे. ए भयङ्कर जैन-द्वेषी हता, शङ्का नथी. आ सन्दर्भमां आ प्रकरणना प्रारम्भे लखेल बाबत विचारवा योग्य छे.
___(६) हेमाचार्य- आकाशगमन
प्रबन्धोमां क्यारेक थयेली अतिशयोक्तिओए आचार्यनो महिमा वधार्यो छे के ओछो को ? ते एक सवाल छे. ह. मखदूम शाह वाळा प्रसङ्गमां आचार्यने उडता देखाडवामां आव्या छे. तेनो अर्थ ए के आचार्य पासे तेवी शक्ति होवा- जैन प्रबन्धोमां क्यांक वर्णवायुं हशे. तपास करतां ए वात जडे
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
छे. "भृगुकच्छमां आम्रभटे मुनिसुव्रतजिनालयनो उद्धार कर्यो, तेनी प्रतिष्ठा माटे हेमचन्द्राचार्य तथा कुमारपाल पधारेला. हवे प्रतिष्ठा पछी तेओ पाछा स्वस्थाने जाय छे. त्यार पछी आम्रभट जिनालयनी छत पर सायं वेळाए नृत्य करे छे, ते जोईने ते समये त्यांथी पसार थती जोगणीओ तेने वळगी. ते बेभान थई गयो. तेने साजो केम करवो ? आ वृत्तान्तनी खबर आचार्यने पडतां ज तेओ गगनमार्गे उडीने त्यां आव्या, अने उपद्रव, निवारण कर्यु." (प्रबन्धचिन्तामणि पृ. ८७-८८, सिंघी; तथा हीरसौभाग्य काव्य सर्ग ४, पृ. १७५)
___ आ वर्णन प्रमाणे 'स्वस्थाने'नो अर्थ 'पाटण' गया एवो थाय. तो ज गगनमार्गे आवq संभवे.
____ अहीं प्रश्न ए थाय के भृगुकच्छथी पाटण पहोंचता घणा दिवस लागे ज. आम्रभटना नृत्य-आनन्दनो प्रसङ्ग खरेखर तो प्रतिष्ठा-दिने ज सांजे बनेलो होवो जोईए. तेमां ज औचित्य पण छे. जो ते ज दहाडे ते घटना बनी होय तो आचार्य गाममां ज होय, तो तेमणे गगनमार्गे आववानुं रहे ? पछी 'स्वस्थाने' नो अर्थ 'उपाश्रये' एवो ज थाय.
बीजूं, धारो के आचार्य पाटण पहोंच्या पछी आ उपद्रव उद्भव्यो. पण तो तेना समाचार भृगुकच्छथी पाटण पहोंचता ३-४ दिवस तो लागे ने ? कदाच वधु दिवसो पण लाग्या होय. तो शुं तेटलो वखत ते निश्चेष्ट ज पडी रह्या हशे ? बहु गोटाळो थाय छे. गळे ऊतरे नहि.
वळी, आचार्यमां यौगिक शक्तिओ होय ते स्वीकारवा छतां आकाशगमनविद्या होय तेवं, अने आवा प्रयोजन माटे तेनो उपयोग करे तेवू पण, मानवामां आवतुं नथी. आटली शक्ति होय ते व्यक्ति तो स्वस्थाने रह्या रह्या ज उपद्रवनुं निवारण करी शके !
आ गोटाळानुं निराकरण एक ज रीते सम्भवे : आचार्य भृगुकच्छमां ज होय; अने प्रतिष्ठाना दिने ज सांजे आम्रभट आनन्दातिरेकमां तृप्त करी रह्या होय, अने ते वेळा पसार थती जोगणीओ द्वारा तेने उपद्रव थयो होय. तेनी खबर पडतां ज आचार्य त्यां गया होय, अने तेमणे ते उपद्रव, स्वसामर्थ्यबळे निवारण कर्यु होय.
आटलुं अनुमान कर्या पछी 'प्रभावकचरित' जोवानुं बन्युं, तो तेमां
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आ धारणाने ज समर्थन आपे तेवू ज प्रतिपादन जोवा मळ्युं. ते ग्रन्थमां आवता 'हेमचन्द्रसूरिचरित' (पृ. २०७, २०८, श्लोक २७५-७६२)मां आ बनावविस्तृत वर्णन मळे छे, तेमां ७३९मा श्लोकमां "आययौ पादचारेण" "पगे चालतां तेओ आव्या" - आ वाक्य द्वारा गगनयात्रानी, पाटण गयानी बधी वातो कल्पनाजन्य अत्युक्ति होवानुं पुरवार थाय छे, अने उक्त अनुमान लगभग यथार्थ ठरे छे. ___ 'प्रभावकचरित' प्रमाणे समग्र घटनाक्रम आम छे : -
"आम्बडे - आम्रभटे भृगुकच्छमां सुव्रतजिननुं पुराणुं काष्ठमय चैत्य साव जर्जरित थयेलुं जोयुं, अने तेनो जीर्णोद्धार करवानुं नक्की कर्यु. तेणे प्रभुजीने स्वस्थाने जेमना तेम राखीने पुराणो प्रासाद ऊतरावी लीधो अने नवा चैत्यनो पायो खोदाव्यो. ते दरम्यान ज छळ शोधीने जोगणीओ आम्बडने वळगी पडी. तेने लीधे तेना अंगे अंगे पीडा थवा लागी, भूख-तरस न रही, अने शरीर क्षीण थवा लाग्यु. तेथी मातानुं नाम पद्मावती हतुं. तेणे पद्मावतीदेवीनी आराधना करतां देवीए स्वप्नमां कडं के अहीं योगणीओनी महापीठ छे. ते आने लागी छे. आमांथी आने मात्र हेमचन्द्राचार्य ज उगारी शके; बीजुं कोई नहि.
प्रभाते गुरु पासे निवेदन कर्यु. तत्क्षण गुरु पोताना यशश्चन्द्र नामक शिष्यने लईने आम्बड पासे आव्या. यशश्चन्द्र गणितविद्यामां निष्णात हता. तेमणे मन्त्रीनी चेष्टा परथी गणित काढ्यु. अने तेनी माताने गुप्त सूचना आपी के- एक उत्तम, चपल अने विश्वासु माणसने अमारी पासे आजे राते मोकलजो. नगरना द्वारपालोने रात्रे द्वार खोली आपवानी सूचना अपावी. रात्रे आचार्य, यशश्चन्द्र अने पेलो माणस, गोपुर-दरवाजेथी बहार आव्या, ने सैन्धवी देवीना मन्दिरे गया. मार्गमां मन्दिरना द्वार सुधीमां विविध चरितर - प्राणीओना रूपमा - पेदा थयां, तो ते दरेकने रांधेल सुगन्धी बलि-बाकळां आपी, तुष्ट करी दूर कराव्यां. पछी देवी पासे जईने यशश्चन्द्र गणिए कह्यु : "हेमचन्द्राचार्य गुरु पगे चालीने तारा आंगणे आव्या छे. जालन्धरपीठ वगेरे पीठो द्वारा पण ते मान्य - पूजित छे. तेमनुं स्वागत - पूजन करवानुं तारा माटे उचित छे, तारा हितमां पण छे."
आ सांभळतां ज देवी प्रगट थईने हाथ जोडती आचार्य समक्ष आवीने
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ऊभी रही. तेने जोतां ज आचार्ये सूचव्यु के 'तारा परिवारे कबजे लीधेला आम्बडने तो जोगणीओए वहेंची लीधो होइ कांई थई नहि शके.' त्यारे यशश्चन्द्र गणीए देवीने समजावी के 'तो हवे तुं तारा स्थानके बेसी जो ! हजी आचार्यदेवने मान आप अने आ कार्य कर; तो तेमनुं मान रहे ने तारुं स्थान रहे.' आ सांभळतां ज भयभीत देवीए जोगणीओने आदेश को ने आम्बडने छोडावी देधो. आम्बड स्वस्थ थयो. बीजी सवारे आचार्यनी सूचनाथी आम्बडे सैन्धवीमाताने साहस्रिक (हजार रुपियानो) भोग धराव्यो. ते पछी तेणे चैत्यनो जीर्णोद्धार कराव्यो."
प्र.च. नुं आ वर्णन वधु वास्तविक छे, अने प्र.चिं. गत वर्णन अत्युक्तिसभर छे, ते आ बधुं वांच्या पछी स्पष्ट थाय छे. सारांश के आचार्य आकाशगमन-शक्ति धरावता हता, ए प्रकारनी वार्ताओ तेमनुं माहात्म्य वधारवा माटे उपजाववामां आवेली कथामात्र छे, जे कथाओ खुद आचार्य पण मंजूर न राखे.
तो, हेमचन्द्राचार्य विषे तेमना समयथी लईने आज सुधीमां फेलाती रहेली केटलीक महत्त्वनी गेरसमजणो के अनुचित वातो आ लेखमां नोंधी, तेनी तथ्यता परत्वे पण ऊहापोह को. एक वात स्पष्ट छे के तेजस्वीनो ज तेजोद्वेष थतो होय छे. द्वेष करीने पण तेमणे आचार्यनी तेजस्वितानो आडकतरो स्वीकार ज को छे एम कही शकाय.
आचार्यना तेजने नमन !
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नानादेशदेशीभाषामय श्री विजयचिन्तामणि पार्श्वनाथजिन स्तोत्र
- सं. उपा. भुवनचन्द्र
भुज (कच्छ)ना एक जिनालयने अनुलक्षीने रचवामां आवेली आ कृति काव्यरस, भाषा, इतिहास अने विशेषतः कच्छदेशनी चारसो वर्ष पूर्वेनी स्थितिना चित्रणनी दृष्टिए विशिष्ट छे. तपागच्छना प्रसिद्ध आचार्य श्री विजयहीरसूरिना प्रशिष्य उपाध्याय श्री विवेकहर्षगणीए कच्छमां विचरण करेलुं. कच्छना महाराओ (महाराजा) श्री भारमल्ल तेमना परिचयथी बहु प्रभावित थया हता अने एमनी प्रेरणाथी भुजमां राजविहार नामे देरासर तेमणे बंधाव्युं हतुं. राओ भारमल्लजीना भाई पचाणजी खाखर गामना धणी हता, तेओ पण विवेकहर्षगणीना समागमथी प्रभावित थया. खाखरना जैनोए शत्रुजयावतार श्री आदिनाथ प्रभुनुं देरासर बंधाव्यु अने तेमां श्री विवेकहर्ष गणीने हस्ते प्रतिष्ठा करावी. आ बधी विगतो भुजना अने खाखरना देरासरोमां लागेला विस्तृत शिलालेखोमां अंकित छे. आ बे स्थळोने सांकळती प्रस्तुत रचना आ घटनाओनी साक्षी पूरनारी स्वतन्त्र दस्तावेजी सामग्री लेखे पण महत्त्व धरावे छे.
भुजमां आदीश्वरजी- जिनालय आजे पण विद्यमान छे. तेना शिलालेखमां प्रतिष्ठावर्ष वि.सं. १६२८ आपेल छे. मोटी खाखरना शिलालेखमां भुजना 'रायविहार'नो उल्लेख छे अने ते आदीश्वरप्रभुनुं जिनालय हतुं तेवो उल्लेख छे, परंतु प्रस्तुत रचनामां तो राओ भारमल्ले विजयचिन्तामणि पार्श्वनाथनुं जिनालय बंधाव्युं हतुं एवो स्पष्ट निर्देश छे. राओ भारमल्ले बे देरासर नथी ज बंधाव्यां तेथी एक गूंच सर्जाय छे खरी..
भुजना शिलालेखमां चौमुख प्रतिमानो उल्लेख नथी, परन्तु त्रण बिम्बनो उल्लेख छे - जेमां एक बिम्ब चिन्तामणि पार्श्वनाथ, हतुं. प्रस्तुत स्तवनमां चौमुखनो उल्लेख कई रीते थयो ए एक कोयडो छे. चौमुखनो उल्लेख सरतचूकथी थयो होय अने चिन्तामणि पार्श्वनाथने मुख्य मूळनायक मानी लेवामां आव्या होय एवी एक शक्यता छे.
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अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
रचनाकार अने रचनाकाल :
कृतिना रचयिता मुनि छे. पण्डित परमानन्द नामक आ कविनी आ एक ज कृति जै.गू.क.मां नोंधाई छे. त्यां आनी हस्तप्रत पण एक ज नोंधाई छे, परंतु अमने आनी छ हस्तप्रतो मळी छे. आथी एम लागे छे के आ रचना सारो प्रसार पामी हती. श्री विवेकहर्षगणीना गुरुनुं नाम हर्षाणन्द पण्डित हतुं. विवेकहर्षे ‘श्रीहीरविजयसूरिनिर्वाणरास' रच्यो छे अने ते ‘जै.ऐ.गू. काव्य संचय' (सं. जिनविजय, १९२६) मां प्रकाशित छे.
कृतिमां रचनावर्षनो निर्देश नथी. एक ह.प्र. मां ले.सं. १६९८ आपेलो छे, तेथी आनो रचनाकाल १६२८ थी १६९८ वच्चेनो छे. जै. गू.क. मां आ रचना ‘नानादेशदेशीभाषामय स्तवन' एवा नामे नोंधाई छे. विजयसेनसूरिनो स्वर्गवास १६७१मां थयो हतो, तेथी तेनी पहेलां आनी रचना होवानुं त्यां जणाव्युं छे. परन्तु, आ कृति विजयसेनसूरि सम्बन्धित नथी पण विवेकहर्षगणी साथे सम्बन्धित छे, तेमज खाखर गामने आमां महत्त्व अपायुं छे ते जोतां १६५९ अने १६९८ वच्चे आनी रचना थई होय एम मानी शकाय. कृतिना पाठ विषे :
अमने प्राप्त थयेल ६ हस्तप्रतोमांथी बे प्रतमां कृतिनुं नाम ‘विजयचिन्तामणि पार्श्वजिनस्तोत्र' छे. एक प्रत 'पार्श्वचिन्तामणि स्तवन' एवं नाम आपे छे. एकमां ‘नानादेशदेशीभाषामय श्री विजयचिन्तामणिपार्श्वजिनस्तोत्र' एवं नाम मळे छे. एक ह.प्र. ‘नानादेशीयभाषास्तवन' नाम धरावे छे, ज्यारे एक प्रत अपूर्ण छे तेथी तेमां नाम मळ्युं नथी. कडीओनी संख्या विशे पण एकमति नथी. बे प्रतमां कडीओनी संख्या ७८ छे, बे प्रतमां ५६ छे, एकमां ६२ छे, एक अपूर्ण छे. अमे अहीं कडीओने नवेसरथी क्रमाङ्क आप्या छे. क. २९ थी ३३ ए पांच कडीओ तथा ४४-४५ - ए बे कडीओ
कुल सात कडीओ मात्र
एक ज प्रत (लाद)मां ज छे. बाकीनो भाग बधी प्रतोमां समान छे, पण क्रमाङ्कमां गरबड छे. स्व. लिपिनिष्णात श्रीलक्ष्मणभाई भोजक पासेथी अमने जे फोटोकोपी मळी हती तेमां तेमणे कडीओ निश्चित करीने नोंधी हती. अहीं अमे ए प्रमाणे क्रमाङ्क राख्या छे.
पांच कडीओमां गुजरातनी महिलाओना मुखे कच्छ अने कच्छना
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लोको विषे निन्दात्मक वर्णन कराव्युं छे. लागे छे के कृतिनी प्रतिलिपि करनारा सुज्ञजनोए पछीथी ए निन्दात्मक कडीओ २५ करीने प्रतिलिपि करी हशे. बीजी बे कडीओमां कच्छी नारीनो जवाब छे ते पण आकरी भाषामां छे, तेथी ए बे कडीओ पण बाद करवामां आवी हशे. आ सात कडीओ कच्छीभाषानी अने कच्छनी दस्तावेजी सामग्री होवाथी अमे ए कडीओ रहेवा दीधी छे.
अत्रे ए नोंधनीय छे के पांच कडीओमां (अने एवी बीजी कडीओमां) करेलां विधानो असत्य नथी. कच्छमां ए जातनी प्रवृत्ति थती हती खरी पण जैनोमां पण ए ज रूपे ए बधुं होय एम न कही शकाय. घोडियामां होय एवा पुत्र-पुत्रीना सगपण, दीकरीनी सामे दीकरी, साटुं - आवी केटलीक रीतो तो जैनोमां पण सोएक वर्ष पहेलां सुधी प्रचलित हती. पुत्री अने पाडो जीवे नहि. अर्थात् पुत्रीने 'दूधपीती' करवानी वात जैन समाजने नहीं पण क्षत्रियवर्गने लागू पडे. गुजराती नारीओ अजाणपणे कच्छी जैनो माटे पण एवा आक्षेप करे छे एवा प्रसंग कविए ऊभो को छे. आ संवादमां कच्छनी भूमिर्नु अने कच्छीओना खान-पान, रीत-रिवाज, भाषा वगेरेनुं विगतप्रचुर वर्णन समावायु छ – जाणे 'आंखे देख्यो अहेवाल' आमां आपणने मळे छे. अहीं कच्छ अंगेनी ए विगतोनी चर्चा अमे करी नथी, परन्तु कच्छ विषे संशोधन करनार अभ्यासीने दस्तावेजी सामग्री लेखे आ कृति अत्यन्त उपयोगी बने ए निःशङ्क छे. कथावस्तु :
भुजना राजविहार जिनालयनी यात्रा माटे विविध देशना संघो भुज आव्या छे, जेमां खाखरनो संघ पण सामेल छे. भुजनी सांकडी शेरीओमां भीड थाय छे अने कच्छनी महिलाओना धसाराथी गुजराती नारीने धक्को लागे छे त्यारे ते कच्छ अने कच्छनी नारीओने माटे घसाती टिप्पणी करे छे अने आ रकझकमां खम्भात, अमदावाद, महाराष्ट्र, मारवाड वगेरे स्थळोनी स्त्रीओ पण सामेल थाय छे. मोटी खाखर गामनी महिला जुस्साभेर जवाब वाळे छ : अमे पण विवेकहर्ष गणी द्वारा धर्मबोध पाम्या छीए, अमे पण जैन आचार पाळीए छीए, अमारा कच्छमां भद्रेश्वर जेवां महान तीर्थ छे वगेरे. कच्छीओ पण
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साधर्मिक छे वगेरे ध्यानमां आवतां गुजराती वगेरे महिलाओ कच्छी नारीने प्रेमथी भेटे छे अने ‘पहेलां तमे पूजा करो' एम कहे छे त्यारे कच्छी श्राविका कहे छे : 'तमे महेमान छो, माटे तमे पहेलां करो.' आम आनन्द-उल्लास भर्या वातावरणमां यात्रा पूरी थाय छे. महिलाओ वच्चेना संवादमां जुदा जुदा नगर अने देशनी महिलाओ पोतपोतानी भाषामां कच्छनी टीका अथवा पोताना प्रदेशना तीर्थोनी प्रशंसा ऊलटभेर करे छे.
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कवि परमानन्द साधु होवाथी विविध देशना प्रवासी छे अने विविध भाषाओनी निकटथी जाणकारी धरावे छे तेथी घणी भाषाओनो प्रयोग अधिकारपूर्वक करी शक्या छे. कच्छीभाषानो तेमणे जे चोकसाई अने कुशलतापूर्वक उपयोग कर्यो छे ते दर्शावे छे के कच्छमां पण तेओ श्री सारी पेठे विहर्या हशे. चारसो वर्ष पूर्वेना कच्छनुं रंगदर्शी वर्णन लिखित रूपे आपती रचना कदाच आ एक ज हशे.
कृतिनी हस्तप्रतो :
अमने प्राप्त थयेल ६ प्रतो पण एकथी वधु कुलनी जणाय छे. लाद. संज्ञक प्रतने आधारभूत गणी आ वाचना तैयार करी छे. अन्य प्रतोमांथी महत्त्वना पाठभेदो नोंध्या छे. उत्तरकालीन प्रतोमां उच्चारभेदना कारणे सर्जाता पाठान्तरो (युगति = जुगति जेवा) नोंध्या नथी. पाछला काळनी प्रतोमां कच्छी भाषाना अंशोमां भूलभरेला पाठ छे तेने पाठान्तरमां लीधा नथी. मराठी अंशो यथामति सम्पादित कर्या छे. मराठीनी वधु तपास तो ए भाषाना विद्वान ज करी शके. क. ६मां ‘नखावता' छे, तेने स्थाने 'नचावता' वधु संगत बने, परंतु बधी ज प्रतोमां ‘नखावता' पाठ छे तेथी ए सुधार्यो नथी. आ शब्द तपास मागे छे. १
‘मारुणी-' मारवाडी स्त्रीना मुखे मारवाडी भाषामां वर्णन छे तेमां एक विचित्रता छे. ज्यां ज्यां रकार होवो जोईए त्यां त्यां कवि ग कार वापरे छे. जेमके, राणपुर = गाणपुग; रलियामणुं गलियामणुं, वगेरे. ए प्रदेशमां ते समये आवो उच्चार प्रचलित होवो जोईए.
क. ५६मां ‘आबूगोडा' छे त्यां बे प्रतमां आबू गढगी (-गढरी) छे.
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१. नखाववुं ए 'पलाणवुं' अर्थमां प्रयोजातुं क्रियापद होई शके.
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आबूगोडा शब्दनी तपास करवी बाकी रहे छे.
ढाळोनी देशीओना नाम मात्र एक ज प्रतमां मळे छे, जे प्रत अपूर्ण छे. एक पुण्यस्मरण :
___आ कृतिनी एक हस्तप्रत मांडलना भण्डारमांथी वीशेक वर्ष पहेलां अमने मळी हती. एल.डी. इन्स्टी.मांथी अन्य प्रतोनी तपास करावी हती परंतु नामफरकना कारणे प्रतो मळी शकी नहीं. अमे पण आनुं काम ते वखते बाजू पर मूकी दीधुं हतुं.
पांचेक वर्ष पूर्वे आन्तरराष्ट्रीय लिपिविशेषज्ञ तरीके सुख्यात एवा श्री लक्ष्मणभाई भोजके आ ज कृति पर काम करवा मांडेलुं त्यारे आमांना कच्छी शब्दो बाबत तेमणे अमारो सम्पर्क कर्यो. अमे पण आ कृति पर काम करवा इच्छीए छीए एवं तेमणे ज्यारे जणाव्युं त्यारे तेमणे पोते एकत्र करेली हस्तप्रतो अमने मोकली आपी अने अमने ज आ कार्य पूर्ण करवा जणाव्यु. आ मोटा गजाना संशोधननिष्णात विद्वाननी उदारता अने संशोधननिष्ठाना आ प्रसंगे अमने दर्शन थयां. आ तके तेमनुं पुण्यस्मरण करवा साथे आ लेख तेमनी स्मृतिने अर्पण करीए छीए. हस्तप्रतो : १. ला.द. (लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्याभवन, अमदावाद)
क्र. ३०७७०. पत्र ४. (ले.स. १७मुं शतक) आदि : पण्डित श्रीकमलवर्धनगणिगुरुभ्यो नमः । अन्त : इतिश्री विजयचिन्तामणिस्तोत्र सम्पूर्ण । मुनिश्री रविवर्धनशिष्य ऋधिवर्धन लिखितं । शुभं भवतु । माख. (मांडवी खरतरगच्छ जैन संघनो भण्डार) पत्र ३. (१८मुं शतक) अंत : इतिश्री नानादेशीयभाषास्तवनं सम्पूर्णं ।
वा. जीवसौभाग्य लिखितं । ३. शु. (शुभवीर जैन ज्ञानभण्डार, अमदावाद)
पत्र २. (१७मुं शतक)
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अंत : इति श्री पार्श्वनाथचिन्तामणि स्तवनं । ४. को. (श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा)
क्र. ३२१६२; पत्र ३ (१८मुं शतक)
अंत : इति श्री विजयचिन्तामणिस्तोत्रं । ५. अ. (अपूर्ण) पत्र १-२ (१७मुं शतक) ६. मांपा. (मांडल पार्श्वचन्द्रगच्छ जैन संघनो भण्डार)
क्र. ५८/६४. पत्र १-४. अंत : इति श्रीनानादेशदेशीभाषामय श्री विजयचिन्तामणि पार्श्वजिनस्तोत्रं सम्पूर्णमिदमिति । संवत् १६९८ वर्षे मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी भृगु वारे । कच्छदेशे विहृधिनगरे पण्डितप्रवर पण्डित श्री संघविजयगणि चरणकमल मधुकर समान शिष्य पण्डित श्री देवविजयगणि लिखति स्म । गणि तत्त्वविजय वाचनार्थं । कल्याणमस्तु ।
[ढाल १] त्रिभुवन तारण तीरथ पास चिंतामणी रे
कि विजय चिंतामणी रे, चालउ चतुर प्रिय जात्रिं जईई भणइ भामिनी रे,
कि भणइ भामिनी रे; प्रिय सहजवाली' जोतरावि कि धवल धुरंधरा रे,
कि धवल धुरंधरा रे, तस सिंगिइं सोवनखोल कि घमघमइं२ घूघरा रे,
कि घमघमई घूघरा रे. १ जिणि एवडु वाद करावीअ कुमति हरावीआ रे, कि कु० देई तपगच्छ जयकार सुगुरु३ सोहावीआ रे, कि सु० लागीय मुझ मनि खंति ते तीरथ भेटवा रे, कि ते० लेई चालि सबल संघ साथि कुमति दल खेटवा रे, कि कु० २
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एक प्रिय पगि लागी पनुतीअ पदमिनि वीनवइ रे, कि० संघ चालइ सबल कछ देशि बइठा शुं तुम्हे इवइ रे, कि० प्रिय वहिली अ वहिल अणावि तुरंगम जोतरु रे, कि० तिहां घमघम घूघरमाल छत्री छेकइं करो रे, कि० ३ वागिय यात्रा जंग मृदंगीहिं चतुर चकोरडी रे, कि० इक नाचइ पाउसि जेम मनोहर मोरडी रे, कि० इक सार सुखासण साज करइ गुण गोरडी रे, कि० इक चढइ चकडोलि चतुर चितचोरडी रे, कि० ४ तस नाह वहइ विवहार अचलि हइडा वटि रे, कि० इम आवइ गूजर संघ अनोपम थलवटि रे, कि० हवि आवि हो दक्षिण संघ अनोपम जलवटिं रे, कि० जस मानिनी मुखि हराव्यो शशि रहिओ निलवटि रे; ५ एहवि आवि हो मारुअ संघ कि करह झिकावता रे, कि० श्री पास चिंतामणि भेटवा भावन भावता रे, कि० आवइ उतराधी संघ तुरंग नखावता रे, कि० ते तु वागा के सर रंग सुरंग सुहावता रे, कि० ६ देखीअ ते परदेशीअ आवत ऊलट्या रे, कि० सहदेशीअ काछी लोक कि धरमी धुंसट्या रे, कि० भुजनगरिं श्रीरायविहार प्रसादिइं सहू मली रे, कि० तिहां वाद वदइ बहु नारि जुहारवा आकली रे, कि० ७ तिहां संघ मल्यु सहु सामटु सेरी सांकडी रे, कइ० इक युगति कहइ बहु नारि कि बोलइ वांकडी रे, कि० अहो छु परदेसी संघ कइ दूर दे संतरी रे, कि० तुह्रो कांइ धसु अा ठेलीअ दीसती व्यं तरी रे,
कि कछिणि व्यंतरी रे; ८ तव बोलइ काछीअ नारि अशिं किं व्यंतरी ड़े, कि० कहु कुछीअ भुछीअ गाल्यि अशांशि गुज्जरी ड़े, कि०
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आमई लज्ज न कज्ज वो गुज्जरी झप्भरी ज्यंतती ड़े, कि० आछयां त्रांकड़ पाय दिसंदी मंगती डे, कि० ९
[ढाल-२] हरमजनो वाहण पूरा, रे - ए देशी. गुज्जरी गुज्जरी स्युं कहइ, सा द्यइं छि उलंभा; अह्मे गुजरातीअ गोरड़ी, ते तो सहीअ दुलंभा. देव जुहारवा आविआ, नहींतरि इणि देसि; कुण अकरमीअ काछड़इ, कहु करइ प्रवेस. वाड़ीअ वन नही सुपनमां, नहीं कहीं अंबराइ; रायण प्रमुख न रूंखड़ा, नहीं केतकी जाई. रोड़ीअ बोड़ीअ भूमिका, चिहुं दिसि मइदान; चोखा-गहूं इणि देसड़ि, नवि नीपजइ धान. नहीं कहीं मोटा सरोवरू, नहीं नदीए पाणी; खाएं रण पड्युं चुबखेर, पसूरिधि वखाणी. अणहलवाड़ा नयरनी, हवि बोलिअ नारी; विनय-विवेक-विचारणा, चतुराईइं सारी. रहु रहु बाई कां करु, एह देसनी निंदा; धन धन एह पणि काछ देस, जिहिं पास जिजिंदा. १६ विजय चिंतामणि परगट्या, तपगच्छ जयकारी; श्रीखंभायत नयरनी, वली बोलीअ नारी. १७ बाइश्री बाईइं भलुं कहिउं, न विखोडिइं देस; पणि जुओ ए ओसवालिनो, स्यु दीसइ छइ वेस. १८ बांध्युं ढेपाईं पहिरणइ, माथइ कांबलड़ी; कस कहींई बांधइ नहीं, छूटी कांचलडी. नहीं फूली नहीं राखड़ी, नवि माधुं गूंथइं; राति-दिवस रोलुं करइं, छांणपुंजु चुंथइं. लांबा लटकई नागला, जाणे हींचोला; सोनुं-वार्नु पहिरइं घj, चतुराईइं मोला. रूपई दीसती राखसी, कुच कंबल झोला;
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भुंछ सही भली वार नहीं, नर ती नघरोला. मंदिर मोटां झूपड़ा, वसवानां ठाम; किहां हुइ नवि लहइ, नलिआंनुं नाम. दातण करवउं खयरनउं, अरणीनां फूल; कंथेर गूगली खाखरा, एहवा झाड़ असूल. गुल-राखोडउ११-डोरडउ२ ए, लापसीअ जाब; गणगणाट माखी तणा ए, भोजन ते राब. आहीरणी-चारणी जिसिउ, ए वाणीयाणी वेस; राति खावउं नहीं विवेक, एहवउ कछ देस. अदल बदल वहु-दीकरी, ए वली करइ-करावइ; साप-वींछीनइं पणि हणइ, गोधा समरावइ. छोति नहीं लवलेश मात्र, नहीं आभड़छेट; अंत्यजनइं सांइ१३ दिइ, मलइ भेटाभेट. →जणंत खेव (?) जीवइ नहीं, पुत्रीनइं पाडो; कुण समझइ कचवउं लवइ, असई कोरो-कुज्याडउ. २९ पगि नाखइ कांटो घसी, एहवा जिहां चोर; वाटि बूकई बहुअ वाघ, घरघरइं अति घोर. मरइ तिवारइ विचिं ढोल, राखीनई गावइ; मुंकाणि आवइ जेह तेह, सहुइ जमी जावइं. वली एह देशनी वारता, अह्मे केती कहीइं; सात पुहुर जइ हिंडिइं, तउ पाणी लहीइं. एहवी अटवी अति घणी, सघलइ ऊजाडि; एह उल्लंघी आवीइं, ते साथनउ पाड. अहमदावाद तणी हवइं, बोली बहु नारी; आपणी जाति न निदिइं, पण अचिरय१४ भारी; मांटीअ घरि जिम दासड़ा, इहुनइं नारि प्रधान. गरथ ते बइअरि हाथडइ, बहु संग्रहइं धान; गाइ-भइंसि माटी दूहइ, खेत्रि भात अणावइ; मांटी-बइअरि मांहोमांहि, निज नामि बोलावइ.
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वार-परवइ पूरां लूगड़ां, इक अचिरय जो तुं; ठेपाडइ नहीं काछड़ी, माथइ बांधइ पोतुं. खेड़ि करइ खड़ वाढइ आप, व्यापार अनेरा; जनम मांहि जाणइ नहीं, नित्य कांतइ ढेरा. नामुंअ लेखुंअ नवि लहइ, अख्यर नवि आवइ; वस्तु-वांनुं कांइ लिइ, बइअरि समझावइ. गुरु-भोजिक भेला जिमइ, विण सालणइ भावइ; मरणि-परणि मेडु करी, निज घर लूटावइ. ४० काछीअ माछीअ जेहवा, दीसंता रूपइं; कांइ धसु अह्म ठेलवा, तुम्हे जाण्या सरूपइं. इम गूजर संघ गोरड़ी, जव वदवा लागी; कछमंडन खखराल संघ, नारि कहिवा लागी. ४२ कहु गुज्जरी यात्रिं अचीण१५, मुहि भुछी गाला हो; भोइ भोइ आज्यो विवेग, हेड़ी गालि म काहो. ४३
आंजी पयरि बूझ्यउं असई, निसगारी गालि; माठि करो भुछ्यो म च्यु, च्यु चंगी चालि. आंजे वाति न नीकरइ, लख डीइ च्यंगो; भुक्खड़-भुच्छड़ा जे होइं, उनजो एह बंगो. धुर१७ पाखी१८ आया ११मणुंस, अइं ठल्ला गुज्जर; कोरु करिआं असिं च्याउरि२०, अशां च्यंगी बज्जर. ४६ अंबा-लींब२१ न बुज्झिउं, अशां च्यंगा चिप्भड़; अइं साह्मी२२ नाठी अच्या, कोरो च्यां उप्भड़. ४७
ढाल [३] राग सिंधुओ. बाबीओ ए अदीयां, इयड़ो गुरु हेकड़ो,
__आइएसां, इयडो२३ गुरु हेकडो, बाबीओ ए अदीयां, कहो द्यइ अशांशि ठेकड़ो,
आइए सां, कहो द्यइ अशांशि ठेकड़ो,
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बा० अ० तपगछ संदडो२४ ठकुर, आ० त० बा० अ० श्री विजयसेन सूरीसर, आ० श्री० बा० अ० श्री विजयदेवसूरि पटधर, आ० श्री० बा० अ० तिह पद कुंर २५ मधुकर, आ० ति० बा० अ० अशीं प्रतिबोध्या अई उर गुरु, आ० अ० बा० अ० जिह नालो विवेकहर्ष सद्गुरु, आ० जि० ४९ बा० अ० मिड़ी अणाथई पारिउं, आ० मि० बा० अ० हाणई चंगई पाणी गारिउं,
४८
आइएसां, त्रिवार २६ पाणी गारिउं; बा० अ० चउडसि पाखी पारिउं, आ० च० बा० अ० नित्य नुकरवारी धारिउं, आ० नि० बा० अ० डेव आडिनाथ कि पूजिउं, आ० डे० बा० अ० तत्त मिथ्या असीं बूझिउं, आ० त० बा० अ० अशीं बूझुं पोसु गिण्हण, आ० बू० बा० अ० नित्य करिउं पडिकमण, आ० नि० बा० अ० पंज्य परवी अशीं पारिउं, आ० पं० बा० अ० अरिहंतयो नालो सारिउं, आ० अ० बा० अ० गंदमूर वाति न पाइउं, आ० गं० बा० अ० हेड़ी साहमिणि आइउं, आ० हे० बा० अ० असां डेह मंझिय हेड़ां तीरथ, आ० अ० बा० अ० श्री विजय चिंतामणि समरथ, आ० श्री० बा० अ० अशां डेह मंझिय भड्रेसर, आ० अ० बा० अ० आयइडेहि क्यहां हेड़ां डेहर, आ० अ० ५३
[ ढाल - ४] निरमालडीए.
काछिणि केरा सुणि जबाप गुज्जरि रंग राती, ध्यन्य ध्यन्य साहमिणि करि मली, भ्रमनेहि धाती, वडदेहरानुं सुणि वखाण, मारुणी मदमाती, बोली बोली सदेस तणी बाली बलगाती,
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कासुं वखाणु देहगां ए, थे (थे) आपइगां२७ आप, गाणपुग गलिआमj, नगमालडीए, निगखतु जाइ भव पाप, मनोगहीए, तुथे न करो इसड़ा जबाप. चुउमुख चाहइ चतुगलोक, च्यागे दगवाजा, गंगमंडप गलियामणो, देवलोक दवाजा, नाटयागंभ कगइ अनेक, जाणे सुगगंभा, थंभे थंभे पूतली, वाजइ वगभंभा, सात भोई सोहामणी ए, शिखग अतिहिं उत्तुंग, सगोगलोक सा थई सही, नगमालडीए, वाद कगइ मनगंग, मनोगहीए.
५५ नलिनी गुलम समाण, गाणपुग देहगुं कहिइ, असटापद संमेतशिखग, नंदीसग लहीइ, सगी सेत्तुंज अवताग वली तीगथ सइ जठइ, मन मोडं सइ माहगुं, माउए तठइ, तगणि भुवण जोइ आइआए, कठी न इसड़ा देव, आबू गोड़ा२८ सुंदगी, नगमालडीए, बोली बुद्धिवंत हेव, मनोगहीए.
[ढाल-५] आबूगिगि गलियामणु, सखी सोहइ नइं, मोहइ नई मोहइ नइं, विमलवसही मोगुं मन गमइए; विमलमंतीस कगाविआं, गूपामय सीधा नई सीधा नइं कीधां सइ आगास मइ ए. ५७ जाणइ सगोगथी ऊतगी, असड़ी पूतली सोहइ नई सोहइ नई चपलनयणी चित्त चोगणी ए; केवली विण कुण वगणवइ, तिणइ जिणहरि, झलकती झलकती, असड़ी अनोपम कोगणी ए. ५८ वसतिग वसही वखाणि, जगि जाणीइ,
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वानगी वानगी, अगिहंत समोसगण तणी ए, नवलखा जठइ आलीआ, जे निहालीय, मन हगइ मन हगइ हथिसाला सोहामणी ए० अचलगुढि सगी चउमुख, तठइ जिनवरा, प्रतिमा नइं प्रतिमा नइं पीतलमय, गलियामणी ए, एक सु नई मण आठनी, ते तु चिहुंदिसि, झलकती झलकती सोहइ जगत्रि सोहामणी ए. बंभणवाडि नाणा नांदिया, सखी महावीर, जिनवर जिनवर सहोदगि मांड्या दीपता ए, इम अनेक अह्म देसडइ, सखी देहगां, दीपइ नई दीपइ नई अवग देसनइं जीपतां ए.
ढाल [६] मर[ह]ष्टी भाषा. एणि अवसरि बोली मरहष्टी२९ नारी, बो० काइ वो सांगितुसि मारुणी ग्रहिणी भारी, [मा०] पासोबा अह्मांचि देशि थोरला देवो, अंतरीक थोरला देवो, बइसीले अंतरीक करतुसि देवता सेवो, [क०] उसभचे लेके इनची सेवना केली,३० माणिकस्वामीची मुरति आह्मी पाहिली, पोहा वो अह्माच्या पोडइ३१ पूजेले पासो, अह्मांच्या वो देवगिरि देवता वासो. कलले तुह्मां चे तीरथ पाहुनि वेस, अइसई कथूनि अह्मांच्या भोगी दख्यण देस; उत्तराधी बोली इणि अवसरि नारी, कीहो करइ तीरथ आई गरव गमारी;
__[ढाल-७] मारू. अछइ मरुमंडली मांहि, तीरथ फलवधि ओथि; श्रीवरकाण्ड पासजी जेणइ जगाइ जगि जोति.
६२
६३
६४
६५
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९२
अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
म करह गरव गमारडी दूबली दख्यण देस; मुंहि धुली देहि पांडरी की करिवु३२ थारु वेस. मकर० ६६ गोडीमंडण मरुधरा, महिमा महिमांहि जास, जाणहिं जगत्र जीराउलो तिमिरय३३ मंडण पास; ६७
ढाल [८] हवि पूरव देसनी पदमिनी, मनमोहन मेरे, बोलीअ बुद्धि विसाल, मनमोहन मेरे; रावण पासजी राजीउ, मनमोहन मेरे, अलवरि तेज झमाल३४ मनमोहन मेरे.
६८ सहरि हमारइ आगरइ, मन०, श्रीचिंतामणि पास, मन० श्रीहीरविजयसूरि थापिया, मन०, त्रिभुवनलीलविलास,
मन० ६९ पंच कल्याणक जिन तणा, मन०, देस हमारइ हाथि, मन० अहिछत्रा तीरथ बडु, मन०, मेलइ हो सिवपुर साथ,
मन० ७०
दूहा.
सोरठडी सुंदर भणइ, देश अमीणि३५ जोडि; काणु को जगि आवसइ, जिहां से@ज गुणकोडि. ७१
ढाल [९] इणि परि वाद करंतडी, निरखी सयल संघ नारि, जिनजी; प्रथम पूजानि कारणि, श्रीपास तणइ दरबारि, जि० जयु जयु विश्व चिंतामणि त्रिभुवन मोहनगार, जि० ७२ जुओ गूजरधरि गाजतो, श्रीशंखेश्वर पास, जि० थंभण पासजी राजीउ, पूरइ त्रिभुवन आस, जि० जयु०७३ ए तीरथ जीरण सवे, जस सिर जीरण मुनिवास, जि० इणि युगि अदभुत प्रगटिआ, श्रीविजय चिंतामणि पास,
जि० जयु० ७४ इणि युगि किणिहिं भरावीआ, चोमुख जिनवर देव, जि०
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ते तो काछ-वागडनइ राजीइ, राय भारमलि कीलु हेव, जि० जयु० ७५ राइं निजनामि मंडावीआ, श्रीविजय चिंतामणि पास, जि० कुमति वाद हरावीआ, पुहुतीय तपगच्छ आस, जि०
जयु० ७६ तिणि वति (?) संप्रति इणि समइ, जिन तीरथ महिमावंत, जि० काछ मंडल मांहि प्रगटिउ, तिणि साहमीअ काछीअ हुंति, जि० जय० ७७
“अई नाढी" काछी भणइ, “पहिरि पूज्यो जिण च्यंग, जि० पोईं असीं पण पूज्यंदा", इम मेल करइ सहू संघ, जि० जय० ७८
ढाल [१०]
श्री पासनई दरबारि सुंदरी सहू मिली रे,
पाम्यु पाम्यु, हां जिनजीनुं पाम्युं पाम्युं परगट मुहुल६ रे,
अनोपम रूप निहालती रे,
इक नाचइ इक नाचइ, हां सहु संघ राचइ, हां
सहू संघ राचइ करणीक लोल रे, कीरति कलोल रे, निस्तरिआ निस्तरिआ भवसायर जिनवर दरिशनिं रे, भलि भेट्या, भलि भेट्या श्री जिन पास रे,
अह्म पहुती, अह्म पहुती मन केरी आस रे, निस्तरिआ० ७९ सुरतरु सुरमणी सुरगवी रे
कांइ आव्या, कांइ आव्या अझ घरबारि रे, विश्व(विजय?) चिंतामणि जिनवर पूजिआ रे,
भलि दीठं भलि दी रायविहार रे, निस्त० भलिं रे आव्या इणि काछ देसडइ रे,
भलिं दीढुं भलि दीठं नयर भुज सार रे;
९३
८०
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
धन्य धन्य राय भारमल्लजी रे, जिणि मांड्युं जिणि मांड्युं तीरथ उदार रे, नस्त० ८१ पूजी-प्रणमी श्री पासनई रे, संघ पुहुता, संघ पुहुता, निज निज ठामि रे; वंछित मनोरथ सहू फल्या रे, काइ राख्युं कांइ राख्यं जगत्रमा नाम रे, निस्त० ८२ धन धन रे तपगछपति चिति वस्या रे, अति२७ श्रीविवेकहर्ष मुनिराज रे; जिणि रे राय भारमल प्रतिबोधियो रे, तिणि मांड्युं तिणि मांड्युं तीरथराज रे, निस्त० ८३ एह तीरथ जगि जे नमि रे, तस पगि तस पगि प्रगटइ निधान रे; वंछित मनोरथ सवि फलइ रे,३८ इम बोलइ इम बोलइ पंडित प्रधान रे, निस्त० ८४
कलश
इम सकल तीरथ सबल समरथ
___ पास त्रिभुवननउ धणी, तपगछ जिणि जयकार दीधो,
तेणइ विजय चिंतामणि, भारमल्ल राजा वड दवाजा,
करी थाप्या जिनवरु, श्री विजयसेनसूरिंद सेवक
पण्डित परमाणंदकरु.
-x
पाठान्तर १. सेजवाली - मांपा., शु. २. धमकई - को. ३. सुहगुरु - मांपा. ४. पावसि-मांपा. ५. हिअडीवटि - मांपा. ६. कछिअ - मांपा. ७. सामहउ
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- मांख., सामठो - मांपा. ८. काछिणि - मांपा. ९. वांगड - शु. १०. चउबखेर - को., चोपखेर - मांपा., अ., शु. चोखफेर - मांख., ११. राखडो - मांपा. राखोलो - मांख., राखोडो - शु. १२. करडो - मांपा., कोरडो - मांख., शु. १३. साइ - मांपा. १४. अचिरज - मांपा., शं., अचरिज - मांख., अ., अचिरिज - को. १५. अची. मांख-, अचीइं-अ; आवि-मांपा. शु. १६. आंयु - मांपा. १७. धउर-अशु. १८. पंखी - मांपा., शु., को. १९. यायामणुं - मांपा. आंयामणु-शं., को., दयामणा - मांख. २०. च्याउरई - मांख., चाउरि - शुं. २१. आंबलींब - मांपा., शु. २२. सामी - मांपा. २३. पाणज्यउ - मांख. २४. संदो - मांख. २५. पदपंकज - मांपा., मांख., शु., २६. त्रय वार - मांपा. २७. आपिगां - मांपा. २८. गोडानी - अ., गढगी - मांपा. २९. मरहसी-मांपा., मरहठी-को. ३०. मांपा. मां दरेक चरणना अंते 'बरवइ सेव' एवा शब्दो छे. ३१. पोढइ - मांपा., पोढ-अ. ३२, करवु - को. ३३. तिमिरी-मांपा., तिमिरय - शु., को. ३५. झलमाल - मांपा. ३५. अमाणइ - मांपा., अमीणइ - मांख. ३६. महुल - मांख. ३७. मांपा. मां नथी. ३८. मांपा. अने मांख. मां आ चरण आम छे – सार रे पदारथ पुहवि पामीइ.
→6 आ चिह्न अंतर्गत कडीओ मात्र लाद. मां छे.
शब्दनोंध (कौंसमां कडी क्रमांक छे) मध्यकालीन गु. शब्दोसहजवाली (१) डमणी, गाडं पनुती (३)
पुण्यवंती छेकइं (३)
पूरेपूरुं पाउसि (४)
वरसादमां हइडावटि (५) निलवटि (५) कपाले झिकावता (६)
बेसाडता सहदेशीअ (७) स्वदेशना
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धुंसट्या (७) अंबराइ (१२) चुबखेर (१४) ठेपाडु (१९) फूली (२०) राखडी (२०) नागला (२१) मूंछ (२२) जाब (२५) छोति (२८) सांइ (२८) बूकइ (३०) अचिरय (३४,३७) माटी (३५) सालणइ (४०) साहमिणि (५४) ध्रमनेहि (५४) बलगाती (५४) जीरण (७४) मुहुल (७९) दवाजा (८५)
रंगायेला ? आंबवाडियु, अमराइ चारे बाजू लांबुं, पहोळु, जाडं कापड, स्त्रीओनुं अधोवस्त्र नाक, घरेणुं, चूनी सेंथामां पहेरवा, घरेणुं कान, घरेणुं मूर्ख छीछरा पाणीवाळी जमीन ? छूत, स्पर्शास्पर्श आलिंगन घूरके, घुरकाट करे नवाई, आश्चर्य पति शाक, व्यंजन वडे समानधर्मी स्त्री धर्मस्नेहथी
जूनुं
शोभा, ठाठ
क. ९
कच्छी शब्दो (कौंसमां वर्तमान कच्छी उच्चार आप्यो छे.) अशी (असीं)
अमे किं (की)
केम, शुं कहु (कॉ)
केम, शा माटे कुछीअ (कुछेआ, कुछइ) बोल्या, बोली
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खराब
वात अमाराथी, अमारी साथे तमारामां जबरी, माथाभारे
देखाती, देखशे मांगनार, मांगती आवीने मोढामां हा, हा
तमारो
भुझीअ (भुछी) गाल्यि, गालि (गाल) अशांशी (असांसे) आमई (आमें) झप्भरी (जभरी) ज्यंतती आछ्यां त्रांकड़-त्रांगड़ दिसंदी (डिसंधी)
मंगती (मंङ धल) क. ४३ अचीण (अचीने)
मुंहि (मोंमें) भोइ भोइ (भाँ भाँ) आंज्यो (आंजो) हेड़ी काहो (कयो)
गाला क. ४४ आंजी
पयरि बूझ्यउं (बुझुं) असइं (असीं)
निसगारी क. ४५ वाति
लख (लिख) लिखडी ( ) च्यंगो (चंगो) भक्खड़ (भुक्ख) भुच्छड़ (भुच्छो)
आवी करो
वात तमारी
जेम
जाणीओ अमे अपवित्र, गंदूं मोमां जराक, अल्प सारूं, खासुं सुंदर गरीब, कंगाल
दुष्ट
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
खाली
बंगो क. ४६ आयामणुं (?)
ठल्ला कोरु (कुरो) करिआं
च्याउरि (?) क. ४७ साह्मी
नाठी कोरो (कुरो)
उपभड़ क. ४८ बाबीओ
आदीयां (हिडीयां) इयड़ो (एडो) द्यइ (डे)
करूं चावल (?) (सिंधी-चांवर) साधर्मिक ज्ञातिबंधु; महेमान
असभ्य, आकरूं होलो पक्षी अहीं, आ बाजु आवो आपे -नो (षष्ठी विभक्ति) कमल ?
संदड़ो
क. ४९ कुंर (?)
उर (?) क. ५० मिड़ी (मिड़े)
अणथइ
बधा अनस्त (सूर्य आथम्या पहेलां जमी लेवानो नियम)
हवे
हाणइ (हाणे) क. ५२ पंज्य (पंज)
परवी
पांच पर्व
पोसु
पौषध
नाम
नालो सारिउं गंदमूर
संभारीए
कंदमूल मोढामां
वाति
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नाखीए
देशं
पूजशं
पाइउं क. ५३ असां डेह
अमारा देशमां मंझि (मिज)
अंदर, -मां आयइडेहि (आं-जडां) तमारा देशमां क्यहां (क्या)
क्या डेहर क. ७८ पहिरि
पहेला ? पोइ (पोय)
पछी अइं
तमे पूजिंदा (पूजींधा) क. २९ कोरो-कुज्याडउ
मारवाडी शब्दो तुथे (५४)
तमे माउए (?) (५६) दवाजा (५५)
शोभा, ठाठ जटइ (५६)
ज्यां तठइ (५६) लठी (५६)
क्यांय असड़ी (५८)
आवी
मराठी शब्दो क. ६२ काइ (काय)
हो, रे जेवो पादपूरक ?
___शब्द जणाय छे. सांगितुसि (सांगतोस) तुं कहे छे पासोबा
पार्श्वनाथ भगवान थोरला
त्यां
मोटा
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१००
क. ६३ लेके
क. ६४ कलले (कळले)
अइसाई
कथून (किथून)
अमीणि (७१) काणु (७१)
अनुसन्धान- ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
पुत्रे
जाण्या (?)
?
क्यांथी
सोरठी शब्दो
अमारुं
कोण
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राजा कुमारपालनी अमारि - घोषणानी गवाही आपता प्राचीन अभिलेखो
[नोंध : भावनगरना राजवी तख्तसिंहजीए डॉ. पीटर्सन द्वारा बे ऐतिहासिक ग्रन्थो तैयार करावेला. तेमां एक हतो : ' Collection of Prakrit and Sanskrit Inscriptions'. तेना पृ. १७३ पर “Stone - Inscription of the time of king Kumārpāla of Kerādu near Badamara in Mārwād. Dated Samvat 1209.” ए शीर्षक हेठळ एक अभिलेख छे. अने पृ. २०६ पर “Stone Inscription of Ratanpura under Jodhapur of the time of Kumārpāla." ए शीर्षक हेठळ बीजो अभिलेख छे. ते बन्ने लेखो त्रुटक छे. ते बन्ने लेखो अहीं आपवामां आवे छे. आ अभिलेखो, राजा कुमारपाले प्रवर्तावेल 'अमारि'नी साहेदी पूरे तेम छे. शी.]
अभिलेख १
१. संवत १२०९ माघ वदि १४ शनौ अद्येहश्री
२. रमेश्वरउमापतिवरलब्धप्रौढप्रताप
३. भूपालश्रीकुमारपालदेवविजयराज्ये ४. श्रीकरणादौ समस्तमुद्राव्यापारान् परिपं
५.
सश्रीकिराटकूपलाटह्रदशिवा
६.
देवः शिवरात्रिचतुर्द्दश्यां शुधिर्द ७. वृद्धये प्राणिनामभयप्रदानं म ८. कसमस्तप्रकृतीन्(ती:) संबोध्य अभय ९. यो[ : ] पक्षयोः अष्टमीएकादशीचतुर्दशी १०. रं एतासु तिथिषु नगरत्रयेऽपि जी[व] ११. वानां वधं कारयति करोति वासव्यापा १२. त् केनापि न लोपनीयं अपरं पुरोहितार्थं १३. षा अमारिरूढिः प्रमाणीकार्या ॥ य
निर्जितसकलराज
पश्रीमहादेवे श्री
राजाधिराज प
प्रभुप्रसादावा
महाराजश्रीआल्हण
पापे यशोऽति
राजतरावृत्ति
१०१
याशिरुभय
.. ह श्रेयोऽनंत
जा च व्यतिक्रम्य जीआचन्द्रार्कं याव
सर्वैरपरैश्च ए
कालेन क्षीयते
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
१४. फलं ॥ एष(त)स्याभयदानस्य क्षयं ......... त्वस्य प्रदत्ताभ१५. यदक्षिणा न तु विप्रसहस्रेभ्यो ......... कोऽपि पापिष्ठतरो जी१६. ववधं कुरुते तदा स पंचद्रम्मैर्दंडनीयः ......... नाहराज्ञि कस्यैको १७. द्रम्मोस्ति ५> स्वहस्तोयं महाराजश्रीअल्हणदेवस्य ........ महाराज
पुत्रश्रीकेल्हण १८. देवमतमेतत् ॥ + महाराजपुत्रसांधिविग्रहिक ठ० खेलादित्येन लि१९. खितमिदं ॥ श्रीनद्रलपुरवासिप्राग्वाटवंशप्रभूतशुभंकराभिधानः श्रावकः तत्पुत्रौ
क्षि२०. तितले धर्मतया विख्यातौ पूतिगशालिगौ ताभ्यामतिकृपापरावाराभ्यां प्राणिनाम
भयदानशा२१. सनं विज्ञप्य करापित(कारित)मिति ॥ छ ॥ उत्कीर्णं गजाइलेन
अभिलेख २ १. ॐ नमः शिवाय भूर्भुवःस्वश्चरं देवं वंदे पीठं पिनाकिनं स्मरति श्रेयसे
यस्तं ......... पुरा ......... समस्तराजा२. वलिविराजितमहाराजाधिराजपरमभट्टारकपरमेश्वरनिजभुजविक्रम(म)रणां
गणविनिज्जित ......... पार्वतीपतिवरलब्धप्रौढप्रतापश्रीकुमारपालदेव
कल्याणविजयराज्ये ३. स्वे स्वे वर्तमाने श्रीशंभुप्रसादावाप्तस्वच्छपूरत्नपुरचतुराशिकायां महाराजभूपाल
श्रीरायपालदेवान्महासनप्राप्त श्रीपूनपाक्षदेव-श्रीमहाराज्ञीश्रीगिरिजादेवी
संसारस्यासारतां ४. विचिंत्य प्राणिनामभयदानं महादानं मत्वा अत्र नगरनिवासी(सि)समस्तस्थाना
(न)पतिब्राह्मणान् समस्ताचार्यान् समस्तमहाजनान् तांबोलिकान् प्रकृति(ति)
किंकृती(ति)नः संबोध्य संविदितं शासनं संप्रयुंजति यथा अद्य अ५. मावास्यापर्व्वणि प्राणिनामभयदानशासनं प्रदत्तं स्या(स्ना)त्वा देवपितृमनुष्यान् __ केन संतर्प्य वारावार ........ पूर्दैवतां प्रस्व(सा)द्य ऐहिकपारत्रिकफल
मंगीकृत्य प्रेत्य यशोभिवृद्धये जीवस्य अमारिदानं ६. मासे मासे एकादश्यां चतुर्दश्यां अमावास्या[यां] उभयो[:] पक्षे(पक्षयोः)
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श्रेष्ठतिथौ भूसहायशासनोदकपूर्वं स्वित्परंपराभिः प्रदत्तं अस्मदीयभुवि भोक्ता
महामात्यः सांधिविग्रहिकप्रतीतस्वपुरोहितप्रभृति७. समस्तठकुराणां तथा सर्वान् संबोधयत्यस्तु वः संविदितं ......... कारापनाय
(करणाय) महाजनानां पणेन लिख्यते राज्ञा सभयं निग्रहणीयः श्रुत्वा शासनमिदमाचन्द्रार्क यावत् पालनीयं उक्तं च यथा व्यासेन बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमी तस्य तस्य तदा फलं सर्वानित्थं
भाविनः ९. पार्थिवेंद्रान् भूयो भूयो याचते रामचंद्रः सामान्योयं धर्म[से]तुर्नृपाणां काले
काले पालनीयो भवद्भिः अस्मद्वंशसमुत्पन्नो धन्यः कोपि भविष्यति तस्याहं करसंलग्नो न लोप्यं मम शासनं अमावास्यां पुण्यतिथिं
भांडप्रजा(ज्वा)लनं च [पौविकैः] कुंभकारैश्च नो कार्य १०. तासु तिथिष्ववज्ञाविभयः प्राणिवधं कुरुते तस्य शिक्षापनां दद्मि द्र ४
चत्वारि नडूलपुरवासी प्राग्वाटवंशजः शुभंकराभिधानः सुश्रावकः साधुधार्मिकः तत्सुतौ इह हि योनौ जातौ पूतिगसालिगौ तै (ताभ्यां) कृपा(पया)
प्राणिनामर्थे विज्ञप्य शासनं ११. 500 स्वहस्तः श्रीपूनपाक्षदेवस्य लिखितमिदं पारि० लक्ष्मीधरसुत ठ०
जसपालेन प्रमाणमिति ॥
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
केटलीक ऐतिहासिक - अप्रगट कृतिओ
- सं. मुनिसुजसचन्द्र-सुयशचन्द्रविजयौ प्राचीन इतिहासने वर्तमान समय साथे जोडती कडी रूपे जो कोईपण सामग्री आजे प्राप्त थती होय तो ते आपणा पूर्वाचार्यो द्वारा प्रणीत साहित्य, लेखित साहित्य तथा पूर्वपुरुषोए करावेलां स्थापत्यो. ते सामग्री भलेने जैनदर्शननी होय, बौद्धदर्शननी होय, के अन्य कोईपण दर्शननी होय परन्तु ते चोक्कस प्रमाणोने रजु करे छे. अत्रे तेवी ज केटलीक जैनदर्शननी ऐतिहासिक कृतिओ अने तेनो परिचय आपणे अनुक्रमे जोइशं. १. रत्नप्रभसूरिस्तोत्रम् :
प्रभु पार्श्वनाथनी श्रमणपरम्परामां शुभदत्त नामना गणधर थया. तेमनी पट्टपरम्परामां अनुक्रमे हरिदत्तसूरि - आर्यसमुद्रसूरि - श्रीकेशीगणधर - स्वयम्प्रभसूरि थया. तेमने विद्याधरेन्द्र रत्नप्रभसूरि नामना सवालाखश्रावकप्रतिबोधक - ओसवालज्ञातिस्थापक प्रभावक शिष्य हता. कवि देवतिलके प्रस्तुत कृतिमां तेमना जीवननी केटलीक महत्त्वपूर्ण बाबतोने काव्यमां गूंथी छे. मन्त्री आहडना पुत्रने सर्पदंश निवारी पुनजीवित कों, कोरंटानगरना अने उपकेशनगरना जिनालयमां योगबळे एक ज समये बे वीरबिम्बनी प्रतिष्ठा करी, सत्यिका देवीने सम्यग्दृष्टि करी इत्यादि प्रसंगो द्वारा गुरुभगवन्तना माहात्म्यनुं वर्णन करी अन्त्य पंक्तिओमां स्तोत्रपठनना फळनी कविए ओछा पण सुन्दर शब्दोमां वर्णना करी छे. प्रत सुन्दर छे. प्रतलेखन-पुष्पिका वांचवा जेवी छे.. २. हीरविहारविभूषण-श्रीऋषभदेवस्तवनम् :
सुरतना निझामपुरा विस्तारमा पू. उपा. नेमिसागरजीना उपदेशथी सं. १६७५ मां 'हीरविहार' नामना जिनालय, निर्माण थयु. मूळनायक तरीके आदिनाथ प्रभुना बिम्बनी प्रतिष्ठा थई. कविए प्रस्तुत कृतिमां ते आदिनाथ प्रभुनी स्तवना करता हीरविहारना स्थापत्यनी पण उडती नोंध मूंकी छे. कृतिमां कर्ताना नामनो स्पष्ट उल्लेख नथी. पण 'रत्नसुधाकर' शब्दथी रत्नचन्द्र (उपा०) आ कृतिना कर्ता होवानुं विचारी शकाय. कृतिनी रचना कई संवतमां थई ए विचारता प्रायः १६७५ आसपास ज थई हशे. कारण पू. उपा. रत्नचन्द्रजीए आ सालमां (१६७५ वै.सु. ८) हीरविहारमा उपा० विद्यासागरजी,
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उपा. लक्ष्मीसागर. अने उपा. नेमिसागरजीनी पादुकानी प्रतिष्ठा कर्यानी नोंध पू. धर्मदासजीए हीरविहारस्तवनमां करी छे.
आजे हीरविहारना जिनालयने सम्बन्धि कशी विगतो मळती नथी. अभ्यासुओने हीरविहारनी अन्य माहिती माटे हीरविहारस्तवन जोवा विनति. ३. हीरविजयसूरिस्वाध्याय :
क्यारेक कोई महात्माना संयमादि गुणोथी आकर्षाई विद्वानोए तेमना जीवन पर सौथी वधु कृतिओ रची होय तो ते जगद्गुरु हीरविजयसूरिजी म.सा. जेटली कृतिओ प्राप्य हशे तेमांनी घणीखरी कृतिओ संग्रहीत करी पू. महाबोधिविजयजीए हीरस्वाध्याय भाग १-२ मां प्रकाशित करी छे. छतां हजी घणी अप्रगट नानी-मोटी कृतिओ मळे पण छे. अत्रे एमांनी एक अप्रगट रचना प्रकाशित कराई छे.
पूज्य श्रीनी शिष्यपरम्परामां विद्याकुशल नामना कवि थया. तेमणे सं. १६१७मां चैत्र सुद ५ना दिवसे आ कृतिनी रचना करी छे. गुरुनाम गुम्फित करता कविए अनुक्रमे पू. आणन्दविमलसूरिजी, उपा. विद्यासागरजी, विजयदानसूरिजी, उपा. धर्मसागरजी, हीरविजयसूरिजी अने रूपऋषिजीनुं नाम गूंथ्युं छे. श्लोक ११ छे. कृति ठीक ठीक छे. ४. विजयप्रभसूरिस्तोत्र :
तपागच्छनी परम्परामां पू. हीरविजयसूरिनी पाटे सेनसूरिजी, तेमनी पाटे विजयदेवसूरि अने तेमनी पाटे विजयप्रभसूरि थया. कच्छना मनोहरपुरमां
ओशवालवंशीय सा. शिवगणनी भार्या भाणीनी कुक्षीथी सं. १६७७ माघ सु. ११ना तेमनो जन्म थयो. सं. १६८६ मां ९ वर्षनी नानी उमरे तेमणे दीक्षा लीधी. दीक्षा बाद वीरविजयना नामथी ओळखाता तेमने सं. १७०१ मां पंन्यासपद, १७१० मां आचार्यपद मळ्युं. आचार्यपदवी बाद विजयप्रभसूरिना नामथी तेओ प्रसिद्ध थया. प्राचीनमूतिना लेखो, ग्रन्थरचनानी/लेखननी पुष्पिकाओमां तेमनुं नाम वांचवा मळे छे. कविए तेमना गुणानुवादरूपे प्रस्तुत कृतिनी रचना करी छे. कमलबद्ध चित्रकाव्य रचवा द्वारा कविए पोतानी प्रतिभा पण रजू करी छे. कर्ता, नाम अहीं पण गुप्त छे. कर्ता वीरसागरना शिष्य छे. 'कृपाम्भो' शब्द जो कर्ताना नाम माटे विचारीए तो कृपासागर एवं नाम बनी शके छतां अन्य माहिती मळे चोक्कस करी शकाय.
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अनुसन्धान- ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
(५) धर्मलक्ष्मीमहत्तरास्तुति ( सटीक )
सरस्वतीव श्रीधर्म - लक्ष्मीजीयात् महत्तरा । सुवर्णलक्षजननी, प्रवीणा विधिसंयुता ॥१॥
उपकारीना ऋणने येन केन प्रकारेण प्रकटित करवुं ते हंमेशा सज्जनोनुं लक्षण रह्युं छे. ‘याकिनीमहत्तरासूनु' ए उपनामथी हरिभद्रसूरिजीए सा. याकिनीना, करुणावज्रायुधनाटकना रचयिता बालचन्द्रसूरिए 'धर्मपुत्र' ना विशेषणथी सा० रत्नश्रीजीना उपकारनुं जेम स्मरण कर्तुं तेमज उपरोक्त श्लोकना कर्ता ज्ञानसागरसूरिजीए पण विमलनाथचरित्रग्रन्थनी प्रशस्तिमां सा० धर्मलक्ष्मीना उपकारोने स्मरण करी आ श्लोक रच्यो हशे एम लागे छे. आ वातने पुष्ट करती अन्य एक नोंध मळे छे. ते धर्मलक्ष्मीमहत्तरास्तुति. (आ कृतिनी रचना पण ज्ञानसागरसूरि म.सा. नी होवानुं अमे मानीए छीए. कृतिना छेल्ला श्लोकमां वपरायेलो ‘ज्ञानादिरत्नाकर' शब्द ज्ञानसागर नामनो द्योतक छे.)
प्रस्तुत कृतिमां कविश्री साध्वीजी भगवन्तना गुणोनुं वर्णन करे छे. श्लेषकाव्यो, चित्रकाव्यो, विविधभाषाओ, विविध छन्दोमां रचायेली लाक्षणिक कृति खरेखर साध्वीजीना विशिष्ट व्यक्तित्वनो परिचय आपती होय तेम जणाय छे. संस्कृतभाषामां के गुर्जर भाषामा अन्य कोई साध्वीजी माटे आवी कृति मळती होय तेवुं प्रायः ख्यालमां नथी. कृति सुन्दर छे. कर्ताए मूळ साथे विषमार्थ करी कृतिने समजवामां सुगमता करी आपी छे. २
प्रस्तुत कृतिओनी झेरोक्ष आपवा बदल निम्नोक्त संस्थानो आभार
१.
श्रीसुरेन्द्रनगर जैन संघ ज्ञानभण्डार
२. आणंदजी कल्याणजी पेढीनो भण्डार लींबडी
-
३. श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानभण्डार पाटण
४. श्रीतपोवन जैन ज्ञानभण्डार नवसारी
५.
श्रीनेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर
-
सुरत
१. कृतिनी अन्तिम पंक्ति 'भावस्येप्सितसम्पदं च सुपदं देयात्' परथी तो कृतिना कर्ता भावसागर होय एम जणाय छे. - सं.
-
२. श्लो. १४-टीकानी अन्तिम पंक्ति ' ० निश्चितिः प्राक्तनवृत्तौ ज्ञेया' जोतां आव मूळकारे पोते कर्यो होय एवं नथी जणातुं. -सं.
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१. रत्नप्रभसूरिस्तोत्रम् ॥६०॥ श्रीमद्प्रभसूरिसद्गुरुभ्यो नमः ॥ वामेयपट्टे शुभदत्तनामा, तच्छिष्यजातो हरदत्तमुख्यः । आर्याम्बुधिः-केशि-स्वयंप्रभोऽपि, सूरीशरत्नप्रभू(भु)लब्धिपात्रम् ॥१॥ भव्यावलीकमलकाननराजभृङ्ग, श्री(श्रे)यःप्रवृत्ति(त्त)मुनिमानसराजहंसम् । श्रीपार्श्वनाथपदपङ्कजचञ्चरीकं, रत्नप्रभुगणधरं सततं स्तवीमि ॥२॥ विद्याधरेन्द्रपदवीकलितोऽपि कामं, श्रीमत्स्वयं प्रभुगिरः परिपीय योऽत्रः(त्र) । दीक्षावधूमुदवहन्मुदमादधानो, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥३॥ मन्त्रीश्वरो(रा)ऽऽहडसुतो भुजगेन दष्टः, सञ्जीवितः सकललोकसभासमक्षम् । यस्यांऽह्रिवारिरुहपुष्करसिञ्च(सेच)नेन, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥४॥ मिथ्यात्वमोहतिमिराणि विधूय येन, भव्यात्मनां मनसि तिग्मरुचेव विश्वे । सन्दशितं सकलदर्शनतत्त्वरूपं, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥५॥ येनोपकेशनगरे गुरुदिव्यशक्त्या, कोरण्टके च विदधे महती प्रतिष्ठा । श्रीवीरबिम्बयुगलस्य वरस्य येन, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥६॥ श्रीसत्यिका भगवती समभूत् प्रसन्ना, सर्वज्ञशासनसमुन्नतवृद्धिकी । यद्देशनारसरहस्यमवाप्य सम्यक्, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥७॥ गृह्णन्ति यस्य सुगुरोर्गुरुनाममन्त्रं, सम्यक्त्वतत्वगुणगौरवगर्भिता ये । तेषां गृहे प्रतिदिनं विलसन्ति पद्मा, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥८॥ कल्पद्रुमः करतले सुरकामधेनु-श्चिन्तामणिः स्फुरति राज्यरमाऽभिरामा । यस्योल्लसत्क्रमयुगाम्बुजपूजनेन, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥९॥ इत्थं भक्तिभरेण देवतिलकश्चातुर्यलीलागुरोः,
श्रीरत्नप्रभुसूरिराजसुगुरोः स्तोत्रं करोति स्म यः । प्रातः काम्य(व्य)मिदं पठत्यविरतं, तस्याऽऽलये सर्वदा
सानन्दं प्रमदेव दीव्यतितरां साम्राज्यलक्ष्मीः स्वयम् ॥१०॥
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
इति ओएसनगरे सपादलक्षश्रावका(काः) प्रतिबोधिता(ताः), ओएसवालज्ञातिः स्थापिता । तस्य स्तोत्रमिदं प्रातर्व्याख्यानपद्धतौ प्रत्यहं पठनीयम् ॥ संवत १९५८ रा मिति कार्तिक कृष्णपक्षे तिथौ १० म्यां भृगुवासरे लिप्यी(पी) कृतम् । पं. धीरसुन्दरेण ओएसकवलागच्छे वृद्धपौषधशालायाम् । लेखं भूयात् । सु(शु) भं भवतु । श्रीकल्याणमस्तु । श्री रस्तु । श्री ॥
२. हीरविहारविभूषण-श्रीऋषभदेवस्तवनम् ॥ए ई०॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ नत्वा श्रीगुरुचरणौ, स्मृत्वा श्रीशारदां च वरवरदाम् । स्तोष्ये हीरविहारं, तदनु च तद्भूषणं वृषभम् ॥१॥ विमलतोरणगोमटिकायुतं, विहितहीरगणाधिपपादुकम् । प्रतिदिनं वरसूरतिबन्दिरो-त्तममहेभ्यजनैः कृतभावनम् ॥२॥ सकलरत्नसुधाकरवाचक-विहितवासविधानप्रतिष्ठया । सुकृत-लब्धि-सुनेमिसुवाचक-त्रितयशोभनपादुकयाऽन्वितम् ॥३॥ प्रवरभूषणनागर-नागरी-विहितगीत-गुण-स्तुतिकं जनाः । महिमधाम जिनादिममण्डितं, नमत हीरविहारमनुत्तरम् ॥४॥ कमलकोमलकान्तिविराजितं, भविकभावुकसन्ततिकारकम् । ऋषभदेवजिनं गतदूषणं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥५॥ मदनतुङ्गमहीरुहवारणं, सकलविष्टपसंस्थितिकारकम् । भवपयोधिपतज्जनतारणं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥६॥ सुगुरुहीरमुनीश्वरसेवितं, विजयसेनगुरुत्तमसंस्तुतम् । विजयदेवगुरुप्रणतं सदा, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥७॥ युगलजन्मिजनावृषवारणं, प्रथमपात्रविहायितसाधनम् ।। प्रथममिक्षुरसाधिकपारणं, नमत हीरविहारविभूषणम् ।।८।। गजभयादिभयाष्टकवारणं, स्वकविहारपवित्रवसुन्धरम् । वरनवीनपुराग्रिममण्डनं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥९।।
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भरतभूपतिभूपतिसेवितं, तनुजबाहुबलीश्वरचर्चितम् । नववसुप्रमितोद्वहतारणं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥१०॥ जयजयारवबन्दिजनैः स्तुतं, सततवैणिकगीत्युपवीणितम् । विमलकेवलचारुविलोचनं, नमन हीरविहारविभूषणम् ॥११॥ गणधरादिमुनिव्रजमध्यगं, सकलजातिसुरैः कृतसेवनम् । विविधनाट्यविधानसुरञ्जितं, नमत हीरविहार विभूषणम् ॥१२॥ वरगुणावलिरत्नमहानिधि, सकलरत्नसुधारुचिना मुदा, स्तुतिपथं विनयादवतारितं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥१३।। ॥ इति श्रीहीरविहारविभूषण-श्रीऋषभदेवस्तवनं सम्पूर्णम् ॥छ।।
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जिनपादरतं
३. श्रीहीरविजयसूरिस्वाध्याय
श्री नन्दनरूपं | ध | रसारं । | श्री | सिद्धान्तनि । रू पणकारं, वन्दे हीरविजयगणधारं नन्दाकरवि द्या | धारं
वि द्वज्जनकृतध म | विचारं ही | नाचारनगे । प विधारं, वन्दे हीरविजयगणधारं दनदं भव
सा | गरपोतं | ज | यजयरवपर | सा | धुकपोतं | र त्नत्रयधारक | ऋषिसारं, वन्दे हीरविजयगणधारं रदावानलभं ग | सुनीरं । य | तिनाथं गुण | ग | णगम्भीरं वि | दितविपुलऋ षि भाषिते सारं, वन्दे हीरविजयगणधारं श्वसुरासुरव नतपादं
नदयाबलभ जितवादं ज | यकरपालित | पं चाचारं, वन्दे हीरविजयगणधारं दनवधैक उ | मेशसमानं | न | मेनरोत्तम । उ | त्तममानं य त्नभरेण विखं डि| तमारं, वन्दे हीरविजयगणधारं लनाजन[वि] | पा | तारं सू | नाबन्धन पा | तनिवारं | सू रकिरणखर | त पसाऽवारं, वन्दे हीरविजयगणधारं
मुखं सू रीश्वरमुकुटंध्या नेशं री | तिबलेनाऽ | ध्या | पितमेशं री | ण मोहभट | गु रुविस्तारं, वन्दे हीरविजयगणधारं रि पुसन्दोहविज । य निष्णातं | श | मकरं सु । य | शोविख्यातं श | मसुखदं सुरत रु अवतारं, वन्दे हीरविजयगणधारं निखिलमुनीशशिरोवतंसं नाथीकुक्षिसरोवरहंसं, साहकउंराकुलकजकासारं, वन्दे हीरविजयगणधारं ॥ गणधरविजयदानगुरुसीसं, भविजनपूरितचित्तजगीसं, विद्याकुशलकीरे सहकारं, वन्दे हीरविजयगणधारं ।।
॥ इति पं. विद्याकुशलकृतः श्रीहीरविजयसूरिस्वाध्यायः । सं. १६१७ वर्षे चैत्र शुदि ५ दिने कृतः ॥
अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
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श्रीहीरविजयसूरिस्वाध्याय श्रीजिनपादरतं विधुतारं, श्रीनन्दनरूपं धरसारम् । श्रीसिद्धान्तनिरूपणकारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥१॥ आनन्दाकरविद्याधारं, विद्वज्जनकृतधर्मविचारम् । हीनाचारनगे पविधारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥२॥ नन्दनदं भवसागरपोतं, जयजयरवपरसाधुकपोतम् । रत्नत्रयधारकऋषिसारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥३॥ दरदावानलभङ्गसुनीरं, यतिनाथं गुणगणगम्भीरम् । विदितविपुलऋषिभाषितसारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥४॥ विश्वसुरासुरवरनतपादं, दानदयाबलभरजितवादम् । जयकरपालितपञ्चाचारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥५॥ मदनवधैकउमेशसमानं, नम्रनरोत्तमउत्तममानम् । यत्नभरेण विखण्डितमानं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥६॥ ललनाजनविमुखं पातारं, सूनाबन्धनपातनिवारम् । सूरकिरणखरतपसाऽवारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥७॥ सूरीश्वरमुकुटं ध्यानेशं, रीतिबलेनाऽध्यापितमेशम् । रीणमोहभटगुरुविस्तारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥८॥ रिपुसन्दोहविजयनिष्णातं, शर्मकरं सुयशोविस्तारम् । शमसुखदं सुरतरुअवतारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥९॥ निखिलमुनीशशिरोवतंसं, नाथीकुक्षिसरोवरहंसम् । साहकउंराकुलकजकासारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥१०॥ गणधरविजयदानगुरुसीसं, भविजनपूरितचित्तजगीसम् ।। विद्याकुशलकीरे सहकारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥१०॥
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अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
४. विजयप्रभसूरिस्वाध्याय
॥ए८०॥ श्रीतपगणपुष्करसवितारं, विहितविधिशास्त्रार्थविचारम् । जनतागेययशोविस्तारं, यतिततिसूचितशुद्धाचारम् ॥१॥
सेवाकृल्लोक(का)खित(ल) नारं, नयनानन्दकरं सुविहारम् । सूर्याधिकतेजोविस्तारं, री (रि) क्तीकृतकल्मषकासारम् ॥२॥ श्रीजिनशासनवरशृङ्गारं, विकचकमलदललोचनसारम् । जनितजगज्जनसौख्यमुदारं, यतनाकामिनीकण्ठे हारम् ॥३॥
देशनाजलवर्षणजलधारं, वरतरपूर्वमुनिव्रतधारम् । सूरिगुणावलिभाण्डागारं, रिपुमित्रादिषु तुल्याकारम् ॥४॥
परमतवृक्षभिदैककुठारं, टालितमोहमहाभटचारम् । लम्भितभव्यभवोदधिपारं, कामितपूरणवरमन्दारम् ॥५॥ रजनीकरसमवदनाकारं, हास्यादिकनवकृतपरिहारम् । रञ्जितसकलसुरासुरवारं, श्रीउपशमरसभृतभृङ्गारम् ॥६॥ विशददशनतती(ति)जितशुचिहारं, जयविजयाद्भुतभाग्याधारम् । यशसा सु (शु) भ्रितविश्वागारं प्रकटितपरमजिनागमसारम् ॥७॥ भक्तजनद्रुमवृद्ध्यासा(धा)रं, सूक्ष्मेतरजन्तूक्षरतारम् ।
नभोभरग्रहनेतारं, मनसाऽप्युज्झितकामविकारम् ॥८॥
हस्तविहितविद्वज्जनवारं, मीमांसादिकशास्त्राधारम् । लेखावन्दितपादमुदारं, वन्दे प्रथमाक्षरगणधारम् ॥९॥ इत्थं सत्कमलप्रबन्धघटित श्रेयः स्तवैयः स्तुत:, श्रीमच्छ्रीविजयप्रभाभिधगुरुर्भूपालमालार्चितः । प्राज्ञः श्रीवरवीरसागरपदाम्भोजन्मसेवाकृतो, भावस्येप्सितसम्पदं च सुपदं देयात् कृपाम्भोनिधिः ॥१०॥
॥ इति कमलबन्ध [विजयप्रभसूरि ] स्वाध्याय ॥छ||छ||श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥
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५. धर्मलक्ष्मीमहत्तरास्तुति (सटीक) ॥ए ६०॥ प्रणम्य विज्ञातसमस्तभावं, श्रीस्तम्भनाधीशमुरुप्रभावम् ।
महत्तरां नौमि गुणैरुदारां, श्रीधर्मलक्ष्मी विजितासदाराम् ॥१॥ १. विजितं असत्-अप्रधानम्, आरं-अरिसमूहो यया ।
रत्नाकरप्राप्तपर्दाऽर्थदोत्री, नालीकवासा जिनं भक्तिक: ।
या राजते मूर्तिमतीव लक्ष्मी-महत्तरा नन्दतु धर्मलक्ष्मीः ॥२॥ १. रत्नाकराभिधे गच्छे प्राप्तं पदं-स्थानं यया । २. अर्थः - शास्त्रार्थः, द्रव्यं च । ३. अलीक:-मिथ्या वासो यस्याः सा अलीकवासा, सा ईदृशी न । लक्ष्मीपक्षे नालीके
कमले वासो यस्याः । ४. जिनः - वीतरागः, कृष्णश्च ।
बहुधान्यहितां वरसंवरदां, जिनसत्क्रमगां सुविचारपदाम् ।
विबुधा हि भजन्ति यदीयगिरं, खर्धनीमिव जीवतु सा सुचिरम् ॥३॥ १. खधुनीमिव गङ्गामिव । २. बहुधा-[बहु]प्रकारेण अन्येभ्यो जीवेभ्यो हिता-हितकर्ची, पक्षे बहुभिर्धान्यैः-सस्यैर्हिता । ३. संवरः-आश्रवनिरोधः, पक्षे शम्बरं-पानीयं, दन्त्योपदिष्टं तालव्यस्याऽपि इति न्यायात्,
बवयोरेकत्वाच्च । ४. जिनस्य-वीतरागस्य क्रमः-आचारः, तं गच्छतीति, पक्षे जिनस्य-कृष्णस्य क्रमः लक्षणया
दक्षिणः पादः, तस्माद् गच्छतीति । ५. सुविचारं पदं स्याद्यन्तं त्याद्यन्तं यस्यां सा, पक्षे शोभनो यो वीनां-हंसादिपक्षिणां चारः
परिभ्रमणम्, तस्य पदं-स्थानं यस्याम् । ६. विबुधाः-विद्वांसः, देवाश्च ।
वरालकृतिर्भव्यभावाभिरामा, सुविन्यस्तपादा स्वैरव्यञ्जनाढ्या ।
नरीनर्ति कालन्दिका नर्तिकीवद्, यदीयास्यवेश्मागणे साऽस्तु भूत्यै ॥४॥ १. अलङ्कृतिः-अलङ्कारशास्त्रम्, पक्षे विभूषणम् । २. भावा-भाग्यरूपा, पक्षेऽनुभावाः । ३. शोभनाः विन्यस्ताः पादाः श्लोककाव्यादिविरचनया यस्यां, पक्षे पादौ-चरणौ । ४. स्वराः-१४ व्यञ्जनानि-३३ तैराढ्या, पक्षे स्वरस्य-[शब्द]स्य व्यञ्जनं-प्रकटनम्,
तेनाऽऽढ्या-समृद्धा ।
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
५. कालन्दिका-सर्वविद्या ।
विशिष्टकाष्ठां प्रगुणैर्गुणैः श्रितां, सदापि चारित्रभृतां निराश्रवाम् ।।
भव्या ! भवाब्धि तरितुं तरीमिव, श्रयध्वमेतां नितरां महत्तराम् ॥५॥ १. काष्ठाः- नियमाः, पक्षे काष्ठं-लकुटम् । २. गुणाः- क्षान्त्यादयः, पक्षे दवरकाः । ३. सदापि चारित्रेण-सदाचारेण भृता, पक्षे च-पुनः, सदापि अरित्रैः-आउलकै ता(?) । ४. आश्रवः- पापद्वाराणि, छिद्राणि च ।
वरैर्गो भरैः कौमुदं भासयन्ती, हरन्ती तमः शैत्यमुल्लासयन्ती ।
लसच्चन्द्रगच्छाम्बरे चन्द्रलेखा-वदाभाति सैषा सती प्राप्तरेखा ॥६॥ १. गौः- वाणी, गावः किरणाश्च । २. कौ- पृथ्व्यां मुदं-हर्ष भासयन्ती-प्रकटयन्ती, पक्षे कुमुदानां समूहः कौमुदम् । ३. तमः- पापम्, अन्धकारं च । ४. शीतस्य भावः शैत्यम् ।
हंसलीना सदा वै बुबंधोपासिता, सद्विधिर्वर्यशुभ्राम्बरोद्भासिता ।
सा प्रवीणोत्तरा राजते सारदा-ऽध्यक्षलेक्षेव शास्त्रावली सारदा ॥७॥ १. हंसा:-परमात्मा, राजहंसश्च । २. वै-निश्चितं बुधैः- विद्वद्भिपासिता, पक्षे विबुधानां-देवानां समूहो वैबुधम् । ३. विधिः-आचारः, ब्रह्मा च । वर्याः शुभ्राम्बरा:-श्वेताम्बराः तेषूद्भासिता-प्रकटिता, पक्षे
वर्य-श्रेष्ठं शुभ्रं-श्वेतम्, अम्बरं-वस्त्रं [यस्याः सा] । ४. प्रवीणेषु-विद्वत्सु उत्तरा-उत्कृष्टा, पक्षे प्रकृष्टवीणया उत्तरा । ५. अध्यक्षलक्षा-प्रत्यक्षलक्षा सारदेव ।
शुद्धवंशोद्भवा सङ्ग्रहीताऽऽशये, सुक्षमाभृद्भिद्यद्गुणंभ्राजिता । यज्जयत्यत्र सत्कोटिशिष्टा' परान्, धर्मलक्ष्मीश्च तत्साम्प्रतं साम्प्रतम् ॥८॥
[व्यर्थकाव्यानि] १. शुद्धो वंश उपकेशरूपः पक्षे वंशः । २. क्षमाभृद्भिः-साधुभिः आशये-चित्ते गृहीता । पक्षे [क्षमाभृद्भिः] राजभिः शये-हस्ते
गृहीता। ३. गुणा:- क्षमादयः [पक्षे गुणो ज्या] ४. सत्कोटिषु-उत्तमकोटिषु शिष्टा, पक्षे सत्-प्रधानम्, कोटिः अग्रविभागम् ।
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५. धर्मलक्ष्मीर्यत्परान् वादिनो जयति तत्साम्प्रतं अधुना साम्प्रतं-युक्तम्, अन्याऽपि धर्मस्यधनुषो लक्ष्मीः परान्-वैरिणो जयति ।।
मोहभूमिरुहमाथदन्तिनी, साधुसाररसवारिवाहिनीम् ।
मङ्गलावलिलतावसुन्धरां, संनुवामि सततं महत्तराम् ॥९॥ १. साधूनां सारः-उत्कृष्टो रसो शान्तरसः, स एव वारि-पानीयं, तस्य वाहिनीं-नदीम् । विश्वविसारिविशालयशःश्रीः१, सर्ववॉवरिवर्यवरांहिः । संवरशस्यशरीरविलासा, सेह शिवाय सुशीललया वः ॥१०॥
[पञ्चवर्गपरिहारकाव्य] १. विश्वे विसारिणी-प्रसरणशीला विशाला-विस्तीर्णा यशःश्रीर्यस्याः । २. सर्ववशाभिः-स्त्रीभिर्वरिव?-सेव्यावंही यस्याः । ३. संवरेण शस्यः शरीरविलासो यस्याः सा ।
पूज्याः के जगतां ब्रवीति कृपणः, किं मार्गणैर्मागितौ ?, धातोस्त्यादिविभक्तिषु स्फुटतरं, का साध्यते शाब्दिकैः ? । धन्यैः कोऽर्थिषु दीयते सुनृपतेः, सेना भवेत् कीदृशी ?, कीद्ग् भाति महत्तरा कविवरा, ज्ञानक्रियाराजिता ॥११॥
[प्रश्नोत्तरम्] या जैनक्रमवासिनी सुचरणांभोगं दधाती हया, पारं याति कदा गुरुर्गुरुमतिर्यस्या महिम्नोऽपि नो । सा निःसीमरुचिविभाति हि सदा-ऽरागस्थिति /५ बिभ्रती,
गङ्गावद् गजराजवद् गगनवद्, गङ्गेयवद् गेयवत् ॥१२॥ १. जैनक्रमौ-वीतरागपादौ, गङ्गा पक्षे विष्णुपादौ । २. चरणं-चारित्रं, गज[पक्षे] पादाः । ३. निःसीमा रुचिः-सम्यक्त्वं यस्याः, गङ्गे० [गाङ्गेयपक्षे]रुचिः-कान्तिः । ४. सदाऽरागस्थिति-नीरागावस्थाम् । ५. गेय(पक्षे) श्रीरागाया पुर अरागास्तेषां स्थितम् ।
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
भवे भ्रमन्तः कटुकण्टकाकुले, दुःपापसन्तापहरामभीष्टदाम् । महत्तरामाप्य जना वदन्त्यहो !, विलोकिता कल्पलता करीरके ! ॥१३।।
[समस्याद्वयम्] १. करीरतुल्यो भवः, कल्पलतातुल्या महत्तरा ।
श्रीशुभसौख्यभृता', नरसत्तमसिंहसुतारे, णंदउ सा सययं, जणदंसिदधम्मपधा ।' वालियमालविया - लभला' ततनातवरा,
मंकलवालकरा, नदलोगविसोगहरा ॥१४॥ [अष्टभाषामयम्] १. श्रीः-लक्ष्मीः, शुभं-पुण्यं, सौख्यं-सुखं, तै ता । २. नरेषु सत्तमसिंहः स्वपिता, तस्य सुता, एषा समसंस्कृता । ३. नं(ण)द०...., एषा प्राकृता । ४. जनानां दर्षि(शि) तो धर्मपथो यया, एषा सौ(शौ)रसेनी । तो दोऽनादौ
सौ(शौ)रसेन्यामयुक्तस्य[सि.८/४/२६०] अनेन सौ(शौ)रसेन्यां तस्य दः । 'थो धः'
[सि.८/४/२६७] अनेन थस्य धः । ५. वारितो मारस्य-कन्दर्पस्य विकारभरो यया । 'रसोर्लशो' [सि.८/४/२८८] अनेन रस्य
लः, एषा मागधी । ६. ततः-विस्तीर्णो नादः शब्दः, तेन वरा । 'तदोस्तः' [सि.८/४/३०७] अनेन तस्य दस्य
च तः, एषा पैशाची । ७. मङ्गलस्य वारं-समूहं करोतीति । 'तृतीयतुर्ययोराद्यद्वितीयौ' [सि.८/४/३२५] अनेन
तृतीयस्य गस्य स्थाने आद्यः कः स्यात् । 'रस्य लो वा' [सि.८/४/३२६] अनेन
विकल्पेन रस्य लः, एषा चूलिकापैशाची । ८. नतानां लोकानां विरु(?)शोकं हरतीति । 'स्वरादसंयुक्तानां कखतथप-फां गघर(द)धबभाः'
[सि.८/४/३९६] अनेन तस्य दः, कस्य गः । एषा अपभ्रंश भाषा । आसां भाषाणां
निश्च(श्चि)तिः प्राक्तनवृत्तौ ज्ञेया । यतिनामछन्दसा काव्यम् :
एवं श्रीगुरुरत्नसिंहमुनिपात्, प्राप्तप्रतिष्ठापदा,
सौभाग्योदयवल्लभा कृतशुभा, ज्ञानादिरत्नाकरः ।
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जीयात् सत्करुणा बुधैः स्तुतगुणा, श्रीरत्नचूलान्वय
व्योमद्योमणिभानिभा भगवती, श्रीधर्मलक्ष्मीरसौ ॥१५॥ १. ज्ञानादिरत्नानां आकरः शब्द आदि अष्टलिङ्गः(?) । शेषं स्पष्टम् ।
॥ इति महत्तरा स्तुतिः ॥ ग्र = २२ अ = १२ ॥
___C/o. अश्विनभाई संघवी कायस्थ महोल्लो, गोपीपुरा,
सूरत-१
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सं. मुनिसुजसचन्द्र - सुयशचन्द्रविजयौ
आत्मज्ञाननी सर्वश्रेष्ठ कक्षाए पहोंचेला श्रेष्ठयोगीनी तत्वप्रचुर संवेदना एटले पू. देवचन्द्रजीनी स्तवनावली, अथवा बीजी रीते विचारीए तो सूक्ष्म पदार्थोनो रसास्वाद करावती सुमधुर पद्य रचनाओ.
कवि देवचन्दजीनी एक अप्रगट रचना "रत्नाकर पच्चीसीभास"
प्रस्तुत कृति पू. देवचन्द्रजीनी तात्त्विक रचनाओमांनी एक अप्रगट रचना छे. पू. रत्नाकरसूरिजीए युगादीश श्री आदिजिन समक्ष दोषोनी आलोचना करता ‘रत्नाकरपञ्चविंशिका' नामनी संस्कृत कृतिनी रचना करी. पू. देवचंद्रजीए मूळ संस्कृत पद्योना भावोनुं उद्धरण करी गुर्जर पद्यानुवाद रूपे सौ प्रथम 'रत्नाकर पञ्चविंशिका भास" नामनी कृतिनी रचना करी.
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अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
कृतिमां कुल ३४ पद्यो छे. तेमां २८ पद्यो सुधी मूळ संस्कृत कृतिना भावोनो अनुवाद करी अन्त्य पद्योमां जिनमतविरुद्ध प्ररूपणा, 'तत्त्वप्ररूपक' उपमाथी गर्व जेवा जेवा विशेष अतिचार ( दोषो) पर प्रकाश पाड्यो छे. कृतिना अन्तमां पोतानी गुरुपरम्परा नोंधी ग्रन्थनुं समापन कर्तुं छे.
रोग
देवचन्द्रजीना जीवनचरित्र उपर तथा तेमना साहित्य ऊपर घणुं साहित्य प्रकाशित थयेलुं छे. माटे ते माटे ते कृतिओ जोइ लेवा जिज्ञासुओने निवेदन छे.
शब्दकोश
१. गद =
२. दाव = अनुकुळ समय, लाग
३. मावीत्र = माता-पिता
४. रस्य = रस
५.
चूंप = ? ६. परिपदा ७. घूसियो :
=
उपनाम / पदवी(?)
८. धायुं = ध्यायुं - ध्यान कर्यं
९. कल्या = जाण्या
१०. कोज्य =
११. विट
=
व्यभिचारी माणस
जेल ?
१२. कारा = १३. निदांन = कारण
१४. आश्चर =
आश्चर्य(?)
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ऐं नमः
अहँ नमः
॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ श्रेयश्रीरतिगेह छो जी, सुरनरपती नतपाय सर्वजांण अतीसंनिधिजी, जय उपयोगी अभाय
जगतगुरू ! विनतडी अवीधार. १ जगआधारक पामयिजी, नीकारण जगबंधु, भववीकारगद टालवाजी, वैद्य छो गुणसिंधु, जगतगुरु !..... २ जांण भणि जे भाख्यवोजी, ते तो भोलीमभाव, पिण अशुधता आपणीजी, वीनवीये लही दाव', जगतगुरु !..... ३ मावीत्र३ आगे बालकेजी, स्यूं जि जैन कहाय, साचूं पश्चातापथीजी, निज आसय कहेवाय, जगतगुरु !..... ४ दान-सीयल-तप-भावनाजी, जीन आणाए न किध वृथा भम्यो भवसायरेजी, आतमहित नवी लीध, जगतगुरु !..... ५ क्रोध अग्नी दाध्यो घणोजी, लोभ मोहोरग दृष्टि, मांन ग्रह्यो माया कल्योजी, केम सेवू परमेष्ठि, जगतगुरु !..... ६ हीत न कर्यो में परभवेजी, इहां पिण नहीं सुख चूंप (?), हो प्रभू ! अम भव सत्यकथाजी, केवल पूरणरूप, जगतगुरु !..... ७ प्रभूमुखचंद्र संयोगथिजी, माहानंद रस्य जोर, नवि प्रगट्यो तेणे वज्रथिजी, मुझ मन अतिय कठोर, जगतगुरु !..... ८ भव भमियो दुर्लभ लहिजी, रत्नत्रय तुम साथ, ते हारी निज आलसेजी, किहां पूकारुं नाथ, जगतगुरु !..... ९ मोहविजय वैराग्य जे जी, तेह पररंजन काम, निज पर तारण देसनाजी, ते जनरंजन ठांम, जगतगुरु !..... १० विद्यातत्त्व परिपदाजी, ते परजिपणढाल, परमदयाल केति कहूंजी, मुझ हासानी चाल्य, जगतगुरु !..... ११ परनंद्या मुख दुहव्योजी, परदुख चिंत्यो रे मन, पर अस्त्री जोवे आंखडिजी, किंम थासे हुं धन्न, जगतगुरु !..... १२
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
कांम वषे विषय पणेजी, भोग विडंबनि वात, ते सूं कहिये लाजताजी, जांणो छो जगतात, जगतगुरु !..... १३ परमात्मपद निपजेजि, श्रीनवकार प्रभाव, ते कुमंत्रे घूसियों जि, इंद्रिसुखने हाय(व), जगतगुरु !..... १४ । श्रीजिनआगम दुखव्योजी, करी कुशास्त्रनो संग, अणाचार अति आचरंजी, भूले कुदेवनो संग, जगतगुरु !..... १५ द्रष्टिप्राप्य प्रभूमुख तजीजी, धार्यु नारिरूप, घहन विषयविषधुम्रथिजी, न ग्रयूं आत्मस्वरूप, जगतगुरु !..... १६ मृगनयनि मूख निरखतांजी, जे लाग्यो मन राग, न गयो सु(श्रु)तजल धोयतांजी, कुंण कारण माहाभाग्य, जगतगुरु !..... १७ अंग चंग गुण नवि कल्यांजी, नवि वर प्रभुता रे काइ, तो पिण माचूं लोकमाजि, मानविडंबित कांइ, जगतगुरु !..... १८ प्रतिक्षण आओखो घटेजि, न घटे पातिक बुध, जोवनवय जातां थकाजि, विषयाभिलाष प्रवृधि, जगतगुरु !..... १९
ओषधनु रखवालवाजि, सेव्या आश्रव रकोज्य'० (?) पिण जैनधर्म न सेवियोजि, है ! है ! मोह मरोज्य, जगतगुरु !..... २० जिव-कर्म-भव-सिव नही[जी], विटमूखवांणि रे पिघ तुज केवलरवि ओगयेजि, आप संभाल न लिध, जगतगुरु !..... २१ पात्र भकति जिन पूजनाजी, नवि मुनी-श्रावकधर्म, रत्नविलाप पेरे कर्योजी, मुझ माणसनो जन्म, जगतगुरु !..... २२ जिनधर्म सुख फरसतांजि, सेववा विषय विभाव, सुरमणि-सुरघट एहनांजि, ए छे मूढ सभाव, जगतगुरु !..... २३ भोगलीला ते रोग छे जी, धन ते निधन समांन, दारा कारा१२ नरकनिजी, न विचायूँ ए निदांन१३, जगतगुरु !..... २४ साधूआचार न पालियोजि, न कों पर उपगार, तिरथउधार न निपन्योजि, ते गयो जन्मारो हार, जगतगुरु !..... २५ दूरिजन वचन खमे नहिजी, सूतजोगे न विराग, लेस अध्यात्म नवि रम्योजि, किम लहस्यूं भवत्याग, जगतगुरु !... २६
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न को धर्म गये भवेजी, करवू पिण अतिकष्ट, वृतमांन भवरागताजी, तेणे गण्य भव नष्ट, जगतगुरु !..... २७ प्रभु आगल सुं दाखवूजि, मुझ आश्चर१४ परिवार, तिनकाल जीण ! जांण छो जी, तरियो तुज आधार, जगतगुरु !..... २८ भद्रक बुद्धे मुनि नमेजि, तेहमां हरखं रे आप, मुनिपद हासि करुंजी, ते सगलो संताप, जगतगुरु !..... २९ जिनमत वितथ परूपणाजी, करतां न गणि भित, जस-ईंद्रीसुख लालचेजी, किधो काल वति(ती)त, जगतगुरु !..... ३० तत्वातत्त्व गवसणाजी, करवू पिण अतिदूर, तत्वपरूपक मानथि जि(जी), विस्तार्यो भव भूर, जगतगुरु !..... ३१ तुम सम दिनदयालूओजि, नवि बिजो जिनराज, दयाठांम मुझ सरिखोजि, छे बिजो कुण आज, जगतगुरु !..... ३२ श्रीसीधाचलमंडणोजि, रिषभदेव जिनराज, रत्नसागरसूरि स्तव्योजि(जी), निर्मल समकितकाज, जगतगुरु !..... ३३ निज नाण-दर्सण-चरण-वि(वी)रज, परमसुख रयणायरो, जिनचंद्र नाभिनरिंदनंदन, त्रिजगजिवन भायरो, उवज्झायवर श्रीदि(दी)पचंद, सिस गणी देवचंद्र ए संगभक्ती भविक जिवने, करो मंगलवृंद ए ॥ जगतगुरु !.....३४
॥ इति श्री रत्नागर पच्चीसीनी भास संपूर्णः ॥
-x
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
श्रीरूपचदमुनिकृता साध्वाचारषट्त्रिंशिका ॥
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
जैन मुनिना आचारोने लईने प्रार्थना के भावनारूपे रचाएली शान्तरस नीतरती एक सुन्दर शुद्धप्राय काव्यरचना अहीं प्रस्तुत छे. 'साधुपदना शुद्ध आचारोनुं पालन करवानो अने ते रीते आत्मकल्याण साधवानो अवसर मने क्यारे मळशे ?' आवी प्रभु-प्रार्थना ए आ लघु काव्यनो प्रधान सूर छे. छ जीवकायोनी रक्षा, पांच व्रतो, पालन, नव ब्रह्मचर्यनी वाडो, पांच इन्द्रियोनो विषयोपभोग, रात्रिभोजनत्याग, इत्यादि विषयोनुं विशद अने प्राञ्जल भाषामां अहीं वर्णन थयुं छे. ३४ पद्यो शिखरिणी छन्दमां अने छेल्लुं पद्य स्रग्धरामां रचायुं छे. वर्णन हृदयस्पर्शी अने प्रेरणादायी छे.
आना रचयिता 'रूपचन्द्र' छे तेवं अन्तिम पद्यथी जाणवा मळे छे. ते साधु छे के गृहस्थ ?, तेमनी परम्परा कई ? समय कयो ? वगेरे मुद्दे कोई खुलासो मळतो नथी. सम्भवतः खरतरगच्छमां थयेला अने 'गौतमीय महाकाव्य'ना प्रणेता वाचक रूपचन्द्र ते ज आ होय तेवू, तेमनी काव्यरचना जोईने मानवानुं मन थाय छे. ते अटकळ साची होय तो तेमनो सत्तासमय १९मो शतक हतो ते निश्चित छे. आ प्रति प्रमाणमां शुद्धप्राय छे, तेनो लेखन संवत् १९६२ छे.
भावनगरनी जैन आत्मानन्द सभामांना मुनि भक्तिविजयजीना ग्रन्थसङ्ग्रहगत प्रतिनी, त्यांथी प्राप्त थयेल जेरोक्स नकलना आधारे अहीं सम्पादन करवामां आव्युं छे. नकल आपवा बदल सभाना कार्यवाहकोनो आभार मानुं
छु
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
श्रीरूपचदमुनिकृता साध्वाचारषट्त्रिंशिका ॥
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
जैन मुनिना आचारोने लईने प्रार्थना के भावनारूपे रचाएली शान्तरस नीतरती एक सुन्दर शुद्धप्राय काव्यरचना अहीं प्रस्तुत छे. 'साधुपदना शुद्ध आचारोनुं पालन करवानो अने ते रीते आत्मकल्याण साधवानो अवसर मने क्यारे मळशे ?' आवी प्रभु-प्रार्थना ए आ लघु काव्यनो प्रधान सूर छे. छ जीवकायोनी रक्षा, पांच व्रतो, पालन, नव ब्रह्मचर्यनी वाडो, पांच इन्द्रियोनो विषयोपभोग, रात्रिभोजनत्याग, इत्यादि विषयोनुं विशद अने प्राञ्जल भाषामां अहीं वर्णन थयुं छे. ३४ पद्यो शिखरिणी छन्दमां अने छेल्लुं पद्य स्रग्धरामां रचायुं छे. वर्णन हृदयस्पर्शी अने प्रेरणादायी छे.
आना रचयिता 'रूपचन्द्र' छे तेवं अन्तिम पद्यथी जाणवा मळे छे. ते साधु छे के गृहस्थ ?, तेमनी परम्परा कई ? समय कयो ? वगेरे मुद्दे कोई खुलासो मळतो नथी. सम्भवतः खरतरगच्छमां थयेला अने 'गौतमीय महाकाव्य'ना प्रणेता वाचक रूपचन्द्र ते ज आ होय तेवू, तेमनी काव्यरचना जोईने मानवानुं मन थाय छे. ते अटकळ साची होय तो तेमनो सत्तासमय १९मो शतक हतो ते निश्चित छे. आ प्रति प्रमाणमां शुद्धप्राय छे, तेनो लेखन संवत् १९६२ छे.
भावनगरनी जैन आत्मानन्द सभामांना मुनि भक्तिविजयजीना ग्रन्थसङ्ग्रहगत प्रतिनी, त्यांथी प्राप्त थयेल जेरोक्स नकलना आधारे अहीं सम्पादन करवामां आव्युं छे. नकल आपवा बदल सभाना कार्यवाहकोनो आभार मानुं
छु
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रूपचन्द्रमुनि-रचिता साध्वाचारषट्त्रिंशिका ॥
श्री पार्श्वनाथाय नमः ॥
गृहीत्वा वैराग्यं गृहपरिगृहीत्या' विरहितो भवेयं श्यत्राहं गिरिवनगुहावासमुदितः । प्रसादात् ते॰ पौपापगमजनितान्मे जिन[प]ते ! धृतोत्साहं सिद्धौ किमपि सुदिनाहं भवतु तत् ॥१॥ कदाचिन्मा प्रापत् कमपि परितापं विरहतो मदसीनात् सुप्तादपि सकलराशिस्तनुभृताम् । क्षमन्तां वा जीवाः प्रथममपराधं बहुकृतं ममाऽमीभिर्मैत्रीमिति मुनिपते ! त्वं प्रकटयेः ॥२॥ प्ररक्षन् वा ৺यस्मिन्नलघुलघुजन्तून् स्थिरचरान् दयाविष्टो दृष्ट्या युगमितधरित्रीं परिमृजन् । व्रती वर्तया(न्या?)ऽहं पथि भगवदाज्ञानतिर्गत: स मे भूयात् स्वामी शमरसमयः कोऽपि समयः ॥३॥ स्वर-श्वासस्पर्शादधृतिमिह मा धाद् गुरुजनो
मुखं वासःखण्डावृतमुचितमित्येव वदतः । प्रशस्याचारश्चेदयमहमपि प्राणिनिचयप्रसत्त्यर्थं यत्नं जिनवर ! धराणि प्रणिगदन् ॥४॥ विविच्यादौ दोषाञ् श्रुतपरिचितानुद्गममुखान् गृहिभ्यो गृण्हीयां किल किमपि पिण्डं शुचितरम् । कदा कारुण्याब्धे ! यमनियमविद्याधिगतये तनुं तेनैवाहं भृतकमिव भृत्या हि बिभृयाम् ॥५॥ कृपालुः षट्काये विदधदुपयोगं सुविधिना दधीयाथो धर्म्यं समयमनुमुञ्चेयमुपधिम् ।
१. अङ्गीकारेण । २. किंविशिष्टोऽहम् ? । ३. यस्मिन् दिने । ४. तव ।
५. पापविनाशेनोत्पन्नात् । ६. मत्सकाशात् । ७. समये । ८. अनुल्लङ्घितः ।
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
अथोत्थाने स्थानेऽपि च वपुषि कुर्यां परिमृजां कदैवं देवेशाऽच्चितचरणवृत्तिर्मम भवेत् ॥६॥ धराजीवाधारो ध्रुवमिह च का जीवगणना तथा तेषां शस्त्रं खलु भवति मानुष्यकमलः । अयं योनिः केषाञ्चिदपि च विमृश्येति चतुरं यतेयैतत्यागे दिश मुनिपते ! तां मुनिदशाम् ॥७॥ यतः सत्यं सद्भ्यो हितमिति निरुक्त्या निगदितं प्रतीपं चासत्यं स्पृहयति न तत् सत्तमपुमान् । अतो मिथ्यावादादहमुपरमाणीति मृगये जगत्त्रातस्तात ! प्रथम शिवदायि व्रतमिदम् ॥८॥ श्रुते कस्मिन्नास्था प्रकृतिरपि का कौ सुरगुरू भवन्त्यस्य श्रोतुः प्रथममिति संचिन्त्य मनसा । वचो वाच्यं तथ्यं मितमितरथा मौनमुचितं कदाऽथो नाथ ! स्यां निपुणवचनोऽनेन विधिना ॥९॥ यतः क्रोधाध्मातः प्रकटयति कर्माणि पुरुषः परेषां पारुष्याकुलबहुलजल्पः प्रलपति । ततस्तावद् रोष व्रतविधृतये दुर्जनमिव प्रजह्यां जीवौघाभयद ! जगदुद्धारक ! कदा ? ॥१०॥ समस्तोऽपि त्रस्तो भवति भवभृत् सर्वभयतः ततो मायाधाम प्रविशति जिघृक्षुः सुखभरम् । समस्त्यैवैतत्तु स्फुटमनृतवाक्येष्टकचितं व्रतत्राणायेशाऽऽदिश मयि भयोन्मूलनमतः ॥११।। जनो धुन्वन्नङ्ग विकृतगतिको वक्रितमुखः सदःप्रीत्यै हास्यं प्रच(चि)कटयिषुर्जल्पति मृषा । ततोऽनपातः प्रभवति परत्रेह च भवे विभो ! तन्मां कुर्या व्रतगुणभृतं हास्यविमुखम् ॥१२॥ शरीरे सारे वा पुरुहपरिवारेऽपि भवभृद् भृशं लुब्धो वाञ्छन् सुखमनृतमेव व्यवहरेत् ।
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स्पृहाध्वंसो यस्मिन्नहनि न मृषावागपि तदा कदाऽतस्त्रातः ! स्यां व्रतविततये निःस्पृहतमः ॥१३।। अहो ! दृष्टं कष्टं प्रकटमिह पुंसां परमुषामदत्तस्याऽऽदानान्महदघमिदं निश्चितमतः । व्रतादानेनाथाऽवधृतसुविधोऽहं तदखिलं यथा प्रत्याख्यायां त्रिजगदधिप ! त्वं कुरु तथा ॥१४॥ गृहाधीशादिष्टं श्रुतगदितदोषोज्झितगृहं गुहा वा गोत्राणां सघनगहनं वा पितृगृहम् । निषद्या या काचित् सुरनृपजनाज्ञाग्रहमनु व्रताबाधाय मे भवतु भगवा(व)न् ! सा वसतये ॥१५।। गृहस्थोऽर्थ्यः शय्यासनफलकदर्भाधुपधये स वा दद्याद् यावत् स[कल]मथ तद् ग्राह्यमृषिणा । परस्मिन् कालेऽस्मान्मतमिदमदत्तं मम पुनः तदाज्ञामप्रापाऽनुचितमुपभोगाय भवतात्(?) ॥१६।। स्वयं वा क्षेत्रेणाऽवधिरथ च कालेन विधृतः पुरे वा ग्रामे वा वसतिमुपभोक्तुं प्रथमतः । परीहारस्तस्मात् परमुचित एवाऽव्रतभिया मयाऽयं स्वाचारो भवति वहनीयो जिन ! कदा ? ॥१७॥ अदूष्यं चेद् भैक्ष्यं भवति न तथापि व्रतभृतः स्वभोगायाऽदत्वा स्वकुलगणसाम्भोगिकमुनीन् । अदत्तं चाऽदानादिदमपि मुनीन्द्रेण गदितं । ततस्तन्नेच्छेयं सममसमयः स्ताच्छुभतमः ॥१८॥ यतेर्भक्तिस्थानं स्वकुलगणसङ्घाज्जिनगृहं गणी वा ग्लानो वा गुरुरथ च शैक्ष्योऽप्यभिहितम् । अभक्त्या चैतेषां निजजठरदत्तं यदशनं भवेत् तच्चाऽदत्तं मम मुनिप ! मा भूदघमदः ॥१९।। जनेऽस्मिन् प्रत्यक्षा यदनु जनिता जीवितहृतः कियत्यः कीर्त्यन्ते कलहहननाद्यादिविपदः ।
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
तदब्रह्मोपास्ति कथमृषिजनः कांक्षितुमलं ततो मामेतस्मात् कुरु विरतिमन्तं शमनिधे ! ॥२०॥ पशुस्त्रीपण्डानां ननु विविधचेष्टाः स्मरकृता निरीक्ष्याऽधीरः स्यात् स्मरजिदपि योगी विकृतिभाक् । ततस्तैः संवासो वृजिनजनको विष्टपपते ! वृषेच्छो यान्मे मदनविजिगीषोरविषयः ॥२१॥ गतीर्जातीर्वेषान् रतविलसितानि प्रियगिरो मृगाक्षीणां हावान् जनसदसि संश(शंस)न्निह जनः । तदर्थस्मृत्या तु स्मरविकृतिमृच्छत्यथ न किं ततस्तासां कीर्तिरि(तीर)पि परम ! माऽचीकथमहम् ॥२२॥ इयं रामा श्यामा कृशकटितटीयं शशिमुखी सुनेत्रेयं गौरी गुरुतरनितम्बा घनकुची । स्त्रियं पश्यन् साधुर्विकृतिजविकल्पानिति वहेत् ततोऽङ्गानि स्त्रीणां मम कथमपेयानि न दृशा ? ॥२३।। स्मरेत् कामान् भोगान् प्रथमपरिभुक्तान् यदि यती तदा ब्रह्मोपास्तेः परिपतनमेति प्रचलितः । ततोऽनर्थः कोऽपि प्रभवति महांस्तेन नियमे स्थितस्यातीचारो मम मुनिपतेऽयं भवतु मा ॥२४॥ यतः पुष्णत् कायं तदुपगतधातूनधिसृजद् ददत् तानुन्मादं मदनमथ चित्ते प्रमदयत् । सतत्त्वं हन्त्येवं सरसमशनं संयमिपते ! ततोऽहं मा भूवं रसयुगतिमात्राशनरुचिः ॥२५॥ अनन्तं कालं यज्जगति लुठितः स्थावरतया मुहुर्जातश्चैवं जडतरमतिर्जङ्गमतया । परिग्रह्येवाहं नवनवभवानस्पृशमतो महीयो देया मे सकलपरसंयोगविरतिम् ॥२६॥ मनोज्ञेष्वर्थेषु श्रवणविषयेषु प्रलुभितः क्रियाभ्यः पापाभ्यो न विरमति मूढः स्वमनने ।
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द्विषन् दुःशब्दानामनवरतमेवं दुरितकृत् । ततो गायँ नादग्रहकरणगं मे हर विभो ! ॥२७।। विधाप्याथो रूपे ध्रुवमभिमते रागविवशं तथाऽनिष्टे द्विष्टं सततविकलं मां स्वकलने । विनाऽन्तर्नेत्राभ्यामिह परिगृहीतोऽहमभवं प्रभूताशातस्तन्मम भुवि कदा स्यात् स्ववशता ? ॥२८॥ जिघृक्षन्निर्यासं सुरभितरसारं सुमनसां पशून् हिंसन् वस्कन्यपि(?) मृगमदाद्ये त्वभिमते । अहो ! प्राणी घ्राणेन्द्रियपरिगृहीतोऽघनिचयं न कं कुर्यान्नाथ ! प्रतिदिश ततो मेऽस्य विजयम् ॥२९॥ न हन्तव्या जीवा इति मनसि जानन्नपि जनो निहत्यैतान् भुङ्क्ते तदनु जगति भ्राम्यति भृशम् । कथं नो मूढः स्याद् बत परिगृहीतो रसनया ततो मामेतस्याश्चरितविजयायाऽऽदिश विभो ! ॥३०॥ सुखान् स्पर्शानिच्छन्ननुदिनमनिच्छन्नसुखदान् महारम्भं मूढो महयति भवाब्धौ भ्रमति तत् । इति श्रद्धायेश ! स्वसहजसमाधाननिरतः कदा रागद्वेषापनयनपटुः स्यामहमिह ॥३१॥ तमोरूपेऽप्काये प्रसरति भृशं लोककुहरे सचित्तं स्यात् सर्वं न च किमपि दृश्यं जनदृशा । कथङ्कारं साधुः प्रभवति तदा भोक्तुमशनं विहर्तुं वा भूमौ तदिह मम मा भूदिदमघम् ॥३२॥ अयं साधुः शान्तो मृदुरयमृजुनिस्पृहतमस्तपस्वी संयन्ता हितमधुरवादी शुचिरयम् । अकिञ्चित्को ब्रह्मव्रतभृदिति यत्र क्षितितले भविष्यामि ख्यातो मम जिन ! कदा भावि तदहः ? ॥३३॥ स्थिति छिन्दन् भिन्दन् रसमखिलकर्मस्वविरलं स्वमात्मानं शुद्ध्याऽगणितगुणवृद्ध्या विमलयन् ।
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
तथा किट्टीकृत्योत्कटमपि किरन् पुद्गलमलं स्वयं स्वं पश्येयं स्थिरतरमनाः पारग ! कदा ? ॥३४॥ भवाभ्यासं हित्वा प्रबलमपि जित्वा रिपुबलं स्वसंवेदी भूत्वा सममपि विदित्वा वसुचयम् । तनोर्योगं मुक्त्वा शिवपदमुषित्वा त्रिजगतां यथाहं नाथ ! स्यां मम भव सहायोऽनघ ! तथा ॥३५॥ इत्थं मोक्षाध्वगानामभिलषितसुखोत्तानदाने वदान्यो देवेन्द्रवातवन्द्योऽद्भुतमहिमरमः श्रीमहावीरनेता । संसाराम्भोधिपारं प्रतिजिगमिषुणा रूपचन्द्रेण सान्द्रानन्दार्थं प्रार्थ्यमानो निखिलतनुभृतां भूयसे श्रेयसे स्तात् ॥३६॥
इति श्रीसाध्वाचारषट्विंशिका समाप्ता ।। संवत् १९६२ फागुणमासे बोरसदी लहिया शंकर वेंणीदास । समाप्तं ।
ग्रन्थाग्रं ७५॥
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आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरि (प्रथम) विरचित श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम्
म. विनयसागर
‘वदन' का रूपक बनाकर वसन्ततिलका वृत्त में पार्श्वनाथ भगवान की स्तवना की गई है। इसमें स्थल-स्थल पर यमक का एवं अन्य अलङ्कारों का प्रयोग किया गया है । इसकी १६वीं शताब्दी की प्रति श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर के सङ्ग्रह में प्राप्त होने से इसके प्रणेता श्रीजिनराजसूरि प्रथम ही प्रतीत होते हैं ।
श्री जिनराजसूरि जी सवा लाख श्लोक प्रमाण न्याय ग्रन्थों के अध्येता थे । आपने अपने करकमलों से सुवर्णप्रभ, भुवनरत्न और सागरचन्द्र इन तीन मनीषियों को आचार्य पद प्रदान किया था ।
___सं. १४६१ में अनशन आराधनापूर्वक देवकुलपाटक (देलवाड़ा) में स्वर्गवासी हुए । देलवाड़ा के सा० नान्हक श्रावक ने आपकी भक्तिवश मूर्ति बनवा कर श्रीजिनवर्द्धनसूरिजी से प्रतिष्ठित करवाई जो आज भी देलवाड़ा में विद्यमान है । इस मूर्ति पर निम्नलिखित लेख उत्कीर्णित है -
"सं० १४६९ वर्षे माघ सुदि ६ दिने ऊकेशवंशे सा० सोषासन्ताने सा० सुहड़ा पुत्रेण सा० नान्हकेन पुत्र वीरमादि परिवारयुतेन श्रीजिनराजसूरिमूर्तिः कारिता प्रतिष्ठिता श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनवर्द्धनसूरिभिः" । प्रस्तुत है स्तोत्र :
पार्श्वनाथ स्तोत्र आनन्दनं सम[सुरा]सुर-मानवानां, संजीवनं शुभधियां सुरमानवानाम् । सौभाग्यसुन्दरतया भुवनाभिरामं, श्रीपार्श्वनाथवदनं विनुवामि कामम् ॥१॥ प्रातः पदार्थपटलीविहितावतारं, पश्यन्ति यो जिनमुखं मुकुरानुकारम् । कल्याणकारणमनन्त-मनोविशुद्धि-स्तेषां भवेदिह मनोभिमतार्थसिद्धिः ॥२॥
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अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
आलोकिते तव विभो ! वदने दिनेश - नैशंतिशा जगति मोहमयी विलेशे । पुण्यप्रकाशरचितेन तमोव्ययेन सर्वर्तुसौहृदयुजा कमलोदयेन ॥३॥ सल्लोचनेषु घनतापभिदा रसालैः सारैः सुधामिव कुरन्नयनांशुजालैः । देवत्वदान[व?]सुधांशुरसौ निशान्त, आलोकि सेवकजनैः सुकृतीनकंतै ॥४॥ लावण्यकेलिलहरीललिते नवीने, वक्त्रे सुधासुरससुन्दर ! तावकीने । तृष्णातिरेकतरले नयने निलीये - होनन्ततापकलुषे त्यजतां मदीये ॥५॥ विस्मेरलोचनदले कमलानिवासे, निःसीम - सौरभभरे सुगुणावभासे । दृष्टिः सतां जिनपते ! वदनारविन्दे, नालीयते कथममन्दवचोमरन्दे ॥६॥ दूर्वकंनयनचन्दनचारुक्षिप्रं (?) राजद्विजालिरुचितन्दुलजालदीप्रं । सन्मङ्गलं दिशतु पुण्यफलाधिगम्यं, जैनेश्वरं वदनमक्षतपात्ररम्यं ॥७॥ नीलोत्पलामलदलायतनेत्रमानं, सद्दन्तभा कुसुमदामविराजमानं । पुण्यश्रिया लवणिमाम्बुभृदा सुलम्भ:, स्यान्मे शिवाय जिन ते मुखपूर्णकुम्भ ॥८॥ एवं मया वदनवर्णनया विभादे, हर्षाञ्चितेन विहिता विनुतिः शुभाले । याचे दयेव जिनराज दयां निधेहि, दृष्टिं प्रसादविशदां मयि सन्निधेहि ॥९॥ ॥ इति श्री पार्श्वनाथस्तोत्रं समाप्तमिति भद्रं भूयात् ।
कृतिरियं श्रीजिनराजसूरिणां ॥
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C/o. प्राकृत भारती १३ - अ, मॅन गुरुनानक पथ मालदीयनगर, जयपुर
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श्रावक द्वादश-व्रत-चतुष्पदिका
म. विनयसागर
इस लघु कृति में कवि ने श्रावक के सम्यक्त्वमूल द्वादश व्रत की रचना की है। अपभ्रंश भाषा में यह रचित है। श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर में इसकी १६वीं सदी की प्रति प्राप्त होने से इसका रचनाकाल १५वीं शताब्दी प्रतीत होता है । इसमें कर्ता का नाम वर्णित नहीं है। प्राचीन अपभ्रंश शैली में द्वादश व्रतों का संक्षिप्त वर्णन इस कृति में प्राप्त होता है। किस श्रावक या श्राविका ने किस अधिकारी के मुख से व्रत ग्रहण किए थे, इसमें कोई उल्लेख नहीं है । सम्भवतः यह वर्णनात्मक रचना हो । कृति प्रस्तुत है :
द्वादश व्रत चतुष्पदी वंदवि वीरु भविय निसुणेहु, आगम कहिउ जिणेसरि एहु । पभणउ जिणवर धम्म महंतु, बारह व्रतह मूलि समकितु ॥१॥ अक्खर एक न पामउ पारु, निसुणह धम्मिय धम्म विचारु । सुकृत प्रभाविह सुग्रहो इइ, सासइ सिवसुह पावइ सोइ ॥२॥ जं जं जीव निकाचितु होइ त्रि(ब्रि?)सपति सूरि न पंडितू कोइ । त्रिसठि सुलाख पुरुषह जोइ, विणु वेइया न छूटइ कोइ ॥३॥ चउवीस तित्थंकर चक्रवर्ति बार, वासदेव नव नव बल धार । नव प्रतिवासदेव ते हूया, कर्म खपिउ ते सिद्धहि गया ॥४॥ भवियउ जीवदया पालेउ, पंच अणुव्रत पहिलउ एहु । जीव अजीवा तुम्हि पेखेहु, जिम तुम्हि सोसय सुख लहेउ ॥५॥ बीजउ अलीउ म जंपउ कोइ, सच्चु वदंता बहु फलु होइ । स तिहि धण कण कंचण रिद्धि, रुव्व लगिउ पामीजइ सिद्धि ॥६॥ त्रीजउं व्रत अदत्तादानु, जिण जगि सील होइ अपमान । परधन तणउं करउं परिहार, दुतरु जेम तरउ संसारु ॥७॥ जे कुलवंता हुयइ नरनारि, पालइ सुद्ध सीलु संसारि । चउत्था व्रतह तणउं फलु जोइ माणइ भोगविया सुरलोइ ॥८॥
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
व्रत पंचम तणउ सुणि भेउ परिग्रह तणउं प्रमाण करेउ । अणहूता मनमंगल देहु, तम्ह कोलीआ जेम वेटेहु ॥९॥ धम्मिय छट्ठउं व्रत निसुणेहु, दिग प्रामाणि तहिं तेमु करेहु । मन मोकल इंम मेल्हि असारि बहुत जोनि हिडिसि संसारि ॥१०॥ व्रत सत्तम तणउ सुणि बंधु भोग प्रभोगह करउं निबंध । पंचइ इन्द्रिय जे वसि करइं ते भवसायरु लीलई तरई ॥११॥ व्रत अट्ठम तणउ विचारु, अनरथ दंड करउ परिहारु । अनेक भेद जे धर्मह तणा एक जीहिं नहु जाअइ वर्णवा ॥१२॥ नवमइ व्रति सामायक लेउ, पडिकमणउं सिज्झायु करेउ । अणुदिणु थुणउ जिणेसर देउ, दुक्खिय कर्म जिम एम उछेउ ॥१३।। दसमा व्रतह तणी विधि जोइ, जिम वलि आवागमणु न होइ । दस दिसि मनु पसरंतु निक(का)रि, जिणवर तणां चलण अनुसारि ॥१४॥ जो जिणधम्मह बूझइ भेउ, व्रतु एकादसमउं निसुणेउ । पोसह तणउ करउ उपवासु, जिम तुम्हि पामउ सिद्धिहि वासु ॥१५॥ व्रत बारमउं भविय निसुणेहु अतिथिदानु फल भणियइ एहु । चंदणि सूपि किया कोमासि वीर पराविउ छट्ठइ मासि ॥१६॥ पारणए तहिं वीरज जिणिंद जय जयकार करइं सुरइंद । कंचण कोडि बारस विसेस, अमर वरीसई तत्थ पएसि ॥१७॥ सती एक सलहीजइ नारि, दिन्नु दानु को मास वियारि । कोसंबी नयरी सुविसाल, जगि जयवंती चंदणबाल ॥१८॥ बारह व्रत श्रावक संभलउ, भावु भगति मन अविचलु धरउ । सव्वं(च्च)उं वयणु सुणउ सहु कोइ, जीवदया विणु धर्म न होइ ॥१९॥
॥ इति श्रावकव्रत चतुष्पदिका ॥
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खारवेलनो हाथीगुफा - अभिलेख (जैन धर्मनो उल्लेख करतो प्राचीनतम अभिलेख)
डॉ. हसमुख व्यास
इतिहासना मूळ साधन (स्रोत) तरीके अभिलेखो, सविशेष महत्त्व छे. आम तो, प्राचीनकाळथी लाकडं, (पक्व) माटी; तांबु, पत्थर व. नो अभिलेख माटे उपयोग थतो-थयो छे. परंतु पथ्थर तेना टकाउपणाने कारणे सौथी वधु उपयोगमां लेवायेल छे. अनेक प्राचीन राजवंशो, तेनो समयप्रशासनकाळ; तेमज तत्कालीन राजकीय-सामाजिक-धार्मिक तेमज सांस्कृतिक व. बाबतोनी चोक्कस जाणकारी आनाथी थई शके-शकी छे. प्राचीन भारतीय इतिहासना पुनरालेखनमा अभिलेखो सविशेष मददरूप बनेल छे. आवा ज ओक ऐतिहासिक महत्त्व धरावता शिलालेख विषे लखवानो प्रस्तुत उपक्रम छे- ते छे हाथीगुफानो खारवेलनो शिलालेख.
वर्तमान ओरिस्सा (प्राचीन मौर्यकालीन कलिंग) राज्यनी राजधानी भुवनेश्वरथी पश्चिममां आशरे दश की.मी.ना अन्तरे उदयगिरि अने खण्डगिरि सुप्रसिद्ध गुफाओ आवेली छे. रस्तानी बन्ने बाजु आवेली आ गुफाओमां रस्तानी जमणी बाजु उदयगिरिनी अने डाबी बाजु खण्डगिरिनी गुफाओ छे. उदयगिरिनी प्रख्यात गुफाओमां स्वर्गपुरीनी गुफा, राणीगुफा, गणेशगुफा, जयविजय गुफा, व्याघ्रगुफा अने हाथीगुफा छे. हाथीगुफा लाल रत्तीआ पथ्थरनी ओक प्राकृतिक गुफा (५७ x २८ x १२') छे. आमां थोडो फेरफार करी तेने सभागृहमां निर्मित कराई छे. आना प्रवेशद्वारे अेक शिलालेख छ जे 'खारवेलना शिलालेख' तरीके विख्यात छे.
___मौर्य सम्राट अशोक (शासनकाळ : ई.पू. २६२-२३८)ना शासनकाळ पछीनो कलिंगनो इतिहास अनिश्चित-अन्धकारमय छे. सम्भवतः मौर्यनी अवनतिनो लाभ उठावी तेना शक्तिशाली सेनानायक-पदाधिकारीओओ कोई स्वतन्त्र राज्यनी स्थापना करी होय. आ वंशने प्रारम्भना ओक अभिलेखमां चेदिवंश कहेल छे. प्रस्तुत वंश साथे सम्बन्धित खारवेल अने तेना जीवन प्रशासन सन्दर्भ अंक मात्र अभिलेख मळेल छ - हाथीगुफानो. आ अभिलेखमां ज खारवेल पोताने राजर्षि
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
वसुनो वंशज कहे छे - जे सम्भवतः चेदिराज वसु छे. ईस. पूर्वे छठ्ठी सदी दरम्यान यमुना किनारे बुन्देलखण्डमां चेदि राज्य अस्तित्व धरावतुं हतुं. सम्भवतः अहींथी तेनी कोई शाखा कलिंग जईने वसी होय. आ राजवंशनो इतिहास उदयगिरिमांथी केटलाक अभिलेखोथी जाणी शकाय छे. आमांनो हाथीगुफानो खारवेलनो शिलालेख अत्यधिक महत्त्वनो छे. गुजराती खार-खाराशना मूळनी जेम 'खारवेल'मां पण खार-क्षार शब्द रह्यो छे. डॉ. काशीप्रसाद जयस्वालना मतानुसार खारवेल शब्द सं. क्षार+वेल शब्दो मळी बनेल छे. जेनो अर्थ थाय छे - खारी लहेरोवाळो अर्थात् समुद्र. डॉ. दिनेशचन्द्र सरकार पण आ मतने स्वीकारी तेनो अर्थ 'समुद्र किनारे शासन करनार (शासक)' दर्शावे छे.
उदयगिरिनी टेकरीओमां बौद्ध-जैनोनी घणी गुफाओ आवेली छे. आमांनी केटलीक तो ई.स.पूर्वे त्रीजी सदी पूर्वेनी छे. भारतना पूर्वभागमां बंगाळना उपसागरना कांठे आवेल वर्तमान ओरिस्सा (Orissa) स्थानिक भाषामां उडिया ओडिया (सं. ओडू) छे. तेनी राजधानी भुवनेश्वरथी पश्चिम आवेल उदयगिरि नवं नाम होवानो केशवलाल ह. ध्रुवनो मत छे. तेनुं प्राचीन नाम 'कुमारपर्वत' होवानुं तेओ जणावे छे एटलुं ज नहि उदयगिरि > ओड्रगिरि (सं.) > उड्डयगिरि (प्रा.) परथी बन्यानुं जणावे छे.१
हाथीगुफाना प्रवेशद्वारे कठण-बरड पथ्थर अंकित आ लेखनो काळनी थापटो-घसाराने कारणे मध्यनो केटलोक भाग नष्ट थई गयेल छे. आम छतां जे अवशेष छे ते पण ऐतिहासिक दृष्टिए अत्यधिक महत्त्व धरावे छे. सहु प्रथम प्रस्तुत लेखनी भाळ अने एकाधिक विद्वानोए तेना करेला वाचन अने पाठभेदनी विगत तपासीए.
प्रस्तुत शिलालेख (१५.१ x ५.६')मां अलङ्कारविहीन सरळ अने सहज भाषामां कुल १७ पंक्तिओ छे, एक पंक्तिमा ९० थी १०० अक्षर अंकित छे. पाली साथे मळती प्राकृत भाषामां ते ब्राह्मीलिपिमां अंकित छे. लेखनी बन्ने बाजु बे-बे चिह्न अंकित छे. सामान्य रीते प्राचीन अभिलेखोमां आवा-कमळ, वर्तुळ, स्वस्तिक जेवा चिह्न अंकित कराता. आ लेखनी सर्व प्रथम भाळ फाधर ओ. स्टलिंगे (A. Stirling) १८२०मां मेळवी कर्नल मैकन्झी (Mackenzie) नी सहायथी ओक अपूर्ण वाचना तैयार करी १८२५मां अनुवाद विना Asiatic १. साहित्य अने विवेचन. केशवलाल ह. ध्रुव, अमदावाद : १९९५ (बी.आ.) पृ. १११-१४
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Researches : Vol. 15मां प्रकाशित करी. आ पछी अम. किटटो (M. Kittoe) ओ तेनी वधु साची वाचना तैयार करी. जेने १८३७मां जेम्स प्रिन्सेपे मनमान्या पाठ - अनुवाद साथे तेना Corpus Inscription Indicarum मां प्रकाशित करी. आ तेनो प्रथम अनुवाद. १८८५मां पण्डित भगवानलाल इन्द्रजीओ स्थळ पर ज तेनी अेक प्रतिलिपि तैयार करी अने १८८६मां छठ्ठा प्राच्यविद्याविदोना आन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन दरम्यान प्रसिद्ध स्मारिका (सुवेनियर)मां सानुवाद पाठ प्रसिद्ध थयो. आ पाठ १९१० सुधी प्रमाणिक मनातो रहतो. वच्चे १८७७मां अ. कनिंगहामे पण तेनी ओक शिलामुद्रणीय छाप प्रकाशित करी. राजा राजेन्द्रलाल मित्रे १८८०मां तेना प्रख्यात ग्रन्थ 'Antiquities of Orissa' मां सानुवाद पाठ प्रसिद्ध कर्यो. परंतु आ बधा प्रयत्न अधिकृत न हता. १९०६मां टी.एच.ब्लोख (Bloch)ना निदर्शनमां आ शिलालेखनी वधु ओक शाही-छाप तैयार करावी डॉ. कीलहॉर्नने मोकलाई. १९१०मां लूडर्से पण आनो सारांश प्रकाशित कर्यो. ओमणे आ लेखने तिथिविहीन बताव्यो. आ ज वर्षे डॉ. जहाँन फ्लीटे पण अभिलेखनी बे संक्षिप्त नोंध प्रकाशित करी. अमणे लेखना पाठमां केटलाक सुधारा सूचव्या. १९१३मां राखालदास बेनरजीओ स्थळ-तपास-निरीक्षण करी तिथियुक्त विवादास्पद पाठ- परीक्षण कयें. १९१७मां डॉ. कालिदास नाग साथे ओमणे स्थळनी पुनः मुलाकात ळई अभिलेखनी बे शाही-छाप तैयार करी. आ समय दरम्यान डॉ. काशीप्रसाद जयस्वाले पण प्रस्तुत अभिलेखनो अक पाठ प्रकाशित को. (जर्नल ऑफ बिहार - उडिसा रिसर्च सोसायटी, १९१७). १९१८मां ओमणे स्थळनी पुनः मुलाकात लई बीजो ओक संशोधित पाठ तैयार करी प्रसिद्ध कर्यो. (ज. ऑफ बि.उ. रि.सो. : १९१८) १९१९मां डॉ. जयस्वाल अने राखालदास बेनरजीओ संयुक्त रीते अकवार स्थळ-तपास-निरीक्षण-परीक्षण करी प्रत्येक अक्षर, झीणवटभर्यु परीक्षण कर्यु. ओ बन्ने विद्वानोले १९२४ अने १९२७मां लीधेल छापोना आधारे अभिलेखनी ओक अन्तिम वाचना तैयार करी जे सानुवाद १९२७मां ज.बि.उ.रि.ओ १९२७मां प्रकाशित थई. आ पछी पण अनेक विद्वानोओ आनी वाचनाअनुवाद-विवेचन करेल छे.
ब्राह्मी लिपि अने पालि साथे मळती प्राकृतभाषामां गद्यमां उत्कीर्ण प्रस्तुत अभिलेख, सविशेष महत्त्व ओ छे के ते जैनधर्मनो उल्लेख करनार
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प्राचीनतम शिलालेख छे. अभिलेखनो आरम्भ ज जैनधर्मना ओळख - मन्त्र नमो अरहंतान ( । ) नमो सवसिधानं ( | ) थी थाय छे. अने प्रथम पंक्तिमां तेने अर्थात् खारवेलने 'महामेघवाहनेन' कह्यो छे. आ ओक सर्वोच्च बिरुद होवानुं मनाय छे. महामेघवाहन अर्थात् जेनुं वाहन महामेघ अर्थात् महान राजकीय हाथी छे ते. आ शब्दार्थना आधारे तेनो सूचितार्थ 'इन्द्र' थतो होवानुं तद्विदोनुं मानवुं छे. केमके हाथी (ऐरावत) इन्द्रनुं वाहन छे. डॉ. वेणीमाधव बरुआना मते प्रस्तुत लेखनी १६मी पंक्तिमा 'इन्द्रराज 'नो शब्दप्रयोग थयेल होई खारवेलनी तुलना इन्द्र साथे कराई होवानुं मनाय छे. परंतु, डॉ. काशीप्रसाद जयस्वाल अने डॉ. दिनेशचन्द्र सरकार 'इन्द्रराज' शब्दना बदले 'भिक्षुराज' होवानुं नोंधे छे जे उपयुक्त पण छे.
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अभिलेखनो समय :
प्रस्तुत अभिलेख अक शासक (खारवेल)ना जीवन- प्रशासननी ऐतिहासिक घटनाओ दर्शावतो भारतनो सर्वप्रथम अभिलेख होवा छतां तेना अने तेमां उल्लेखित शासक - खारवेलनी निश्चित समय - तिथिनो प्रश्न अद्यापि उकल्यो नथी. विभिन्न पुराविदो - इतिविदो विभिन्न स्वरूपे पोत - पोताना दृष्टिकोणथी तेने स्पष्ट करवाना प्रयत्न अवश्य कर्यां छे. जेने नोंधीओ :
डॉ. काशीप्रसाद जयस्वाले अभिलेखमां उल्लेखित बहसति मिति (बृहस्पति मित्र) ते पुष्पमित्र होवानुं जणावे छे. ते अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथनो सेनापति हतो, अने प्रथम शुंग सम्राट हतो. ते लगभग ईस. पूर्वे १८४ दरम्यान शासन करतो हतो. आना आधारे डॉ. जयस्वाल खारवेलनो समय ईसू पूर्वेनी बीजी सदी निर्धारे छे. डॉ. जयस्वाल अभिलेखनी १६मी पंक्तिनुं वाचन आ प्रमाणे करे छे : 'पानंतरीय सथि -वस-सते - राज- मुरिय काले वोच्छिने'. आना आधारे ते खारवेलनो समय मौर्यकालनुं १६५ वर्ष निश्चित करे छे. १ विन्सेन्ट स्मिथनुं पण ओमज मानवुं छे के कलिंगाधिपति खारवेले हाथीगुफा अभिलेखमां जेने ‘बृहस्पतिमित' कहेल छे ते पुष्यमित्रने अमणे पराजित कर्यो हतो. डॉ. स्टेन कोनो, अच.सी. रायचौधरी व. पण आ मतना छे.
परंतु डॊ. जयस्वाल-निदर्शित पाठनी वाचना हवे आ प्रमाणे कराई छे : 'पानतरीय-सत - सहसेदि' अर्थात् पांच लाख मुद्राओ अर्हतो (जैन १. जर्नल ऑफ बिहार-ओडिसा रिसर्च सोसायटी, अंक-४, भाग-४, पृ. ३९४
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साधुओ) माटे तेमज अन्य गुफा निर्माण तेमज स्तम्भादि सुकृत्यो माटे व्यय कराई हती. डॉ. घोषनुं मानवुं छे के वस्तुतः वाक्य अहीं ज पूरुं थई जाय छे. डॉ. जयस्वाले ‘पानतरीय-सथि -वस-सते' पछी 'राजा मुरिय काले वच्छिने' पद साथे भेळवी दइ ओक करी दीधुं छे. वस्तुत: प्रथम पद पछीनो पाठ आ प्रमाणे होवो जोइओ : मुं (खि) य-कला-वोछिन' आमां मौर्यकाळनो उल्लेखसंकेत नथी. अधिकांश विद्वानोओ आ पाठने मान्य (अधिकृत) गणी स्वीकार्यो छे.
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अभिलेख-विशेषज्ञोना मते प्रस्तुत अभिलेख सम्भवतः नानाघाटना लेखोना समीपवर्ती समयनो अथवा समकालीन तेमज हेलियोडोरसना बेसनगरना अभिलेख पछीनो होइ आने इसु पूर्वेनी प्रथम सदीमां मूकी शकाय नहीं. केमके नाना घाटनो लेख ईस. पूर्वनी प्रथम सदीना उत्तरार्ध पूर्वेनो न होवानुं सिद्ध थयेल छे. अतः हाथीगुफा लेख उक्त अभिलेखथी थोडो आगळनो अथवा समकालीन होवानुं मनाय छे. अर्थात् ते ईसुनी प्रथम सदी पूर्वेनो होई शके नहि, आम खारवेलनो समय ईसुनी प्रथम सदी निश्चित थाय छे. तो मंचपुरी गुफामां खारवेलनी राणीनो अक अभिलेख अंकित छे जे भरहुत शिल्पो (ई.पू. प्रथम सदीनो पूर्वार्ध) पछीनो छे.
आगळ नोंध्युं ओ मुजब आ अभिलेख खारवेलना जीवन प्रशासन दर्शावतो अक मात्र अभिलेख छे. सामान्य रीते अभिलेखोमां सम्बन्धितना पूर्वजोनी कीर्तिनुं गान थतुं होय छे पण अहीं अवुं नथी. आमां मात्र खारवेलना निजी जीवन अने प्रशासनकार्यो ज वर्णित छे. प्रारम्भनी २-३ पंक्तिमां तेना जीवन विषे माहिती छे : २४ वर्षे राज्यगादी संभाळीओ पूर्वे प्रारम्भना १५ (पंदर) वर्ष खेलकूदाळां, त्यार पछीना युवराज तरीकेना ९ (नव) वर्ष लेख (लखवुं- अथवा शासन जाणकार ), रूप (सिक्का अर्थात् हिसाब) गणना (गणित), व्यवहार (आचरण शास्त्र) विधि (कायदो-कानून) व. उपरांत सर्व विद्याओमां पारंगत थयो. आ पछी २४ वर्षे राज्यधुरा संभाळ्या बादना १३ (तेर) वर्षनां प्रशासन कार्योनुं निरूपण छे.
२४४ना वर्षे राज्याभिषेक बाद प्रथम वर्षे अमणे तोफानना कारणे नष्ट-भ्रष्ट थइ गयेल नगरनुं प्रमुख द्वार, अनेक इमारतो तेमज किल्लानी मरम्मत उपरांत राजधानीमां ऋषिखिवीर नामनुं सरोवर उपरांत सुन्दर बगीचाओ उपवनो
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बनावराव्या. लोकरंजन माटे नृत्य-गायन-वादन, आयोजन कर्यु. शासनना प्रथम वर्षे जनहितनां कार्योने प्राधान्य आप्या बाद पछीनां वर्षोमां ओमणे सैन्य अभियान आदर्यानी विगत निरूपित छे. प्रस्तुत अभिलेखमां तेना खास तो शासनना बीजा-चोथा-आठमा अने अगियारमा वर्षे करेल अभियानो, संक्षिप्त उल्लेख-वर्णन छे. आमां ऋषिक (मूसिक) नगर (पंक्ति ४); राष्ट्रिको अने भोजको पर (पंक्ति ६); राजगृह नजीकना गोरक्ष गिरि (गया जिल्ला स्थित बराबर नामनो पर्वत) (पंक्ति ७-८) तेमज पिएंड नगर (गोदावरी-कृष्णा नदी वच्चेना तटवर्ती प्रदेश) पर विशाळ सेना साथे आक्रमण कर्यानुं निरूपण छे. सम्भवतः अनां आ अभियानो राज्यसीमाविस्तरण माटे कोइ प्रदेशने जीती लेवाना हेतुसर नहि पण संपत्ति प्राप्त करवा अने अेक प्रकारनी सैन्यशक्तिनुं प्रदर्शन करवा समान ज होवानुं मनाय छे.
अभिलेखनो आरम्भ अर्हतोने नमस्कारथी थतो होइ खारवेल निश्चित रूपे जैन-धर्मानुयायी होवानुं कही शकाय. आ उपरांत अर्हत पूजानो उल्लेख (९); जिन प्रतिमाना पूजननी वात (१२) अने अर्हतो माटे वर्षाकाळ व्यतीत करवा कुमारीपर्वत (उदयगिरि) पर आश्रय गुफाओ तैयार कराव्यानो उल्लेख स्पष्टतया तेना जैन होवानुं स्वतः सिद्ध प्रमाण गणी शकाय. आथी ज तो प्रस्तुत अभिलेखने जैन धर्मनो उल्लेख करतो प्राचीनतम पुरावो-अभिलेख मानवामां आवे छे. आ अभिलेखनी १५मी पंक्तिथी शासनना १३मा वर्षे अमणे कोइ अर्बु आयोजन करेल के जेमां देशभरना ज्ञानीओ, तपस्वीओ, ऋषिओ, अर्हतो इत्यादि अकत्र करायानुं जाणी शकाय छे. अलबत्त आ आयोजन शानुं-शा हेतुसर हतुं ते स्पष्ट थइ शकतुं नथी. सम्भवतः ते अर्हतोनी संगीति होय. ते जैन धर्मवलम्बी होवा छतां अन्य धर्मो प्रत्ये समभाव राखतो. (१७). तेनो २४मा वर्षे थयेल राज्याभिषेक वैदिक प्रथा सूचवे छे. आ उपरांत ब्राह्मणोने दान आप्या तेमज अन्य धर्मोनां देवालयो पण बंधावी आप्यां हतां.
सामान्य रीते बौद्ध धर्मनी जेम जैन धर्म कोई राज्याश्रित धर्म न होवार्नु मनातुं. ने आ लेख कैंक जुएं ज प्रमाण आपे छे : खारवेल जैन धर्मी हतो ने तेनो राजधर्म पण जैन धर्म हतो. आ अभिलेखथी अक खास बाबत ओ जाणवा मळे छे के सामान्य रीते महावीर स्वामीना निर्वाण बाद ६००-७०० वर्षे जैन प्रतिमाओ बनाववानो - अने ओ रीते प्रतिमा पूजन थयानो - आरम्भ
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थयानुं मनातुं. परंतु, प्रस्तुत अभिलेखथी अक नवीन ज विगत प्रकाशमां आवे छे : कलिंगजिन अर्थात् आदि तीर्थंकर ऋषभदेवनी जे प्रतिमा नन्दराजा उपाडी गयेल तेने खारवेले पुनः राजगृहे पाछी लावी (१२) स्थापित करी. आनाथी ईसूनी त्रीजी सदी पूर्वे (नन्दनो समय) तेमज तेनी पहेला पण जैन प्रतिमा पूजन यथार्थ रीते प्रचलित होवानुं असन्दिग्धपणे सिद्ध थाय छे...
हाथीगुफा अभिलेखमा उल्लेखित पूर्वोक्त विवरण-विवेचनाना आधारे निर्विवाद स्वरूपे कही शकाय के खारवेल विविध विद्याओमां पारंगत, ओक कुशळ सेनानायक, पराक्रमी योध्धो तेमज सुयोग्य प्रजाप्रिय सफळ शासक हतो. हाथीगुफा अभिलेखनी आ संक्षिप्त विवरण-विवेचना छे. जो तेनी प्रत्येक पंक्तिना प्रत्येक शब्दनी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सन्दर्भे स्पष्टता-विवेचना कराय तो ज तेनुं सर्वाङ्गी महत्त्व समजी शकाय. अस्तु.
आधार ग्रन्थो १. भारतीय अभिलेख विद्या. शास्त्री, हरिप्रसाद अने प्रवीणचन्द्र परीख, अमदावाद :
१९७३ २. साहित्य अने विवेचन. दी.ब. केशवलाल ह. ध्रुव. अमदावाद : १९९५ (बीजी
आवृत्ति) ३. प्राचीनजैनलेखसंग्रह. प्रथम भाग (प्राकृत) सं. मुनि जिनविजय, भावनगर : १९१७ ४. भारत का प्राचीन इतिहास, घोष, नरेन्द्रनाथ, लखनउ, १९०२ ५. प्राचीन भारतीय स्तूप, गुहा एवम् मन्दिर, उपाध्याय, वासुदेव, पटना : १९७२ ६. भारतीय इतिहास कोश, भट्टाचार्य सच्चिदानन्द, लखनऊ : १९८९ (द्वितीय संस्करण) ७. ऐतिहासिक भारतीय अभिलेख, वाजपेयी, कृणदत्त तथा अन्य जयपुर : १९९२ ८. प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख-१ गुप्त परमेश्वरीलाल वाराणसी : १९९६ (तृतीय
संस्करण) ९. प्राचीन भारत का इतिहास १ (सं.) गुप्त, शिवकुमार जयपुर : १९९९ १०. Indian Epigraphy, Sircar, D.C. Varanasi : 1965 ११. The Cave Temples of India, James Fergusson and James Prurgess.
Delhi : 1969 (Reprint)
१२. Political History of Ancient India, Raychaudhary, H. C. Calcutta : 1972 (Seventh Edition).
C/0. श्रीखंभलाव महेंदीवाडी, जमनावड रोड, धोराजी
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अनुसन्धान- ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
चतुर्भुजाख्यश्रद्धालुविरचिता रामचदर्षिकृत- प्रकाशाख्यटीका-विभूषिता नेमिजिनस्तुतिः
सं. श्रीजगच्चन्द्रसूरिशिष्य मुनि शीलचन्द्रविजय
गिरनारमण्डन श्रीनेमिनाथ प्रभुनी प्रस्तुत स्तुति चतुर्भुज नामना श्रावके रची छे. स्तुति संस्कृत भाषामां अने सममात्र नामना छन्दमां रचवामां आवी छे. गेयता अने मंजुल पदावलिने लीधे कृति खूब आनन्ददायक बनी छे. काव्यनी शैली परथी कर्ता विदग्ध पण्डित होवानुं जणाई आवे छे.
लोकागच्छीय श्रीरामचन्द्रर्षिसे आ स्तुति पर 'प्रकाश' नामनी सरळ अने सुबोध टीका रचीने काव्यना मनोरम भावो सुधी पहोंचवानुं घणुं सहेलुं करी आप्युं छे. तेओओ आ टीका वि.सं. १९२३ना कारतक महिनामां बालुचर नगरमां (अजीमगंज पासे) श्रीअमृतचन्द्रसूरिजीना सांनिध्यमां रची छे. टीकाकार विद्वान छे से तो टीका वांचतां सहेजे समजाय छे, पण ६ठ्ठा श्लोकनी टीकामां तेओ पोताने मन्दमति तरीके जणावे छे अने टीकाना अन्ते विद्वानोने आ टीकाना शुद्धीकरण माटे प्रार्थना करे छे ते तेओनी निरभिमानिता सूचवे छे. ६ठ्ठो श्लोक पोताने अशुद्धरूपमां मळ्यो छे अवुं तेओ ते श्लोकनी टीकामां जणावे छे; जे परथी अवुं जणाय छे के मूळ काव्यना कर्ता तेओथी घणा पूर्ववर्ती होवा जोइओ. टीकाना आरम्भे मङ्गलश्लोकमां कोइ व्यक्तिविशेषने स्थाने व्याप्ति, व्यक्ति, स्फोट अने सिद्ध- ओम चार रूपवाळा तत्त्वने नमस्कार कर्यो छे ते नोंधपात्र छे. टीकामां रूपसिद्धि माटे पाणिनीय अष्टाध्यायीनां सूत्रो टांकवामां आव्यां छे.
बालुचर नगरमां ज वि. १९२४ना पोष महिनामां लखवामां आवेली प्रत परथी प्रस्तुत कृतिनुं सम्पादन करवामां आव्युं छे. प्रतमां अशुद्धिओ घणी छे, जेनुं मार्जन करवानो यथाशक्य प्रयत्न करवामां आव्यो छे. सम्पादननो अनुभव न होवा छतां देवगुरुधर्मनी कृपा पर श्रद्धा राखी आ प्रथम प्रयत्न
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करेल छे. क्षतिओ प्रत्ये विद्वानोने ध्यान दोरवा विनन्ति.
गृहस्थे रचेली कृति पर श्रमण भगवन्त टीका रचे अवां उदाहरणो इतिहासमां बहु थोडां छे. आ साथे तेमां एकनो उमेरो थाय छे.
॥ नेमिजिनस्तुतिः ॥
जय जय यादववंशावतंसजगत्पते !, समुद्रविजयनरराजशिवासुतसन्मते ! ॥ जय जय जनताजननजलधितारणतरे !, सावभावयोगीन्द्रसहोलवजितहरे ! ॥१॥
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श्रीजिनवाण्यै नमः ॥
नमोस्तु व्याप्तिरूपाय, व्यक्तिरूपाय ते नमः । नमोस्तु स्फोटरूपाय, सिद्धरूपाय ते नमः ॥१॥
अथ प्रकृति (त)मनुसरामः ॥ जय जय यादववंशेति ॥ -
त्वं जय त्वं जय सर्वोत्कर्षेण जेतृत्वगुणविशिष्टो भव । क्रियासमभिहारेऽत्र द्विर्वचनं, लोडन्तपदमेतत् । यदोरपत्यानि यादवास्तेषां वंशो हरिवंश इति । यद्वा यदोरयम्, इदमर्थोऽण्, यादवः, स चाऽसौ वंशश्चेति कर्म्मधारयः । यदुराज्ञः प्रादुर्भूता यादववंशस्य ख्यातिर्लोके इति । तस्य तस्मिन् वा वतंसः - शेखरो चूडामणिः शिरोभूषणविशेष इव प्रग ( क )टीभूतो जगतां पतिर्यः स । तस्य सम्बोधने – हे यादववंशावतंसजगत्पते ! त्वं जय । अत्र सर्वत्र समस्तवृत्तपदेन सम्बोधनमग्रेतनपादे तथैव प्रदर्शितत्वात् । स्तुत्यादौ पुनरुक्तिदोषोऽपि न भयावहः । पृथक् पृथक् सम्बोधनत्वेऽपि न क्षतिरिति स्वधियैव सम्यक् प्रविचार्य वक्तव्यं मनीषिभिः, तत्राऽस्माकं नाऽत्यादरः, किं बहुना जल्पनेनेति दिक् । द्वौ जिनौ हरिवंशे समुत्पन्नावतो विंशतितमजिननिरासार्थमन्यद् विशेषणं विशिनष्टि । एवं सर्वत्र स्वधियैव भावना कार्या इति ।
-
I
समुद्रविजयनरराजेति । राजते-शोभते इति राजा, तेषां तेषु वा राजा नरराज इति राजाह:सखिभ्यश्चेति तत्पुरुषे टच् - प्रत्ययस्ततः कर्मधारयस्ततो[‘शिवा' इत्यनेन] द्वन्द्वस्तयोः सुत इति तत्पुरुषस्ततः सन्मतिना सह कर्मधारये
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अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
कृते यथेष्टसिद्धिस्तत्सम्बोधने - हे समुद्रविजयनरराज - शिवासुतसन्मते !!
जनानां समूहो जनता, समूहे ऽर्थे तल्-प्रत्ययः । जनताया- - जनसमूहस्य जननं-जन्म तदेव जलधिः- समुद्रस्तस्य तस्मिन् वा तारणरूपा तरिरिव तरिर्यः स, तत्सम्बोधने-हे जनता-जननजलधितारणतरे ! त्वं जय ।
सवनं- - सावः क्षयः, षोऽन्तकर्मणि, अस्माद् भावे घञ्-प्रत्ययः । सावरूपो भावः सावभावः, तद्धितीय - ठक्-प्रत्ययः, क्षायिकभावो निश्चलभावइति यावत्, सप्तक्षये क्षायिक इति श्रुतेः । यद्वा षुप् सवैश्वर्ययोरस्मादपि घञि कृते सावभावो-बालभाव ऐश्वर्यरूपभावो वा । तत्र त्वं योगीन्द्रः सन्नपि मित्रादि प्रेरणया आयुधशालायां सहसो बलस्य लवो-लेशस्तेन जितस्तिरस्कृतो हरिर्विष्णुर्येन सः । द्वितीयपक्षेऽपि नेमेर्बलवर्णनावसरे हरिपदेन लक्षणया इन्द्रसामानिकसुरो ग्राह्यः, शेषं तथैव । एतत् सर्वमितिहासादौ प्रसिद्धमेव । तत्सम्बोधने-हे सावभाव-योगीन्द्रसहोलवजितहरे ! इति ॥१॥
जय जय जनदुर्वारमारमदगिरिपवे !, सजलजलदशितिवर्णसवर्णतनुच्छवे ! । जय जय जगति प्रमदकुमुदहिमदीधिते !, करुणारसकूपारविमोचितपशुसिते ! ॥२॥
जय जय जनदुर्वारेति । जनैर्दुःखेन वार्यते इति जनदुर्वारः, स एव मारस्याऽनङ्गस्य मदोऽहंकारः, स एव गिरिः - पर्वतस्तस्य तत्र वा समूलोन्मूलने पविरिव पविर्वज्र इव वज्रो यः सः । 'ह्रादिनी वज्रमस्त्री स्यात् कुलिशं भिदुरं पवि’रित्यमरः । तस्य सम्बोधने - हे जनदुर्वारमारमदगिरिपवे ! त्वं जय । यद्वा मारश्च मदश्चेति द्वन्द्वे कृते पश्चात् बहुव्रीहिरित्यपि साधु ।
सजलो जलयुक्तो यो जलदो - मेघस्तस्य यो शितिवर्णः-कृष्णवर्णस्तत्सवर्णा तुल्या तनोः शरीरच्छविर्द्युतिर्यस्य सः, तस्य सम्बोधने - हे सजलदशितिवर्णसवर्णतनुच्छवे ! ।
जगति-संसारे प्रमदो य: सौरभ्यगुणविशिष्टः, कुमुदं सितकमले (लं) कुमुदिनीरूपं वा तद्विकाशने, हिमा दीधितिर्यस्य स हिमदीधितिश्चन्द्रश्चन्द्र इव चन्द्रो यः सः । यथा गगनस्थचन्द्रः कमलवनं प्रकाशयति तथा त्वं तु
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भविकमलप्रतिबोधकत्वेनाऽपूर्वचन्द्रोऽसि । जगति-पदे हलदन्तादितिसूत्रेण समासे, सप्तम्या अलुक्, तस्य सम्बोधने - हे जगतिप्रमदकुमुदहिमदीधिते ! त्वं जय ।
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कुं पृथ्वीं पिपर्त्ति-पालयति इति विग्रहे पृ पालनपूरणयोरस्मात्कर्मण्युपपदेऽण्, अन्येषामपीति दीर्घे कूपारशब्दो लाक्षणिकस्तेनाऽत्र गृहीतो मेघ इति करुणारूप एव रसो जलं तस्य यः कूपारो मेघस्तेन करुणार्द्रचेतोभावेन तस्माद् वा विमोचिता दूरीकृता परिणयनसमये पश्रू (शू) नां सितिर्बन्धनता येन सः । यद्वा करुणारस: कूप इव कूपो गाम्भीर्यादिना गुणेन तमर्त्ति प्राप्नोति यः स करुणारसकूपारो गम्भीरतादिगुणयुक्तः सन् शेषं पूर्ववदेव । अत्रापि कू गतौ, ततोऽणि यथेष्टसिद्धिः । सिंधौ (सिद्धो ? ) पृषोदराद्याकृतिगणत्वादकारलोपे कथंचिद् रूपसिद्धिरिति । तस्य सम्बोधने - हे करुणारसकूपारविमोचितपशुसिते !। षिञ् बन्धने ततः स्त्रियां भावे क्तिस्तेन सितिशब्दो निष्पन्न इति ॥२॥
जय जय स त्वमुदूटिधियाऽऽतुरता सती, त्यक्ता येन विरागवता राजीमती । जय जय निर्गतदोषकोषनिजगुणतते !, सकलसुरासुरराजरचितसार्चानते ! ॥३॥
जय जय सत्वमिति । उदूटिरूपा धीस्तया आतुरता - व्याकुलीभूता सती राजीमती येन विरागवता त्वया त्यक्ता स त्वं जय इत्यन्वयः ।
निर्गतो दोषकोषो-दोषसमूहो यस्या निजगुणततेरात्मिकगुणविस्तारात् यस्य स: यद्वा निर्गता-प्राप्ता दोषकोशात् अनादिकालीनमिथ्यात्वादि(दे)र्निजगुणानां ततिः-श्रेणिर्येन सः, तस्य सम्बोधने - हे निर्गतदोषकोषनिजगुणतते ! त्वं जय । ये गत्यर्थास्ते प्राप्त्यर्था इति वैयाकरणानां सिद्धान्तः ।
सकलसुरासुरराजभिः रचिता - कृता अर्चासहिता नतिर्यस्य सः, तत्सम्बोधनेहे सकलसुरासुरराजरचितसार्चानते ! ॥३॥
जय जय शमदमलीनपीनसमतारते ! भुवनविभूषणवर्णवर्णवारिजगते !
जय जय कुमतिकुवाटनिशाटनिशान्तकृद् !, वाग्द्युतिदर्शितभुवनभावपथपीथवद् ॥४॥
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
जय जय शमेति । शमः क्रोधाभावरूपः, दमः इन्द्रियाणां वशीकरणरूप-स्तयोर्लीनस्तेन पीना-पुष्टतां प्रापिता समतायां रतिर्येन सः, तत्सम्बोधने-हे शमदमलीनपीनसमतारते ! त्वं जय ।
___ भुवनस्य-लोकत्रयस्य विभूषणमिव विभूषणं यः सः सन्, वर्णेन वर्णः श्रेष्ठो वर्णः सोऽस्ति येषां येषु वा तानि वर्णवर्णानि, तान्येव वारिजानि-कमलानि अर्थात् तेषु स्वर्णकमलेषु विहारसमये गतिर्गमनं यस्य सः, तत्सम्बोधने-हे भुवनविभूषणवर्णवर्णवारिजगते ! ।
कुमतिरेव कुवाट:-कुत्सितमार्गस्तत्र प्रवृत्ता ये निशायामटन्ति ये ते निशाटा-निशाचरादयस्तद्धर्मवत्पाखण्डिनोऽपि निशाटा एव तेषामदृश्यताकरणे निशान्तकृदिव सूर्य इव सूर्यो यः सः तस्य सम्बोधने-हे कुमतिकुवाटनिशाटनिशान्तकृत् । यथा सूर्योद्गते निशाचरादयोऽदृश्यतां यान्ति तथैव पाखण्डिनोऽपि दूरतरे व्रजन्ति अतस्त्वमपूर्वसूर्योऽसि, त्वं जय ।
वाचो द्युतिः प्रभा, तया दर्शितो यो भुवनभावो-लोकत्रयात्मकस्य सदसद्प भावः स एव पन्थास्तस्य प्रकाशने पीथवत् प्रकृष्टदीपक इव यः सः । यद्वा वाग्द्युत्या पञ्चत्रिंशद्वाणीनां गुणतया दर्शित:-प्रकाशितो भुवनभावपथो पीथवत्प्रदीपवत् येन तत्सम्बोधनेपि-हे वाग्द्युतिदर्शितभुवनभावपथपीथवत् । वत्वन्तस्याऽव्ययत्वात् क्लीबत्वनिर्देशोऽत्रेति ॥४॥
जय जय दीक्षान्यक्षवृत्तिनिर्वृतिवृते !, कृतरैवतगिरिराजतीर्थताविश्रुते ! । जय जय संश्रितसत्त्वसमीहितदायक !,
दुर्गतिदवलवनेमिनेमिजिननायक ! ॥५॥
जय जय दीक्षेति । दीक्षया नियन्तानि-वशीकृतानि अक्षाणि-हृषीकाणि इन्द्रियविषयाणि यस्मिन् स न्यक्षः सर्वसंवरात्मको भावरूपस्तद्रूपा वृत्तिः न्यक्षवृत्तिः । सा एव निर्वृतिय॑क्षवृत्तिनिर्वृतिस्तस्या वृतिर्वरणं स्वीकारो यस्य सः। अतोऽनन्तचतुष्टयित्वं सिद्धत्वे प्रसिद्धमेव । यद्वा दीक्षान्यक्षवृत्त्या निर्वृतेर्मुक्तेर्वृत्तिः-स्वीकारो यस्य सः,तस्य सम्बोधने-हे दीक्षान्यक्षवृत्तिनिर्वृतिवृते ! त्वं जय । कृता रैवतगिरिराजस्य रैवताचलस्य तीर्थतायास्तीर्थरूपस्य विश्रुतिःख्यातिर्येन सः, तस्य सम्बोधने-हे कृतरैवतगिरिराजतीर्थताविश्रुते ।
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संश्रितास्त्वत्-शरणं प्रति प्राप्ता ये सत्त्वाः-प्राणिनस्तेषां समीहितस्यमनोभिलषितफलस्य दायको यः सः, तस्य सम्बोधने-हे संश्रितसत्त्वसमीहितदायक! त्वं जय ।
दुर्गतिरूपो यो दवो-वनं तस्य यो लव-उच्छेदनं तत्र नेमिरिव चक्रधारा इव नेमिजिननायको यः सः, तस्य सम्बोधने हे दुर्गतिदवलवनेमिनेमिजिननायक ! ॥५॥ पञ्चभिः कुलकमिदम् ॥
सुदिनमहो मम चाऽद्य तथा सुदशा धव !, दर्शनमिह यदभत्किल मेऽप्यघिने तव । सिद्धं चिन्तितकार्यमार्य सफला जनि
रजनिष्टचरीदमंदभंदकंदावनी ॥६॥
सुदिनमिति । हे धव ! – हे स्वामिन् ! अहो इति आश्चर्ये । किल इति सम्भावनायाम् । मे-ममाऽपि अघिनः-पापात्मन इह जन्मनि यत् तव दर्शनमभूत् तत् तस्मात् कारणात् मम चाऽद्यतमं सुदिनं सुदशा च वर्तते इति । हे आर्य! मम चिन्तितकार्यमपि सिद्धं जातम् । मम जनिर्जन्म उत्पत्तिरपि सफला-फलवती जाता । पुनः चरीदमंदो देशविरतिरूपो यो भन्दः, कल्पद्रुमस्तस्य यो कन्दस्तस्य अवनिरिव क्षितिरिव क्षितिर्देशविरतिरूपांऽकुरोपि अजनिष्टप्रादुरभूत् मे-मम हृत्क्षितौ । एतत् पदमशुद्धतरं यथाकथंचित् समर्थितम् । यद्वा मम बुद्धेर्मान्द्यरूपदोषेण सम्यगर्थो नाऽवभासित इत्यलम् ॥६॥
विश्वजनीन ! सदीनमिति निजदृक्सृति, कथमथ मामवमान्य भजेर्यशसोन्नतिम् । त्वत्किङ्करमवगत्य सत्यसुखसावधि,
प्रतिजनि मे निजमेव देव ! दिश सन्निधिम् ॥७॥ विश्वजनीनेति । अथ इत्यनन्तरं हे विश्वजनीन ! - हे विश्वजनहितकारक! सदीनमितं सदीनतागुणयुतं निजदृक्-सृतिं त्वदृष्टिपथप्राप्त मामवमान्याऽवगणयित्वा यशसा उन्नतिं लोके प्रसिद्धतां त्वं कथं भजेः कथं प्राप्नुहि ?
अथ हे देव ! मां त्वत्किङ्करं दासरूपमवगत्य भवान् ज्ञात्वा, प्रतिजनि
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
अत्राऽव्ययीभावत्वाद्विभक्तेलृक् बोध्यः, मुक्तिपदप्राप्तिपर्यन्तरूपे भवे भवे मे-मम मह्यं वा निजमेव-स्वकीयमेव सन्निधिं समीपतारूपं सम्यक्त्वरूपरत्नं वा त्वं दिश-देहि इत्यन्वयः ॥७॥
भूरिजनो यदरक्षि भवान् निजसदृशा, सम्प्रति माऽप्यनुप्रेक्ष्य विभो ! भव नवयशाः । किं बहुयाचनयाऽथ नाथ ! तव पार्श्वतः,
स्वीयचरणशरणैकगतं कुरु मामवतः (मतः) ॥८॥
भूरिजनो यदेति । हे विभो ! - हि विश्वव्यापक ! निजसदृशा निजसमीचीनदृष्ट्या स्वकीयसद्दर्शनेन इति यावत्, भवात्-संसारात् भूरिजनो यद् भवता अरक्षि-रक्षां कृतवान् । संप्रति-इदानीं मे' मह्यं मम वा, अनुप्रेक्षित्वा इति अनुप्रेक्ष्य ईक्षदर्शनाङ्कनयोरस्माद्धातोः क्त्वास्थाने क्त्वो ल्यबिति सूत्रेण ल्यपि कृते यथेष्टरूपसिद्धिः, स्वीयसद्दर्शनं दत्त्वा त्वं नवयशा भव नूतनयशोयुक्तस्त्वं स्या इति कर्तुर्हार्दम् ।
__ अथेत्यनन्तरं हे नाथ ! अतः परं तव पार्श्वतः बहुयाचनया किं पर्याप्त सृतमिति किमित्यसा[व]र्थः ? स्वीयचरणयोः शरणैकगतं-शरणैकतारूपं मां त्वं कुरु, भवे भवे मम तव चरणयोरेव शरणमस्तु इत्यन्वयः ॥८॥ छन्दस्तु सममात्राख्यम् ।
इति स्तुतः श्रीगिरिनारमण्डनः, संसेव्यमानोऽम्बिकया निरन्तरम् । नेमीश्वरः स्तात् सततं सदङ्गिनां, चतुर्गतिभ्रान्तिहरः शिवङ्करः ॥९॥
इति श्रीनेमीश्वरस्तुतिः । संवत् १९२४रा मिति पोष-शुक्ल-९ मन्दवारे बालुचरपत्तने ॥श्रीः॥
इति स्तुत इति । इति परिसमाप्तौ, इत्थं वा अमुना प्रकारेण, श्रीगिरिनारमण्डनोऽम्बिकया देव्या निरन्तरं संसेव्यमानो यो नेमीश्वरो भगवान् मया स्तुतः स्तुतिं कृतवान्,२ स एव नेमीश्वरो द्वाविंशतितमजिननायकः सततं-निरन्तरं १. श्लोकानुसारं त्वत्र ‘मा-मामपि' इत्यनेन भाव्यम् । श्लोके वा 'सम्प्रति मेऽप्यनु०' इति
परिवर्तनीयम् । २. 'स्तुतः' इत्यस्याऽर्थः 'स्तुतिकर्मतां प्रापितः' इति स्यादिति भाति ।
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सदङ्गिनां भव्यप्राणिनां चतुर्गतिभ्रान्तिहर अत एव शिवङ्करः स्तात्-भवतु इत्यन्वयः ॥९॥ कृपालुविपश्चिद्भिः संशोध्यमेतत् ।
विद्वद्जनसङ्कीर्णे, अमृतचन्द्रसूरिसन्निधौ रचितः । जाग्रत्प्रभावजनिते, नेमीश्वरे मे मतिर्भूयात् ॥१॥ त्रिनेत्राङ्कविधुमितेऽब्दे (१९२३), कार्तिकमासस्य पूर्णिमासु तिथौ । बालूचरे पुरवरे, प्रकाशो रामचन्द्रर्षिणा ॥२॥ युग्ममिदम् ।
भविनामयं चिरं नन्दतु । इति चतुर्भुजाख्यश्रद्धालुकृत-नेमिजिनस्तुतेरयं प्रकाशः ।
C/o. सुरेन्द्रसूरि जैन पाठशाला झवेरीवाड, पटणीनी खडकी,
अमदावाद-१
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
वछ (रछ) गणिनी ओक अप्रगट कृति "सकलकुशलवल्ली चैत्यवन्दन टीका"
सं. साध्वी ललितयशाश्री
पूर्वाचार्योओ बाळजीवोने उपयोगी घणा साहित्यनी रचना करी छे. प्रस्तुत कृति पण पू. ऋषि वछराज गणि) संस्कृतभाषाने शिखता बाळजीवोने उद्देशीने ज करी हशे. कृति नानी पण सुन्दर छे. दरेक चरणनी टीका साथे अन्तमां तेनो सामान्य भावानुवाद पण कविओ को छे.
कवि ऋषि वछराज गणि कया गच्छना छे ? तेमनी गुरुपरम्परा शुं छे ? इत्यादि कशी बाबतोनो कृतिमा उल्लेख नथी. प्रतना अन्त्यभागमा प्रत सं. १८१५मां विक्रमपुरमा लखायानी नोंध छे. ते परथी कर्ता ते पूर्वे थयार्नु जाणी शकाय.
आ नामना अन्य कर्ता लोकागच्छमां १७मी सदीना पूर्वार्धमां थया छे. जेमणे १७४९मां 'सुबाहु जिन चोढाळियु' नामनी कृतिनी रचना करी छे. कदाच तेओओ ज आ कृति रची हशे. छतां अन्य प्रमाण न मळे त्यां सुधी कर्ताना निर्धारणमां शङ्का रहे.
प्रस्तुत कृति नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि भण्डारना हस्तलिखित झेरोक्ष विभागनी छे. प्रत आपवा बदल पू. गुरु म.सा.नो तेमज भण्डारना व्यवस्थापकश्रीनो आभार.
"सकलकशलवल्ली चैत्यवन्दन टीका" ॥ ए६०॥ सकलकुशलवल्लीपुष्करावर्तमेघो, दुरिततिमिरभानुः कल्पवृक्षोपमानः । भवजलनिधिपोतः सर्वसम्पत्तिहेतुः, स भवतु भवतां भो(भोः!) श्रेयसे पार्श्वनाथः ॥१॥ अस्य व्याख्या ॥ भो भव्यजनाः ! स श्री पार्श्वनाथो भवतां-युष्माकं श्रेयसे-कल्याणाय भवतु-अस्तु । किंविशिष्टः पार्श्वनाथः ? सकलकुशलवल्लीपुष्करावर्तमेघः-सकलानि च तानि कुशलानि च
सकलकुशलानि।
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सकलकुशलानि एव वल्ल्यः सकलकुशलवल्ल्यः । सकलकुशलवल्लीनां वर्धने पुष्करावर्तनामा मेघ इव मेघः पुष्करावर्तमेघः ।
सघला कुशल-मांगलिक, तेह रूपिणी वेलडी वधारिवान काजिरं पुष्करावर्तमेघसमान छइ ।
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पुनः किंविशिष्टः श्रीपार्श्वनाथ ? दुरिततिमिरभानुः दुरितानि - पापानि, तानि एव तिमिराणि-अन्धकाराणि तेषां निराकरणे भानुरिव भानुः दुरिततिमिरभानुः ।
दुरित कहियइ पाप, तथा विघ्न, तेह टालिवानई काजिइं भानु कहतां सूर्य ते समान छइ ।
पुनः किंविशिष्टः श्रीपार्श्वनाथः ? कल्पवृक्षोपमान:- कल्पवृक्ष (क्षेण) उपमीयते असौ कल्पवृक्षोपमानः ।
वांछित पूरिवानइं काजिई कल्पवृक्ष समान छइ ।
पुनः किंविशिष्टः श्रीपार्श्वनाथ ? भवजलनिधिपोतः-भव एव जलनिधिः, तस्य तारणे पोत इव पोतः भवजलनिधिपोतः ।
संसारसमुद्र तरिवा भणी प्रवहण समान छइ ।
पुनः किंविशिष्टः श्रीपार्श्वनाथ: ? सर्वसंपत्तिहेतुः । सर्वाश्च ताः संपत्तयश्च सर्वसंपत्तयः, तासां हेतुः-कारणम् ।
सघली संपदाना हेतु-कारण छइ । इति काव्यार्थः ऋषिश्रीवछराजगणिकृत: । लिखित श्रीविक्रमपुरे सं. १८१५ वर्षे ।
C/o. अरिहंत आराधना उपाश्रय गोपीपुरा, मोतीपोळ, सूरत - १
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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
Are Pāndava Brothers Jaina or Non-Jaina? An unprecedented explanation by Ācārya Hemacandra
Padmanabh S. Jaini
A list of 54 uttama-purushas (in the present avasarpini) appears in the Samavāya (#54). The list begins with names of twenty-four Tirthankaras (from Rshabha to Mahāvira). Then appear the names of twelve Cakravartins: Bharata, Sagara, Maghavā, Sanatkumāra, Shānti, Kunthu, Ara, Subhauma, Mahāpadma, Harishena, Jaya, and Brahmadatta.
The Samavāya next introduces two entirely new categories of “uttama-purushas”, called Baladeva and Vāsudeva. They are described as duve duve Rāma-Kesavā bhāyaro, nine pairs of brothers. The elder, the more virtuous one, is called Rāma (also Balarāma or Baladeva) and the younger, the supreme warrior, is called Keshava (also Vāsudeva and Nārāyana). For example, the 8th Rāma (Rāma, the son of Dasharatha) is a Baladeva, while his younger brother Lakshmana is the 8th Keshava (Vāsudeva or Nārāyana). Another famous pair is of the 9th Baladeva, whose proper name is Balarāma, and the 9lh Keshava, Balarāma's younger brother Krishna Vāsudeva (also known as Nārāyana, and Vishnu in later Jain texts).
Although they are not "uttama-purushas”, the Samavāya gives an additional category of the deadly enemy of the Vāsudeva, called Prati-Vāsudeva (or Prati-Nārāyana), also nine in number. The Vasudeva inevitably kills him and then rules as “Ardha-Cakrin”, the Lord of the Three Continents of the Bharata-kshetra. For example, Lakshmana (and not Rāma) kills Rāvana (his Prati-Vāsudeva); Krishna kills Jarāsandha (his PratiVāsudeva).
A grand narrative of the 54 Mahāpurushas (24+12+9+9)
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was first produced by Acārya Shilānka in his Prakrit CauppannaMahāpurisacariya, in Vikrama Samvat 933 (877 A.D.). The great Ācārya Hemacandra (1088-1172 A.D.) added the nine Prati-Vāsudevas also and produced his massive Sanskrit Trishashti-shalākāpurusha-caritra (The Lives of Sixty-three Illustrious Persons). Notable among the Digambaras are Ācārya Jinasena (c. 800-848 A.D.) and Gunabhadra (c. 803-895 A.D.). They produced a similar work, entitled Trishashti-lakshanaMahāpurāna-sangraha (also known as Mahāpurāna).
Looking at the grand scale of these works, scholars like Klaus Bruhn (see Introduction to the CauppannaMahāpurisacariya) have hailed them as Jaina attempts at presenting “Universal History."
But it is a “Universal History” where each one of these sixty-three great men is born in a Jaina family and hence presumed to be Jaina. Only the twenty-four Tirthankaras (Jinas) can thus be truly described. They find no mention whatsoever in the Brāhmanical Epics or Purānas. The Cakravartins appear to be a mixed group: three Tirthankaras (Shānti, Kunthu, Ara) also appear in this list. Of the remaining, many like Sagara, Sanatkumāra and Brāhmadatta, are served by brahmana ministers, advocates of the Vedic sacrifices. The novel categories Baladeva/ Vāsudeva, are evidently based on the personal names of the brothers Balarāma and Vāsudeva Krishna (and his enemy Jarāsandha), whose valiant exploits are grandly described in the Brahmanical Itihāsa (Rāmāyana and Mahābhārata) and the Purānas.
It is not likely that the Jaina authors might not have heard these episodes popular among the people, notably in Gujarat and Karnataka. However, one looks in vain among Jaina works listed above, for even a single expression of familiarity with or an acknowledgement of a non-Jaina source such as the Mahābhārata of Vyāsa.
In the genealogy of the Jaina-Hari-vamsha, Andhaka
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vrishni has ten sons: Samudravijaya the eldest, and Vasudeva the youngest. Samudravijaya's son is Nemi. Vasudeva's sons are Balarāma (from Rohini) and Krishna (=Vāsudeva, from Devaki). Krishna and Balarāma are thus cousins of Nemi, who is destined to be the 22nd Tirthankara.
Vasudeva has also two daughters: Kunti and Madri. They are married to Prince Pāndu of the Kuru-vamsha residing in Hastināpura. He has five sons, known as the Pāndavas. Kunti is the mother of Yudhishthira, Arjuna and Bhima; Madri is the mother of Nakula and Sahadeva. The Pāndavas are not "shalākāpurushas”, but enter the Jaina narratives because of their close family relationship with Krishna, and most importantly, with Tirthankara Nemi.
Krishna-Vāsudeva kills Jarāsandha (his Prarti-Vāsudeva), conquers the Three Continents of the Bharata-kshetra, and is crowned an Ardha-Cakri. The city of Dvārakā (in Saurashtra) is founded and is eventually destroyed by fire. Krishna and Balarāma walk in the desert alone, and Balarāma goes to fetch some water for Krishna. In the meantime, Krishna dies of an arrow shot at his feet by a stranger.
Notably, in the Jaina doctrine of karma, both Vāsudeva and Prati-Vāsudeva, on account of their nidāna (enmity and unfulfilled ambition), are predestined to be reborn in one of the seven hells (narakas). Consequently, Krishna is reborn in the Third naraka. Tirthankara Nemi predicts that after emerging from there, Krishna will become a Tirthankara, in the Bharata-kshetra, in the upcoming utsarpini (Upward moving) time.
Balarāma, grief stricken, renounced the world, assumed the vows of a Jaina ascetic (muni), and at the end of his life was reborn in a high heaven.
Early in his life, Nemi, unmarried, renounced the world and became a muni. He led a holy life, attained omniscience
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(kevalajnāna) and as a Tirthankara, founded a new Order of Jaina monks and nuns. He lived a life of one thousand years.
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"Attended by a retinue of 18,000 noble ascetics, and 40,000 female ascetics, ...knowing that it was time for his emancipation (moksha), the Lord went to Raivataka (The Girnar Hills). After fasting for six months, on the 8th of the white half of Ashadha, he attained emancipation, together with the munis." (Helen M. Johnson's Translation of Trishashti-, Vol. V, p. 313.)
Three “shalākāpurushas" in a single family is a rare event. The Jaina authors glorify the life of their 22nd Tirthankara Nemi by subordinating the life of Krishna to him, as well as showing Balarama and the Pandava brothers as followers of the holy path of the Tirthankara.
After the 'Great War' in which the Pandavas became victorious over the Kauravas, and after the death of Krishna, we read in Acarya Hemacandra's account:
"Weeping, the Pandavas held Krishna's funeral for a year, like brothers. Knowing that the Pandavas wished to become mendicants, Shri Nemi sent Muni Dharmaghosha...with five hundred munis. The Pandavas ... accompanied by Draupadi and others, became mendicants at the sage's side and practiced penance together with special vows....
When they heard that Nemi had reached emancipation, deeply grieved, the Pandavas went to Mt. Vimala (the Palitana Hills) and observed a fast unto death. They reached emancipation (moksha), but Draupadi went to Brahmaloka (heaven) a magnificent abode." (Johnson, Vol. V, pp. 312-14.)
At the end of this Chapter, Acarya Hemacandra says: "The Twenty-second Arhat, the ninth Baladeva and Vasudeva and their enemy (Prati-Vasudeva), have been celebrated in this book (by me) after considering thoroughly
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with reference to the doctrine of the Jinas.” (Johnson, V. p. 314.)
The Ācārya's last words (“with reference to the doctrine of the Jinas”) appear but once in the entire Trishashti) and only at the end of this Chapter, and are not without significance. Nemi as a Tirthankara appears only in Jain texts. These words therefore suggest that the Acārya was aware of the presence of rival narratives of Krishna, Balarāma and the Pāndavas in the Mahābhārata of Vyāsa. He appears to be keen to forestall any unfavorable reception of his work from the contemporary brāhmana scholars.
The most important event that distinguishes his Pandavas from their namesakes in the Mahābhārata is their becoming Jaina munis towards the end of their lives, suffering great hardships and finally attaining emancipation (moksha), like Tirthankara Nemi.
Fortunately, there exists a single record, specifically alluding to the muni-dikshā of the five Pandava brothers, the ensuing great commotion in the Court of King Siddhdarāja Jayasimha, and the memorable way it was pacified by Acārya Hemacandra (1088-1172 A.D.). This unique record appears in the Prabhāvaka-carita by Ācārya Prabhācandra, and may be considered authentic as it was written in 1252 A.D., within eighty years after Acārya Hemacandra.
I give here a translation of this section as it provides an unprecedented (ashruta-purva) answer by the great Ācārya to the question often asked: Are the Pandava Brothers Jaina or non-Jaina?
141. In the Caturmukha (Four-faced) Jaina temple the Ācārya (Hemacandra] gave a discourse on the Life of Shri Nemi in front of the Jaina congregation.
142. Desirous of the flavor of the ambrosia of his speech, great many listeners gathered there for a sight of him.
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143. [In due course] he dwelt on the episode of the renunciation (parivrajyā) of the Pāndavas (i.e. dikshā as Jaina munis). The brāhmanas (of the Court) came to know about it and burning with jealousy, reported this to the King [Siddharāja Jayasimha] saying :
144. "O Lord! Formerly, Krishna Dvaipāyana the Great Vyāsa, having known with his super-knowledge of the future, had laid down, the extraordinary lives of Yudhishthira and others [in the Mahābhārata).
145. “It is said there that these sons of Pandu, towards the end of their life, went to the Himalayas.
146. “Having bathed and duly worshipped Lord Shambhu enshrined at Kedāra, they, endowed with great devotion, achieved their desired goal (death and heaven).
147. “But these lowly (shūdra) Shvetāmbaras, disregarding (vidruta) the true sayings of the Smriti (the Mahābhārata), utter in front of their congregation, words which contradict that Smriti.
148. “This inappropriate act foretells misfortune (arishta) to you. Therefore, the King should protect [his kingdom) from the evil acts of his subjects.
149. “O Thoughtful King, think in your heart and act accordingly.” Having said these solemn words, the group of brāhmanas remained quiet.
150. The King said: “Kings do not act rashly, notably in the matter of criticizing the manifold religions (darshanas), without deliberation”.
151. “In this case, they are to be questioned. Should they give truthful answer, they are to be honored by me, for justice alone is our friend”.
152. “Ācārya Hema[candra) is a Nirgrantha, a great Muni, who has abandoned all possessions. How can he ever speak untruth?”
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153. The brāhmanas pondered over this and said: "So be it.” The King then invited Hemacandra, the best of Munis.
154. The King, being impartial and equal to all, asked [Hemacandra): “Is it true, according to the scriptures, that the Pāndavas had taken the [muni]dikshā in the manner of the religion of the Arhats?"
155. The Acārya said: “Our former teachers have narrated the going of the Pāndavas to the Himālayas, a narrative from the Mahābhārata".
156. “But we do not know if the Pāndavas described in our scriptures are identical with or different from the Pāndavas praised in the scripture [Mahābhārata] authored by Vyāsa.”
157. The King said: “O Muni! How were they (the Pāndavas) many, born in the past?” And the Teacher said: “O King! Listen to the answer [to your question]”:
158. In the narrative constructed by Vyāsa, it is said that the Son of Gangā (Bhishma), the Grandfather, while entering the battlefield, said to his fellow warriors:
159. “When I give up my life, my body should be remated on a piece of earth, ever pure, a place where no one has ever been cremated.'
160-161. “When having fought in the just war, the Grandfather gave up his life, his attendants, bearing in mind his instruction, took up his body and went up a hill. It was a place high up on the peak of a hill, where no human may travel. At that time the speech of a deity (devatā) came forth: atra Bhishma-shatam dagdham Pandavānām shatatrayam/ Dronācārya-sahasram tu Karņa-samkhyā na vidyatel 162
162. ‘A hundred Bhishmas, and three hundred Pāndavas have been cremated here. And a thousand Dronācāryas; as for Karnas, their number is countless.' //162
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etad vayam ihākarṇya vyamrishāma svacetasi/ bahūnām madhyatah ke 'pi ced bhaveyur Jinashritah//163 163. "Having heard this (from our teachers) and having thought about it, we conclude that among these many [Pandavas] there may be some who were followers of the Jina (=Jaina)".
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164. "On the Shatrunjaya Hill there are images of them to be seen, as well as in the temple of Shri Candraprabha in the city Nasikyapura".
165. "We have thus heard this from various sources; we know [only] ours clearly. Surely, knowledge can be received from any source, like the Ganges it is no one's familyestate".
166 "May the learned brahmanas, experts in the knowledge of the Vedas and Smritis, also be questioned [about the veracity of the above story]."
167-69. The King heard this and said: "This Jaina, a Sage, speaks what is true. Answer him if there is truth in it according to your opinion. I am the judge in this matter, being equal to all religions, one who has worshiped at temples in honor of all Divinities.'
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170-71. The brahmanas, having no answer to give, embraced silence. The King honored the Acārya and said: "Venerable Sir! No fault at all attaches to you, in setting forth events as described in your scripture (sva-agama)."
172. Honored thus by the King, the Venerable Hemacandra shone forth like the blazing sun in the sky of the Jaina teaching. (Prabhavakacarita of Prabhācandra, p. 187-88.) No wonder, without the benefit of an Index of shlokas, the brahmanas were unable to identify the quoted verse “atra Bhishma-shatam dagdham": it would be a task like finding a needle in haystack. So I looked up the modern Critical Edition of the Mahabharata (Sukthankar, Poona, 1933) and was aston
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ished to see that this verse was missing there, even in a marginal note!
The Ācārya was famous for his ready wit. Summing up what he had heard in prose, he might have put it into a verse that numbered the Pāndavas in hundreds. He was thus able to demonstrate the multiplicity of the Pāndavas, and in the spirit of syādvāda—“ke 'pi cit bhaveyuh” — claiming modestly one of them for the Jaina Faith!
If necessary, the Ācārya would have probably explained in a similar manner the plurality of Krishna-s and Balarāmas, Rāma-s and Lakshmana-s, Rāvana-s and Jarāsandha-s, and others, to account for the differences between their narratives in the Jaina and Brāhmanical works.
The alternative to this (plurality) would have been to present the story of a single group of Pāndavas, as it is found in the Mahābhārata, call that story false and misinformed, and then offer a corrected and “true” version, as propounded in the Jaina tradition.
This is precisely what the Digambara Bhattāraka Vādicandra, residing in the area near Khambhat in southern Gujarat, achieved in his Pāndava-Purāna, composed in 1598 A.D.
It begins with King Shrenika's visit to the samavasarana of Tirthnkara Mahāvira. Shrenika asked the Venerable Gautama (ganadhara) questions about the wonderful story of the sons of King Pāndu. He added, however:
“O Lord, I have heard from the mouths of the wrong believers (mithyā-drishti-mukhān mayā shruyate) a story of some kind about them, because of that my mind is constantly troubled by doubt. (I. 73-74.)
“Therefore, O Lord, first I will narrate to you the story of the Bhārata (Bhāratam yan mayāshrāvi (i.e. the Mahābhārata), as I heard it."
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In some ninety verses the King related this (Bhārata) genealogy of the Pāndavas. Accordingly, Vādicandra calls this First Canto “Shivapurāna (i.e., Bhārata)-abhimata-Pāndavotpattivarnano nāma prathamah sargah//
Hearing him, the Venerable Gautama, the great monk, endowed with avadhi-jnāna said:
nedam tathyam, asatyatām upagatam, na shrāvyam etat kathā/I, 164 c.
“This is not as it truly is. This is certainly false. This is not a story to listen to. But one should listen to the glory of the Pāndavas as is spoken from the mouth of the monk Gautama.”
The Second Canto, containing Gautama's account of the true genealogy is therefore aptly called “Jaina-mataabhimata-Dhritarāshtra-Pāndu-Vidura-sambhava-varnano nāma dvitiyah sargah/" In the remaining seventeen sargas, Vādicandra narrates the story of the Pāndavas, (ending in their becoming Jaina munis and attaining moksha) as it is found in the Digambara Mahāpurāna of Ācārya Gunabhadra mentioned above.
As error must precede correction, it is evident that Bhattāraka Vādicandra unwittingly granted priority to the Mahābhārata version of the Pandava story. The Mahābhārata is known as Itihāsa, "history” (of court intrigues, wars of succession) of the kingdoms in ancient times, and in the present case, the history of the Great War between the Pāndavas and their cousins, the Kauravas, in which Krishna plays a major
part.
The time frame measured by the four Yugas (KritaTretā-Dvāpara-Kali) within which this Great War took place presents a new means for testing the validity of the two competing Jaina versions of the same event, by Bhattāraka Vādicandra and by Acārya Hemacandra.
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In recent times, it has been argued, on the basis of certain references within the Epic, that two momentous events, namely, the Mahābhārata War and the 'manifestation of Krishna, mark the transition from the third, Dvāpara-yuga, to the fourth, Kali-yuga :
antare caiva samprāpte kalidvāparayor iha/ samantapancake yuddham KuruPāndavasenayoh//
Mahābhārata, 1, 2-9-10.
dvāparasya kalesh caiva samdhau paryavasānike/ prādurbhāvah Kamsahetor mathurāyām bhavishayti//
12, 326.82. (See Gonzalez-Reimann, p. 109.) According to the traditional Indian Pancānga Calendar, the present Kali Yuga had started in 3,102 B.C. (See GonzalezReimann, p. 169.) Accordingly, the possible date for Krishna and the Pāndavas could be 3,200 B.C., a historical date, comparable to the date assigned by modern historians for the oldest pyramid in Egypt.
The Jaina tradition does not reckon time by the division of the Yugas. The Jainas do recognize the Vikrama samvat (56 B.C.) and the Shālivāhana Shaka (78 A.D.) for secular purposes, but have traditionally used the Vira-nirvāna-samvat, counting from the death (nirvāna) of Tirthankara Mahāvira. He died at the age of seventy-two, traditionally in 526 B.C. Mahāvira (599-526 B.C.) is recognized as a contemporary of the Buddha Gautama (622-542 B.C.) [Modern scholars have suggested a date closer to c. 450 B.C. for the nirvāna of both.]
The Jaina texts have produced elaborate charts assigning the (Indian) dates (tithi-s and so forth) for the auspicious events (kalyānas), namely, conception, birth, renunciation, attainment of Omniscience (kevalajnana), and death (nirvāna), of the twenty-four Tirthankaras, from Rishabha to Mahāvira. The charts also provide the (often astronomical) number of
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years for the duration (tirtha-kala) of the Order of Mendicants established by a given Tirthankara, counting the years probably on the model of the Vira-nirvana-samvat. (See JainendraSiddhanta-Kosha, II, p. 390.)
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From this it is possible to calculate the number of years that separate the last three Tirthankaras: Nemi> Parshva> Mahavira. The Jainas believe that the twenty-third Tirthankara Pārshva attained nirvana at the age of 100, and that this event happened 178 years before the birth of the twenty-fourth Tirthankara Mahavira. This will yield the dates 599-526 B.C. for Mahāvira, and 877-777 B.C. for Pārshva, both living within the first millennium B.C.
As was seen above, both Shvetambara and Digambara traditions agree that Tirthankara Nemi was a contemporary of Krishna, Balarama, and the five Pandava brothers. Since Vadicandra's Pandavas are the same as the Pandavas of the Mahābhārata, the date of Tirthankara Nemi should be the same as that of the Pandavas, namely, 3,200 B.C. Nemi is said to have lived for one thousand years. Let us assume that Nemi was born in 4,300 B.C. and died in 3,300 B.C. This would provide the tirtha-kāla, between Tirthankara Nemi and Parshva, to be 2423 years (3300-877- 2423).
But this date would not be acceptable to the Jaina tradition. The Jainas unanimously place Tirthankara Nemi in a remote past, measured not in thousands but in tens of thousands of years, to be precise, eighty-four thousand, three hundred and eighty (84,380) years, before the birth of Tirthankara Parshva!
Acarya Hemacandra's statement, in the court of Siddharaja Jayasimha, about the plurality of the Pandavas, his unprecedented assertion that the Jaina Pandavas are different from the Pandavas of the Mahābhārata, thus stands vindicated, a testimony to his reputation as Kalikāla-sarvajna!
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It is not likely that either Acārya Hemacandra or Bhattāraka Vādicandra or even Ācārya Prabhācandra, the author of the Prabhāvakacarita, were aware of the chronological sequences of their heroes as compared to datings assigned to the yugas in the Brāhmanical Mahābhārata. This is a preoccupation of modern scholars as noted more than one hundred years ago by the German scholar George Buhler, an officer in the Educational Department of the Bombay Government, who first noted this massive literature and insightfully observed:
“The motives with which the Caritras and Prabandhas were written, are to edify the congregations, to convince them of the magnificence and the might of the Jaina faith and to supply the monks with the material for their sermons, or, when the subject is purely of worldly interest, to provide the public with pleasant entertainment.” (Buhler's: The Life of Hemacandrācārya, Chapter I, p. 3.
Bibliography: Cauppannamahāpurisacariyam by Ācārya Shri Shilānka, ed.
by A.M. Bhojak, Prakrit Text Society, Series No.3,
Ahmedabad, 1961. Jainendra Siddhānta-Kosha, ed. by Jinendra Varni, Varanasi:
Bharatiya Jnanapitha, 1971. Mahābhārata (Critical Edition), ed. by V. S. Sukthankar,
Poona: BORI, 1933-1959. Prabhāvakacarita of Prabhācandrācārya, ed. by Jina Vijaya
Muni, Singhi Jaina Series (No. 13) Calcutta, 1931. Trishashtishalākāpurushacaritra of Hemacandrācārya, trans
lated by Helen Johnson, GOS. Vol. 5,*Baroda. Buhler, George: Professor G. Buhler's The Life of
Hemacandrācārya, Translated from the original German by Dr. Manilal Patel, Singhi Jaina Series (No. 11), Calcutta, 1936.
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Gonzalez-Reimann, Luis: The Mahābhārata and the Yugas,
New York: Peter Lang, 2002. Jaini, Padmanabh S.: ”Jaina Purānas: A Purānic Counter Tradi
tion,” in Collected Papers on Jaina Studies. Delhi:
Motilal Banarsidass, 2000 Jaini, Padmanabh S.: "Pāndava-Purāna of Vādicandra (Text
and Translation)", in Journal of Indian Philosophy, (Cantos I and II) Vol. 25, 1997; (Cantos III and IV) Vol. 25, 1997; (Cantos V and VI), Vol. 26, 1998.
Dorderechtt, Netherlands: Kluver Academic Publishers. ORIGINAL PASSAGES : (1) Prabhavakacarita: Vyåsa-sandarbhitåkhyane shri Gångeyah pitåmahah/ yuddhapraveshakåle "såvuvåca svam paricchadam//158/ mama pråņaparityåge tatra samskriyatåm tanuh na yatra ko'pi dagdhah pråg bhumikhande sadå shucau//159/ vidhåya nyåyyasamgråmam muktapråņe pitåmahe/ vimrishya tadvacas te ‘ngam utpåtyåsya yayur girau//160/ amånushapracåre ca shringe kutrápi connate/ amuncan devatåvåni kåpi tatrodyayau tadå//161// tathả hiatra Bhishmashatam dagdham Påndavånåm shatatrayam/ Dronåcåryasahasram tu Karnasamkhyå na vidyate//162/ etad vayam ihåkarnya vyamrishảma svacetasi/ bahủnåm madhyatah ke ‘pi ced bhaveyur Jinåshritåh//163|| girau Shatrunjaye teshåm pratyakshåm santi murtayah/ shriNåsikyapure santi shrimac Candraprabhålaye//164// Kedåre ca mahåtirthe ko’pi kutråpi tadratah/ bahủnåm madhyato dharmmam tatra jnånam na nah sphutam
//165/ Smårtå apy anuyujyantåm vedavidyåvishåradåh/ jnånam kutrápi ced Gangå nahi kasyåpi paitriki//166// råjå shrutvå’ha tat satyam vakti Jainarshir esha yat/ atra brůtottaram tathyam yady asti bhavatåm mate//167/
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atra karyye hi yushmabhir ekam tathyåm vaco nanu/ ajalpi yad vicåryaiva kåryam kåryam kshmåbhritå//168// tathåham eva kårye 'tra drishtåntah samadarshanah/ samastadevapråsådasamuhasya vidhåpanåt//169// uttarånudayåt tatra maunam åshishriyams tadå/ svabhåvo jagato naiva hetuh kashcin nirarthakah//170// råjnå satkrtya surishcåbhåshyata svågamoditam/ vyåkhyånam kurvatåm samyag důshanam nåsti vo’nvapi//171/ bhupena satkrtashcaivam Hemacandraprabhus tadå/ shriJaina-shåsanavyomni pracakåshe gabhastivat//172//
Prabhåvakacarita, p. 187-88. (II) Vådicandra's Påndava-puråna : „Sanmatim bhaktyå Shrenikah samatåhitah/... papraccha Pånduputrånåm caritam citratåspadam//I.70 kena punyena samjåth kasya tirthe jineshinah/ katham utpattir eteshåm katham råjyasya sambhavah/771 Kuru-Påndavayoh svåmin katham vairam abhūd iha/ yuddhena kulanåshashca katham jayaparåjayau//72 yathåkathancic chrânåtha mithyådrishtimukhån mayå/ shruyate ten maccetah satatam samshayảyate//73 Bhåratam yan mayåshråvi yådrik tådrik tavågratah/ púrvam hi procyate tac ca shravyam vijnåtam apy alam//74... ity uktvå viraråma vamsham akhilam shriPåndavånåm nrpah/ shrutvovåca mahåmunir gunanidhir jnånåvadhir Gautamah/ nedam tathyam asatyatåm upagatam na shråvyam etat kathå/ shrotavyam prativåsaram munimukhác chriPåndaviyam yashah
//164 ShriPåndavapuråne Shivapurånåbhimata-Påndavotpattivarnano nåma prathamah sargah//
... Jainamatåbhimata-Dhritaråshtra-Påndu-Vidurasambhava-varnano nama dvitiyah sargah/ (III) Mahåbhårata:
The Mahåbhårata war took place a little before the
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beginning of the Kaliyuga.
The Kali Yuga had started in the year 3102 B.C. (see Gonzalez-Reimann, p. 169).
Antare caiva sampråpte kalidvåparayor iha/ samantapancake yuddham kurupåndavasenayoh//
1, 2-9-10 dvåparasya kalesh caiva samdhau paryavasånike/ prådurbhåvah Kamsahetor Mathuråyåm bhavishyati//
(Gonzalez-Reimann, p. 109.)
Department of South and Southeast Asian Studies
7233 Dwinellw Hall #2540
University of California, BERKELEY, CA 94720. USA
आ लेखमां आपेल तारणो परत्वे बे-त्रण मुद्दाओ नोंधवा योग्य छ : १. महर्षि व्यासे महाभारत-महाकाव्यनी रचना करी, महर्षि वाल्मीकिए रामायण
महाकाव्यनी रचना करी; ते सिवाय आ बन्ने महाकाव्योने अनुसरीने ज्ञातअज्ञात सेंकडो बल्के हजारो कविओए संस्कृत-बिनसंस्कृत भाषाओमां रचनाओ करी छे, जेमां उपरोक्त बन्ने कर्ताओने संमत कथाओथी अनेक स्थानोमां वाचनाभेद, परम्पराभेद तथा प्रसंगभेद आवे छे; अने विद्वज्जनो एनाथी सुपरिचित छे. शक्य छे के श्रीहेमचन्द्राचार्य समक्ष तेवी कोई रचना होय के जेमां 'अत्र भीष्मशतं दग्धं.......' व. श्लोको उपलब्ध थता होय, अने तेमांथी तेमणे राजा कुमारपालनी सभामां आ वात रजू करी होय. बीजी रीते विचारीए, तो ब्राह्मणोए श्रीहेमचन्द्राचार्यने अने विशेष तो जैनोने भोंठा पाडवा माटे राजा सिद्धराज जयसिंहने आ वातनी (पाण्डवोए दीक्षा लीधी व.) जाण/फरियाद करी अने तेनो खुलासो करवा माटे राजाए श्रीहेमचन्द्राचार्य ने सभामां बोलाव्या त्यारे श्रीहेमचन्द्राचार्य सम्प्रदायो वच्चे तिराड न पडे - वैमनस्य न थाय अने सौमनस्य वधे ए माटे समन्वय बुद्धिथी आ वात करी होय तेवं मानवं वधु उचित लागे छे.
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३. जर्मन विद्वान् प्रो. बुलरना विधान परत्वे कहेवानुं के तेमणे लखेल श्रीहेमचन्द्राचार्यनुं चरित्र वांचतां स्पष्ट जणाय छे के तेओ जैन परम्पराओ अने जैन इतिहासथी अनभिज्ञ हता, अने तेथी जैनो प्रत्ये पूर्वग्रहयुक्त मानस धरावता होवा जोईए. तेथी तेमनां विधानोने एटलुं महत्त्व आपवुं जरूरी लागतुं नथी.
शी.
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Calendar terminology
A note on Hemacandra's Abhidhānacintāmaņi and Sanskrit karmavāți
Prof. Dr. Nalini Balbir
(1) Together with the Amarakoșa, Hemacandra's Abhidhānacintāmaņi (AC) is the most famous dictionary of synonyms produced in Sanskrit.' It is well known that Hemacandra's work broadly follows the same lines as his illustrious predecessor and that both lexicons share a large amount of words and definitions. This is true, but only in part. The Abhidhānacintāmani is clearly the work of a Jaina and the Jaina stamp is present in many ways. One of the most visible signs is the mythological information and the list of Jinas found in the first section (I.24ff.). The result was that Hemacandra's work played a significant role in the discovery of Jainism by Western scholars and in the intuition that Jainism had its own tenets and view of the world, which were different from those of other Indian religions.
Attention to the Abhidhānacintāmaņi was first called by Henry Thomas Colebrooke (1765-1837). who, having gone to Bengal as a "writer” in 1782 remained in the service of the East India Company for thirty years. Mainly based in Calcutta, he has been recognized as a pioneer in many branches of Indian studies - a role he could not have played, however, without the collaboration of many Indian pandits or informants. He was the President of the Asiatic Society of Bengal,
1. Edition mainly used here: Abhidhāna Chintamani of Sri Hemachandrācharya. Edited with an Introduction by Dr. Nemicandra Šāstri and the Maniprabhā Hindi Commentary and Notes by Sri Haragovinda Sāstri, Varanasi. The Chowkhamba Sanskrit Series Office, Varanasi. 1964 (The Vidyabhawan Sanskrit Series 109). See below for other editions and manuscripts consulted.
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as well as the editor and main contributor of Asiatic Researches. His broad interests also extended to the Jains, as is evidenced primarily from his "Observations on the Sect of Jains" (1807). Whereas Major Mackenzie and Colonel Buchanan, he writes, got information on the Jains from "Jain priests" and oral information, "I am enabled to corroborate both statements, from conversation with Jaina priests, and frombooks in my possession, written by authors of the Jaina persuasion" (p. 287).
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The main part of Colebrooke's essay is then devoted to the contents of these books :
"I shall state the substance of a few passages from a work of great authority among the Jainas, entitled Kalpasûtra, and from a vocabulary of the Sanskrit language by an author of the Jaina sect" (p. 302).
'Combined information provided by both works about the 24 Jinas of the avasarpini and other Jaina mythological categories is then analyzed:
"[Jinas] appear to be the deified saints, who are now worshipped by the Jaina sect.
They are all figured in the same contemplative posture, with little variation in their appearance, besides a difference of complexion; but the several Jinas have distinguishing marks or characteristic signs, which are usually engraved on the pedestals of their images, to discriminate them" (p. 304).
Ages and periods of time as described in the Abhidhānacintamani are also dealt-with (p. 313). Finally comes an exposition of Jaina cosmology: "The Samgrahaṇiratna and Lokanāb-sūtra [i.e. Lokanāli), both in Prakrit, are the authorities
2. 'Observations on the sect of Jains' in Asiatic Researches Vol. 9, pp. 287-322, Calcutta, 1807 (London ed. 1809), available on Google Books: reprinted in Miscellaneous Essays by H. T. Colerooke (with the Life of the Author. By his son, Sir T.E.Colebrooke, in 3 volumes), Vol. 2, pp. 171 ff.
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here used” (p. 318 n. 2). A lithographed edition of the Abhidhānacintāmaņi was prepared under the supervision of Colebrooke and published in Calcutta as early as 1807 AD. The bibliographical details are given in the form of three Sanskrit verses on the title page:
sanekārthanāmamālatmakaḥ koşa-varaḥ śubhaḥ Hemacandra-praņitābhidhānacintāmaņir maṇiḥ //1// nagare Kalikattâkhye Kolavrūk-sāhavajnayā śriVidyākaramiśreņa krta-sūci-samanvitaḥ 1/21/ Veda-rttv-așța-kalānātha-sammite Vikramābdake mudrākṣarena vipreņa Vāvūrāmeņa lekhitaḥ //3//
The date is indicated in the Indian fashion, using the Vikrama era and a chronogram : VS 1864. As announced here, the book contains two of Hemacandra's lexicons, the Abhidhānacintāmaņi (pp. 1-120) and the Anekāarthasamgraha (pp. 1-140), preceded by an index (pp. 1-96) prepared by Vidyākaramiśra and followed by Corrigenda (pp. 1-4+1).3
This first edition, known as “Calcutta edition”, was uncritical and deprived of clues and tools necessary to communicate the value of Hemacandra's work. It was superseded 40 years later by the critical edition jointly provided by Otto Böhtlingk (1815-1904) and Charles Rieu (1820-1902):4
3. I consulted the copy kept at the Bibliothèque Nationale de France, Paris, Département des manuscrits orientaux (shelfmark: Sanscrit 1049), purchased at Mirzapur, 16 Oct. 1816. 4. Charles Rieu was a Swiss orientalist, who studied in Bonn and then went to St. Petersburg where he developed a friendship with Otto Böhtlingk. The Preface of the Abhidhānacintāmaņi explains the genesis of their common project: Böhtlingk was puzzled by the Calcutta edition of the text, and Rieu, who was in England, wished to prepare a new edition. He suggested that they work on it jointly. Later on, Rieu worked in the manuscript section of the British Museum, London, as professor of Persian and Arabic in University College London and as Adams-Professor in Cambridge (see Otto Böhtlingk, Briefe zum Petersburger Wörterbuch, Harrassowitz Verlag, Wiesbaden, 2007, p. 723 n. 6).
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Hemak'andra's Abhidhānacintāmaņi, ein systematisch Angeordnetes Synonymisches Lexicon. Herausgegeben, übersetzt und mit Anmerkungen begleitet (St. Petersburg, 1847). Their edition is based on five different manuscripts and makes use of a commentary, accessible to them in one manuscript of the Bodleian Library (Oxford). This commentary, where Sanskrit and vernacular language (bhāṣā) are used, is copiously quoted in the accompanying notes.
Hence the Abhithānacintāmaņi belongs to those few Jaina works which were edited by Western scholars in the early period of Indology and in the infancy of what became Jaina studies.
(2)
The Abhidhancintāmani is a comprehensive storehouse of Sanskrit words of all kinds. But it is also a dictionary of all topics that relate to the foundations of Jainism and the specificities of the Jaina conception of the world. We have already referred above to section I (devādhidevakānda). It deals with the concept of Arhat through its 25 denominations, listing the 24 Jinas of the present era, giving synonym names for some of them. Their bio-data and characteristics are also given: names of their fathers and of their mothers, of their yakşas and yaksis, of what is called dhvaja (in other texts lāñchana) and the colour of their body. Names of the 24 Jinas of the past and those of the future are then listed. The supernatural features (atisaya) characterizing all the Jinas are defined through adjectives (1.57). Proceeding in such a way, Hemacandra follows the earlier tradition established, for instance, in the Āvaśyakaniryukti, the Sthānānga- and the Samavāyānga-sūtra, etc., combining elements from different origins but also handing down or introducing concepts not traced earlier. Thus the Abhidhānacintāmaņi is often referred to as the key Svetambara source for the 24 Jinas' emblems (lāñchana). Key-figures of
5.
See already Colebrooke "Observations...", pp. 305ff.
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early Jaina history are present in this first section as well: the nine ganas and eleven gaṇadharas, the last kevalin the six śrutakevalins and the daśapūrvins.
In the subsequent sections, other key concepts and categories typical of the Jaina worldview are given a prominent place. Section II Devakāņda (4ff.) deals with the world of gods, in a typically Jaina fashion, listing the traditional groups of deities, even though it also provides the names of Brahma, Siva and Visņu. The structure of Section IV Tiryakkāņda corresponds to the traditional Jaina classification of life based on the number of sense organs, in increasing order, and the environment where these beings live. Section IV unfolds in agreement with the introductory statements of Section I:
(narās tịtiye) tiryañcas turye ekendriyādayaḥ // 20 ekendriyāḥ prthivy-ambu-tejo-vāyu-mahiruhaḥ krmi-pilakao-lūtādyāḥ syur dvi-tri-catur-indriyāḥ//2 pañcendriyāś cebha-keki-matsyādyāḥ sthala-khāmbugāḥ (pañcendriyā eva devā narā nairaiyikā api) //22
“The earth, water, fire, air, and [plants] have a single organ or sense; worms, ants, spiders, and the like, have two, three, or four senses; elephants, peacocks, fish, and other beings moving on the earth, in the sky or in water, are furnished with five senses: (and so are gods and men, and the inhabitants of hell)??
6. Pilaka: a rare form against the usual pipilika. 7. Compare Trisasti. I.1.160-168 (with different words) where this exposition takes place in the discussion of abhayadāna. Another occasion when Hemacandra deals with the classification of living beings is the exposition of the four gatis. His purpose is then to describe the torments awaiting all those born in the tiryaggati. cf. Trisasți. III. 4.100-126. 8. Colebrooke's translation in “Observations", p. 302. 9. Hemacandra's Nighanțušesa, a botanical vocabulary, is a supplement to this section of the AC.
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one-sensed (ekendriya)
beings
|prthivio ambuo
tejas
1-134 135-162 163-171 172-175 176-267
vāvuo
mahiruhao beings
268-272
beings
273-275
two-sensed (dvindriya) three-sensed (trindriya) four-sensed (caturindriya) five-sensed (pancendriya)
beings
276-281
beings living on earth (sthala-ga) 282-381
living in the sky (kha-ga) |382-409 living in water (ambu-ga) |410-423
The wealth of vocabulary contained in this section is remarkable, as it is in several Jaina texts, and would need further exploration: the influence of local languages is felt in several animal names which have no equivalent in Sanskrit.
Section V Nārakakanda, the shortest of the lexicon, provides essentials of the Jaina view on the subject: the names of the seven hells from top to bottom and the number of residences (narakāvāsa) in each of them.
In this manifesto of Jaina doctrine, which echoes the beginning of the author's Trişasțišalākāpuruşacaritra in many respects, there is an area which has special significance and is dealt with at length, namely that of time (II.40cd-76). We are immediately immersed in a distinctly Jaina-atmosphere:
kālo dvividho 'vasarpiny-utsarpiņi-vibhedataḥ (II,4lab) This half-verse is found identical in the Trişasti. (1.2.112ab: golden age, life of Sāgaracandra and Priyadarśanā). In the two works the subsequent stanzas describe the “twelve-spoked
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wheel of time" (dvādaśāram kālacakram, AC II.42 and Triṣaști. I.2.111) at length. The name of each spoke is given, followed by its total duration. Life duration, size and the mortals' frequency of food-taking in the different spokes are stated for the first three spokes, then for the fourth, fifth and six ones. Most verses of the Abhidhanacintamani are found identical in the corresponding passage of the Triṣasti. 10 There is no doubt that the author has used them in a "paste-copy" procedure, perhaps from the Triṣaști. to the AC: their descriptive contents make them different in character from all surrounding verses of the lexicon, which are made of lists of synonyms, and thus break the normal pace. In the Triṣaști. these didactic verses are supplemented by some additional ones describing the resources supplied by the kalpadrumas, a topic irrelevant in the context of a discussion of time like that of the lexicon, although the word itself is present (II.47).
In the Abhidhanacintamani, this typically Jaina development is followed by terms relating to the divisions of time in the usual meaning of the word, from the smallest unit (18 nimeṣa 1 kāṣṭhā, II. 50) up to the largest one, the kalpa (II.75), before proceeding to the next topic, namely space (vyoma, II.77). The result is a combination of purely Jaina data wilh pan-Indian information of the type provided in the Amarakośa or the Hindu Purāņas (see below 3 (b)). Yet, Hemacandra's lexicon distinguishes itself from other sources by the presence of terms he is the only one to mention. Sanskrit karmavāți (herefrom k.) is such a word:
pañcadasahoratrah syat pakṣaḥ, sa bahulo 'sitaḥ. tithiḥ punaḥ karmavați, pratipat pakṣatiḥ same (II.61; 147 in Böhtlingk-Rieu ed.).
=
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Because the earliest scholarly edition of Hemacandra's lexicon was co-authored by Otto Böhtlingk, the word entered the Sanskrit-German dictionary (also known as the Petersburg
10. AC. II.43 =Triṣaști. I.2. 113; 44 = 114; 47-134; 48-135; 49=136.
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dictionary) co-authored by him and R. Roth, with a unique reference, that of the Abhidhānacintāmaņi:
“karmavāti (karman + vāți) f. ein lunarer Tag (weil er die heiligen Werke abgrenzt) H. 147”.
From there k. reached Monier-Williams Sanskrit-English Dictionary, which is largely based on its German predecessor. It is listed under compounds starting with karma:
"-vāți f. 'demarcation or regulation of religious actions,' a lunar day” without any textual reference. The same is true of Apte's Sanskrit-English Dictionary:
"-vāți lunar day (tithi)”. Unfortunately, I have not been able to have access to the cards prepared for the Pune Sanskrit and Prakrit dictionaries kept at the Bhandarkar Oriental Research Institute during the preparation of this article. Hence I am not sure to be in possession of a complete corpus of occurrences of k.
To the best of my knowledge, Hemacandra's Abhidhānacintāmani is the earliest source where k. is recorded (see below 3)." But it is not the only one. The authenticity and liveliness of k. outside the lexicon is guaranteed by its presence in Jaina manuscript colophons and occasionally in inscriptions, where it occurs only in the locative, karm(m)avāțyām (see below Appendix). Some authors of manuscript catalogues seem to have been puzzled by this word. Schubring did not read it properly in one case (below Appendix, “VS 1832"). It is listed among place names in some
11. It is neither in Halāyudha's Abhidhānaratnamālā nor in Dhananjaya's Nāmamālā. - Its presence in the 20th century Susilanāmamāla by Vijayasusilasūri, Sirohi, Vira samvat 2504 (VS 2034. Nemi sam. 29) is not significant, as this is a modern compilation mainly based on the AC. I was regrettably unable to check the Vaijayanti and Subhasilagani's Pañcavargasamgrahanāmamālā (14th-15th c.).
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Indian catalogues (Ahmedabad, LD. Appendix 5 to vols. 1-3, p. 625). But the contexts all point in the same direction: k. is a term relating to the calendar and appears in the expression of the date (see Appendix) always at the same place within the usual format, which is in its fullest form:
era (Vikrama or Vikrama and sāka) - year - month - fortnight (dark or bright) - ordinal number of the day (any from 1 to 15) + karmavātyām - name of the day - asterism.
Thus k. appears in the expression of the date according to the system of the lunar calendar, and does not distinguish itself from tithi or dina, which are liable to occupy the same place. It is, nevertheless, much rarer than these two words. For instance, out of 1000 inscriptions published by Nahar, only one of them has k. (see below Appendix "VS 1857'). Manuscript catalogues point to a similar situation. This raises a question: is k. exactly the same as tithi, as Hemacandra seems to indicate, or does it refer to something different of more restrictive meaning? In view of the generally precise use of calendar terms in India, the question is at least justified. 12 Observing the available data does not provide any hint or allow any conclusion. The use of k. is not restricted or specified by any contextual constraint. The word appears in connection with any of the twelve months, with the bright or with the dark fortnight, and with any of the 15 days. We can also observe that in the colophons where k. occurs, the Sāka era is often mentioned along with the Vikrama era, but there are colophons with both eras and tithi, not k. Thus it is difficult to draw any conclusion from this fact. Copyists of the manuscripts where the word occurs are monks or pandits who are
12. See, for instance, F. Kielhorn, “The meanings of vyatipāta", The Indian Antiquary, August 1891, reprinted in Kleine Schriften, Wiesbaden, 1969, pp. 627-628: the actual use of the term in dates is in agreement with the definitions available in specialized treatises.
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disciples of monks, not professional scribes but this element is probably not relevant anyway.
Although Hemacandra's record proves that the word was known in the 12th century, no record of it could be traced in the earliest available contemporary manuscripts, those on palm-leaf. But this absence has to be considered within a broader perspective: a word meaning "date" or "day" is not systematically mentioned in the colophons of these manuscripts. The general pattern is, rather: number-week day - adya iha + place name.!In the later phases, the date formula is expanded in full, and all resources of the calendar vocabulary are made use of consistently: for example, pratipad “the first day of the lunar fortnight”, pārņimā or rākā “full moon day”, or a less frequent term such as bhūtestā “fourteenth day of a fortnight” (see below Appendix “VS 1716"), when the actual date requires it. If the manuscript or inscription is written on a festival day, its name may be given.14 Synonyms for the names of the months and the week days are often handled skillfully with literary ambitions.15 The word k. is part of such a development. Its occurrences are much later than the palm-leaf manuscript period. But, on the other hand, the word has a
13. E.g.: samvat 1191 varse Bhādrapada sudi 8 bhaume adyeha Dhavalakke ..., samvat 1330 varșe Vaišākha sudi 14 gurau.... etc. 14. E.g. Vaišākha-sukla-pakse 3 aksayatrtiya dine. etc. See below Appendix "VS 1783” for another example. 15. See individual notes in the Appendix below. - Other rare names of months are recorded and discussed in the Sesasamgraha by Hemacandra, the Appendix to his AC, on which see Th. Zachariae, “Die Nachträge zu dem synonymischen Worterbuch des Hemacandra” (WZKM 16, 1902, reprinted in Kleine Schriften, Wiesbaden. 1977, pp. 471-502). ucchara for Vaišākha and sairin for Kārttika are two such examples (p. 479 n. 4 and p. 480 n. 1). Sanskrit grammars, especially that of Hemacandra, have special sutras regarding the formation of nouns or adjectives relating to the calendar: see F. Kielhorn, "Pausha Samvatsara”, The Indian Antiquary 1893, reprinted in Kleine Schriften. Wiesbaden, 1969, pp. 274-275.
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long life, being attested as late as the middle of the 19th century. The provenances of manuscript colophons or inscriptions where k. occurs point to a geographical area of expansion limited to Western India and the areas of North India where Śvetāmbara monastic orders were prevalent.
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(3)16
Skt. karmavati is thus an isolated and rather puzzling term, the actual meaning of which is obscure. Superficially, however, it has the structure of a compound word. Analyzing its two members in turn and the relation they have could be rewarding.
(a) -vāți and time divisions
In Hemacandra's auto-commentary on the Abhidhānacintamani, karmavāți is analysed very briefly: karmmaṇām vāțiva karmmavāṭi, tat-pratibaddhatvāt teṣām.17 "k.v. like an enclosure of activities, because they are demarcated by it".
This explanation is the basis of the expanded definitions found in Böhtlingk-Roth and Monier-Williams Sanskrit dictionaries (see above 2). It is not especially illuminating. Nevertheless, it invites to understand Skt. vāți, which normally means "orchard" or "enclosure", with a metaphorical connotation because it is here applied to an abstract notion. The Sāroddhāra commentary by Śrivallabhagaṇi (VS 1667 = 1610
16. Sections 3(b) and 4 have largely benefited from several observations and hints given by Prof. Sreeramula Rajeswara Sarma (Aligarh/ Düsseldorf), a renowned specialist of the history of Indian sciences, to whom part of the material was submitted. I am most grateful to him for his interest and generous help. Some of his suggestions or remarks are marked as such. I am only responsible for any mistake or shortcoming.
17. P. 33 in The Abhidhana Chintamani Nāmamālā ... ed. by ... Shree VijayNemiSurishwarji Mahārāj... Jain Sahitya Vardhak Sabha. Ahmedabad. V.S. 2032. Vira Samvat 2502. Nemi Samvat 28 (Shree-Vruddhi- NumiAmrut-Granthamālā 72).
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CE) provides interesting information about several other words in the same passage of Hemacandra's lexicon, but nothing for k.18 The statement tithi-nāmni dve just emphasizes that k. means the same thing as tithi. The absence of further comment on k. means either that the word was very common and too obvious or, on the contrary, that it was somewhat mysterious. Now, in the area of calendar vocabulary there are other words which are formed in a way similar to k. The Sāroddhāra commentary is valuable in that it provides vernacular (bhāṣā) equivalents for some of the technical terms: pakhavādi for Skt. pakşa, amavāsi-padivāri-sandhi and pūnima-padivāri-sandhi as referring to the juncture with the new moon and the full moon respectively. Thus there is a small group of terms in this semantic area with a second element -vāți, -vādi and -vāri. The different forms are phonetic variants. These words can be brought near to all compounds relating to time units where the second element is Skt. -vāra or a derivative from it in Sanskrit or Middle Indian. Names for the seven days of the week with all their possible synonyms are one well-known case (somavāra, mangala-vāra, etc.). But there are other similar formations, some of which have to be supposed on account of words found in modern Indian languages:
Guj. pakhavādum, pakhavādiyam, pakhavāờika < Skt. pakșa + vāra or vāraka, Hindi pakhavāda, K.L. Turner, CDIAL 7634; Ski. dina-vāra, divasa-vāra; *rātrivāra CDIAL 10703, nighttime, cf. Pāli rattivāra in Kattikarattivāra (Critical Pāli Dictionary III 2);
18. I had no access to any printed edition of this commentary and used the British Library manuscript Or. 13806 (folio 10 verso). 19. The boundaries between Sanskrit, Prakrit and vernaculars are often very thin in lexicons, as rightly observed long ago by Th. Zachariae, Beiträge zur Indischen Lexicographic, Berlin, 1883, p. 55ff.
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*vasanta-vāra CDIAL 11441, springtime and *hayanavāra CDIAL 13978, winter as etymons of two Kati words;
Skt. tithi-vāra attested for example in Weber No. 261 (manuscript colophon), CDIAL 5811 *tithivāra "a festival", cf., for instance, Hindi tyohar and Guj. tehevār.
Ski., karmavāți can easily join this group if we assume that it is a wrong or hyper-Sanskritisation. The second element is not Skt. vāti but a Sanskritisation of a Middle-Indian or vernacular form in-vāri. The feminine form -vāri instead of -vāra, also shown in some of the terms mentioned above, can easily be justified because of the implied or explicit association of such terms with the feminine noun tithi. This solution seems more satisfactory than taking -vați in k. with its face value "enclosure", as the traditional explanation does, for it would be the only example where vāți has a metaphorical meaning for which no support is found anywhere, not even in modern languages (see CDIAL 11480). On the semantic level, the boundary between vați "enclosure" and "vāra "the time fixed or appointed for anything", hence "day" or "time division" can be felt as rather thin, which makes the word at least superficially understandable without too much difficulty. (b) karma- with time divisions
The list of divisions of time in increasing order found in Hemacandra's Abhidhānacintāmaṇi is neither the only one of its kind nor the earliest. The convenient synoptic table established by W. Kirfel shows that the designations correspond to those found in the Amarakosa and in the Markandeyapurāṇa. For the smaller units, in particular, Hemacandra uses nimeṣa and kāṣṭhā, like the former, and not avali, ucchvāsa, stoka, etc., which are typical of Jaina sources.20
20. W. Kirfel. Die Kosmographie der Inder, Bonn-Leipzig, 1920, p. 334 and 337-338. Another convenient table of the divisions of time in the Jaina tradition is found in Jainendra Siddhanta Kosa vol. 2 p. 216 (under
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Hemacandra's list corresponds exactly to the classical divisions which define lime in its conventional meaning, as found -in Kundakunda:
860
samao nimiso kaṭṭhā kala ya avali tado divāratti māsoduya-samvaccharo tti kālo parāyatto
The larger units are common to all sources: 30 muhurta = 1 ahorātra
1 pakṣa
15 ahoratra 2 pakṣa 2 māsa = I rtu 3 rtu I ayana 2 ayana = 1 samvatsara 5 sumvatsara
1 yuga
=
=
=
1 māsa
(Pancastikāya 25).
=
But no attestation of karmavați or of any other time division based on karma is found in any of these sources.
Some insight, however, is provided by the Jambuddivapannatti (JP), the Surapannatti (SP) and the Joisakarandaga (JK) in passages which are interrelated.21 Written in Jaina Māhārāṣṭri and composed in verses, the JK-deals with the same subject matter as the SP, and is partly based on it. The seventh
ganita). It is based on Śvetambara and Digambara sources: Anuogaddāra. Jambudddivapannatti and Joisakaraṇḍaga on the one hand. Tiloyappannatti and Jambuddivapannatti (Dig.) on the other hand. 21. 1 have used the following editions: JP with Santicandra's commentary: vol. 13 in Agamasuttāni. Ed. Muni ‘Diparatnasagara. 2000. SP with Malayagiri's commentary: vol. 12 in Agamasuttāni. Ed. Muni Diparatnasāgura. 2000; see also Josef Friedrich Kohl, Die Suryaprajñapti. Versnch vine Textgeschichte, Stuttgart, 1937 - JK: Pādaliptasūri's Joisakdraṇḍagam with Prakṛta tippanaka by Vacaka Sivanandi. Ed. Late Muni Shri Punyavijayaji. Introduction etc. by Pt. Amritlal Mohanlal Bhojak, Bombay, Shri Mahavira Jaina Vidyalaya, 1989 (Jaina-AgamaSeries No. 17 (Part III)), reviewed by Nalini Balbir in Bulletin d'Etudes
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and last chapter of the JP describes at length matters relating to time.
These three texts have the same two terms starting with kammao which refer to time units. They are defined in a consistent manner and form a system of their own.
(i) kamma-samvacchara is one of the designations for the third of the five types of the year known as pamāņa. In the sūtras (JP 7, sū. 278 and SP 10.20 sū. 78), it appears under the name udu (Skt. stu):" tā pamāņa-samvacchare pamcavihe pam, tam: nakkhatte, camde, udū, āicce, abhivaddhie: (1) constellation year, (2) lunar year, (3) season year, (4) sun year, (5) extended year. The same list in a different sequence is read in JK:
ādicco udu camdo rikkho abhivaddhito ya pamc'ete samvaccharā Jiņa-mate... (JK 40).23
śānticandra's commentary on JP underlines two features of this type of year: its practical relevance, and the fact that it is designated by two other terms “in another source":
Indiennes (Paris), No. 7-8, 1989-90, pp. 375-387. I refer to the versenumbering of this ed. I had access to the ed. with Malayagiri's commentary ed. by Ac. Sāgarānandasūri and published by Rishabhadevaji Kesharimal Ratlam. 1928, only for the relevant extracts (kindly sent to me by Prof. S.R.Sarma). 22. For another calendar term using uu- in Jaina sources, see Nalini Balbir, "A new instance of Common Jaina and Buddhist Terminology”, in G. Roth Felicitation Volume, Patna, 1997, pp. 211-231 [Pali utubaddha and Pkt. uubaddha). 23. The definition of five types of year and their length is also taken up in Nemicandra's Pravacanasāroddhāra, dvāra 142. But the category considered is the jugasamvacchara (also dealt with in JP 7, sū. 278), not the pamāṇasamvacchara. - Another rare word referring to a type of year is iềvatsara. idā”, recorded in Hemacandra's Sesasamgraha, see Th. Zachariae. "Die Nachträge" (as in n. 15), p. 476.
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rtavo - loka-prasiddhā vasantādayaḥ tad-vyavahārahetuḥ samvatsarah rtusamvatsarah. granthantare casya nāma sāvana-samvatsaraḥ karma-samvatsaras ceti (p. 484).
"Other source" means here JK. In the definition of this year, which consists of 12 months, 24 fortnights and 360 days and nights, its three alternate names are given:
samvaccharo u bārasa māsā, pakkha ya te cauvvisam tinn 'eva ya saṭṭha-saya havamti räimdiyāṇam tu iya esa kamo bhanio niyama" samvaccharassa kammassa kammo tti savano tti ya uḍu tti vi ya tassa ṇāmāņi (JK 38-39).
The phrase samvacchara- kamma- (adjective) is abridged into kammo. In Malayagiri's commentary on SP where these verses are quoted, the phrase is rendered as a Sanskrit compound. The explanation underlines, the practical relevance of this type of year in connection with the daily activities of the people:
karma-samvatsarah savana-samvatsarah, tatra karma laukiko vyvavahāras tatpradhanaḥ samvatsaraḥ karma-samvatsarah loko hi prayaḥ sarvo 'py anenaiva samvatsarena vyavaharati (p. 179).
The phrase kamma- samvacchara- occurs again when the number of days of each type of year is defined:
tinni saya puna saṭṭhā kammo samvaccharo havati (JK 44cd). "Three hundred and sixty days are a 'practical (= civil) year"".
In another verse of The JK, which deals with the number of muhurtas in each type of year, the "practical year", which has 10800 of them, is designated by the synonym kammavāsa:25
24. The reading adopted in the Jaina Agama Series edition is: eso u kamo bhanito uḍussa.
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dasa c'eva sahassāim ațsh'eva sayā havasti samkaliyā eyam muhutta-gaạitam ņātavvam kamma-vāsassa
(JK 49). (ii) kamma-māsa, sāvaņa-māsa or uu/riu-māsa. To each of the five years listed above correspond five types of months.26 The “practical month”, which like the corresponding year, has three names, consists of 30 days and nights:
... sāvaņo tisam (JK 62).??
“A practical (month) has 30 (days and nights)”. Thus this type of month has an integer number of days (Pkt. niramsayā, "non fractional”; Skt. paripūrņa), differently from the other types of months.28 This makes the kamma-māsa easier to handle in practical matters than the other types of months:
kammo niramsayāe māso vavahāra-kārao loe sesā u saņsayāe29 vavahāre dukkarā ghettum (JK 106
25. Kammasamvacchara is also one of the five years known as lakkhana ("symbolic”?) in JP 7.278. The verse of the sūtra (281) where it is defined states that it is that year in which the vegetation occurs when it is not the normal period of vegetation. The flower and fruit go when it is not their season. The rainfall is also not at proper time and as required” (p. 523 of Sacitra sriJambūdvipa prajñapti sūtra. ed. Pravartak Shri Amar Muni, Delhi, 2006). 26. They are also listed and described in Nemicandra's Pratvacanasāroddhara, dvāra 141. 27. Compare unmāso tisa-dino of the Pravacanasāroddhāra and the commentary: esa eva ca stu-māsaḥ karma-māsa iti vā samāna-māsa (!) iti vā vyavahriyate. uktam ca: esa c'eva un-māso kamma-māso sāvana-māso bhannai / (unidentified quotation) 28. Cf. JK 61-64; 30 12. ahorātras in the solar month. 29 32/62 in the lunar month, 27 21/67 in the constellation month and 31 121/124 in the extended month. - Compare Arthasāstra 2.20. 47-51 (see below).
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94 in ed. with commm; also quoted in commen
in JAS ed.
taries on JP p. 485 and SP p. 180).
=
Śanticandra (on JP) and Malayagiri (on JK) comment this statement in almost identical words:
aditya-karma-candra-nakṣatrābhivaṛdhita-māsānāṁ madhye karma-samvatsara-sambandhi 'niramsataya' paripūrṇa-trimsad-ahoratm-pramāṇatayā loke sukhena vyavaharako bhavati (M p. 55) / lokavyavahāra-kārakah syat (Ś).
māso
Śanticandra says that a fractional number (samsa-) does not suit practical activities. An integer number is thus: 60 = 1 muhurta, 30 m. = 1 day and 1 month
=
1 fortnight, 2 fortnights
=
=
palas 1 ghatikā, 2 gh. night, 15 days and nights and 12 months 1 year. This is what is used by people in ordinary life. Experts in treatises, he observes, use all thetypes of months for their respective activities.30
=
The two commentators illustrate their point with one example each. Malayagiri refers to "uneducated people like peasants":
tatha hi haladharadayo pi bālisās trimsatam ahoratrān parigaṇayya māsam parikalpayanti (comm. on JK p. 55).
Śanticandra notes that in common parlance people employ the practical year and the practical month when they speak of the increase in the age of their children or for time intervals:
rtumasa-ṛtusamvatsarav eva lokaiḥ putravṛddhi
29. This is the reading of JK with Malayagiri's commentary and of the commentaries on JP and SP, against the Jaina-Agama-Series ed.: evam
sesā māsā.
30. Sastra-vedibhis tu sarve 'pi masāḥ sva-sva-karyeṣu niyojitāḥ (p. 485)
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kālāntaravýddhy-ādişu vyavahriyete (p. 485).
The five types of years and months distinguished in the Svetāmbara sources are not unique to them. The five types of years recall the 4+1 systems of measurement of time listed in the beginning of Varāhamihira's Brhatsamhitā where it is said that the astrologer should be caturņām ... mānānām saurasāvana-naksatra-cāndrāņām adhimāsakāvama-sambhavasya ca kāraņābhijñaḥ (II.4). Pkt. sāvana, one of the three designations of the "practical” year and month, corresponds to Skt. sāvana here. This is a Vedic term precisely designating the year of 360 days and nights and the month of 30 days and nights. The word refers to the pressuring of Soma, called savana (from SU-) which, according to the old Vedic ritual, continues for 360 days and constitute the year-long sacrifice.31 The Jaina commentators have clearly recognized this term, which they Sanskritized correctly into savaņa/sāvaņa although they connect it with a different root:
savanam - karmasu preraṇam șū(t) prerane [= Hemacandra, Dhātupātha 5.18; root SU-] iti vacanāt tat-pradhānaḥ samvatsaraḥ savana-samvatsara ity apy
asya nāma (M on SP p. 180).32
The Arthaśāstra distinguishes five types of months with varying durations corresponding to those transmitted in Jaina sources:
trimsad-ahorātraḥ karma-māsaḥ (2.20.47). sārdhaḥ sauraḥ (48). ardha-nyūnaś candra-māsaḥ (49). saptavimśatir naksatra-māsaḥ (50), dvātrimsad balamāsaḥ (51).
“Thirty days and nights make a works month. A half 31. See, for instance, G. Thibaut, Astronomie, Astrologie und Mathematik, Strassburg, 1899 (Grundriss der Indo-Arischen Philologie und Altertumskunde III,9), S 17. 32. Thus Prakrit dictionaries should have two entries sāvana: 1) corresponding to Skt. sāvana, 2) corresponding to Skt. śrāvana.
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day more a solar month. A half day less makes a lunar month. Twenty-seven (days and nights) make a month of constellations. Thirty-two make a month for the army". (Kangle's translation).
The translation "a month for the army", partly based on the rather tortuous explanations of the commentators, is highly questionable. Balamāsa is indeed a strange compound, for balais a substantive and not an adjective. Yet, given the context of the list and the parallel fivefold distinction of months in the Jaina sources, I am convinced that balamāsa is a rough semantic equivalent of Pkt. abhivaḍdhia-, and refers to the "extended month". Its duration as 32 days and nights in the Arthasāstra corresponds roughly with that of the JK, namely 31 121/124:
abhivaḍdhito tu maso ekkattisam bhave ahorattā
bhāga sata ekkavisam cauvisa-satena chedeṇam (JK 64).
Like for the other types of months, the duration is given in the Arthasastra in the form of an integer number, while it is given as the fractional number required by the calculations in JK (see note 28 above). If this assumption is correct, we would have another instance of correspondence between the Arthasästra and Jaina sources in matters of time-divisions and conception. These agreements do not mean that one borrowed from the other, but that both reflect a common Indian knowledge characteristic of the "middle period".33
Skt. karmasamvatsara is also attested in the Arthaśāstra:
33. Another example of similar correspondence between the Surapannatti and the AS relates to the length of the shade, which has been analyzed by H. Jacobi. His observation is worth remembering: "Die Übereinstimmung Kautilyas mit den Jainas ist von Interesse. Nicht als ob jener, ein Verfechter der brahmanischen Rechtgläubigkeit, von den Jainas etwas entlehnt hätte, sondern beide geben ja nur das wieder, was, wie Thibaut im Grundriss III, 9, § 11 auseinandersetzt, während der mittleren Periode der indischen Astronomie indisches Gemeingut war. Es is nicht
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trišatam catuhpañcāśac cāhorātrāņām karma-samvatsaraḥ
(2.7.6). “Three hundred and fifty-four days and nights consti
tute the year of work” (Kangle's translation).
This duration is not that of the k.s. as understood in the Jaina sources (= 360 days), but that of a lunar year, close to the number of 354 12/62 given in JK:
tinni ahoratta-satā caupannā niyamaso have cando
bhāgā ya bāras' eva ya bāvațțhi-kateņa chedeņa (45).
Thus as understood in the Arthaśāstra the two terms karmasamvatsara- and māsa- do not belong to the same computing system: k.-māsa belongs to the “practical year” and k.samvatsara to the lunar year. (iii) The Jaina pair of terms could well have been completed by a third one formed in the same way (karma+X) referring to the “practical = civil day” in contradistinction with the lunar day, the well-known tithi, and other types of days corresponding to the different types of years and months. In the Svetāmbara canonical sources, this notion is conveyed by ahoratta and rāimdiya. The duration of the civil day is given as follows: be ņāliyā muhutto, satthim puņa ņāliyā ahoratto
(JK 36ab) “Two nālikās are one muhūrta; and 60 nālikās are one day and night”. Such a definition corresponds to the Vedāngas, the Arthaśāstra
zu bezweifeln, dass das Kautiliya der Abfassung des Jainakanons zeitlich nahegestanden hat; denn nur so erklären sich die mannigfachen Übereinstimmungen in Vorstellungen und Worten zwischen beiden", p. 254 = p. 895 of the article "Einteilung des Tages und Zeitmessung im alten Indien" (ZDMG 74, 1920) as reprinted in H. Jacobi, Kleine Schriften, Wiesbaden, 1970.
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(pañcadasa-muhurto divaso rātris ca, 2.20.37) or other sources. The expected third term, however, is found in Malayagiri's commentary on the Joisakarandaga:
tatha suryadivasasyaikaṣaṣṭir ghaṭikāḥ parimāṇam, karmma-divasasasya ṣaṣṭir ghaṭikāḥ, candra-divasasya... (p. 36).
"The solar day measures 61 ghatikās, the civil day 60,34 the lunar day
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Further, the JK defines time not only in time units but also in units of volume and units of weight. The reason is that the instrument used to measure time is a water clock, which discharges through a small hole certain amount of water in 24 minutes. The volume discharged in one naḍi is two āḍhakas, and the weight of the water discharged in one nāḍi is 100 palas.35 Malayagiri elaborates on this by systematically giving the volume and weight of each type of day:
ekaikasyam ca ghaṭikāyām dvau dvav aḍhakāv iti divasasya meya-cintāyām: surya-divasasya dvavimsam adhaka-satam parimanam 122, karmma-divasasya vimsaty-uttaram aḍhaka-satam 120 ... /ekaikasyām ca nālikāyām pala-satam iti tulyatva-cintāyām idam divasasya parimāṇam: surya-divasasyaikaṣaṣṭiḥ palasatāni parimāṇam 6100, karmma-divasasya ṣaṣṭiḥ palasatāni 6000 (M on JK p. 37).
"In terms of the volume of the day, since in each ghaṭikā (=nādi) there are 2 aḍhakas, the solar day has 122, the civil day 120 ... In terms of the weight of the day, since in one nalika there are 100 palas, the size is as follows: the solar day has 6100, the civil day 6000...".
34. Pkt. ṇāliyā and Pkt. ghaḍiyā and their Sanskrit equivalents are all
synonyms.
35. JK 34-35.
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(c) karma and vāți
If we combine the results of (a) and (b), it becomes possible to assume the following equivalence: karma-vāți = * karma-vāra/vāri = karma-divasa, “practical day, day for/of work/rituals = civil day”. In its original meaning the word could refer to the basic time unit which was used in classical India for practical activities and as the basis for payment of wages, interests, etc. The commentary on the Arthaśāstra (2.7.6 and 20.47) or works such as the Sukraniti and Sanskrit mathematical texts use civil time units in daily computing: "Karmasamvatsaraḥ: this is the official year for completing the accounts of the various undertakings”. 36 Whereas the solar and lunar years are important for astrological and astronomical purposes, the starting point of all calculations is the “standard” year of 30 days x 12 months = 360 days. The year of 360 civil days (called ahorātra, dina, divasa) is the one invariably mentioned in the introductory definitions of technical terms (paribhāșa-sanjñā) in Sanskrit mathematical treatises.37 No generic term designating this type of year is used or has been handed down to us in these sources, but reference to the civil year, month and day is generally implied. The Jaina tradition, however, has coined a specific terminology for these notions, used it consistently and preserved it sporadically in the available sources: civil time had probably much more impact in practice than what they reveal. The statement of the Jaina commentator Šānticandra (see above 3(b) (ii)) proves true: everybody uses different types of years depending on his field
Yet part of the mystery remains: why is karmavāti or its Prakrit equivalent not attested as a term in any treatise? Why does it appear in a unique manner in the 12th century,
36. Note in Kangle's translation of AŚ 2.7.6. 37. See Aryabhata, Aryabhatiya, Kālakriyāpāda 1; Sridhara, Pāțiganita, rule 13; Mahāvira, Ganitasārasamgraha 1.34-35. (References kindly communicated by Prof. S.R. Sarma).
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only to surge up again from the 15th century onwards in manuscript colophons (and inscriptions)? Nonetheless, it appears that karmavāți and tithi could have referred originally to two types of days reckoning. Tithi is a lunar day, and k. a civil day. Their juxtaposition in Hemacandra's lexicon does not automatically imply that they designate the same notion. All the verses do not follow the same pattern, and reading pakṣaḥ sa bahulo 'sitaḥ (II.6lab), nobody would fancy that bahula = asita! Or does k. refer to special or unusual astrological conditions, which could account for its rarity? All shades of differentiation between k. and tithi, however, seem to be blurred in the actual usage. How could it be explained otherwise that inscriptions on different images located in the same temple refer to exactly the same date, with tithau in some and karmavāțyām in others? (See below Appendix end). The fact that it is attested in Jaina manuscript colophons and inscriptions until rather recent times (19th century at least) would suggest that this technical term belonged to daily use and was part of the language of the scribes, although it does not seem to have any vernacular equivalent. In the two occurrences which could be traced in Old Gujarati poems, the word has its “Sanskrit” form (see below Appendix “VS 1757” and “VS 1760”). Karmavāți could have entered Hemacandra's Abhidhānacintāmaņi from the practice (of scribes? of astronomers?) and survived there as a unicum preserved by the lexicographer as a treasure.
(4) Appendix : occurrences of Skt. karmavāți
This list cannot pretend to be exhaustive. However, it is meant to be complete for the works listed below: Balbir Nalini, Sheth Kanhaiyalal, Sheth Kalpana K., Tripathi Candrabhāl,
Catalogue of the Jain manuscripts of the British Library, including the Victoria and Albert Museum and the British Museum,
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London, The British Library, the Institute of Jainology, 2006. 3 vols. + CD.
BhORI = H.R. Kapadia, Descriptive Catalogue of the Government Collections of Manuscripts deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, Vol. XVII to XIX.
Ahmedabad, L.D. = Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts in the L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, Ahmedabad: Volumes 14, 1963-68 (L.D. Series 2, 5, 15, 20) by Muni Punyavijaya. [Volumes 5 and 6 do not quote the colophons. Hence they are of no use in the present context].
JGK = M.D. Desai, Jaina Gurjar Kavio. Descriptive catalogue of Jain poets and their works in Gujarati Language. Edition used: revised by Jayant Kothari, Bombay, Shri Mahavir Jain Vidyalay, Vol. 1-9, 1987-1997.
Nahar, Puran Chand, Jaina Inscriptions, Delhi, Indian Book Gallery, 2nd ed. 1983 (1st ed. 1918).
PrS = A.M. Shah, Śri Prasastisamgraha, Ahmedabad, 1937.
Punyavijayaji, Muni Shri, New Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts. Jesalmer Collection, Ahmedabad, 1972 (L.D. Series 36). Schubring, Walther: Die Jaina-Handschriften der Preussischen Staatsbibliothek. Neuerwerbungen seit 1891. Leipzig, Otto Harrassowitz, 1944.
Tripathi, Chandrabhal: Catalogue of the Jaina Manuscripts at Strasbourg. Leiden, E.J. Brill (Indologia Berolinensis 4), 1975.
Vinayasagar Mahopadhyāya Vinayasagar, Kharataragaccha Pratiṣṭhā Lekha-samgraha, Prakrit Bharati Academy, Jaipur, 2005.
=
Weber, Albrecht: Verzeichniss der Sanskrit- und Prâkrit-Handschriften der Königlichen Bibliothek zu Berlin, Zweiter Band. Zweite und Dritte Abtheilung. Berlin, 1888 & 1892.
(Other catalogues or collections of Prasastis than these have been consulted as well. They are not in this list because they do not contain any occurrence of k.).
Manuscript colophons
VS 1497: samvat 1497 varṣe Bhadrapada-māse asita-pakṣe
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pamcami 5 kramavāțyām (sic) prthivitanaya-vāre Bharanināmni nakșatre Harṣaṇa-yoge ... Sūracandranagare ... (Punyavijaya No. 1231; Vivekavilāsa). – Harṣaṇa is the 14th of the 27 yogas (S.R. Sarma). VS 1539: samvat 1539 varșe Kārttika-māsāsita-caturthikarmmavātyām śani-rohiņi-yoge srimati srijesalamerumahādurge ...(Weber No. 2021; commentary of the Praśnottararatnamālā). - Sani-rohiņi-yoga is not one of the 27 yogas, but the compound is attested Jaina inscriptions or manuscript colophons. VS 1642: samvat 1642 Bāhulānjanetara-dvitiyā-karmmavāțyām (read so; Schubring, wrongly: karma-cāļyām) .... Kiskindhānagaryām (Schubring No. 639; Rşimaņdalavrtti). – The month is Bāhula, a synonym of Kārtika recorded in AC II. 69 and in the Amarakoșa. Anjanetara = bahuletara = asitetara = bright fortnight. VS 16xx: ājāneyābja-șaștha-dvija-sadỊśa-same karmmavātyām daśamyām Veșe māse subhāse vimalatara-dine mamju-pakşe valakṣe (Punyavijaya No. 1363; Sthānāngasūtravrtti). - Some elements are unclear, e.g., the understanding of the last two digits of the year and the identity of the month: could it have something to do with işa = Āśvina (AC II.69)? VS 1681: ... samvat 1681 varșe Aśvina-māse bhauma-vāsare trayodasi-karmmavāțyām likhitā śriViramapuri-nagare (PrS No. 756 p. 189; Hemacandra's Abhidhānacintāmaņi!) VS 1716: samvat 1716 varṣe Madhu-māse asita-pakşe bhūtestākarmmavāțyām guru-vāsare ... Seșapure ... (Ahmedabad, L.D., vol. I, No. 627; Kalpasūtra). - Bhūtestā is recorded as a synonym of the fourteenth lunar day of a fortnight (caturdaši) in AC (II.65), but not in Amarakoșa. VS 1720: samvat 1720 varṣe Māgha sudi dvitiyā-karmavātyām budha-vāsare ‘lekhi ... Stambhatirtha-madhye (PrS No. 853
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p. 230; Laghujātakavṛtti).
VS 1721 : samvvati 1721 pramitābde Proṣṭha-māsi sitetarapakṣe śrimati śriSthambhanatirthe aṣṭamyām karmavāṭyām surācārya-vāsareyam likhita (PrS No. 856 p. 230; Jambudvipaprajñapti). - Proṣṭha° could be an abbreviation of Prausthapada, recorded as one of the names of Bhadrapada in AC II.68 and Amarakosa.
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VS 1721: samvvati 1721 pramitābde Pauṣa-māsi sitetara-pakṣe srimati śriSthambhatirthe sutirthe aṣṭamyām karmavāṭyām surācārya-vāsareyam likhita (PrS No. 857 p. 231; Jambudvipaprajñapti).
VS 1724: samvat 1724 Aśvina-sita 5 iti karmavāṭyām likhitā ... śriVallabhapure (Ahmedabad, L.D., Vijayadevasūri collection, vol. IV, Appendix No. 246; Devah prabhostotra).
VS 1731: samvat 1731 varṣe Poșa-vadi caturdasi karmavāṭyām... (PrS No. 919 p. 245; Siddhantacandrikā). VS 1745: samvat 1745 varṣe sake 1610 pra° Aśvina-māse śukla-pakṣe saptamyām karmavāṭyām ... (Ahmedabad, L.D., vol. I, No. 368; Rajapraśniya).
VS 1749:
samvat 1749 hāyane Maghā-māsāvadata-pakṣe oṣadhikāmtādhiṣṭhitāṣṭamikarmavāṭyām
....
śrimad14;
Ahammadāvāda-dramge (Tripathi No. Uttaradhyayanasūtra with Bhāvavijaya's commentary).
VS 1752: samvan-netrendriya-rṣindu (1752) pramite Madhau māsi navamyām karmavāṭyām śriVikramapura-madhye (Ahmedabad, L.D., vol. II, No. 3793; Devaprabhasūri's Pandavacaritra).
VS 1757: samvata 17 samyama giri Pandava mitem, varṣe varṣā dhūri māsākitem
(cali) māsa pahilo sarada ṛtu no asita pakṣa pralakṣae karmavați navami vāru vāra kavi mityukta e
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tūrya māmsum rayā suparem dramge Mahisāmộaka mahim... (JGK vol. 5 No. 3645, p. 141; date of composition of Harivāhana rājā no rāsa by Mohanavijaya). - = VS 1757 (or 8) Kārtika vada 9 śukravāra according to Desai. VS 1760: puraņa kāya muni candra suvarșe (1760), vrddhimāsa śuddha paksa he asťami karmmavāți udayika, saumyavāra supratyakșa he ... (JGK vol. 5 No. 3647, p. 146; date of composition of Mānatumga Mānavati no rāsa by Mohanavijaya). - = VS 1760 adhika māsa śu. 8 budha according to Desai. VS 1765: samvat 1765 varse Kārttika-māse sita-pakṣe navamikarmmavāțyām kuja-vāre ... srimatPattana-pattane (Ahmedabad, L.D., vol. I, No. 2837; Silāngaratha). VS 1766: śrisamvad-darśana-rasa-tyasți-varșe 1766 sāke candra-rāma-rasa-śaśi (1631) pravarttamāne Sukra-māse śukletara-pakse ekādasi-karmavāțyām 11 parharşula-vāsare (BhORI vol. XIX. I, No. 98; Kalyāṇamandirastotra with Saubhāgyamañjari). - Sukra is a synonym of Jyestha recorded in AC II.68 and Amarakosa. VS 1768: bhogyanga-muny-abja-mite (1768) varṣe harșeņa Mrgasira-māse / navamyām karmavāțyām ca likhitam śukravāsare // (Ahmedabad, L.D., vol. II, Appendix No. 5118; Dựstāntaśataka-stabaka). VS 1771: ... sam. 1771 varșe Māgasira-vadi trayodasikarmavāțyām mustari-vāsare ... (PrS No. 1106 p. 287; Upadeśamālāstabaka). – “Mustari-vāsara is Thursday, for muśtari is Arabic for Jupiter. In his astrological work Khețakautuka, Khān-i-khānān Abdul Rahim Khān employs Arabic and Persian words in Sanskrit verses. There verse 51 reads:
muśtari yadi bhavet tāle sāhibaḥ khuśadilo manujaḥ syāt āmilaḥ puru-sakhūn siradāraḥ phāraso hy akaviro mahabūba?.
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But mustari-vāsara would be intelligible only to those who are familiar with tājika, i.e. Islamic astrology in Sanskrit, and not to others” (S.R. Sarma). VS 1780: samvat 1780 varṣe Māgha-māse śukletara-pakṣe 10 daśami-karmavāțyām śanau vāsare lipikytam (PrS No. 1148 p. 296; Sthānāngasūtrastabaka). VS 1780: samvat 1780 varșe Phālguna-māse krşņa-pakşe aştami-karmavāțyām suraguru-vāre ... śriSojita-nagare (PrS No. 1154 p. 298; Haimi nāmamālā). VS 1781: samvat sasi-siddha-sāgara-kumudabāmdhava-mite (1781) Aśvayuja-kļşņa-pakse ekādaśî-karmavāțyām ... Vikramapuravare ... (Ahmedabad, L.D., vol. I, No. 622; Kalpasūtra). VS 1783: samagni-nāgadri-candra-pramitābde (1783), Sāņke vasv-abdhi-rasaike pravarttamāne (1648)/ mahā-māngalyaprada-Bāhulaka-māse dhana-trayodaśyām karmavātyām // cāndrivāsare // srimajJesala-peśala-durgge ... (Balbir-ShethTripathi, British Library Cat. No. 747; Matisāra's Sālibhadracaupai). - For Bāhula see above on “VS 1642". Dhanatrayodasi is a festival celebrated on the 13th day of the dark fortnight of Āśvina, “on which money-lenders and others worship money” (F. Kielhorn, “Festal days of the Hindu lunar calendar”, Indian Antiquary 1897, reprinted in Kleine Schriften, Wiesbaden, 1969, p. 866). Known in Gujarati as Dhanteras “Wealth Thirteenth”, it is also part of the Svetāmbara Jaina calendar (cf. J.E. Cort, Jains in the World, Oxford University Press, 2001, p. 164). VS 1785: samvat kusumāyudhāyudha-kailasa-bhūdhara-sirastaţikānta-bhūdhana-gaganāngaņa-tilaka-vāhana-rajanibhūşaņapramite varșe hșsya-vaidusya-sākṣiņi vicakşaņa-mukhyamānaniye Taisye māsi valakṣa-vipaksa-pakse pañcamyām karmavātyām budha-jana-manojña-jña-vāsare, akarkasa-pariņati
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svāmini karka-lagne tasminn eva ca nandāņśa-svāmini likhitam idam praśastam pustakam (Ahmedabad, L.D., Vijayadevasūri collection, vol. IV, Appendix No. 473; Yogaśāstraantaraślokas). - This is a rather complicated chronogram. The understanding as “1785" is given in the Catalogue entry. Taisa is a synonym of Pausa recorded in AC II. 66 and Amarakoșa. VS 1786: samvat 1786 varșe Phālgunavadi-pakşa-pañcamiti karmavātyām budhe likhitā ... Srimālapure (Ahmedabad, L.D., Vijayadevasūri collection, vol. IV, Appendix No. 88; Kalpasūtra-stabaka). VS 1796: samvad-rasānga [read oanka, S.R. Sarma]-munibhūl 796 same Aśvayuji bahuletare pakşe daśamyām karmavāțyām suci-vāre SriPhalavarddikāpuri ... Vijayadaśamidine prathama-prahare 'lekhi. (Punyavijaya No. 1735; Sārasvatavyākaraṇaţikā). - Note the mention of the prahara as well, something which is not very common. VS 1802: samvat 1802 varse māsottama-māsi Nabhasi māsi rākāyāḥ karmmavāțyām sititara-pakşe ... Nimvaļigrāme cāturmāsikam kurvati (Ahmedabad, L.D., vol. II, No. 5135; Bhartyharitrisati-vrtti). – Since rākā refers to the 15th and last day of the bright fortnight, sititara corrected by the editor in śitetara “dark” is strange (S.R. Sarma). VS 1804 : abdhi-kham-vyāla-candrai 1804 śca pramite vatsare alikham māsi taișe site pakşe, śubhām Sthānāṁga-dipikām 1 karmmavāțyāṁ dvitiyāyāḥ, vāre ru+amgārake (= day of the week) mudā (Balbir-Sheth Tripathi : British Library Cat. No. 15; Sthānāngasūtra with Megharāja’s Dipikā). - (S)taişe: see above about “VS 1785". VS 1811: samvat 1811 varșe Mārggasire māse sukla-pakse saptami-karmavāțyām devaguru-vāsare ... (Balbir-Sheth Tripathi : British Library Cat. No. 246; Șaļāvasyakavyākhyāna
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by Hitaruci). VS 1812 : samvat netraika-astādaśa-śatāni varșe (1812) Sāke 1677 pravarttamānye (sic) sriSamtoșa-nāmni māse sveta-pakşe navami-karmavāțyām śrimārttamda-vāsare śriBhāvanagaramadhye lasyum chai (BhORI vol. XIX. I.II, No. 455; Vidhipañcavimśatika with Țabbā). VS (1)832: samvat netrāgni-vasu-abde(sic) mite Phālguna-sitapakșe șaștyām karmavāțyām mārttaņda-vāre ... (Schubring No. 743; no place name given; Jivasamāsavștti by Hemacandra Maladhārin). - In the chronogram a word signifying "one" is missing (S.R. Sarma). VS 1838: sam | 1838 varșe dvi Jyesta vadi 14 karmmavāțyām ... (Balbir-Sheth-Tripathi 2006, British Library, Cat. No. 1065; Siddhācalastavana by Padmavijaya). VS 1840: śriman-nypati-Vikramārkasamayātitāt samvat 1840 Sāke sriśālivāhanasya 1705 pravarttamāne māsottame Jyestamāse śubhe śukla-pakşe pancamyām 5 karmavāțyām girvāṇaguru-vāsare ... śrimajJayapura-nagare (Schubring No. 1076; Vijayacandacariya). VS 1844: samvat 1844 varșe Sāke 1709 pravarttamāne Aśvinamāse krsna-pakşe tļtīyāyām karmavātyām vāsare ... (BhORI vol. XVII, 2a, No. 564; Paryusaņāstāhnikā-vyākhyāna). VS 1845: samvat-candra-gaja-veda-bāņa (1845) mitis Tapāmāse asitetara-pakse 9 navamyām karmavātyām jña-vāsare / samvat 1902 miti Phālguna vada 2 śukra(?) vāre samāptam (BhORI vol. XIX II II, No. 387; Udayaviragaại's Pārsvanāthacaritra). - Tapāḥ is a synonym of Māgha recorded in AC II. 67 and in the Amarakoșa. VS 1850: samvat 1850 Śāke 1715 pravarttamāne Mārgaśirşa vadi 11 bhrgau vāsare karmavātyām Sripūrabidara-nayare ... (Weber No. 2172: Bhartrhari's Satakatrava with vernacular glosses).
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VS 1851: samvat 1851 varșe Śāke 1716 pravarttamāne Kārttika-māse visada-pakse saptamyām karmavāțyām ... (Ahmedabad, L.D., vol. I, No. 264; Bhagavatisūtravrtti). VS 1878: samvat gajādri-vasu-candrābde (1878) Śāke vahnyabdhi-muni-sasi-pramite bde (1743) Aśvin-māse sukla-pakse dvādaśyām karmavādhi (tyām; read -vāți)-kumudani-vāsare śrimad Rājanagre ... (Ahmedabad, L.D., vol. I, No. 3172; Karmavipākaprakaraņa-stabaka). – Kumudanio “is probably a misreading for kumudini-nātha-vāsare, i.e. Monday” (S.R. Sarma). VS 1883: samvat 1883 rā Phālguna-krșņa-pratipatkarmmavāțyām iti srimacChuddhadanti-drange ... (Ahmedabad, L.D., vol. I, No. 680; Kalpasūtra-bālāvabodha). VS 1888: samvad-dhanañjaya-pradara-naga-dvijarāja- (1888) hāyane Suci-māse prāk-pakșe șașthi-karmmavāțyām daityagurughasre ... SriKottaļā-durge. (Ahmedabad, L.D., vol. II, No. 6210; Maheśvarakavi's Sabdaprabhedanāmamālā). - Prākpaksa should be the equivalent of bahulapaksa “since in north India the months begin with the dark fortnight” (S.R. Sarma). According to AC (II.68) and Amarakosa, suci is another name of Așādha. Daityaguru° is Friday. Ghasra is not so common in manuscript colophons, but it is recorded as a synonym of dina in Abhidhānac. II.52 and Amarakosa. No year visible: ///si-māse subhra-pakṣe dvitiyā-karmmavātyām śukra-vāsare ... (Balbir-Sheth-Tripathi 2006, Cat. No. 722; Bhuvanabhānukevalicaritra with Harikušalagaņi's Gujarati commentary). Inscriptions VS 1857: sam. 1857 miti Caitraka-māse kļşņa-pakşe şaşthyām karmmavā° (Nahar No. 425 = Vinayasāgar No. 1688; inscription on the pādukās of the eleventh Jina, Śreyāmsanātha, in the temple of Simhapura, a village close to Varanasi, installed
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by Hiradharma, a disciple of Jinalabhasūri of the Kharataragaccha, when the suri was Jinaharṣasūri).
VS 1901: samvac-candrāmbara-nidhi-vasundhara 1901 pramite hāyane śrimac Chālivāhana-bhubhṛd-vinyasta-sasta-Sake 1766 pravarttamane masottama-Pauṣa-mãse subhe valakṣa-pakṣe rākāyām 15 karmavāṭyām surācārya-vāsare puṣya-nakṣatre śriRatalama-pattane (Vinayasagar No. 2044; image of Ajitanatha in the Bābā Sā. temple, Ratlam 2058, image of Neminatha in the same temple).
Vinayasagar No.
=
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VS 1920: sriman-nrpati Vikramaditya-samayāt samvatsare kham-nayanāmkendu-mite (1920) pravarttamāne Śāke jñānasiddhi-muni-candra-pramite (1785) māsottama-māse Māghamāse subhe śukla-pakṣe gunendu (= 12+1 13)-mitāyām karmavāṭyām sanivare subha-muhurte (Vinayasagar No. 2291; stone-slab in the Sethji temple, Bundi), cf. also Vinayasagar Nos. 2299, 2304, 2307, 2308: Magha sukla 13 karmavāṭyām. In other inscriptions of the same temple, of the same date tithau instead of karmavāṭyām.
=
University of Paris-3 Sorbonne-Nouvelle,
nalini.balbir@wanadoo.fr
France
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________________ 200 अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२ माहिती : नवां प्रकाशनो 1. पटदर्शन (शत्रुञ्जयतीर्थमाहात्म्यविषयक सचित्र ग्रन्थ). प्रयोजको : डॉ. कल्पना के. शेठ अने प्रा. नलिनी बलबीर; प्र. जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं, ई. 2010 __'जैन विश्व भारती'ना ग्रन्थागारमा वि.सं. 1859 नो आलिखित एक कागळ-पट छे, जेनी लम्बाई 12 मीटर छे. आ पट सचित्र छे. तेमां 24 तीर्थंकरोनां चित्रो छे, अने हरेक चित्र पछी ते ते तीर्थंकर, तेमनी धर्मदेशना, तेमना द्वारा वर्णवायेल शत्रुञ्जय तीर्थना महिमानुं वर्णन लखेल छे. आ वर्णनमां शत्रुञ्जयने लगती विविध वातो, प्रसंगो, कथानको पण वणी लेवायां छे. सद्भाग्ये आ पट अखण्ड स्थितिमां प्राप्त छे. ते पं. केसरविजय द्वारा अगस्तपुरमा आलेखायेल छे. प्रस्तुत प्रकाशनमां सर्वप्रथम एकेक तीर्थंकर, चित्र, ते पछी तेमनी साथे सम्बन्ध धरावता लखाणवाळा अंशना फोटा छापेल छे. ते पछी ते फोटामां वंचाता लखाणनी असल वाचना आपवामां आवी छे. त्यारबाद क्रमशः तेनो हिन्दी अनुवाद अने अंग्रेजी लिप्यन्तर आपेल छे. पृ. 98 थी शरु थता बीजा विभागमा पट-वर्णनमा आवती कथाओ हिन्दीमां अपाई छे. ते पछी 'शत्रुञ्जय महिमा', 'शत्रुञ्जयना उद्धार (17)', 'शत्रुञ्जयनां विविध नाम' - आटला विभागो हिन्दीमां छे. ते पछी 'कठिन शब्दार्थ' आपेल छे. तेमां दरेक शब्दना छेडे ह्न एवं चिह्न केम मूकवामां आव्युं हशे ते समजातुं नथी. पछीनां पृष्ठोमां अंग्रेजी विभाग छे, तेमां आ पुस्तकगत लखाण परत्वे समीक्षात्मक अध्ययनो आपेल छे. एक सरस, समृद्ध, नमूनारूप प्रकाशन. तेरापन्थनी संस्था आवां चित्रो धरावतुं अने मूर्तिपूजकोने मान्य तीर्थविषयक प्रकाशन करे ए एक आवकारदायक घटना छे. प्राचीन सामग्रीने उजागर करवानी दृष्टिथी ज भले होय, परन्तु ते रीते पण आq प्रकाशन करवानी तत्परता एक समुदार प्रणालिका, निर्माण तो अवश्य करे छे, जेने आवकार आपवो ज जोईए. प्रयोजक बन्ने विदुषी बहेनोए पण आ श्रमसाध्य कार्यने पूरो न्याय मळे तेवी कुशलताथी सिद्ध कर्यु छे. अभिनन्दन.