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________________ ३० वि. भाष्य व्यञ्जनावग्रह (अन्त०) अर्थावग्रह (१ समय) 'कशुंक छे.' | ईहा ( अन्त.) 'शुं हशे ?' अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २ इन्द्रिय-अर्थ-सम्बन्ध ↓ अपाय/व्याव. अर्था. (अन्त०) 'शब्द छे. ' ईहा (अन्त.) 'कयो शब्द हशे ?' द्वितीय अपाय/व्याव. अर्था० 'शंखशब्द छे.' प्र.मी. अक्षार्थयोग (अन्त.) १ | दर्शन ( अन्त.) 'कशुंक छे. ' अवग्रह (अन्त.) 'शब्द छे' हा (अन्त.) 'कयो शब्द हशे ?' अपाय (अन्त.) 'शंखशब्द छे. ' उपरना कोष्टकथी ज जणाय छे के बन्ने निरूपणगत भिन्नता परिभाषा अने तबक्काओनी वहेंचणी परत्वे ज छे; वस्तुस्थिति तो बन्नेने सरखी ज स्वीकार्य छे. मुख्यताओ बे मुद्दामां बधी भिन्नता समाई जाय छे : १. अवग्रह पूर्वे दर्शननुं होवुं के न होवुं. २. अवग्रहमां अव्यक्त सामान्य के प्राथमिक विशेषोनुं ग्रहण मानवुं. आ मतभेदना समाधान माटे प्रयास करीओ तो अपायनुं ओक मुख्य कार्य वाचकशब्दना उल्लेखनुं छे २, माटे आपणने थनारो शब्दोल्लेखवाळो निश्चयमात्र अपाय गणाय छे. आ शब्दोल्लेखवाळो बोध १. अक्षार्थयोगनुं काळमान प्र.मी. मां नथी जणाव्युं; पण 'कंइक छे' ओवो बोध थवामां अन्तर्मुहूर्त जेटलो समय पसार थई जाय ओम समजीने अनुं अन्तर्मुहूर्त काळमान लखवामां आव्युं छे. आ अन्तर्मुहूर्तने व्यञ्जनावग्रहथी अटला माटे ओछ्रं कल्प्युं छे के 'कंइक छे' ओवो बोध अस्पष्टपणे अर्थावग्रहथी पूर्वे शरू थई जतो होवो जोईओ अवुं समजाय छे. २. “अपायधृती वचनपर्यायग्राहकत्वेन... ज्ञानमिष्टम् ।" वि. भाष्य-गाथा ५३६ टीका
SR No.520555
Book TitleAnusandhan 2011 02 SrNo 54
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages209
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size2 MB
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