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वि. भाष्य
व्यञ्जनावग्रह (अन्त०)
अर्थावग्रह (१ समय) 'कशुंक छे.'
| ईहा ( अन्त.) 'शुं हशे ?'
अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २
इन्द्रिय-अर्थ-सम्बन्ध ↓
अपाय/व्याव. अर्था. (अन्त०) 'शब्द छे. '
ईहा (अन्त.) 'कयो शब्द हशे ?'
द्वितीय अपाय/व्याव. अर्था० 'शंखशब्द छे.'
प्र.मी.
अक्षार्थयोग (अन्त.) १
| दर्शन ( अन्त.)
'कशुंक छे. '
अवग्रह (अन्त.) 'शब्द छे'
हा (अन्त.) 'कयो शब्द हशे ?'
अपाय (अन्त.) 'शंखशब्द छे. '
उपरना कोष्टकथी ज जणाय छे के बन्ने निरूपणगत भिन्नता परिभाषा अने तबक्काओनी वहेंचणी परत्वे ज छे; वस्तुस्थिति तो बन्नेने सरखी ज स्वीकार्य छे. मुख्यताओ बे मुद्दामां बधी भिन्नता समाई जाय छे : १. अवग्रह पूर्वे दर्शननुं होवुं के न होवुं. २. अवग्रहमां अव्यक्त सामान्य के प्राथमिक विशेषोनुं ग्रहण मानवुं. आ मतभेदना समाधान माटे प्रयास करीओ तो
अपायनुं ओक मुख्य कार्य वाचकशब्दना उल्लेखनुं छे २, माटे आपणने थनारो शब्दोल्लेखवाळो निश्चयमात्र अपाय गणाय छे. आ शब्दोल्लेखवाळो बोध
१. अक्षार्थयोगनुं काळमान प्र.मी. मां नथी जणाव्युं; पण 'कंइक छे' ओवो बोध थवामां अन्तर्मुहूर्त जेटलो समय पसार थई जाय ओम समजीने अनुं अन्तर्मुहूर्त काळमान लखवामां आव्युं छे. आ अन्तर्मुहूर्तने व्यञ्जनावग्रहथी अटला माटे ओछ्रं कल्प्युं छे के 'कंइक छे' ओवो बोध अस्पष्टपणे अर्थावग्रहथी पूर्वे शरू थई जतो होवो जोईओ अवुं समजाय छे.
२. “अपायधृती वचनपर्यायग्राहकत्वेन... ज्ञानमिष्टम् ।" वि. भाष्य-गाथा ५३६ टीका