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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
व्रत पंचम तणउ सुणि भेउ परिग्रह तणउं प्रमाण करेउ । अणहूता मनमंगल देहु, तम्ह कोलीआ जेम वेटेहु ॥९॥ धम्मिय छट्ठउं व्रत निसुणेहु, दिग प्रामाणि तहिं तेमु करेहु । मन मोकल इंम मेल्हि असारि बहुत जोनि हिडिसि संसारि ॥१०॥ व्रत सत्तम तणउ सुणि बंधु भोग प्रभोगह करउं निबंध । पंचइ इन्द्रिय जे वसि करइं ते भवसायरु लीलई तरई ॥११॥ व्रत अट्ठम तणउ विचारु, अनरथ दंड करउ परिहारु । अनेक भेद जे धर्मह तणा एक जीहिं नहु जाअइ वर्णवा ॥१२॥ नवमइ व्रति सामायक लेउ, पडिकमणउं सिज्झायु करेउ । अणुदिणु थुणउ जिणेसर देउ, दुक्खिय कर्म जिम एम उछेउ ॥१३।। दसमा व्रतह तणी विधि जोइ, जिम वलि आवागमणु न होइ । दस दिसि मनु पसरंतु निक(का)रि, जिणवर तणां चलण अनुसारि ॥१४॥ जो जिणधम्मह बूझइ भेउ, व्रतु एकादसमउं निसुणेउ । पोसह तणउ करउ उपवासु, जिम तुम्हि पामउ सिद्धिहि वासु ॥१५॥ व्रत बारमउं भविय निसुणेहु अतिथिदानु फल भणियइ एहु । चंदणि सूपि किया कोमासि वीर पराविउ छट्ठइ मासि ॥१६॥ पारणए तहिं वीरज जिणिंद जय जयकार करइं सुरइंद । कंचण कोडि बारस विसेस, अमर वरीसई तत्थ पएसि ॥१७॥ सती एक सलहीजइ नारि, दिन्नु दानु को मास वियारि । कोसंबी नयरी सुविसाल, जगि जयवंती चंदणबाल ॥१८॥ बारह व्रत श्रावक संभलउ, भावु भगति मन अविचलु धरउ । सव्वं(च्च)उं वयणु सुणउ सहु कोइ, जीवदया विणु धर्म न होइ ॥१९॥
॥ इति श्रावकव्रत चतुष्पदिका ॥