SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२ ५. आनां कारणो तो सद्भाग्ये प्र.मी.मां ज आपणने सांपडे छे :१ १. अपाय, लांबा काळ सुधी टकवू ओ ज अविच्युति होय तो शा माटे अने अपायथी अलग गणवी जोइ ?२ २. परोक्षप्रमाणान्तर्गत स्मृतिनो प्रत्यक्षप्रमाणना भेद तरीके पुनः उल्लेख कई रीते करी शकाय ? आमांथी बीजी बाबत विशे विचारीओ तो, प्राचीन काळे ५ ज्ञानना निरूपणमां ज आलुं जैन प्रमाणशास्त्र समाई जतुं हतुं. माटे अमां मतिज्ञानना निरूपण वखते स्मृतिने सांकळी लेवानुं जरूरी हतुं. परन्तु तार्किकयुगमा प्रमाणना प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद पड्या अने प्रत्यक्षप्रमाणान्तर्गत ५ ज्ञानमां तमाम प्रमाणभेदो समाई जतां होवा छतां, परोक्षप्रमाणना भेद तरीके ५ ज्ञानथी अलग स्मृति, प्रत्यभिज्ञान व.नुं निरूपण चालु थयुं, त्यारे स्मृतिने प्रत्यक्षप्रमाणमांथी नाबूद करवानुं जरूरी बन्यु. तेम ज प्र.मी.मां करवामां आव्युं छे. ६. आगमिक प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्था फक्त अने फक्त भावनात्मक हती. मतलब के ज्ञान विषयग्रहणनी रीते साचुं छे के खोटुं ओ जोवाने बदले प्रमाता व्यक्ति सम्यग्दृष्टि छे के मिथ्यादृष्टि - अना पर प्रमाणव्यवस्था अवलंबती हती. अमां सम्यग्दृष्टिनुं ज्ञानमात्र, पछी ओ संशय होय तो पण, प्रमाण ज गणातुं हतुं. माटे व्यञ्जनावग्रहने पण प्रमाण ज गणवामां आवे तेमां नवाई नथी.३ आगमिक व्यवस्था मुजब अप्रमाण तो मिथ्यादृष्टिर्नु ज ज्ञान हतुं; जे विषयग्रहणनी दृष्टिले साचं पण होई शके. जो के आनी पाछळ पण ओक चोक्कस तर्कदृष्टि तो काम करती ज हती, पण अने ज्ञानना स्वरूप साथे सीधी लेवादेवा नहोती. __ तार्किकयुगमां 'जेनाथी वस्तुनो यथार्थ निश्चय थाय ते प्रमाण' आवा तात्पर्यवाळी प्रमाणव्याख्याओ बंधाई. आमां प्रमाणव्यवस्था विषयग्रहण पर निर्भर हती. माटे तेमां वस्तुनिश्चयथी रहित व्यञ्जनावग्रह के तत्स्थानीय अक्षार्थयोगने प्रमाण गणवानी गुंजाईश ज नहोती. १. प्र.मी. – १.१.२९ टीका २. आ कारणनी अयथार्थतानी चर्चा माटे जुओ पृ. ३६ ३. जो के तार्किकयुगमां पण आगमिक आचार्यो 'व्यञ्जनावग्रह अप्रमाण होय तो तज्जन्य ___ अर्थावग्रहादि तमाम ज्ञानो अप्रमाण बनशे' अवा तर्कना आधारे व्यञ्जनावग्रहने प्रमाण गणावता हता. ४. आ तर्कदृष्टि माटे जुओ वि.भाष्य गाथा ११५
SR No.520555
Book TitleAnusandhan 2011 02 SrNo 54
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages209
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy