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निवेदन
'संशोधन'नो एक मतलब थाय 'अभिप्राय'. कोई प्रचलित/स्वीकृत धारणा परत्वे कोई शोधकनो मत ते अभिप्राय, ते संशोधन. आ अभिप्रायनी पृष्ठभूमां 'मान्यता' पण होय, अथवा 'समजण' पण होई शके. 'मान्यता'नी पाछळ 'आग्रह' वा 'ममत' होवानी सम्भावना, घणीवार, होय छे, जे संशोधकने ज नहि, संशोधनने पण हानि पहोंचाडनारुं तत्त्व छे.
__संशोधक, पोतानी शोधक दृष्टिना बळे, कोई तथ्य शोधे-उजागर करे, तो ते, ते तथ्यने प्रमाणो साथे रजू करे, अने साथे ज पोतानो अभिप्राय पण दर्शावे के 'मने आम लागे छे; मारी दृष्टिए आम जणाय छे'. परन्तु ते वखते अने ते बाबते,तेनी प्रस्तुतिमां 'आग्रह' के 'ममत' न ज होय. पूरा अभिनिवेश साथे पोतानो अभिप्राय आपी दीधा पछी पण, तेनुं आखरी वाक्य तो आq होय : ‘मने आम साचु लागे छे; बीजा जाणकारोनी दृष्टिए अने/अथवा विशेष प्रमाणो जडी आवे तो, आ वात अन्यथा पण होई शके छे.' वास्तवमां आ प्रकारनो अनाग्रह ज संशोधनमां तेम ज तेनी तथ्यतामां बळ पूरे छे.
जैन ग्रन्थकारोनी एक पद्धति/परिपाटी, आ सन्दर्भमां, याद आवे छे. एक शब्द के वाक्य के प्रतिपादन- अर्थघटन, एक आचार्ये अमुक रीते कर्यु होय, अने ते अंगे बीजा आचार्य द्वारा थतुं अर्थघटन भिन्न होय, तो ते आचार्य पोतानुं मन्तव्य नोंधीने लखे के 'तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्ति' - अर्थात्, अमने आवं समजाय छे, छतां आ विषयमा साचुं शुं ते तो ज्ञानीओ ज कही शके.' अनाग्रहनी आ स्थिति केवी समजभरेली लागे छे !
खरेखर तो, आग्रह अने ममत ए संशोधनविद्यानां प्रतिकूल तत्त्वो छे. पोतानी शोध, पोतानी समजण, पोतानी मान्यता दरेकने गमती ज होय छे. तेने खोटी ठरावनार के ठराववानो यत्न करनार पर वरसी/तूटी पडवानुं पण दरेकने मन थतुं ज होय. तेवी मल्लिनाथी करवामां कोई बाध/वांधो पण नथी; बल्के तेम करवाथी ज, कदीक, तथ्य सुधी पहोंचवामां मदद मळे छे. परन्तु, ते बधुं करवा