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१. तेणं समएणं
भारत के स्वर्ण युग का यह चित्रण है । यह कथा लगभग ढाई हजार वर्ष पहले की
उस समय भारत में दो प्रकार की राज्य-व्यवस्थाएं प्रचलित थीं। एक थी राजतंत्र की व्यवस्था और दूसरी थी गणतन्त्र की व्यवस्था। उस समय अनेक स्वतन्त्र राज्य थे । उनके अधिपति राजा कहलाते थे। धर्म, समाज-रचना और व्यक्तिगत हित में कहीं अवरोध न आए, इसकी चिन्ता राजा करता था और पूरी राज्य-व्यवस्था इन सबको सही संचालित करने के लिए कटिबद्ध थी। राज्यव्यवस्था के अनेक विभाग थे और प्रत्येक विभाग को एक कुशल व्यक्ति, जो राजनीति में निपुण होता था, सम्भालता था। वे सब मन्त्री कहलाते थे । राजा के लिए कुछेक मर्यादाएं थीं और इन मर्यादाओं का पालन उसके लिए अनिवार्य होता था । पूरा राज्य और राज्य की पूरी सम्पदा राजा की मानी जाती थी।
उस समय भारतवर्ष में अनेक छोटे-बड़े गणतन्त्र भी थे। गणतन्त्र की लहर सर्वत्र स्थिर नहीं हो पायी थी, फिर भी यत्र-तत्र गणतन्त्रों का अस्तित्व था। वे गणतन्त्र अनेक कुलों द्वारा शासित होते थे और जिन-जिन कुल का गणतन्त्र होता, वे उन्हीं के प्रतिनिधियों द्वारा संचालित होते थे। जनता की सर्व-सम्मति से ही कानून या मर्यादाओं का गठन होता था। जहां ये जन-प्रतिनिधि एकत्रित होते थे, उसे 'संथागार' कहा जाता था।
भारतवर्ष के बुद्धिशाली राजनयिकों ने यह तय कर रखा था कि ऐसी सभाओं के कामकाज को क्रियान्वित करने के लिए सर्व-सम्मति का होना अनिवार्य है। उनके मन में यह भय व्याप्त था कि कभी कहीं मूर्ख व्यक्तियों के बहुमत के निर्णय से जनता को कष्ट उठाना न पड़ जाए, इसलिए प्रत्येक संथागार में सर्वसम्मति से निर्णय लिये जाते थे । जब तक सभी सदस्य एकमत नहीं होते तब तक विषय का विमर्श, चिन्तन चलता रहता। सर्वानुमत की यह प्रथा धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक विषयों में भी प्रचलित थी।
उस समय पूर्व भारत में दस-ग्यारह छोटे-बड़े गणतन्त्र थे । इन सभी