Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 16
________________ योगसार- प्राभृत जा सकती है : वीरसेन, देवसेन, अमितगति (प्र.), नेमिसेन, माधवसेन और अमितगति (द्वि.) । धर्मपरीक्षा में उल्लिखित वंशावली वीरसेन से प्रारम्भ होती है, सुभाषितरत्नसन्दोह और आराधना में देवसेन से तथा पंचसंग्रह में माधवसेन से। यह वंशावली अमरकीर्ति रचित छक्कम्मोवएस (षट्कर्मोपदेश) नामक अपभ्रंश रचना (सं. १२४७, ११६० ई.) में पाँच पीढ़ी आगे बढ़ी हुई पायी जाती है, जो इस प्रकार है : अमितगति, शान्तिषेण, अमरसेन, श्रीषेण, चन्द्रकीर्ति और अमरकीर्ति (हीरालाल जैन, 'अगरकीर्ति गणि और उनका षट्कर्मोपदेश', जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग-२, किरण ३, पृ. ८१ आदि, आरा, १६३५ तथा ना प्रेमी जैन साहित्य और इतिहास, द्वि. सं. पृ. २७८, बम्बई, १९५६ ) । अन्य ग्रन्थों में द्वात्रिंशिका, तत्त्व-भावना एवं योगसार प्रामृत में अमितगति का केवल नाम मात्र उल्लिखित है। स्वभावतः प्रश्न उत्पन्न होता है कि ये रचनाएँ अमितगति प्र. द्वारा रचित हैं अथवा अमित गति द्वि. द्वारा। जहाँ तक यो.सा.प्रा. का सम्बन्ध है इसमें अमितगति द्वि की रचनाओं में दी गयी वंशावली नहीं पायी जाती। दूसरे यो. सा. प्रा. के कर्ता ने अपने लिए 'निःसंगात्मा' का विशेषण लगाया है और अन्ततः अमितगति द्वि ने अपने पूर्ववर्ती अमितगति प्र को व्यक्तनिःशेषसंग (सु.र.सं. ३२ ३७ या ६१५) पद से विभूषित किया है। इन संकेतों के प्रकाश में यह अनुमान करना उपयुक्त है कि यो. सा. प्रा. के कर्ता अमितगति प्र. ही हैं जिनके अन्य महान् गुणों की प्रचुरता से अमितगति द्वि ने स्तुति की है (सु.र.सं. ६१६, ध.प. (प्रशस्ति ३ तथा प्रशस्ति १५ ) । १४ अमितगति प्र. ने यो.सा. प्रा. की समाप्ति के काल का निर्देश नहीं किया है। अमितगति दि. ने अपने सु.र.सं. को संवत् १०५० में जब राजा मुंज सिंहासनारूढ थे, ध.प. को सं. १०७० में, तथा पं. सं. को सं. १०७३ में पूर्ण किया था क्योंकि अमितगति प्र उनसे दो पीढ़ी पूर्व हुए थे अतः उन्हें वि.सं. की ११वीं शती के प्रारम्भ में अर्थात् १०वीं शती ई. के मध्य में रखा जा सकता है। पं. जुगलकिशोर जी ने यो.सा.प्रा. का संस्करण निम्नलिखित सामग्री के आधार से प्रस्तुत किया है: (१) मुद्रित प्रति (प्रका. पन्नालाल बाकलीवाल, कलकत्ता १६१८) । (२) महावीर भवन जयपुर के आमेर भंडार के क्रमांक ८३६ व ८३७ की हस्तलिखित प्रतियाँ इनमें से अन्तिम प्रति अपूर्ण है और उसमें सं. १५८६ का उल्लेख है। दोनों प्रतियों के हाशियों पर कुछ टिप्पण हैं । (३) ब्यावर की एक हस्तलिखित प्रति । विद्वान् सम्पादक ने इन हस्तलिखित प्रतियों का आवश्यक विवरण दिया है तथा उनमें उल्लिखित कुछ विशेष बातों का विवेचन किया है। इनमें एक विषय यह भी है कि क्या प्रस्तुत ग्रन्थ पर तत्त्वदीपिका नाम की कोई टीका भी थी, इत्यादि । यो.सा. प्रा. नौ अधिकारों में विभाजित है, जिनके विषय इस प्रकार हैं १. जीव (५६ पद्य), २. अजीव ( ५० पद्य), ३. आस्रव (४० पद्य), ४. बन्ध (४१ पद्य), ५. संवर ( ६२ पद्य), ६. निर्जरा (५० पद्य), ७. मोक्ष (५४ पद्य), ८. चारित्र (१०० पद्य) एवं ८ चूलिका (६४ पय) | यो.सा. प्रा. की रचना पद्यों में हुई है जिनकी कुल संख्या ५४० है । इनमें से ५२४ पद्य अनुष्टुप् या श्लोक छन्द में हैं और स्पष्टतः यही इस रचना का प्रमुख छन्द है । शेष १६ पद्यों के छन्द निम्न प्रकार हैं : मालिनी ( १.५६), उपजाति (२.५०), शार्दूलविक्रीडित ( ३.४०, ६.८२), हरिणी ( ४.४१ ), स्वागता (५.६२), मन्दाक्रान्ता (६. ४६-५० ६.६३), पृथ्वी (७.५४), वंशस्थ (८.६६), शालिनी (६.८०) खग्धरा (८.१००, ६.६१) तथा रथोद्धता (२.४६, ६.८४ ) । प्रत्येक सर्ग के अन्त में अपेक्षाकृत कुछ लम्बे वृत्त का प्रयोग करना महाकाव्यों की सामान्य स्वीकृत सरणि रही है और प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता ने भी अपने अधिकारों में उसी का अनुसरण किया है। अधिकारों के शीर्षकों से स्पष्टतः ज्ञात होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन धर्म के मूल तत्त्वों का आत्मानुभव के एक उच्चतर स्तर से व्याख्यान किया गया है। प्रथम अधिकार में जीव-तत्त्व के पूर्ण विशद व्याख्यान के साथ ही दर्शन और ज्ञान के स्वरूप तथा ज्ञान के प्रकारों एवं ज्ञान के ज्ञेय के साथ सम्बन्ध का विवेचन हुआ है योगी का ध्येय विविक्तात्मा का अनुभव करना है। द्वितीय अधिकार में पांच अजीव द्रव्यों, उनकी सत्ता तथा उत्पाद व्यय एवं श्रीव्य और उनके आनुषंगिक गुणों व पर्यायों का व्याख्यान है। इनमें प्रत्येक विषय का पूर्णतः स्पष्टीकरण किया गया है तथा अधिकार के अन्त में कर्म-पुद्गल, उसके स्वरूप एवं उसके आत्मा के साथ सम्बन्ध का विवेचन है । तृतीय अधिकार में आस्रव के कारणों और विविध परिणामों को आलोचनात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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