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जिस भगवान को पाने के लिए शेष, गणेश, महेश, दिनेश, रात-दिन अनुष्ठान, पूजा-अर्चना करते रहते हैं, उन्हीं भगवान को अहीर की छोहरियाँ, छछिया भर छाछ के लिए नाचने पर मजबूर कर देती हैं। प्रेम का जादू ही ऐसा है। उसका तो खेल ही प्रेम का खेल है।
जहाँ मामला प्रेम का आ जाए उसमें केवल लैला-मजनूं, हीर-रांझा की विरह-व्यथा ही नहीं छिपी है बल्कि प्रेम में राधा-कृष्ण का आनन्द भी छिपा हुआ है। प्रेम में कृष्ण और सुदामा के सत्तू भी छिपे हैं। प्रेम में नेम और राजुल की वैराग्य-कथा भी है। प्रेम के हजार रूप होते हैं और अन्तत: व्यक्ति को प्रेम की शरण में आना ही पड़ता है। विरागी वही बना हुआ घूमता है जिसने अभी तक प्रेम का सच्चा रस, सच्चे प्रेम का सुख और सच्चा आनंद नहीं चखा।
पुत्र से, पत्नी से जुड़ा हुआ प्रेम सामान्य कोटि का प्रेम है। यही प्रेम जब माँ से जुड़ता है तो वह प्रेम का पवित्र रूप हो जाता है। माँ से हटकर जब यह गुरु से जुड़ जाता है तो प्रेम का उच्च रूप प्रकट होता है। लेकिन जब यह प्रेम परमात्मा से जुड़ जाता है तो वह प्रेम प्रेम नहीं रहता बल्कि वह तो किसी मीरा के पैरों की पाजेब बन जाता है। वह प्रेम सामान्य प्रेम नहीं रहता-पग धुंघरू बांध मीरा नाचीरे।' तब कोई मीरा वृन्दावन की कुंज-गलियों में पांव में धुंघरू बाँध कर नृत्य करने लगती है उसके नाम पर ! 'मैं तो मेरे नारायण की आप ही हो गई दासीरे। लोग कहे मीरा भई रे बावरी न्यात कहें कुलनासीरे पग धुंघरू बांध मीरा नाचीरे।' जगभले ही उसे कुलनाशी कहे या समाज अपनी जाति से उसे बाहर निकाल दे लेकिन जिसके हृदय में परम पिता परमात्मा के प्रति प्रेम की हिलोर उठ चुकी है, ऐसी मीरा दुनिया की परवाह नहीं करती। प्रेमदीवानी हो जाने पर तो राजुल, नेमि के पथ का अनुसरण कर लेती है तो कोई मीरा कृष्ण-कृष्ण रटते वृन्दावन की गलियों की खाक छानती फिरती है।
सौभाग्य कहाँ सहगमन करूँ, अनुगमन करूँ ऐसा वर दो।
जो हाथ, हाथ में नहीं दिया, वो हाथ शीश पर तो धर दो। राजुल व्यथित हो उठती है कि यदि आपने अपना हाथ मेरे हाथ में नह। दिया तो कम से कम माथे पर ही उसे रख दो। कौन समझेगा प्रेम की आत्मा
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वाह! ज़िन्दगी
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