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साथ ही साथ घर को भी खोखला कर देता है। शायद तालाब में डूबकर मरने वालों की संख्या कम होगी पर शराब की प्याली में डूबकर मरने वालों की संख्या अधिक होगी। मजदूर मेहनत करके पैसा कमाना तो चाहता है, लेकिन शराब से दूर न रह पाने के कारण वहीं का वहीं रह जाता है। वह बच्चों को पढ़ा नहीं पाता, बच्चे दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाते हैं, पत्नी चौकाबर्तन करके जो कुछ कमाती है, उसे भी वह हड़प लेता है।
शराब ने लोगों के नजरिये को बदल दिया है। आज का युवा मौजमस्ती के लिए शराब पीने लगा है। धीरे-धीरे वह मस्ती व्यसन में बदल जाती है और शराब व्यक्ति को पीने लगती है। उसे शराब ही ईश्वर नजर आती है। मैं सरकारों को सलाह देना चाहूँगा कि देश के जितने भी ट्रस्ट हैं, उनकी पूंजी या आय का पच्चीस प्रतिशत हिस्सा मानव-सेवा के कार्यों के लिए अनिवार्यत: खर्च किया जाए, ऐसा अधिनियम बना दें। उन संतों और महंतों से भी, जिन्हें धन-सम्पत्ति रखने की छूट है, अनुरोध करूँगा कि वे अपने जीवन में त्याग की यशोगाथा को जोड़ते हुए मानवता की सेवा के लिए धन अर्पित करें। बैंकों में तो उनके करोड़ों रुपये जमा हैं लेकिन वे किस काम के, अगर उनका मानवता के लिए उपयोग न हो सके? अगर उनके पैसे किसी सद्गृहस्थ के पास अथवा स्वयं के पास रह कर भी किसी के शुभ कार्य के लिए नहीं हैं तो उनके उन पैसों का क्या उपयोग? दोनों ही स्थितियों में धन बेकार हो गया। फिर क्यों न उसका सदुपयोग कर लें। कोई अस्पताल, कोई विद्यालय या ऐसी कोई परोपकारी संस्था का निर्माण करवाएँ जो भले ही तुम्हारे नाम से हो तो भी उनसे कल्याण-कार्य तो हो ही जाएगा। किसी ऐसे बैंक की स्थापना की जाए जिसमें धार्मिक ट्रस्टों का पैसा जमा हो और उसमें से निर्धन व जरूरतमंद को
आत्म-निर्भर बनाने के लिए पैसा दिया जा सके। हर समाज अपनी-अपनी बैंक स्थापित कर ले और अपने समाज के कल्याण व उत्थान के लिए काम करे। जब हम सामूहिक प्रयास करते हैं तो देश व समाज की विपन्नता दूर होगी
और हम एक सुख-सम्पन्न देश व समाज की रचना कर सकेंगे। दूसरा प्रश्न है : इस अध्यात्म-प्रधान देश में नित्यप्रति उपदेश और पूजाअर्चना होते रहते हैं। भागवत, रामायण और गुरुग्रंथ साहब का वाचन भी
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वाह! ज़िन्दगी
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