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होता आ रहा है, पर इसके बावजूद दिनों-दिन आम जन-मानस का नैतिक पतन बढ़ता जा रहा है। कहते हैं कि धर्म की हानि होने पर महापुरुष का जन्म होता है, तो क्या अभी जो हिंसा का तांडव नृत्य हो रहा है, क्या यह कम है? क्या इसके और अधिक बढ़ने ही पर महापुरुष अवतार लेंगे?
(बाबूलाल पानगड़िया) अगर धर्मशास्त्र यह व्यवस्था देते हों कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का पल्लवन होता है तब-तब भगवान धर्म की संस्थापना के लिए अवतार लिया करते हैं। यदि यह बात सच है तो मैं कहना चाहूँगा कि हमारे लिए वर्तमान संतोषप्रद है क्योंकि अभी भगवान ने अवतार नहीं लिया है। इसलिए कहा जा सकता है कि मनुष्य अभी नैतिक रूप से उतना पतित नहीं हुआ है जितनी कि ईश्वर अपने अवतार के लिए कल्पना करते हैं। इसलिए हमारा वर्तमान हमारे लिए संतोषप्रद है। ऐसा नहीं है कि पतन के दरवाजे आज ही खुले हों। सच्चाई तो यह है कि धरती पर कभी ऐसा वक्त रहा ही नहीं है जब मनुष्य के द्वारा अपनी नैतिकताओं का अतिक्रमण नहीं हुआ हो। वर्तमान तो अतीत का परिष्कार है, पुनर्संस्करण है। मनुष्य वे गलतियाँ नहीं दोहराता जो उसने अतीत में की हों। इसलिए जो वर्तमान हमें उपलब्ध है, वह बीते हुए कल का एक नया और सुधरा हुआ रूप है।
मनुष्य की यह पुरानी आदत है कि वह अतीत को हमेशा गरिमापूर्ण मानता आया है और वर्तमान की हमेशा उपेक्षा करता रहा है। आखिर मनुष्य के काम तो वही आएँगे जो आज हमारे पास उपलब्ध हैं। ऐसा नहीं है कि लोग आज ही शराब पीते हों, आज ही भ्रष्टाचार करते हों, बलात्कार करते हों। अतीत में भी ऐसा होता आया है। मुझे तो लगता है अतीत आज से भी बदतर था कि समाज में नारी को हाट-बाजार में खड़ी करके सरेआम बेच दिया जाता था। इन्सान को गुलाम बनाकर ताज़िंदगी उसके साथ पशुवत् व्यवहार किया जाता था। इतना ही नहीं, एक-एक व्यक्ति के दस-बीस पत्नियाँ होती थीं। नारी का भरी सभा के बीच चीर-हरण भी होता था। आप इसे प्रतीक मानें।
महाभारत, रामायण, भागवत, गुरु-ग्रंथ में आये प्रसंग और दृष्टांत भी तो प्रतीक ही हैं। उस वक्त ही जब राजसभा में चीर-हरण हो सकता था तो आम व्यक्ति की हालत क्या रही होगी? वर्तमान अपने पर गौरव करे कि आज
ऐसे मिटेगी, देश की ग़रीबी
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