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घर का माहौल अच्छा हो, नेक हो, प्रेमपूर्ण हो।
बच्चों को संस्कार देना है तो पहला काम उन्हें स्वावलम्बी और अनुशासनप्रिय बनाने का करें। ‘कान खोलकर सुन ले, चुल्लू भर पानी में डूब मर, दफा हो जा मेरी आँखों से, नालायक कहीं का', इस तरह की कर्कश भाषा न बोलें। बच्चा तुतलाए तो उसे चिढ़ाएँ नहीं। भाषा को सुधारने की प्रेरणा दें। आजकल शादी-ब्याह की पत्रिका में एक लाइन जरूर छपी मिलती है-'मेले चाचूकी सादी पेजलूल आना।' भले ही लोग इसे मज़ाक में लिखते हों, पर यह स्वस्थ परम्परा नहीं है। कोई तुतलाता बोलता है, तो बड़े कहते हैं, 'बोल जूता।' बच्चा बोलता है 'तूता'। बड़े कहते है 'बोल रोटी' । वह बोलता है लोती'। तभी आप टिप्पणी करते हैं, यह तोतू है, छोटू नहीं। क्यों भई तोतू? तुतलाना बच्चे की कमज़ोरी भी है और मज़बूरी भी पर अपने बारे में तोतू सुनना बच्चे की मानसिकता को दुष्प्रभावित करता है।
अगर आपका बेटा टॉप नहीं कर रहा है तो उसका कान न मरोड़ें। अपनी महत्वाकांक्षा की हम्माली करने का जिम्मा उस पर मत डालिये क्योंकि आप भी टॉप पर नहीं आए थे। जो आप न कर सके उसकी आकांक्षा बच्चे से पूर्ण कराने की अपेक्षा न रखिये। अपने घर में स्वस्थ वातावरण रखिये। अगर आप शोरगुल करते हैं या चिल्लाते हैं तो बच्चा भी आपको देखकर ही ऐसा कर रहा है। कहीं-न-कहीं से तो यह भाव उसके भीतर आया ही है।
फिर भी उसे कुछ सिखाना ही है तो उसे मारो-पीटो मत। पिटकर आज तक कोई बच्चा नहीं सुधरा है। आप उसे प्यार से समझाएँ। प्यार से बढ़कर कोई,अमानत नहीं होती, प्यार से बढ़कर कोई दौलत नहीं होती, प्यार से बढ़कर संस्कार देने का कोई स्वरूप नहीं होता। काणे को काणा कहें तो उसे बुरा लगता है। घमंडी को घमंडी कहने से, क्रोधी को क्रोधी कहने से बुरा लगता है। इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वे पहले आदर्श प्रस्तुत करें। बच्चे तो गीली मिट्टी के समान हैं। उन्हें आकार प्रदान करना तो आपके हाथ में है। आपमें अगर दुर्व्यसन हैं तो बच्चे निर्व्यसनी कैसे रह पाएँगे? आप उन्हें उनके उत्तरदायित्व का अहसास कराइए, उन्हें सही मार्गदर्शन दीजिए। उनकी प्रतिभा को पहचानकर उसके विकास में सहायक बनिए। उन्हें समझ विकसित
ऐसे मिटेगी, देश की ग़रीबी
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