Book Title: Wah Zindagi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 69
________________ ध्यान-अध्यापक हाकूजू ने उसकी सारी मनोदशा समझी और कहा, 'ओनामी, तुम्हारी समस्या केवल बच्चों का खेल है। तुम अगर चाहो तो आज की रात में ही अपने मनोबल को पुनः पा सकते हो। मुझे तो तुम्हारे भीतर एक महान् सागर और सागर में एक महा तरंग उठती हुई दिखाई दे रही है। मुझे लगता है कि तुम्हारे भीतर इतना सामर्थ्य है कि देश तो क्या, पूरा विश्व ही इस सामर्थ्य के सम्मुख नतमस्तक हो सकता है। तुम मेरे साथ मेरे श्राइन (ध्यानकक्ष) में चलो। मैं आज की रात तुम्हें ऐसा ध्यान करवाता हूं ताकि तुम अपने खोये मनोबल को प्राप्त कर सको ।' ध्यान - कक्ष में पहुँचकर हाकूजू ने ओनामी से कहा, 'तुम ध्यान करो और ध्यान भी केवल सागर की तरंगों का । अपने भीतर देखते चले जाओ कि सागर की तरंग उठ रही है। उस तरंग के साथ तुम इतने एकलय हो जाओ कि वह तरंग बढ़ते-बढ़ते महातरंग हो जाए। तुम सागर की महातरंग हो और उसी रूप में स्वयं को देखने की कोशिश करो।' कहते हैं कि ओनामी ध्यान करने बैठा लेकिन रात के तीन पहर बीत जाने के बाद भी न तो उसका ध्यान में मन लगा और न ही आँखों के आगे कोई सागर उमड़ा और न ही उसकी मानसिकता में सागर की कोई तरंग लहराई । चौथै पहर में अचानक उसने पाया कि उसके भीतर सागर की लहर उठ रही है । उसने अपनी एकाग्रता को उस तरंग पर स्थित किया। तरंग उठती रही और उसी तरंग ने महातरंग का रूप ले लिया । ओनामी ने पाया कि वह महातरंग उस तक या उसके मनोमस्तिष्क तक ही सीमित न रहकर उसके बाहर भी आती जा रही है। महातरंग की चपेट में वह ध्यान कक्ष भी आ चुका है। उसने देखा कि पूरा मठ, पूरा आश्रम, गाँव, नगर, पूरा देश और पूरा विश्व ही महातरंग की चपेट में आता जा रहा है। उस महातरंग के घेरे में बड़े-बड़े दानव, बड़े-बड़े जहाज, बड़े से बड़े सूमो पहलवान आते चले आ रहे हैं और धराशायी हो रहे हैं । तभी हाकूजू उस श्राइन में प्रविष्ट हुए और उन्होंने देखा कि ओनामी के चेहरे पर अद्भुत चमक और आभा है। उन्होंने जान लिया कि यह आभा ओनामी के आत्म-विश्वास की है । हाकूजू ने उसके सिर पर हाथ रखा, पीठ वाह ! ज़िन्दगी ६२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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