Book Title: Wah Zindagi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 42
________________ धूल मांगी और कहा, 'यह धूल अगर पानी में घोलकर कृष्ण को पिला दी जाय तो उनका पेट दर्द जाता रहेगा।' गोपियों ने कहा, 'बस इतनी सी बात! और उसे कहने में तूने इतना संकोच किया? अरे लाओ, तुम अपना अंगोछा नीचे रख दो। एक-दो गोपिका तो क्या पूरे वृन्दावन की गोपिकाएँ तुम्हारे अंगोछे पर धूल छिटकने को तैयार हैं।' हर गोपिका ऊधौ के अंगोछे पर आती चली गई और मिट्टी के कण उस पर झरते गए। ____ऊधौ ने कहा, 'अरे गोपिकाओ, तुम यह क्या कर रही हो? इससे तो तुम्हें सातवें नरक में जाना पड़ेगा।' गोपिकाओं ने कहा, 'अपने भगवान के लिए सातवीं नरक तो क्या, सात जन्म भी अगर नरक में बिताने पड़ें तब भी ये गोपिकाएँ पीछे नहीं हटेंगी। भगवान ने माँगा है, यह तुम क्या जानो कि उन्होंने चरण की धूल मांगकर हम से क्या चीज मांग ली है? तुम नहीं समझते इसीलिए उन्हें माखनचोर' कहा करते हो। हक़ीकत यह है कि जिसके भाग्य सँवारने होते हैं, उसी की दहलीज़ पर पहुँचकर भगवान माखन चुराया करते हैं। जिस पर भगवान की कृपा होती है वे उसी की मटकी फोड़ते हैं। तुम्हें लगता है कि वे मटकी फोड़ते है किन्तु नहीं, वे तो उसके पापों की मटकी फोड़ते हैं। जिस पर उनका रहम होता है, उन्हीं के पापों की मटकी वे फोड़ते हैं।" यह प्रेम का मार्ग है, केवल समझने वाले ही इसे समझ सकते हैं। सूफी संत तो प्रेम को ही अपनी सम्पूर्ण साधना का मंत्र मानते हैं। वे खुद को मजनूं और भगवान को लैला मानते हैं। मुझे तो हीर-रांझा, लैला-मजनूं, शीरीफरहाद की कहानियाँ बहुत प्रतीकात्मक लगती हैं क्योंकि उनमें एक ओर हम, दूसरी ओर भगवान होते हैं। उसके लिए बड़ी गहन प्यास होती है कि उसे पाने के लिए भगवान खुद मजनूं बन जाते हैं। एक बार यूनान के बादशाह ने मजनूँ से कहा, 'तू दिन-रात लैला-लैला पुकारता रहता है, आखिर तेरी लैला में ऐसा क्या है? मेरे पास तो हजारों रूपसियाँ हैं, तुम मेरे महल में आ जाना तुम्हें लैला दे दूंगा।' दूसरे दिन वह महल में पहुंच गया। बादशाह ने सोचा, 'लगता है यह मेरी बातों में आ गया है। इसे लैला से कोई लेना-देना नहीं है।' उसने कई लड़कियों को खड़ा कर दिया और कहा, इनमें से जो तुझे पसंद आए, पसंद कर ले। मैं उससे तेरा आइए, प्रेम की दहलीज पर ३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114