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महाभारत' की रचना की।' अमरचन्द्र अपनी प्रतिभा तथा आशुकवित्व के लिए विद्वद्गोष्ठी में पर्याप्त रूप से विश्रुत है। वे श्वेताम्बर मतानुयायी जैन महाकवि थे। उन्होंने गुरु के रूप में जिनदत्तजी का स्मरण किया है। अमरचन्द्र के ही समकालीन अरिसिंह हुए। दोनों ही कवियों में बड़ा सौहार्द था जिसके फलस्वरूप अमरचन्द्र ने 'सुकृतसङ्कीर्तन' के प्रत्येक सर्ग में चार नए पद्यों की रचना कर जोड़ा है। साहित्यजगत में इन दोनों की सम्मिलित रचना 'कवि कल्पलता' है।
___ इसके अतिरिक्त अमरचन्द्र ने 'पद्मानन्द महाकाव्य' की रचना भी की है जिसमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव का वर्णन है। अमरचन्द्र की अलौकिक वैदुषी, आशुकवित्व तथा प्रखर तेजस्विता के अनेक आख्यान प्रभावक चरित और प्रबन्धकोष (रचनाकाल 1405 विक्रमी, 1348 ई.) में तो अमरचन्द्र के विषय में सारस्वतमन्त्र की सिद्धि बताने वाला एक स्वतन्त्र प्रबन्ध ही पाया जाता है। इनकी 'वेणीकृपाण' उपाधि रही है। कवि अमरचन्द्र गुजरात के चालुक्यवंशी प्रतापी नरेश वीसलदेव के सभाकवि थे जिनका समय विक्रमी 1300-1320 (तद्नुसार 1243-1263 ईस्वी) माना जाता है। वीसलदेव के विश्रुत प्रधानामात्य वस्तुपाल भी अमरचन्द्र के उपदेशों को सुनने के लिए उनके पास जाया करते थे। ऐसे में अमरचन्द्र का समय 13वीं सदी का मध्यकाल (1220-1270 ई.) माना जा सकता है।
उक्त सङ्केत से इस अनुश्रुति की प्रामाणिकता सिद्ध होती है कि अमरचन्द्र कवि, गुजरात के राजा विसलदेव के दरबार में उसके बुलाने से धोलका-गुजरात आए थे। विसलदेव ने गुजरात पर अणहिलवाड़ में रहकर संवत् 1300 से 1317 तक राज्य किया। उसके पहिले वह संवत् 1295 में धोलका की गादी पर बैठा था। विसलदेव के काल में अमर कवि धोलका आए थे और श्रीजिनदत्त सूरि उनके गुरु हुए तो तेरहवीं शताब्दी में श्रीजिनदत्तसूरि का होना निर्धारित करें तो अनुचित नहीं होगा।
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1. काव्यमाला (निर्णयसागर, मुम्बई 1894; ग्रन्थाङ्क 45) में प्रकाशित 2. बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ 210, 277 एवं 304 3. कवि ने बालभारत में वेणीकृपाण उपमा का प्रयोग किया है कि महादेव ने कामदेव को भस्मीभूत
तो कर दिया किन्तु दधि मथती हुई रमणियों की वेणी को इधर-उधर घूमती देखकर यही प्रतीत होता है कि कामदेव वेणी के रूप में तलवार चला रहा है। शिवजी के द्वारा पराभूत हुए अपने बाणों को छोड़कर मदन ने यह नवीन और अधिक समर्थ व तीव्र प्रहार करने वाला आयुध धारण किया है - दधिमथनविलोलल्लोलहग्वेणिदम्भात् अयमदयमनङ्गों विश्वविश्वैकजेता। भवपरिभवकोपत्यक्तबाणः कृपाणश्रममिव दिवसादौ वयक्तशक्तिर्व्यनक्ति॥ (बालभारत. आदिपर्व
11, 6) 4. बलदेव उपाध्याय : उपर्युक्त, पृष्ठ 252