Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 8
________________ दो शब्द सम्वत् १९९४ वें की बात है कि रावलपिंडी का चातुर्मास करके जीरा भाये हुए थे। अन्तकृतसूत्र पर टीका लिखने का कार्य समाप्त हो चुका था और कोई विशेष लेखनकार्य सामने न था। ___एक दिन विचार भाया कि व्याकरण का विषय बड़ा ही गम्भीर है। हजारों विद्यार्थी पढ़ते पढ़ते हताश हो जाते हैं और न इधर के रहते हैं न उधर के। पंचतंत्र नामक प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ के रचयिता विष्णुशर्मा ने भी 'द्वादशभिर्वर्षे याकरणं श्रूयते' लिख कर व्याकरण का काठिन्य बहुत पहले से ही कथन कर दिया है। जब प्राचीन काल में ही यह हाल था तो आज के युग की कुछ पूछिये ही नहीं। विद्यार्थी व्याकरण से इस प्रकार डर कर भागते हैं, जैसे सिंह से मृग। व्याकरण में भी कारक का विषय बड़ा ही गहन है। विभक्तियों की उलझन में उलझा हुमा विद्यार्थी होशोहवास भूल जाता है। विभक्तियाँ कौन कौन सी हैं ? कौन किस सदाहरण में प्रयुक्त होती है ? कौन किस की अपवाद है ? कौन कहाँ नित्य होती है और विकल्प कहाँ ? इत्यादि प्रश्नों ने विभक्ति प्रकरण को बहुत जटिल बना रक्खा है। तभी तो पण्डितवर्ग में एक कहावत चल रही है कि'कारक बड़ा कठोर कण्ठ नहीं होवे।' अतएव विचार किया कि विभक्ति प्रकरण के सम्बन्ध में कुछ सरल भौर स्फुट भाषा में ऐसी पुस्तक लिखनी चाहिए, जिससे विद्यार्थीवर्ग की कठिनाइयाँ कम हों और वे विभक्ति-सम्बन्धी भावश्यक ज्ञान प्राप्त कर सकें। इसी विचार का परिणाम प्रस्तुत पुस्तक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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