Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 217
________________ महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [पञ्चमः सर्गः जगौ च सरलायेदं पुत्रोऽयं तव तिष्ठतु / मदभ्यर्णे तव गृहे न युक्तोऽयं विषाङ्कुरः // 741 // दुश्चेष्टितैः पराभूतो नष्टः पुण्योदयोऽथ मे / श्रेष्ठिना प्रतिपन्नं तद् वचनं भूपतेस्तदा // 742 // स्थितो धिक्कारनिहतो दोनोऽहं राजमन्दिरे / शान्ते बहुलिका-स्तेये राजदण्डभयाद् मम / / 743 // तथापि सर्वकार्येषु लोको मां परिशङ्कते / मय्येवान्यकृतं चौर्य दत्ते प्रत्येति नो वचः // 744 // विद्यासिद्धेन केनापि राज्ञः श्रीगृहमन्यदा / मुषितं लक्षितो नासौ दोषो मय्येव सोऽर्पितः // 745 / / ततोऽहं गाढरुष्टेन राज्ञा बाढं कदर्थितः / सरलस्यापि वचनं नादत्तं तीव्रतेजसा // 746 // उल्लम्बितोऽहं विरटन् जीर्णा प्राग् गुटिका मम / भवितव्यतया दत्ता गुटिकाऽभिनवा ततः // 747 // गतः पापनिवासायां नगर्यामन्त्यपाटके / तत्रानुभूय दुःखानि गुटिकान्तरलाभतः // 748 // पञ्चाक्षपशुसंस्थाने पुरे गत्वा गतस्ततः / मुक्त्वाऽसंव्यवहाराख्यं सर्वेषु नगरेष्वहम् / / 749 // प्राप्तो वहुलिकादोषात् तिर्यग् स्त्रीत्वमनन्तशः / ताभ्यां मे पापमित्राभ्यां स्थाने स्थाने न किं कृतम् ? // 750 // निगदति भवजन्तावित्यदो धीविशाला, मुकुलितभवभीतिश्चिन्तयामास चित्ते / ... अहह ! भुवि दुरन्तः स्तेय-मायाविकारस्त्यजति तदपि नैते बोधहीनो मनुष्यः // 751 // कथमयमनुभूतानन्तजन्मप्रतानः, प्रभवति गुटिका का स्त्री किमस्य प्रतीपा / किमिदमखिलमन्ताममित्राद्यनेनोदितमिति हृदि भव्यो विस्मितस्तिष्ठति स्म // 752 // कलयति मुखरागाद्धीविशालैनमर्थ, रहसि तदिदमस्याः प्रश्नयिष्यामि पश्चात् / इति मनसि स दध्यावागमो वेत्ति सर्व, सदसि सुललिता नु स्मेरनेत्रा शृणोति // 753 // भवजन्तुरुवाचाऽथ प्रोक्तोऽहं निजभार्यया / त्वयाऽऽर्यपुत्र! गन्तव्यमानन्दनगरेऽधुना // 754 // तुष्टास्मि त्वयि दत्तोऽयं सुहृत् पुण्योदयश्च ते / सहायः सागरश्चायं मूढतारागनन्दनः // 755 // तद्वचः प्रतिपद्याऽहं गुटिकां प्राप्य तादृशीम् / आनन्दनगरे ताभ्यां सहितो गन्तुमुद्यतः // 756 // इति सपदि निशम्य प्राणदौर्जन्यवार्तामपि च निचितगूढस्तेयमायाविपाकम् / य इह निभृतचित्तः स्यात् स्वतत्त्वप्रबुद्धः स भुवि शुचियशःश्रीः श्लाध्यभावं बिभर्ति // 757 // . // इति वैराग्यरतौ पञ्चमः सर्गः //

Loading...

Page Navigation
1 ... 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316