Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ 154 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता षष्ठः सर्गः एकं वा तदनेकं वेत्यप्रबुद्धेन भाषिते / जगौ यथास्थितं तत्त्वं सूरिरिगुणाकरः // 30 // " एक सामान्यतस्तद्धि नैकरूपं विशेषतः / सामान्यराज्ये संसारिजीवस्तत्र महानृपः // 301 // ज्ञानध्यानादिरत्नौधैः कोशस्तत्र भृतः स्मृतः / गाम्भीर्यौदार्यशौर्यायाः स्यन्दनास्तत्र सुन्दराः // 302 // गजाः सौष्ठवसौजन्यप्रभुत्वप्रणयादयः / वाग्मित्वमुख्यास्तुरगा दाक्षिण्याद्याः पदातयः // 303 // चारित्रधर्मनामा च राजते प्रतिनायकः / महानृपस्य संसारिजीवस्यातिहितावहः // 304 // तस्य मन्त्री च सद्बोधः सम्यक्त्वाख्यो महत्तमः / यतिधर्मस्तथा श्राद्धधर्मश्च तनयावुभौ // 305 // सन्तोषस्तन्त्रपालश्च सुभावाद्या महाभटाः / संसारिजीवसौराज्ये तल्लक्ष्मीः केन वर्ण्यते ? // 306 // भूमिस्तत्र महाराज्ये चित्तवृत्तिमहाटवी / पुराणि शुभ्रचित्तादीन्यस्यां राजन्ति कोटिशः // 307 // तस्यां तद्राज्यभुक्तौ च कषायाभिधळूषकाः / घातिकर्माख्यचरटा भ्रमन्तीन्द्रियतस्कराः // 308 // नोकषायाख्यलुण्टाका उपसर्गपरीषहाः / भुजङ्गा विलसन्त्युच्चैः प्रमादाः षिड्गसन्निभाः // 309 // तेषां द्वौ भ्रातरौ सर्वप्रधानौ परिकीर्तितौ / आधः कर्मपरिणामो महामोहो द्वितीयकः // 310 // .. दपिष्ठौ तौ च मन्येते भूरियं नः परेऽत्र के / कोऽयं संसारिजीवोऽस्ति ? को वा चारित्रधर्मकः ? // 311 // स कर्मपरिणामाख्यस्ततः सिद्धो महानृपः / रजस्तमोमुखान्येष नगराणि न्यवेशयत् // 312 // अस्थापयन्महामोहं पल्लिप्रायेषु तेषु सः / तस्य सर्वे बलं दत्त्वा स्वयं पश्यति नाटकम् // 313 // परं संसारीजीवस्य शक्तिमाकलयन्निव / चारित्रधर्मराजादिबलं पश्यन्निवातुलम् // 314 // तत्साम्राज्येऽपि नात्यन्तं निरपेक्षोऽवतिष्ठते / प्रणयं दर्शयत्येषां कुरुते चानुवर्त्तनम् // 315 // ततश्चारित्रधर्माद्यैर्मध्यस्थोऽयमिति श्रितः / जातः संसारिजीवस्य प्रष्टव्यः स्वप्रयोजने // 316 // तृणवद् मन्यते सर्व महामोहस्तु दोर्मदात् / बलं चारित्रधर्मादेः सर्वकषपराक्रमः // 317 // संसारिजीवो नो वेत्ति यावत् स्वां राज्यसम्पदम् / तावत् तदाज्यभुक्तिं स स्वीकृत्य हृदि माधति // 318 // यदा संसारिजीवस्तां पश्यति स्वीयसम्पदम् / स्वशत्रुणा तदा साई महामोहेन युध्यति // 319 // जायेते चाऽनयोयुद्धे मिथो जय-पराजयौ / पराजयमितं दुःखं सुखं च जयसम्मितम् // 320 // संसारिजीवः प्राप्नोति युद्धाभ्यासाद् यदाऽतुलम् / वीर्यं तदा निजं राज्यं गृह्णाति हतशात्रवः // 321 // ततस्तस्योन्मनीभावसमाधेर्ध्वस्तपाप्मनः / नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्मज्योतिः प्रकाशते // 322 // सामान्यराज्यसामग्री कारणं सुख-दुःखयोः / पालनापालनाजाता सेयमेकाऽपि तत्त्वतः // 323 // . विशेषतस्त्वनेकत्वं राज्यस्येत्थं विभावय / यः कर्मपरिणामाख्यो भूपतिः कीर्तितः पुरा // 324 // . सूनवस्तस्य चानन्तास्तेभ्यो दत्तमनेकताम् / इदमेव महाराज्यं याति पात्रविशेषतः // 325 // केषांचिद् दुःखहेतुस्तत् केषांचित् सुखकारणम् / इत्थं हि भोक्तृभेदेन भोग्यं राज्यं विभिद्यते " // 326 // अप्रबुद्धोऽवदत् " कर्मपरिणामसुतेष्वथ / कुर्वत्सु तेषु तद्राज्यं किमभूत् कस्य ? संदिश" // 327 // सिद्धान्तः प्राह " तेऽनन्ताः कियतां वक्तुमीश्महे / वृत्तान्तं तदतो विद्धि तद्भावं व्यक्तिसङ्ग्रहात् // 328 // षट पुत्रास्तस्य विद्यन्ते निकृष्टश्चाधमस्तथा / विमध्यमो मध्यमधीरुत्तमश्चोत्तमोत्तमः // 329 // .
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