Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ 207 श्लो० 370-428 ] वैराग्यरतिः। सूरिराह महाराज ! त्वरयाऽत्र कृतं तव / इयमेव हि सद्दीक्षा यन्मदुक्तस्य पालनम् // 400 // द्रव्यलिङ्गं हि भवता प्राग् गृहीतमनन्तशः / विनोक्तस्थितिमाप्तं तु न विशिष्टफलं ततः // 40 // कुर्वस्तिष्ठोपदिष्टं मे मा त्वरिष्ठास्ततोऽनघ ! / प्राह कन्दमुनिः स्वामिस्तद्विवाहे क्रमोऽस्य कः ? // 402 // सूरिराहाऽऽर्यपार्श्वेऽस्य मदुक्तमनुतिष्ठतः / विद्यां कन्यां समादाय सद्बोधः समुपैष्यति // 403 // ग्राहयित्वाऽस्य तां कन्यां पाणौ स्थास्यति सोऽन्तिके / ततो ब्रूते स यत् किञ्चित् तत्कार्यममुनेति दिग् // 404 // तैतस्तद्भगवद्वाक्यं स्वीकृत्य प्रणिपत्य तम् / गतोऽहं नगरे तस्योपदेशं कर्तुमुद्यतः / / 405 // मम तं कुर्वतः सम्यग् गच्छत्सु दिवसेष्वथ / अन्यदा भावनाभाजो निद्रा निशि समागता // 406 // प्रवृद्धा सा भावनया प्रबुद्धस्य तयैव मे / रात्रिशेषे ततो जातः प्रमोदो विस्मयावहः / / 407 // तदा समीपमायातः सद्बोधः प्रविलोकितः / दृष्टा मया च तत्पार्श्व सर्वाऽवयवसुन्दरा // 408 // विमर्शमालतीदामस्फुरत्सौरभसम्पदा / धारणावेणिदण्डेन लम्बमानेन राजिता // 409 / / आस्तिक्यवदना दीर्घप्रमाणनयलोचना / पीनवैराग्यसंवेगविशालस्तनमण्डला // 410 // आध्यात्मिकमनोवृत्तिस्तोमरोमालिराजिता / गम्भीरात्मज्ञतानाभिः शमचारुनितम्बभृत् // 411 // सदसख्यातिरम्योरुः शुचिवृत्ततपःक्रमा / लसत्परापरगुणानुरागकरपल्लवा // 412 // स्पृहणीयगुणोपेता हृदयानन्दकारिणी / कन्या विद्याभिधा धन्या स्नेहस्तिमितचक्षुषा // 413 // सा सद्बोधेन पाणौ मे ग्राहिता लञ्चिता निशा / प्रभाते भगवन्मूलं गतोऽहं सपरिच्छदः // 414 // वन्दिता मुनयः सर्वे पृष्टा निर्मलसूरयः / निशोदन्तमभूत् किं मे तादृशी वरभावना ? // 415 // किं वा तादृक् समुत्पन्नः प्रमोदो विस्मयावहः ? / भगवानाह भूमीश ! समाकर्णय कारणम् // 416 // तुष्टस्ते सदनुष्ठानात् स कर्मपरिणामराट् / गत्वा सविद्यः सद्बोधस्तेन प्रोत्साहितः स्वयम् / / 417 // यथा गच्छ भजस्वोर्वीवासवं गुणधारिणम् [गुणधारणम् / ततः स्वप्रभुमापृच्छ्य प्रस्थितोऽसौ तवान्तिकम् // 418 // ज्ञात्वा प्रवृत्तिमेनां च महामोहादयो द्विषः / पापोदयं पुरस्कृत्य चिन्तयांचक्रिरे मिथः / / 419 / / तदा जगाद विषयाभिलाषो निहता वयम् / सद्बोधो यदि संसारिजीवपार्चे व्रजेदयम् // 420 // सर्वेऽपि पथि कुर्वन्तु तत्तस्य स्खलनोद्यमम् / तदा पापोदयः प्राह किमार्य ! क्रियतेऽधुना // 421 // यत् कर्मपरिणामोपि जातः सद्बोधपक्षकृत् / पुरा हि बलवान् पक्षस्तबलेन बभूव नः // 422 // उदासीनोऽपि देवश्चेद् भवेदत्र बलद्वये / तदापि युज्यते योद्धुमस्माकमरिभिः समम् // 423 // इदानीं याति सद्बोधस्त पार्वे देवशासनात् / तन्नास्य स्खलनं युक्तं देवो दूरीकरोति नः // 424 // प्रस्तावं संस्थिता यूयं तल्लन्धुमधुनार्हथ / सद्बोधो यातु तत्पार्श्वे पश्चाद् विज्ञास्यतेऽखिलम् // 425 // इदमाकर्ण्य कुपितो ज्ञानसंवरणो नृपः / जगाद यदि तत्पार्श्वे सद्बोधो याति लीलया // 426 // जीवितेन तदा किं मे मलिनेनायशोभरैः ? / यूयं तिष्ठत तद् भीता यातव्यं तु मया ध्रुवम् // 427 // इत्युक्त्वा चलिते तस्य प्रतिस्खलनकाम्यया / ज्ञानसंवरणे राज्ञि सर्वेऽपि चलिता हिया // 428 // 1. ततो भगवतो वाक्यं तत् स्वीकृत्य प्रणम्य तम् //
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